सुमिरिनी के मनके question answer: Class 12 Hindi Chapter 11 question answer
Textbook | Ncert |
Class | Class 12 |
Subject | Hindi antra |
Chapter | Chapter 11 |
Chapter Name | सुमिरिनी के मनके के प्रश्न उत्तर |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
क्या आप Class 12 Hindi Antra Chapter 11 question answer ढूंढ रहे हैं? अब आप यहां से sumirini ke manke class 12 question answer Download कर सकते हैं।
(क) बालक बच गया –
प्रश्न 1: बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के कौन-कौन से प्रश्न पूछे गए ?
उत्तर 1: बालक से उसकी उम्र और योग्यता से ऊपर के निम्नलिखित प्रश्न पूछे गए : 1. धर्म के कितने लक्षण हैं ? उनके नाम बताइए। 2. रस कितने हैं ? उनके उदाहरण दीजिए। 3. पानी के चार डिग्री नीचे शीतलता फैल जाने का क्या कारण है ? 4. चंद्रग्रहण का वैज्ञानिक कारण बताइए। 5. इंग्लैंड के राजा हेनरी आठवें की स्त्रियों (पत्नियों) के नाम बताइए। 6. पेशवाओं के शासन की अवधि के बारे में बताओ।
प्रश्न 2: बालक ने क्यों कहा कि मैं यावज्जन्म लोकसेवा करूँगा ?
उत्तर 2: ‘बालक बच गया’ नामक लघु निबंध में एक आठ साल के बच्चे से बड़े-बड़े प्रश्न पूछे जा रहे थे और वह उनके उत्तर दे रहा था। अंत में जब उससे पूछा गया कि “तू क्या करेगा?” तो बालक ने उत्तर दिया—”मैं यावज्जन्म लोक सेवा करूँगा।” पूरी सभा उसका उत्तर सुनकर खुश हुई और उसके पिता का भी दिल उल्लास से भर गया। बालक ने ऐसा उत्तर क्यों दिया? संभवतः उसे अपने उत्तर का अर्थ भी ठीक से पता नहीं था। लेकिन उसे जो कुछ सिखाया गया था, वही रटा-रटाया उत्तर उसने दे दिया।
प्रश्न 3: बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस क्यों भरी?
उत्तर 3: बालक द्वारा इनाम में लड्डू माँगने पर लेखक ने सुख की साँस ली क्योंकि बालक के उत्तर को सुनकर लेखक को यह तसल्ली मिली कि बालक की स्वाभाविक वृत्ति दम घुटने से बच गई। उसकी इच्छाओं का खून होने से बच गया। लेखक को लग रहा था कि बालक के मुख पर विलक्षण रंगों का परिवर्तन हो रहा था। उसके हृदय में कृत्रिम तथा स्वाभाविक भावों की लड़ाई चल रही थी। वह कृत्रिम एवं स्वाभाविक वृत्ति के मध्य घुट रहा था।
प्रश्न 4: बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है, पाठ में ऐसा आभास किन स्थलों पर होता है कि उसकी प्रवृत्तियों का गला घोंटा जाता है ?
उत्तर 4: यह बात बिल्कुल सही है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटना अनुचित है। उसकी प्रवृत्तियों को सहज रूप से अभिव्यक्त होने देना चाहिए। तभी उसका पूर्ण विकास हो सकेगा। पाठ में ऐसा आभास निम्नलिखित स्थलों पर होता है कि बालक की प्रवृत्तियों का गला घोंटा जा रहा है। – जब बालक से ऐसे प्रश्न पूछे जाते हैं जिनको समझने और उत्तर देने की अभी उसकी आयु नहीं है। – बालक की दृष्टि भूमि से उठ नहीं रही थी अर्थात् वह भारी तनाव की स्थिति में था। – बालक की आँखों में कृत्रिम और स्वाभाविक भावों की लड़ाई साफ झलक रही थी।
प्रश्न 5: “बालक बच गया। उसके बचने की आशा है क्योंकि वह लड्डू की पुकार जीवित वृक्ष के हरे पत्तों का मधुर मर्मर था, मरे काठ की अलमारी की सिर दुखानेवाली खड़खड़ाहट नहीं” कथन के आधार पर बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों का उल्लेख कीजिए।
उत्तर 5: बालक से उसके शिक्षक जो कुछ कहलवा रहे थे, वह सब अस्वाभाविक था। बालक से जब वृद्ध महाशय ने इनाम में मनपसंद वस्तु माँगने को कहा, तब इसके द्वारा लड्डू माँगा जाना, उसकी-बाल सुलभ स्वाभाविकता को इंगित करता है। इससे लेखक को लगा कि अभी इस बालक के बचने की आशा है अर्थात् इसका बचपन बचाया जा सकता है। जिस प्रकार जीवित वृक्ष हरे पत्तों के माध्यम से अपनी जीवंतता का परिचय देता है उसी प्रकार बालक के लड्डू माँगने से उसकी स्वाभाविकता का पता चलता था। बालक को किसी स्वार्थवश नियमों के बंधन में बाँधने की कोशिश नहीं करनी चाहिए।
प्रश्न 6: उम्र के अनुसार बालक में योग्यता का होना आवश्यक है किन्तु उसका ज्ञानी या दार्शनिक होना जरूरी नहीं। ‘लर्निंग आउटकम’ के बारे में विचार कीजिए।
उत्तर 6: देशभर के स्कूलों में आठवीं तक के बच्चों ने लर्निंग आउटकम में क्या सीखा? यह स्कूल अपने ब्लैक बोर्ड पर डिस्प्ले करने के साथ ही अभिभावकों को भी बताए। क्योंकि स्कूलों में दी जा रही शिक्षा में बच्चा क्या सीख पाया। यह जानना अभिभावक के लिए जरूरी है।
यह बातें बुधवार को विभिन्न राज्यों के शिक्षा मंत्रियों के साथ वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग में केंद्रीय मानव संसाधन एवं विकास मंत्री प्रकाश जावडे़कर ने कही। जावडेकर ने अन्य राज्यों के शिक्षा मंत्रियों को बताया कि लर्निंग आउटकम में पुस्तकों के अनुवाद के लिए बजट की स्वीकृति भी दे दी गई है। सीसीई की बजाए एनसीईआरटी एक किताब तैयार कर रहा है। इससे लर्निंग आउटकम में कक्षावार, विषयवार बच्चों में विषय के प्रति बेहतर समक्ष बनेगी। किताब में ऐसे चित्र होंगे, जिससे बच्चों में विषय को समझने में सरलता बनेगी।
इसके अलावा अनट्रेंड शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए मार्च 2019 का लक्ष्य निर्धारित किया गया है। इस श्रेणी के शिक्षकों के लिए 15 सितंबर 2017 तक डीईएलईएल कोर्स करने के लिए स्वयं पोर्टल पर रजिस्ट्रेशन कराने के लिए कहा है। जहां उन्हें प्रशिक्षण की पाठ्य सामग्री फ्री में उपलब्ध होगी। इतना ही नहीं स्वयं प्रभा चैनल पर फ्री में लेक्चर प्रसारित किए जाएंगे। बता दें कि आउटकम लर्निंग आठ विषय साइंस, सोशल साइंस, अंग्रेजी, हिंदी, उर्दू, गणित और एनवायरमेंटल साइंस में सुधार के लिए है।
(ख) घड़ी के पुर्जे –
प्रश्न 1: लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए ‘घड़ी के पुर्जे’ का दृष्टांत क्यों दिया है ?
उत्तर 1: लेखक ने धर्म का रहस्य जानने के लिए घड़ी के पुर्जे का दृष्टांत इसलिए दिया है –
- घड़ी पुर्जों के बलबूते पर चलती है और इसी प्रकार धर्म अपने नियम-कायदों पर चलता है।
- जिस प्रकार हमारा काम घड़ी से समय जानना होता है, उसी प्रकार धर्म से हमारा काम धर्म के ऊपरी स्वरूप को जानना होता है। (धर्म के ठेकेदारों पर व्यंग्य)
- आम आदमी को घड़ी की बनावट, उसके पुर्जों की जानकारी नहीं होती, उसी प्रकार आम आदमी को धर्म की संरचना को जानने की जरूरत नहीं है। उसे उतना ही जानना चाहिए जितना धर्मोपदेशक बताएँ।
इस दृष्टांत से लेखक ने यह बताना चाहा है कि धर्मोपदेशक धर्म को रहस्य बनाए रखना चाहते हैं ताकि वे लोगों को अपने इशारों पर चला सकें। वे केवल ऊपरी-ऊपरी बातें बताते हैं।
प्रश्न 2: ‘धर्म का रहस्य जानना वेदशास्त्रज्न धर्माचार्यों का ही काम है’ आप इस कथन से कहाँ तक सहमत हैं ? धर्म संबंधी अपने विचार व्यक्त कीजिए।
उत्तर 2: मैं इस बात से पूरी तरह सहमत नहीं हूँ कि धर्म का रहस्य जानना केवल वेदशास्त्रज्ञ धर्माचार्यों का ही काम है। यह हमारा भी काम है। धर्म का प्रभाव हम सभी पर पड़ता है, इसलिए धर्म को समझना हमारा अधिकार है। जब तक हम धर्म का रहस्य नहीं जानते, तब तक धर्माचार्य हमें मूर्ख बनाते रहेंगे और हमारी अज्ञानता का लाभ उठाते रहेंगे। हमें धर्म के स्वरूप और उसके अनुरूप और प्रतिकूल बातों को जानना चाहिए। धर्म आस्था का विषय है और इसे शोषण का साधन नहीं बनाना चाहिए। तथाकथित धर्माचार्य धर्म के रहस्यों को समझाने के बजाय उसे और भी रहस्यमय बना देते हैं ताकि वे अपना स्वार्थ सिद्ध कर सकें।
प्रश्न 3: घड़ी समय का ज्ञान कराती है। क्या धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार अपने समय का बोध नहीं कराते ?
उत्तर 3: घड़ी जिस प्रकार समय का बोध कराती है, उसी प्रकार धर्म संबंधी मान्यताएँ या विचार भी अपने समय का बोध कराते हैं। घड़ी दिन-रात के प्रतिक्षण का बोध कराती है ठीक वैसे ही धार्मिक मान्यताएँ या विचार भी अपने समय की पूर्ण जानकारी देती हैं। मान्यताओं के आधार पर ही हमें समकालीन समय के सत्य, असत्य, पाप-पुण्य आदि का बोध होता है।
प्रश्न 4: धर्म अगर कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्र, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है तो आम आदमी और समाज का उससे क्या संबंध होगा? अपनी राय लिखिए।
उत्तर 4: अगर धर्म कुछ विशेष लोगों वेदशास्त्र, धर्माचार्यों, मठाधीशों, पंडे-पुजारियों की मुट्ठी में है, तो आम आदमी और समाज उसकी कठपुतली बनकर रह जाएगा। वे उनके स्वार्थ की पूर्ति करने का मार्ग होगा और उसे वे समय-समय पर चूसते रहेंगे। इस तरह समाज और आदमी से इनका संबंध शोषक और शोषण का रह जाएगा। ये शोषक बनकर समाज में अराजकता फैलाएँगे।
‘धर्म’ आदमी और समाज की पहुँच से दूर हो जाएगा। धर्म उनके लिए ऐसी मज़बूरी बनकर रह जाएगा और इसमें विभिन्न तरह के आडंबर विद्यमान हो जाएँगे। भारत के लोग बहुत समय पहले इन्हीं कुरीतियों से ग्रस्त थे। अगर दोबारा ऐसा हो जाता है, तो उसी प्रकार की विषम परिस्थितियाँ उत्पन्न हो जाएँगी और लोगों का जीवन दुर्भर हो जाएगा। इस तरह समाज का रूप विकृत हो जाएगा।
प्रश्न 5: ‘जहाँ धर्म पर कुछ मुद्ठीभर लोगों का एकाधिकार धर्म को संकुचित अर्थ प्रदान करता है वहीं धर्म का आम आदमी से संबंध उसके विकास एवं विस्तार का द्योतक है।’ तर्क सहित व्याख्या कीजिए।
उत्तर 5: धर्म पर कुछ लोगों के एकाधिकार से उनका स्वरूप संकुचित हो जाएगा। धर्म सभी के द्वारा जाना जाने योग्य है तथा यह हर व्यक्ति से संबंधित है। हर व्यक्ति को धर्म की गहराइयों को समझना चाहिए। जो धर्म हर व्यक्ति की पहुँच में होगा, जिसका द्वार हर वर्ग के लिए खुला होगा, उसका विस्तार होगा। बौद्ध धर्म के विस्तार का यही कारण था।
प्रश्न 6: निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए–
(क) ‘वेदशास्त्र, धर्माचार्यों का ही काम है कि घड़ी के पुर्जे जानें, तुम्हें इससे क्या ?’
(ख) ‘अनाड़ी के हाथ में चाहे घड़ी मत दो पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास कर आया है, उसे तो देखने दो।
(ग) ‘हमें तो धोखा होता है कि पड़दादा की घड़ी जेब में डाले फिरते हो, वह बंद हो गई है, तुम्हें न चाबी देना आता है न पुर्जे सुधारना, तो भी दूसरों को हाथ नहीं लगाने देते।
उत्तर 6: (क) वेदशास्त्रों को जानने वाले धर्माचार्य धर्म के ठेकेदार बनते हैं। वे ही धर्म के रहस्य को अपनी दृष्टि से हमें समझाते हैं। वे एक प्रकार से घड़ीसाज का सा काम करते हैं। उनका ऐसा करना उचित नहीं है। हमें भी धर्म की जानकारी होनी चाहिए। धर्म का संबंध हम सभी से है। हमें इन तथाकथित धर्माचायों को बेवजह इतना अधिक महत्त्व नहीं देना चाहिए।
(ख) यह ठीक है कि अनाड़ी आदमी घड़ी को बिगाड़ देगा, पर जो घड़ीसाजी का इम्तहान पास करके आया है अर्थात् घड़ी का पूरा जानकार है, उसे घड़ी देने में कोई हर्ज नहीं है। इसी प्रकार की स्थिति धर्म की है। जो धर्म का जानकार नहीं है, उससे तो खतरा हो सकता है, पर जो धर्म की पूरी जानकारी रखता है, उसे तो धर्म की व्याख्या करने दो।
(ग) जिस प्रकार पुराने जमाने की घड़ी को जेब में डाले रहने पर यह भ्रम तो बना ही रहता है कि मेरे पास घड़ी है, चाहे वह बंद ही क्यों न हो। इसी प्रकार की स्थिति धर्म की भी है। हम धर्म के पुराने स्वरूप को लेकर इस भ्रम में रहते हैं कि हम धार्मिक हैं और धर्म के बारे में सब कुछ जानते हैं। इस स्थिति को सुधारने की आवश्यकता है।
(ग) ढेले चुन लो –
प्रश्न 1: वैदिककाल में हिंदुओं में कैसी लाटरी चलती थी, जिसका ज्ञिक्र लेखक ने किया है?
उत्तर 1: वैदिक काल में हिंदुओं में जो लाटरी चलती थी उसमें नर पूछता था और नारी को बूझना पड़ता था। नर स्नातक विद्या पढ़कर, नहा-धोकर, माला पहनकर, सेज पर जोग होकर किसी बेटी के बाप के घर पहुँच जाता था। वह उसे गौ भेंट करता था। पीछे वह कन्या के सामने मिट्टी के कुछ ढेले रख देता और उससे कहता कि इनमें से एक उठा लें। ये ढेले प्रायः सात तक होते थें। नर जानता था कि वह ये ढेले कहाँ-कहाँ से लाया है और इनमें किस-किस जगह की मिट्टी है। कन्या इनके बारे में कुछ जानती न थी। यही लॉटरी की बुझौवल थी।
इन ढेलों में वेदी, गौशाला, खेत, चौराहे, मसान (श्मशान) की मिट्टी होती थी। यदि वह वेदी का ढेला उठा ले तो संतान वैदिक पंडित, गोबर चुना तो पशुओं का धनी, खेत की मिट्टी छू ली तो जमींदार-पुत्र होगा। मसान की मिट्टी अशुभ मानी जाती थी। यदि किसी नर के सामने वह वेदी का ढेला उठा ले और ब्याही जाए। इस प्रकार वैदिक काल में हिंदू ढेले छुआकर स्वयं पत्नी वरण करते थे।
प्रश्न 2: ‘दुर्लभ बंधु’ की पेटियों की कथा लिखिए।
उत्तर 2: बबुआ हरिश्चंद्र के ‘दुर्लभ बंधु’ में पुरश्री के सामने तीन पेटियाँ रखी गई हैं – एक सोने की, दूसरी चाँदी की और तीसरी लोहे की। इन पेटियों में से किसी एक में उसकी प्रतिमूर्ति है। जो व्यक्ति स्वयंवर में आता है उसे इन तीन पेटियों में से एक को चुनना होता है। अकड़बाज व्यक्ति सोने की पेटी चुनता है और उसे खाली हाथ लौटना पड़ता है। लोभी व्यक्ति चाँदी की पेटी चुनता है लेकिन उसे भी असफलता मिलती है। वहीं सच्चा प्रेमी लोहे की पेटी को चुनता है और उसी में पुरश्री की प्रतिमूर्ति मिलती है।
प्रश्न 3: जीवन साथी का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के कौन-कौन से फल प्राप्त होते हैं।
उत्तर 3: ‘जीवन साथी’ का चुनाव मिट्टी के ढेलों पर छोड़ने के निम्नलिखित फल प्राप्त होंगे—
- (i) वेदि/मिट्टी का ढेला उठाने पर संतान वैदिक पंडित होगी।
- (ii) गौ-शाला की मिट्टी का ढेला चुनने पर संतान पशुओं की धनी होगी।
- (iii) खेत की मिट्टी छूने पर संतान ज़मींदार होगी।
- (iv) मसान की मिट्टी चुनने पर बहुत बड़ा अशुभ होगा। यदि वह नारी विवाहित हो जाए तो घर मशान हो जाए तथा वह जन्मभर जलाती रहेगी।
- (v) यदि एक नर के सामने मसान की मिट्टी छू ले तो उस कन्या का कभी विवाह न होगा।
- (vi) किसी दूसरे नर के सामने वह वेदि का ढेला उठा ले तो विवाह हो जाए।
प्रश्न 4: मिट्टी के छेलों के संदर्भ में कबीर की साखी की व्याख्या कीजिए-
पत्थर पूजै हरि मिलें तो तू पूज पहार।
इससे तो चक्की भली, पीस खाय संसार॥
उत्तर 4: मिट्टी के ढेलों से यदि मनुष्य को उसकी मनोवांछित संतान प्राप्ति होती है, तो फिर कहने ही क्या थे? मनुष्य को कभी ज्ञान प्राप्त करने की आवश्यकता ही नहीं होती या उसे परिश्रम ही नहीं करना पड़ता। कबीर ने सही कहा है कि यदि पत्थर पूजकर हरि प्राप्त हो जाते हैं, तो मैं पहाड़ पूजता। क्योंकि पहाड़ पूजने से क्या पता भगवान शीघ्र ही प्राप्त हो जाते। उनके अनुसार इससे तो मैं चक्की को पूजना उचित मानता हूँ क्योंकि वह सारे संसार का पेट भरने का कार्य करती है।
लेखक इस दोहे के माध्यम से मनुष्य पर व्यंग्य करता है। उसके अनुसार मनुष्य को भविष्य का निर्धारण मिट्टी के ढेलों के आधार पर करना मूर्खता है। ढेले किसी का भाग्य बना नहीं सकते हैं। अलबत्ता उसे ऐसी स्थिति में अवश्य डाल सकते हैं, जहाँ उसे जीवनभर के लिए पछताना पड़े। लेखक की बात यह दोहा बहुत ही अच्छी तरह से स्पष्ट करता है।
प्रश्न 5: जन्मभर के साथी का चुनाव मिट्टी के ढेले पर छोड़ना बुद्धिमानी नहीं है। इसलिए बेटी का शिक्षित होना अनिवार्य है। ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के संदर्भ में विचार कीजिए।
उत्तर 5: “बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ” योजना न केवल कन्या भ्रूण हत्या को रोकने के लिए है, बल्कि यह एक सामाजिक परिवर्तन का अभियान भी है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा शुरू की गई इस योजना का उद्देश्य लड़कियों के प्रति समाज की मानसिकता बदलना, उनकी शिक्षा सुनिश्चित करना और उन्हें सशक्त बनाना है।
प्रधानमंत्री ने कन्या जन्म का उत्सव मनाने और पेड़ लगाने जैसी पहल के माध्यम से बेटियों के महत्व को रेखांकित किया है। योजना के तहत, PC एवं PNDT अधिनियम का सख्ती से पालन, जागरूकता अभियान, और लिंग अनुपात कम वाले जिलों में विशेष कार्यों को लागू किया गया है।
बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना केवल एक सरकारी योजना नहीं है, यह समाज में एक समग्र बदलाव लाने का प्रयास है। जब बेटियों को समान अवसर मिलेंगे, तब वे न केवल अपने परिवार का, बल्कि समाज और देश का भी गौरव बनेंगी। हमें अपने दृष्टिकोण और मानसिकता में बदलाव लाने की आवश्यकता है ताकि बेटियां हमारे भविष्य की मजबूत नींव बन सकें।
प्रश्न 6: निम्नलिखित का आशय स्पष्ट कीजिए :
(क) ‘अपनी आँखों से जगह देखकर, अपने हाथ से चुने हुए मिट्टी के डगलों पर भरोसा करना क्यों बुरा है और लाखों-करोड़ों कोस दूर बैठे बेड़े-बेड़े मिट्टी और आग के ढेलों-मंगल, शनिश्चर और बृहस्पति की कल्पित चाल के कल्पित हिसाब का भरोसा करना क्यों अच्छा है।
(ख) ‘आज का कबूतर अच्छा है कल के मोर से, आज का पैसा अच्छा है कल की मोहर से। आँखों देखा ढेला अच्छा ही होना चाहिए लाखों कोस के तेज पिंड से।
उत्तर 6: (क) प्रस्तुत गद्यांश का आशय है कि अपनी आँखों से जगह को देखकर तथा अपने ही हाथ से चुने हुए मिट्टी के ढेलों पर विश्वास करना क्यों बुरा है तथा लाखों-करोड़ों मीलों की दूरी पर बैठे हुए बड़े-बड़े मिट्टी के ढेलों पर मंगल, शनि और बृहस्पति ग्रह की कल्पना करना तथा उसके हिसाब का विश्वास करना क्यों अच्छा है अर्थात हम इन मिट्टी के ढेलों पर इस प्रकार की कल्पना क्यों करते हैं ?
(ख) उपर्युक्त गद्यांश का आशय है कि कल के मोर से आज का कबूतर अच्छा है, आनेवाले कल के अति महान विद्वान से आज का कम ज्ञानी अधिक अच्छा है। लेखक कहता है कि कल की मोहरों से आज का कम पैसा श्रेष्ठ है। फिर लाखों मीलों के तेजस्वी पिंड से आँखों देखा मिट्टी का ढेला श्रेष्ठ ही होना चाहिए।
योग्यता विस्तार –
(क) बालक बच गया
प्रश्न 1: बालक की स्वाभाविक प्रवृत्तियों के विकास में ‘रटना’ बाधक है-कक्षा में संवाद कीजिए।
उत्तर 1: बालक की स्वाभाविक प्रृवत्तियों के विकास में रटना बाधक है। रटी हुई अध्ययन सामग्री कुछ समय में दिमाग से निकल जाती है। परन्तु जिसको अध्ययन करके समझा जाए और ध्यानपूर्वक पढ़ा जाए, वह जानकारी लंबे समय तक याद रह पाती है। रटने से बच्चा सीखता नहीं है। वह सभी विषयों की जानकारी का गहराई से अध्ययन नहीं करता। परिणाम वह बस तोते के समान बन जाता है। चीज़ों के पीछे छिपी गहराई उसे स्पष्ट नहीं हो पाती।
वह तो बस रटकर ही अपनी जिम्मेदारियों को पूर्ण कर देता है। जैसे गणित में यदि रटकर जाया जाए, तो प्रश्न हल नहीं किए जा सकते। जब तक उनका अभ्यास न किया जाए और उसके पीछे छिपे समीकरण को हल करना नहीं सीखा जाए, तब तक गणित अनबुझ पहेली के समान ही होता है। ऐसे ही विज्ञान अन्य विषयों में है। इसमें बच्चा अपनी बौद्धिक क्षमता का विकास नहीं करता मात्र जानकारियाँ रट लेता है। हम जितना मस्तिष्क से काम लेते हैं, वह उतना ही विकसित होता है। उसका विषय क्षेत्र बढ़ता नहीं है। अतः चाहिए कि रटने के स्थान पर समझने का प्रयास करें और विचार-विमर्श करके ही अध्ययन करें।
प्रश्न 2: ज्ञान के क्षेत्र में ‘रटने ‘ का निषेध है, किंतु क्या आप रटने में विश्वास करते हैं। अपने विचार प्रकट कीजिए।
उत्तर 2: मैं रटने और रट्टू ज्ञान में विश्वास नहीं करता हूँ। बिना गहन चिंतन और मनन के किसी कथ्य को बार-बार दोहराने का नाम ही रटना है। रटने से हम किसी कथ्य को कुछ समय के लिए याद तो कर सकते हैं, पर यह अत्यंत आसानी से भूल जाता है और इसका फल दीर्घकालिक नहीं होता है। रटने से बच्चे की बुद्धि का स्वाभाविक विकास नहीं होता है। उसकी सृजनात्मकता तथा मौलिकता में ह्वास आता है। गहन अध्ययन, चिंतन-मनन, प्रयोग और ‘करके सीखने’ से मिलने वाला ज्ञान स्थायी होता है।
(ख) घड़ी के पुर्ज्जे –
प्रश्न 1: धर्म संबंधी अपनी मान्यता पर लेख/निबंध लिखिए।
उत्तर 1: संस्कृत में कहा गया है कि ‘धारयति इति धर्म:’ अर्थात् जिसे धारण किया जाए, वही धर्म है। अब प्रश्न उठता है कि क्या धारण किया जाए। यहाँ उन सद्गुणों को धारण करने की बात कही गई है, जिनसे व्यक्ति में मानवोचित गुणों का विकास होता है। धर्म की सहायता से ही व्यक्ति सभ्य और सुसंस्कारिक बनता है। व्यक्ति में मनुष्य को मनुष्य समझने, सबको समान दृष्टि से देखने, सभी का कल्याण चाहने की प्रवृत्ति, समाज में फैली कुरीतियों, रूढढ़ियों और गलत परंपराओं का विरोध करने की शक्ति धर्म से आती है।
धर्म का एक प्रमुख गुण है-जोड़ना अर्थात् मनुष्य को मनुष्य के निकट ले जाना तथा उनमें मानवता का भाव पैदा करना। ऊँच-नीच, छुआछूत, साप्रदायिकता, कट्टरता, रूढ़िवादिता फैलाने वाले तत्व को धर्म की संज्ञा से अभिहित नहीं किया जा सकता है। धर्म का आचरण करने वाले व्यक्ति उसके प्रदर्शन के लिए किसी वाह्य चिह्न जनेऊ, तावीज़, दाढ़ी बढ़ाना, गेरुआ वस्त्र धारण करना, योग, प्राणायाम या अन्य धार्मिक प्रतीकों या आडंबरों का सहारा नहीं लेते हैं। वास्तव में धर्म तो व्यक्ति के अंतस्तल में छिपा रहता है। धर्म सूक्ष्म किंतु विशाल उद्देश्यों को समाहित किए वह विचारधारा है जो प्रत्येक मनुष्य के कल्याण की कामना करती है।
प्रश्न 2: ‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ़ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है’- टिप्पणी कीजिए।
उत्तर 2: ‘धर्म का रहस्य जानना सिर्फ़ धर्माचार्यों का काम नहीं, कोई भी व्यक्ति अपने स्तर पर उस रहस्य को जानने की कोशिश कर सकता है, अपनी राय दे सकता है।’- यह कथन बिलकुल सही है। धर्म इतना रहस्यमय नहीं है कि इसे साधारण जन समझने में असमर्थ हो। धर्म की बहुत सीधी सी परिभाषा है। इसे धर्माचार्यों ने जटिल बना दिया है। इसकी कहानियों को गलत अर्थ देकर वे लोगों को भ्रमित करते हैं। इस तरह साधारण जन समझ लेते हैं कि धर्म उनके समझने के लिए नहीं बना है। अतः धर्म को समझने के लिए वे धर्माचार्यों या धर्मगुरूओं का सहारा लेते हैं।
इसके विपरीत धर्म बहुत ही सरल है। मानवता धर्म की सही परिभाषा है। मनुष्य का कार्य है कि वह प्रत्येक जीव-जन्तु, सभी प्राणियों के लिए दया भाव रखे, किसी को अपने स्वार्थ के लिए दुखी न करे, यही धर्म है। महाभारत में इसकी बहुत ही सरल व्याख्या मिलती है। कृष्ण ने दुर्योधन को अधर्मी कहा है और पांडवों को धर्म का रक्षक कहा है। यदि हम दुर्योधन के कार्यों पर दृष्टि डालें तो उसने जितने भी कार्य किए वे मानवता के नाम पर कलंक थे। अतः यह कहानी हमें धर्म की सरल परिभाषा प्रदान करती है। फिर हम क्यों धर्म को समझने के लिए किसी का सहारा लेते हैं। हमें स्वयं इसे समझना चाहिए। हमें स्वयं इसे जानना चाहिए। उसके बाद जो सत्य सामने आएगा, वह हमारे लिए महत्वपूर्ण है।
(ग) ढेले चुन लो –
प्रश्न 1: समाज में धर्म संबंधी अंधविश्वास पूरी तरह व्याप्त है। वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में धर्म, विश्वास और आस्था पर निबंध लिखिए।
उत्तर 1: धर्म, विश्वास और आस्था: वैज्ञानिक प्रगति के संदर्भ में
धर्म, विश्वास और आस्था मानव जीवन के आधारभूत स्तंभ हैं। ये मनुष्य को मानसिक शांति और जीवन जीने का मार्गदर्शन प्रदान करते हैं। लेकिन जब ये अंधविश्वास का रूप ले लेते हैं, तो समाज के विकास में बाधा बन जाते हैं। अंधविश्वास तार्किकता और वैज्ञानिक सोच के अभाव का परिणाम है।
वैज्ञानिक प्रगति ने हमें अनेक समस्याओं का समाधान दिया है। विज्ञान ने जहां प्राकृतिक घटनाओं को समझाने के लिए ठोस प्रमाण प्रस्तुत किए हैं, वहीं अंधविश्वास समाज में भय और भ्रम पैदा करता है। जैसे ग्रहण से जुड़े मिथक, जादू-टोने या अवैज्ञानिक उपचार पद्धतियां आज भी कई लोगों को गुमराह करती हैं।
धर्म का उद्देश्य मनुष्य को नैतिकता और सहिष्णुता सिखाना है। लेकिन धर्म का आधार अंधविश्वास नहीं, बल्कि विवेक होना चाहिए। वैज्ञानिक दृष्टिकोण हमें सवाल पूछने और तर्क आधारित सोच अपनाने के लिए प्रेरित करता है।
आस्था और विज्ञान साथ-साथ चल सकते हैं, जब आस्था समाज की भलाई और प्रगति में सहायक हो। हमें आवश्यकता है कि शिक्षा और जागरूकता के माध्यम से अंधविश्वास को समाप्त कर तर्कशील समाज का निर्माण करें। ऐसा समाज ही धर्म, विश्वास और विज्ञान के बीच संतुलन स्थापित कर सकता है।
प्रश्न 2: अपने घर में या आस-पास दिखाई देने वाले किसी रिवाज या अंधविश्वास पर एक लेख लिखिए।
उत्तर 2: अंधविश्वास: नींबू-मिर्च का टोटका
हमारे समाज में कई रिवाज और अंधविश्वास देखने को मिलते हैं। ऐसा ही एक आम अंधविश्वास है घर, दुकान या वाहन के बाहर नींबू-मिर्च टांगने का टोटका। यह माना जाता है कि इससे बुरी नजर और नकारात्मक ऊर्जा दूर रहती है।
हालांकि, इसके पीछे कोई वैज्ञानिक आधार नहीं है। यह केवल मान्यताओं और पीढ़ी-दर-पीढ़ी चली आ रही परंपराओं का हिस्सा है। वैज्ञानिक दृष्टिकोण से नींबू और मिर्च का कोई संबंध न तो नजर से है और न ही ऊर्जा से। बल्कि यह केवल व्यापारिक मानसिकता और भय के कारण प्रचारित किया गया है।
समाज में ऐसे अंधविश्वास जागरूकता के अभाव और तर्कशीलता की कमी के कारण बने रहते हैं। हमें यह समझने की जरूरत है कि अच्छे परिणाम मेहनत और सकारात्मक सोच से आते हैं, न कि टोटकों से। शिक्षा और विज्ञान के माध्यम से इस प्रकार की रूढ़ियों को समाप्त करना आवश्यक है ताकि समाज प्रगति की दिशा में अग्रसर हो सके।