देवसेना का गीत प्रश्न उत्तर, कार्नेलिया का गीत के प्रश्न उत्तर: Class 12 Hindi Chapter 1 question answer
Textbook | Ncert |
Class | Class 12 |
Subject | Hindi antra |
Chapter | Chapter 1 |
Chapter Name | देवसेना का गीत question answer,कार्नेलिया का गीत question answer |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
क्या आप Class 12 Hindi Antra Chapter 1 question answer ढूंढ रहे हैं? अब आप यहां से देवसेना का गीत प्रश्न उत्तर, कार्नेलिया का गीत के प्रश्न उत्तर कर सकते हैं।
देवसेना का गीत question answer, देवसेना का गीत प्रश्न उत्तर
प्रश्न 1: “मैंने भ्रमवश जीवन संचित, मधुकरियों की भीख लुटाई”-पंक्ति का भाव स्पष्ट कीजिए।
उत्तर 1: उक्त पंक्ति में कवि अपने जीवन की व्यर्थता और असंगत प्रयासों को व्यक्त कर रहा है। “भ्रमवश” का अर्थ है भ्रम में या अज्ञानता के कारण। कवि कहता है कि उसने अपने जीवन में भ्रमवश उन कार्यों में अपनी ऊर्जा और समय खर्च किया, जो वास्तव में सार्थक नहीं थे। “जीवन संचित” से तात्पर्य है जीवन भर संचित या अर्जित की गई शक्ति, अनुभव या संसाधन। “मधुकरियों की भीख लुटाई” का अर्थ है कि उसने यह सब ऐसे लोगों या कार्यों में व्यर्थ कर दिया, जो इसके योग्य नहीं थे या जिनसे कोई सकारात्मक परिणाम नहीं मिला। भावार्थ यह है कि जीवन में विचारशीलता और विवेक के बिना लिए गए निर्णय अंततः व्यर्थ साबित हो सकते हैं, और इस कारण आत्म-आलोचना व पश्चाताप का भाव उत्पन्न होता है।
इस काव्य-पंक्ति में देवसेना अपने विगत जीवन पर विचार करती है। स्कंदगुप्त द्वारा प्रणय-निवेदन ठुकराए जाने के बाद उसने यौवन काल के अनमोल समय को ऐसे ही बिता दिया। वह अपनी जीवन की पूँजी की रक्षा नहीं कर पाई। अंतत: उसे पेट की ज्वाला शांत करने के लिए भिक्षा माँगने का सहारा लेना पड़ा। वह भ्रम की स्थिति में रही।
प्रश्न 2: कवि ने आशा को बावली क्यों कहा है?
उत्तर 2: आशा में मनुष्य बावला हो जाता है और आशा से मनुष्य को शक्ति मिलती है। प्रेम में तो आशा बहुत ही बावली होती है। वह जिसे प्रेम करता है उसके प्रति हजारों सपने बुनता है फिर उस का प्रेमी उस से प्यार करें या ना करें तो वह आशा के सहारे सपनों में तैरता रहता है। जब देव सेना ने स्कंद गुप्त से प्रेम की आशा में उसके साथ अपने जीवन के सपने बुने तो वह आशा में इतना डूब चुकी थी कि उन्हें वास्तविकता का ज्ञान ही नहीं था। यही कारण है कि आशा बावली होती है।
प्रश्न 3: “मैने निज दुर्बल” होड़ लगाई” इन पंक्तियों में ‘दुर्बल पद बल’ और ‘हारी होड़’ में निहित व्यंजना स्पष्ट कीजिए।
उत्तर 3: ‘दुर्बल पद बल’ में यह व्यंजना निहित है कि प्रेयसी (देवसेना) अपनी शक्ति-सीमा से भली-भाँति परिचित है। उसे ज्ञात है कि उसके पद (चरण) दुर्बल हैं, फिर भी परिस्थिति से टकराती है। ‘हारी होड़’ में यह व्यंजना निहित है कि देवसेना को अपने प्रेम में हारने की निश्चितता का ज्ञान है, इसके बावजमद वह प्रलय से लोहा लेती है। इससे उसकी लगनशीलता का पता चलता है।
प्रश्न 4: काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए –
(क) श्रमित स्वप्न की मधुमाया ………… तान उठाई।
(ख) लौटा लो …………. लाज गँवाई।
उत्तर 4: (क) श्रमित स्वप्न की मधुमाया ……… तान उठाई।
इन पंक्तियों का भाव यह है कि देवसेना स्मृति में डूबी हुई है जिस प्रकार घने जंगल में राही थक – हार कर पेड़ों की छाया में सो जाता है उसी प्रकार देवसेना अपनी मिठ्ठी यादें और जो सपने देखे थे स्कंद गुप्त को पाने के उसमें खोई हुई है। उनसे वह हार गई। और यहां वह अपने आप को पीथक के रूप में अभिव्यक्त करती है और कहती है कि उसे स्कंद गुप्त का प्रेम निवेदन अच्छा नहीं लग रहा। इन पंक्तियों के माध्यम से देवसेना की असीम वेदना स्पष्ट रूप से दिखती है। सपने को कवि ने श्रम रूप में कहकर गहरी व्यंजना व्यक्त की है। गहन – विपिन एवं तरु -छाया में समास शब्द है । विहग राग का उल्लेख है।
(ख) लौटा लो …………………….. लाज गँवाई।
इन पंक्तियों में देवसेना की निराश से युक्त मनोस्थिति का वर्णन है। स्कंद गुप्त का प्रेम वेदना बनकर उसे प्रताड़ित कर रहा हैं। इन पंक्तियों का भाव यह है की देवसेना कहती है स्कंद गुप्त तुम अपने सपनों की धरोहर मुझसे वापस ले लो जो मैंने तुम्हारी याद में संजोए थे। मेरा हृदय इनको और संभाल नहीं पा रहा है और मैंने अपने मन की लाज भी गंवा दी है।
प्रश्न 5: देवसेना की हार या निराशा के क्या कारण हैं?
उत्तर 5: देवसेना मालवा के राजा बंधुवर्मा की बहन है। हूणों के आक्रमण में उनका सारा परिवार वीरगति पा गए थे। वह अपने भाई का स्वप्न साकार करने के लिए स्कंदगुप्त की शरण में आती है। वह उससे प्रेम करती है, परंतु स्कंदगुप्त मालवा के धनकुबेर की कन्या विजया को चाहते हैं। जीवन के अंतिम मोड़ पर जब स्कंदगुप्त देवसेना से विवाह करना चाहता है तो देवसेना मना कर देती है।
उसका जीवन संकट में गुजरा। उसने अपने पक्ष को कमज़ोर जानते हुए भी आक्रमणकारियों से संघर्ष किया, परंतु वह हार गई। इस प्रकार प्रेम में मिली असफलता और विपरीत परिस्थितियों में मिली असफलता उसकी हार या निराशा के कारण हैं।
कार्नेलिया का गीत के प्रश्न उत्तर, कार्नेलिया का गीत question answer
प्रश्न 1: ‘कार्नेंलिया का गीत’ कविता में प्रसाद ने भारत की किन विशेषताओं की ओर संकेत किया है ?
उत्तर 1: प्रसाद जी ने भारत की इन विशेषताओं की ओर संकेत किया है-
- भारत पर सूर्य की किरण सबसे पहले पहुँचती है।
- यहाँ पर किसी अपरिचित व्यक्ति को भी घर में प्रेमपूर्वक रखा जाता है।
- यहाँ का प्राकृतिक सौंदर्य अद्भूत और आदित्य है।
- यहाँ के लोग दया, करुणा और सहानुभूति भावनाओं से भरे हुए हैं।
- भारत की संस्कृति महान है।
प्रश्न 2: ‘उड़ते खग’ और ‘बरसाती आँखों के बादल’ में क्या विशेष अर्थ व्यंजित होता है ?
उत्तर 2: ‘उड़ते खग’ जिस दिशा में जाते हैं, वह देश भारतवर्ष है। यहाँ पक्षियों तक को आश्रय मिलता है। इससे विशेष अर्थ यह व्यंजित होता है कि भारत सभी शरणार्थियों की आश्रयस्थली है। यहाँ सभी को आश्रय मिल जाता है। यहाँ आकर लोगों को शांति और संतोष का अनुभव होता है। अनजान को सहारा देना हमारे देश की विशेषता है।
‘बरसाती आँखों के बादल’ पंक्ति से विशेष अर्थ यह व्यंजित होता है कि भारतीय अनजान लोगों के दुख में भी दुखी हो जाते हैं। वह दुख आँखों में आँसू के रूप में निकल पड़ता है।
प्रश्न 3: काव्य-सौंदर्य स्पष्ट कीजिए-
‘हेम कुंभ ले उषा सवेरे-भरती बुलकती सुख मेरे
मदिर ऊँघते रहते जब-जगकर रजनी भर तारा।
उत्तर 3: भाव-सौंदर्य: इन पंक्तियों का भाव यह है कि यहाँ उषा रूपी नायिका स्वर्ण कुंभ लेकर सुबह-सुबह हमारे सभी सुखों को धरती पर ढलकाती है। उस समय तारे रातभर जागते रहने के कारण ऊँघते से प्रतीत होते हैं। कवि ने प्रातःकालीन समय का मनोहारी चित्रण किया है।
शिल्प-सौंदर्य:
तारा व उषा का मानवीकरण किया गया है, अतः मानवीकरण अलंकार है।
‘जब-जगकर’ में अनुप्रास अलंकार है।
हेम कुंभ में रूपक अलंकार है।
तत्सम शब्दावली की प्रधानता वाली सरल, सहज एवं प्रवाहमयी भाषा है।
गेय तत्व की विद्यमानता है।
प्रश्न 4: ‘जहाँ पहुँच अनजान क्षितिज को मिलता एक सहारा’-पंक्ति का आशय स्पष्ट कीजिए।
उत्तर 4: इसका तात्पर्य है कि भारत जैसे देश में अजनबी लोगों को भी आश्रय मिल जाता है, जिनका कोई आश्रय नहीं होता है। कवि ने भारत की विशालता का वर्णन किया है। उसके अनुसार भारत की संस्कृति और यहाँ के लोग बहुत विशाल हृदय के हैं। यहाँ पर पक्षियों को ही आश्रय नहीं दिया जाता बल्कि बाहर से आए अजनबी लोगों को भी सहारा दिया जाता है।
प्रश्न 5: कविता में व्यक्त प्रकृति-चित्रों को अपने शब्दों में लिखिए।
उत्तर 5: इस कविता में व्यक्त प्रकृति-चित्र इस प्रकार है :
- सूर्योदय का समय है। सरोवरों में खिले कमल के फूलों पर अनोखी छटा बिखरी हुई है। कमल की कांति पर पेड़ों की सुंदर चोटियों की परछाई लहरों के साथ नाच रही है।
- सर्वत्र हरियाली छाई हुई है। उसकी चोटी पर सूर्य किरणें मंगल-कुकुम बिखेरती सी जान पड़ रही हैं।
- छोटे इंद्रधनुष के समान पंख फैलाए पक्षी मलय पर्वत से आने वाली हवा के सहारे आकाश में उड़ते हुए अपने घोंसलों की ओर जा रहे हैं।
- उषाकाल में सूर्य का चमकता गोला हेमकुंभ (स्वर्ण कलश) की भाँति जगमगा रहा है। सूर्य की किरणें सुख बिखेरती सी प्रतीत होती हो रही है।
- अनंत दूरी से आती हुई विशाल लहरें किनारों से टकरा रही हैं।
- रात भर जागने के कारण तारे मस्ती में उँघते से प्रतीत हो रहे हैं।
- उषा सोने का कलश लेकर सुखों को ढुलकाती दिखाई दे रही है।
योग्यता विस्तार – question answer
प्रश्न 1: भोर के दृश्य को देखकर अपने अनुभव काव्यात्मक शैली में लिखिए।
उत्तर 1: भोर का दृश्य –
- लाल सूरज,
- मानो चमकता हुआ गोला,
- आकाश की काली पटल पर
- गेरू की रेखाएँ खींचता हुआ,
- हमें अपनी ओर बुलाता,
- और दिल को लुभाता है।
प्रश्न 2: जयशंकर प्रसाद की काव्य रचना ‘आँसू’ पढ़िए।
उत्तर 2: जयशंकर प्रसाद की काव्य रचना ‘आँसू’ छायावादी काव्यधारा का एक उत्कृष्ट उदाहरण है। इस कृति में कवि ने मानवीय भावनाओं, संवेदनाओं और दुख की गहराई को मार्मिक रूप से व्यक्त किया है।
आँसू का मुख्य विषय प्रेम, विरह, और आत्मानुभूति है। इसमें कवि ने जीवन के दुखद पहलुओं को एक सहज, दार्शनिक दृष्टिकोण से प्रस्तुत किया है। ‘आँसू’ में न केवल पीड़ा है, बल्कि उसमें एक प्रकार की गहराई और शांति भी है, जो इसे अद्वितीय बनाती है।
इस काव्य में जयशंकर प्रसाद ने व्यक्तित्व और प्रकृति के गहरे संबंध को व्यक्त करते हुए यह भी बताया है कि दुःख जीवन का अनिवार्य हिस्सा है, और यह मनुष्य को परिपक्व और आत्मानुभूतिपूर्ण बनाता है।
प्रश्न 3: जयशंकर प्रसाद की कविता ‘हमारा प्यारा भारतवर्ष’ तथा रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की कविता’ हिमालय के प्रति’ का कक्षा में वाचन कीजिए।
उत्तर 3: हमारा प्यारा भारतवर्ष (जयशंकर प्रसाद):
- हिमालय के आँगन में उसे, प्रथम किरणों का दे उपहार ।
- उषा ने हँस अभिनंदन किया, और पहनाया हीरक-हार ।।
- जगे हम, लगे जगाने विश्व, लोक में फैला फिर आलोक ।
- व्योम-तुम पुँज हुआ तब नाश, अखिल संसृति हो उठी अशोक ।।
- विमल वाणी ने वीणा ली, कमल कोमल कर में सप्रीत ।
- सप्तस्वर सप्तसिंधु में उठे, छिड़ा तब मधुर साम-संगीत ।।
- बचाकर बीच रूप से सृष्टि, नाव पर झेल प्रलय का शीत ।
- अरुण-केतन लेकर निज हाथ, वरुण-पथ में हम बढ़े अभीत ।।
- सुना है वह दधीचि का त्याग, हमारी जातीयता का विकास ।
- पुरंदर ने पवि से है लिखा, अस्थि-युग का मेरा इतिहास ।।
- सिंधु-सा विस्तृत और अथाह, एक निर्वासित का उत्साह ।
- दे रही अभी दिखाई भग्न, मग्न रत्नाकर में वह राह ।।
- धर्म का ले लेकर जो नाम, हुआ करती बलि कर दी बंद ।
- हमीं ने दिया शांति-संदेश, सुखी होते देकर आनंद ।।
- विजय केवल लोहे की नहीं, धर्म की रही धरा पर धूम ।
- भिक्षु होकर रहते सम्राट, दया दिखलाते घर-घर घूम ।
- यवन को दिया दया का दान, चीन को मिली धर्म की दृष्टि ।
- मिला था स्वर्ण-भूमि को रत्न, शील की सिंहल को भी सृष्टि ।।
- किसी का हमने छीना नहीं, प्रकृति का रहा पालना यहीं ।
- हमारी जन्मभूमि थी यहीं, कहीं से हम आए थे नहीं ।।
- जातियों का उत्थान-पतन, आँधियाँ, झड़ी, प्रचंड समीर ।
- खड़े देखा, झेला हँसते, प्रलय में पले हुए हम वीर ।।
- चरित थे पूत, भुजा में शक्ति, नम्रता रही सदा संपन्न ।
- हृदय के गौरव में था गर्व, किसी को देख न सके विपन्न ।।
- हमारे संचय में था दान, अतिथि थे सदा हमारे देव ।
- वचन में सत्य, हृदय में तेज, प्रतिज्ञा मे रहती थी टेव ।।
- वही है रक्त, वही है देश, वही साहस है, वैसा ज्ञान ।
- वही है शांति, वही है शक्ति, वही हम दिव्य आर्य-संतान ।।
- जियें तो सदा इसी के लिए, यही अभिमान रहे यह हर्ष ।
- निछावर कर दें हम सर्वस्व, हमारा प्यारा भारतवर्ष ।।
हिमालय के प्रति (रामधारी सिंह दिनकर):
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- साकार, दिव्य, गौरव विराट,
- पौरुष के पुंजीभूत ज्वाल।
- मेरी जननी के हिम-किरीट,
- मेरे भारत के दिव्य भाल।
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- युग-युग अजेय, निर्बंध, मुक्त
- युग-युग गर्वोन्नत, नित महान्।
- निस्सीम व्योम में तान रहा,
- युग से किस महिमा का वितान।
- कैसी अखंड यह चिर समाधि?
- यतिवर! कैसा यह अमर ध्यान?
- तू महाशून्य में खोज रहा
- किस जटिल समस्या का निदान?
- उलझन का कैसा विषम जाल?
- मेरे नगपति! मेरे विशाल!
- ओ, मौन तपस्या-लीन यती!
- पल-भर को तो कर दृगोन्मेष,
- रे ज्वालाओं से दग्ध विकल
- है तडप रहा पद पर स्वदेश।
- सुख सिंधु, पंचनद, ब्रह्मपुत्र
- गंगा यमुना की अमिय धार,
- जिस पुण्य भूमि की ओर बही
- तेरी विगलित करुणा उदार।
- जिसके द्वारों पर खडा क्रान्त
- सीमापति! तूने की पुकार
- ‘पद दलित इसे करना पीछे,
- पहले ले मेरे सिर उतार।
- उस पुण्य भूमि पर आज तपी!
- रे आन पडा संकट कराल,
- व्याकुल तेरे सुत तडप रहे
- डस रहे चतुर्दिक् विविध व्याल।