Class 12 History Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात Notes in hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 10 |
Chapter Name | उपनिवेशवाद और देहात |
Category | Class 12 History |
Medium | Hindi |
Class 12 History Chapter 10 उपनिवेशवाद और देहात Notes In Hindi इस अध्याय मे हम ब्रिटिश काल के दौरान किसान, जमीदारो की स्थित तथा ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियां इत्यादि बारे में जानेंगे ।
उपनिवेशवाद का अर्थ : –
🔹 हम सभी जानते हैं कि उपनिवेश शब्द का अर्थ गुलामी और उपनिवेशवाद का अर्थ गुलाम बनाने वाली विचारधारा होता है ।
देहात का अर्थ : –
🔹 देहात शब्द को अक्सर गांव या ग्रामीण जीवन पद्धति व्यतीत करने वाले व्यक्तियों के संदर्भ में देखा जाता है ।
उपनिवेशवाद और देहात का अर्थ : –
🔹 उपनिवेशवाद और देहात का अर्थ है की औपनिवेशिक शासन का यानी अंग्रेजी शासन का भारतीय ग्रामीण जीवन पर प्रभाव।
ताल्लुक़दार : –
🔹 ‘ताल्लुक़दार’ का शब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जिसके साथ ताल्लुक़ यानी संबंध हो। आगे चलकर ताल्लुक़ का अर्थ क्षेत्रीय इकाई हो गया।
रैयत : –
🔹 ‘रैयत’ शब्द का प्रयोग अंग्रेजों के विवरणों में किसानों के लिए किया जाता था। बंगाल में रैयत ज़मीन को खुद काश्त नहीं करते थे, बल्कि ‘शिकमी- रैयत’ को आगे पट्टे पर दे दिया करते थे।
बेनामी : –
🔹 बेनामी का शाब्दिक अर्थ ‘गुमनाम’ है, हिंदी तथा कुछ अन्य भारतीय भाषाओं में इस शब्द का प्रयोग ऐसे सौदों के लिए किया जाता है जो किसी फ़र्जी या अपेक्षाकृत महत्त्वहीन व्यक्ति के नाम से किए जाते हैं और उनमें असली फ़ायदा पाने वाले व्यक्ति का नाम नहीं दिया जाता।
लठियाल : –
🔹 लठियाल, का शाब्दिक अर्थ है वह व्यक्ति जिसके पास लाठी या डंडा हो। ये ज़मींदार के लठैत यानी डंडेबाज पक्षधर होते थे।
साहूकार : –
🔹 साहूकार ऐसा व्यक्ति होता था जो पैसा उधार देता था और साथ ही व्यापार भी करता था।
किरायाजीवी : –
🔹 किरायाजीवी शब्द ऐसे लोगों का द्योतक है जो अपनी संपत्ति के किराए की आय पर जीवनयापन करते हैं।
भारत में औपनिवेशिक शासन : –
🔹 भारत में औपनिवेशिक शासन सर्वप्रथम बंगाल में स्थापित किया गया था। यही वह प्रांत था जहाँ पर सबसे पहले ग्रामीण समाज को पुनर्व्यस्थित करने और भूमि संबंधी अधिकारों की नई व्यवस्था तथा नई राजस्व प्रणाली स्थापित करने के प्रयास किए गए थे।
राजस्व बंदोबस्त की नीतियाँ : –
🔹 अंग्रेजों ने अपने औपनिवेशिक शासन के तहत भू-राजस्व की तीन नीतियाँ अलग-अलग प्रान्तों में स्थापित की थीं : –
- स्थाई बंदोबस्त (1793 ) : – बंगाल में बिहार, उड़ीसा, उत्तर प्रदेश तथा बनारस खण्ड, उत्तरी कर्नाटक तथा उत्तर प्रदेश के बनारस खण्ड में लगभग 19% भाग में यह व्यवस्था थी।
- रैयतबाड़ी बन्दोबस्त (1792 ) : – यह व्यवस्था बम्बई, असम तथा मद्रास के अन्य प्रान्तों में लागू की गई। इसके अन्तर्गत औपनिवेशिक भारत की भूमि का 51% भाग में यह व्यवस्था थी।
- महालबाड़ी बन्दोबस्त : – यह व्यवस्था उत्तर प्रदेश, मध्य प्रान्त तथा पंजाब में लागू की गई । औपनिवेशिक भूमि का 30% भाग में यह व्यवस्था थी।
ब्रिटिश भू-राजस्व नीतियां : –
🔹 तीन प्रमुख भूराजस्व नीतियाँ स्थायी बंदोबस्त, रैयतवाड़ी, महालवाड़ी –
- स्थायी बन्दोबस्त : –
- 1793 में चार्ल्स कार्नवालिस द्वारा लागू किया गया ।
- स्थायी बन्दोबस्त (इस्तमरारी बन्दोबस्त ) बंगाल, बिहार, उड़ीसा तथा वाराणसी में लागू ।
- जमींदार समाहर्ता के रूप में।
- राजस्व मांग स्थाई तथा ऊँची दर ।
- जमींदारों द्वारा निर्धारित राजस्व राशि को गाँवों से इकट्ठा करना ।
- नियमित रूप से राजस्व राशि को कम्पनी को अदा करना ।
- समय पर लगान नहीं दिए जाने पर जमींदार की जमीन जब्त और नीलाम ।
- रैयतवाड़ी : –
- थॉमस मुनरो द्वारा 1820 में बम्बई दक्कन में लागू ।
- राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय ।
- रैयत को भू-स्वामित्व ।
- राजस्व की मांग चिरस्थायी नहीं ।
- महालवाड़ी : –
- उत्तर-पश्चिम भारत में लागू।
- जमीन को महाल में बाँटा गया।
- सम्पूर्ण महाल (गाँव) को एक इकाई माना गया ।
- गाँव के मुखिया द्वारा भू-राजस्व इकट्ठा किया जाना ।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) : –
🔹 बंगाल के जमींदारों व ईस्ट इंडिया कम्पनी के मध्य कर वसूलने से सम्बंधित एक सहमति समझौता जो इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) कहलाया।
🔹 1793 ई. में बंगाल में इस्तमरारी बंदोबस्त की व्यवस्था को लागू किया गया जिसके तहत राजस्व की राशि को ईस्ट इंडिया कम्पनी के द्वारा निश्चित कर दिया गया, इस राशि को प्रत्येक जमींदार द्वारा जमा कराना अनिवार्य था। जो जमींदार अपनी निश्चित राजस्व राशि जमा नहीं करा पाता था, उनसे राजस्व वसूल करने के लिए उनकी सम्पदाओं (महाल) की नीलामी कर दी जाती थी ।
बर्दवान में की गई नीलामी की एक घटना : –
🔹 बद्रवान (आधुनिक बर्द्धमान) में 1797 ई. में एक नीलामी की घटना घटित हुई। बद्रवान के राजा के द्वारा धारित अनेक भू-सम्पदाएँ बेची जा रही थी क्योंकि बद्रवान के राजा पर राजस्व की बड़ी भारी रकम बकाया थी ।
🔹 नीलामी में बोली लगाने के लिए अनेक खरीददार उपस्थित होते थे, जो सबसे ऊँची बोली लगाता था उसी को सम्पदाएँ (महाल) बेच दी जाती थीं लेकिन जिलाधीश (कलेक्टर) के समक्ष एक अजीब बात सामने आयी कि नीलामी में बोली लगाने वाले खरीददार राजा (जमींदार) के ही एजेन्ट अथवा नौकर होते थे । नीलामी में 95 प्रतिशत से अधिक बिक्री फर्जी
थी।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) की मुख्या धाराएं : –
- इसमें जमींदारों को एक निश्चित राशि पर भूमि दी गई।
- जमींदार की मृत्यु के पश्चात उसके उत्तराधिकारी को भूमि का स्वामित्व प्राप्त ।
- जमींदारों को तय की गई राशि को निश्चित समय सीमा के अन्दर कम्पनी को देना होता था ।
- सूर्यास्त कानून के तहत यह राशि देय तिथि को सूर्यास्त से पहले जमा करनी पड़ती थी ।
- जमा न किए जाने पर जमींदार की जमीन नीलाम का दी जाती।
- तय राशि की दरें निश्चित ( स्थायी) होती एव ऊँची जमींदार कम्पनी के समाहर्ता व किसान एक किरायेदार के रूप में होते।
- राजस्व राशि का 10 / 11 भाग कम्पनी का तथा 1 / 11 भाग जमींदार का होता ।
- राजस्व की मांग निर्धारित किए जाने पर जमींदारों में सुरक्षा का भाव होता, ऐसी कम्पनी की सोच थी ।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) को लागू करने के उद्देश्य : –
- स्थायी रूप से राजस्व की राशि तय करने पर कम्पनी को नियमित राशि प्राप्त हो सकेगी।
- इसके अतिरिक्त बंगाल विजय के समय से ही जो परेशानियाँ आईं वे दूर हो जायेंगी क्योंकि बंगाल की ग्रामीण आर्थिक व्यवस्था 1770 के दशक से दयनीय तथा संकटपूर्ण स्थिति का सामना कर रही थी।
- अकाल की पुनरावृत्ति होने के कारण कृषि नष्ट हो रही थी।
- व्यापार पतन की ओर अग्रसर था।
- कृषि निवेश के अभाव में क्षेत्र में राजस्व संसाधन का अभाव हो गया था ।
- कृषि निवेश को प्रोत्साहन देने के लिये जमींदारों को विशेष क्षेत्र (सम्पत्ति ) देकर राजस्व वसूल की माँग को स्थायी रूप से करने पर कम्पनी को आर्थिक लाभ होगा।
- इसके अतिरिक्त कृषकों तथा जमींदारों (धनी भू-स्वामियों) का एक ऐसा समूह पैदा होगा जो ब्रिटिश कम्पनी का वफादार वर्ग साबित होगा जिसके पास कृषि में निवेश करने के लिये उद्यम तथा पूँजी होंगे।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) के लगी होने की पूरी प्रक्रिया : –
- कंपनी के अधिकारियों के बीच परस्पर लंबे वाद-विवाद के बाद, बंगाल के राजाओं और ताल्लुकदारों के साथ इस्तमरारी बंदोबस्त लागू किया गया।
- अब उन्हें ज़मींदारों के रूप में वर्गीकृत किया गया और उन्हें सदा के लिए एक निर्धारित राजस्व माँग को अदा करना था।
- इस परिभाषा के अनुसार, ज़मींदार गाँव में भू-स्वामी नहीं था, बल्कि वह राज्य का राजस्व समाहर्ता (यानी संग्राहक ) मात्र था।
- ज़मींदारों के नीचे अनेक ( कभी-कभी तो 400 तक) गाँव होते थे ।
- कंपनी के हिसाब से, एक ज़मींदारी के भीतर आने वाले गाँव मिलाकर एक राजस्व संपदा का रूप ले लेते थे।
- कंपनी समस्त संपदा पर कुल माँग निर्धारित करती थी।
- तदोपरांत, ज़मींदार यह निर्धारित करता था कि भिन्न-भिन्न गाँवों से राजस्व की कितनी – कितनी माँग पूरी करनी होगी।
- और फिर ज़मींदार उन गाँवों से निर्धारित राजस्व राशि इकट्ठी करता था ।
🔹 ज़मींदार से यह अपेक्षा की जाती थी कि वह कंपनी को नियमित रूप से राजस्व राशि अदा करेगा और यदि वह ऐसा नहीं करेगा तो उसकी संपदा नीलाम की जा सकेगी।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) की विशेषताएँ : –
- सरकार ने जमींदारों से सिविल और दीवानी सम्बन्धित मामले वापस ले लिये।
- जमींदारों को लगान वसूली के साथ-साथ स्थाई भूमि स्वामी के अधिकार भी प्राप्त हुये । वे अपने स्वामित्व को अपने पुत्र या किसी व्यक्ति को दे सकते थे ।
- सरकार को दिये जाने वाले लगान की राशि को निश्चित कर दिया गया जिसे अब बढ़ाया नहीं जा सकता था।
- जमींदारों द्वारा किसानों से एकत्र किये हुये भूमि कर का 10/11 भाग सरकार को देना पड़ता था। शेष 1/11 भाग अपने पास रख सकते थे ।
- सरकार द्वारा निश्चित भूमि कर की अदायगी में जमींदारों की असमर्थता होने पर सरकार द्वारा उसकी भूमि का कुछ भाग बेचकर यह राशि वसूल की जाती थी।
- भूमिकर की निश्चित की गई राशि के अलावा सरकार को कोई और कर या नजराना आदि जमींदारों को नहीं चुकाना होता था ।
- किसानों और जमींदारों के आपसी विवादों में सरकार कोई हस्तक्षेप नहीं करेगी ऐसा कहा गया था।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) व्यवस्था के लाभ : –
- स्थायी बंदोबस्त होने से सरकार की आय निश्चित हो गई।
- बार-बार बंदोबस्त करने की परेशानी से सरकार को छुटकारा मिल गया था।
- स्थायी बंदोबस्त के होने से जमींदारों को लाभ हुआ। अतः वे सरकार के स्वामिभक्त बन गये। उन्होंने 1857 के विद्रोह में सरकार का पूरी तरह साथ दिया।
- स्थायी बंदोबस्त हो जाने से सरकारी कर्मचारी तथा अधिकारी अधिक समय मिलने के कारण लोक-कल्याण के कार्य कर सकते थे।
- चूँकि सरकार को निश्चित राशि देनी होती थी । अतः कृषि सुधार एवं भूमि सुधार से जमींदारों को अधिक लाभ हुआ।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) व्यवस्था के दोष : –
- भूमिकर की राशि बहुत अधिक निश्चित की गई थी, जिसे न चुका सकने पर जमींदारों की भूमि बेचकर यह राशि वसूल की गई।
- स्थायी बन्दोबस्त किसानों के हित को ध्यान में रखकर नहीं किया गया था। अधिक-से-अधिक राशि वसूल करने हेतु किसानों के साथ जमींदारों द्वारा कठोर व्यवहार किया गया।
- सरकार ने कृषि सुधार हेतु कोई ध्यान नहीं दिया क्योंकि इससे होने वाले फायदे से उसे कोई लाभ नहीं था। लगान की राशि तो पहले ही निश्चित कर चुकी थी।
- स्थायी बन्दोबस्त ने जमींदारों को आलसी और विलासी बना दिया।
- बंगाल में जमींदारों और किसानों में आपसी विरोध बढ़ने लगा था।
- जमींदारों ने भी कृषि की उपज बढ़ाने हेतु कोई ध्यान नहीं दिया। वे शहरों में जा बसे और उनके प्रतिनिधियों द्वारा किसानों पर अत्याचार किया गया।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) से जमीदारों का उद्देश्य और लाभ : –
- जमीदार भूमि के वास्तविक स्वामी बन गए और उनका यह अधिकार वंशानुगत बन गया ।
- जमीदार अंग्रेजों की जड़ें भारत में मजबूत करने में मदद करने लगे ।
- जमीदार जब जमीनों के मालिक बन गए तो वह कृषि में रुचि लेने लगे और भारत में उत्पादन में भारी वृद्धि हुई जिससे अंग्रेजों को राजस्व प्राप्त करने में और अधिक पैसा मिलने लगा जिसका लाभ भारतीय जमीदारों को भी हुआ ।
- कंपनी को प्रतिवर्ष निश्चित आय की प्राप्ति होने लगी ।
- बार – बार लगान की दरें निर्धारित करने का झंझट खत्म हो गया ।
- लगान वसूल करने के लिए कंपनी को अब अधिकारियों की आवश्यकता नहीं रही और धन स्वयं जमीदार इकट्ठा करके कंपनी तक पहुंचाने लगे ।
इस्तमरारी बंदोबस्त ( स्थाई बंदोबस्त ) के किसानों पर बुरे प्रभाव : –
- किसानों को जमीदारों की दया पर छोड़ दिया गया ।
- जमीदार किसानों का बेरहमी से शोषण करने लगे ।
- किसानों का जमीन पर कोई हक नहीं रहा वह सिर्फ जमीन पर मजदूर बनकर रह गए।
- लगान की दरें बहुत अधिक थी जिससे वह दिनों दिन गरीब होते चले गए ।
- किसानों के पास अपनी जमीन बचाने के लिए कोई कानूनी अधिकार नहीं रह गया ।
- समाज में आर्थिक और सामाजिक शोषण बढ़ता गया जिसके कारण किसान गरीब व जमीदार धनवान बनते चले गए ।
जमींदारों द्वारा समय पर राजस्व राशि जमा न करने के कारण ( in short ) : –
🔹 इस्तमरारी बंदोबस्त लागू होने के कुछ दशकों में ही जमींदार अपनी राजस्व राशि चुकाने में असफल रहे, जिसके कारण राजस्व की बकाया राशि बढ़ती चली गई। कम्पनी को राजस्व की राशि चुका पाने में जमींदारों की असफलता के प्रमुख कारण इस प्रकार थे : –
- प्रारंभिक राजस्व माँगें बहुत ऊँची थीं।
- ये ऊँची राजस्व माँगें 1790 के दशक से लागू की गईं जब कृषि उपज की कीमतें नीची थीं, जिससे रैयत (किसानों) के लिए, जमींदारों को उनकी देय राजस्व चुका पाना कठिन था ।
- राजस्व की दर असमान थीं।
- फसल अच्छी हो या खराब राजस्व का ठीक समय पर भुगतान अनिवार्य था ।
- जमींदार की शक्ति को सीमित कर दिया गया।
राजस्व राशि के भुगतान में जमींदार क्यों चूक करते थे? जमींदारों द्वारा समय पर राजस्व राशि जमा न करने के कारण ( in detail ) : –
🔸 पहला : प्रारंभिक माँगें बहुत ऊँची थीं, क्योंकि ऐसा महसूस किया गया था कि यदि माँग को आने वाले संपूर्ण समय के लिए निर्धारित किया जा रहा है तो आगे चलकर कीमतों में बढ़ोतरी होने और खेती का विस्तार होने से आय में वृद्धि हो जाने पर भी कंपनी उस वृद्धि में अपने हिस्से का दावा कभी नहीं कर सकेगी।
🔸 दूसरा : यह ऊँची माँग 1790 के दशक में लागू की गई थी जब कृषि की उपज की कीमतें नीची थीं, जिससे रैयत (किसानों) के लिए, ज़मींदार को उनकी देय राशियाँ चुकाना मुश्किल था। जब ज़मींदार स्वयं किसानों से राजस्व इकट्ठा नहीं कर सकता था तो वह आगे कंपनी को अपनी निर्धारित राजस्व राशि कैसे अदा कर सकता था?
🔸 तीसरा : राजस्व असमान था, फ़सल अच्छी हो या ख़राब राजस्व का ठीक समय पर भुगतान ज़रूरी था । वस्तुतः सूर्यास्त विधि (कानून) के अनुसार, यदि निश्चित तारीख़ को सूर्य अस्त होने तक भुगतान नहीं आता था तो ज़मींदारी को नीलाम किया जा सकता था।
🔸 चौथा : इस्तमरारी बंदोबस्त ने प्रारंभ में ज़मींदार की शक्ति को रैयत से राजस्व इकट्ठा करने और अपनी ज़मींदारी का प्रबंध करने क सीमित कर दिया था।
जमींदारों की शक्तियों पर नियंत्रण : –
🔹 कम्पनी जमींदारों को पूरा महत्व देती थी, किन्तु उनकी शक्तियों को सीमित करना चाहती थी। इसलिए
- जमींदारों की सैन्य टुकड़ियाँ समाप्त कर दी गई।
- सीमा शुल्क समाप्त कर दिया गया।
- उनकी कचहरियों को कम्पनी द्वारा नियुक्त कलेक्टर की देखरेख में रख दिया।
- जमींदारों से स्थानीय न्याय और पुलिस की शक्ति छीन ली गई।
जमींदार अपनी जमीन को नीलामी से बचाने के लिए क्या करते थे ?
- जमींदारी को घर की महिलाओं के नाम करवा देते थे।
- अपने एजेंट के माध्यम से नीलामी में जोड़-तोड़ करते थे ।
- अपने लठैतो के माध्यम से दूसरे व्यक्ति को बोली लगाने से रोकते थे ।
- जान बूझकर ऊँची बोली लगाते तथा बाद में खरीदने से इनकार कर देते ।
सूर्यास्त विधि : –
🔹 इस विधि के अनुसार यदि जमींदार निश्चित तिथि में सूर्यास्त होने तक अपना राजस्व नहीं चुका पाते थे तो कर की कीमत दोगुनी कर दी जाती थी और कई स्थितियों में जमींदारों की संपत्ति को नीलम भी कर दिया जाता था ।
जोतदार : –
🔹 18वीं शताब्दी के अन्त में धनी किसानों के कुछ समूह गाँवों में अपनी स्थिति मजबूत कर रहे थे, जिनको ‘जोतदार’ कहा जाता था जिसका विवरण फ्रांसिस बुकानन के सर्वे में पाते हैं।
जोतदारों का उदय : –
🔹 19वीं शताब्दी के प्रारंभिक वर्षों तक जोतदारों ने जमीन के बड़े-बड़े टुकड़ों पर अपना नियन्त्रण स्थापित कर लिया था। जमींदार का स्थानीय व्यापार तथा साहूकार के कारोबार पर भी त्रण था। उसकी जमीन का एक बड़ा भाग बटाईदारों (अधियारों या बरगादारों) द्वारा जोता जाता था। वे अपना हल स्वयं लाते थे, खेतों में मेहनत करते थे तथा जोतदारों को फसल के बाद उपज का आधा हिस्सा देते थे।
जोतदारों की स्थिति : –
- जमींदारों की अपेक्षा जोतदारों की शक्ति गाँवों में अधिक प्रभावी थी।
- जोतदार गाँव की जमा (लगान) को बढ़ाने के लिए जमींदारों द्वारा किए जाने वाले प्रयासों का घोर प्रतिरोध करते थे।
- जोतदार अपने पर निर्भर रैयतों को अपने पक्ष में एकजुट रखते थे तथा जान-बूझकर जमींदार को राजस्व के भुगतान में देरी कराते थे।
- जब राजस्व का भुगतान न किए जाने पर जमींदार की जमींदारी को नीलाम किया जाता था तो प्रायः जोतदार ही उन जमीनों को खरीद लेते थे।
- उत्तरी बंगाल में जोतदार सबसे अधिक शक्तिशाली थे।
- कुछ स्थानों पर उन्हें ‘हवलदार’ तथा कुछ अन्य स्थानों पर वे ‘गाँटीदार’ या ‘मंडल’ कहलाते थे।
पाँचवीं रिपोर्ट : –
🔹 1813 में ब्रिटिश संसद में एक रिपोर्ट पेश की गई थी । ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ एक ऐसी ही रिपोर्ट है जो एक प्रवर समिति द्वारा तैयार की गई थी। यह रिपोर्ट भारत में ईस्ट इंडिया कंपनी के शासन के स्वरूप पर ब्रिटिश संसद में गंभीर वाद-विवाद का आधार बनी।
🔹 ‘पाँचवीं रिपोर्ट’ के नाम से उल्लिखित यह रिपोर्ट 1,002 पृष्ठों में थी। इसके 800 से अधिक पृष्ठ परिशिष्टों के थे जिनमें ज़मींदारों और रैयतों की अर्जियाँ, भिन्न-भिन्न जिलों के कलेक्टरों की रिपोर्टें, राजस्व विवरणियों से संबंधित सांख्यिकीय तालिकाएँ और अधिकारियों द्वारा बंगाल और मद्रास के राजस्व तथा न्यायिक प्रशासन पर लिखित टिप्पणियाँ शामिल की गई थीं।
पहाड़ियाँ कौन थे?
🔹 पहाड़िया राजमहल पहाड़ी के जंगलों में रहते थे। झूम खेती करते थे। खाने के लिए महुआ इकट्ठा करते और बेचने के लिए रेशम के कीड़े पालते लकड़ियों से काठ कोयला बनाते इमली और आम के पेड़ आश्रय स्थल थे। पूरे प्रदेश को ये अपने निजी भूमि मानते ।
🔹 वे बाहरी लोगों के प्रवेश का प्रतिरोध करते थे। उनके मुखिया लोग अपने समूह में एकता बनाए रखते थे, आपसी लड़ाई-झगड़े निपटा देते थे और अन्य जनजातियों तथा मैदानी लोगों के साथ लड़ाई छिड़ने पर अपनी जनजाति का नेतृत्व करते थे।
पहाड़ियाँ और स्थानीय कृषकों के बीच विवाद : –
🔹 जब स्थायी कृषि का विकास हुआ, कृषि क्षेत्र के विकास के लिए पहाड़ियाँ और स्थानीय कृषकों के बीच झगड़ा प्रारंभ हुआ, वे नियमित रूप से गाँव पर हमले बोलने लगे और ग्रामवासियों से अनाज और पशु छीन-झपट कर ले जाने लगे।
🔸पहाड़ियों द्वारा आक्रमण करने का कारण : – पहाड़ियों द्वारा ये आक्रमण ज़्यादातर अपने आपको विशेष रूप से अभाव या अकाल के वर्षों में जीवित रखने के लिए किए जाते थे। साथ ही, ये हमले मैदानों में बसे हुए समुदायों पर अपनी ताक़त दिखलाने का भी एक तरीक़ा था। इसके अलावा, ऐसे आक्रमण बाहरी लोगों के साथ अपने राजनीतिक संबंध बनाने के लिए भी किए जाते थे।
ब्रिटिश अधिकारियों और पहाड़ियाँ : –
🔹 1770 ई. के दशक में ब्रिटिश अधिकारियों ने पहाड़िया लोगों का दमन करने की क्रूर नीति अपनाई तथा उनका शिकार व संहार करना शुरू कर दिया।
🔹 भागलपुर के कलेक्टर ऑगस्टस क्लीवलैंड ने 1780 के दशक में शांति स्थापना की नीति का प्रस्ताव रखा जिसके अनुसार पहाड़िया मुखियाओं को एक वार्षिक भत्ता दिया जाना था तथा बदले में उन्हें अपने आदमियों के चाल-चलन को सही रखने की जिम्मेदारी लेनी थी। इस प्रस्ताव को स्वीकार करने वालों में से अधिकांश अपने समुदाय में अपनी सत्ता से बाहर हो गए।
संथाल : –
🔹 1780 के दशक के आस-पास संथाल लोग बंगाल में आने लगे वे जमींदारों के यहाँ भाड़े पर काम करते थे, अंग्रेजों ने उनका उपयोग जंगल की सफाई के लिए किया। वे भूमि को ताकत लगाकर जोतते । हल इनकी पहचान थी तथा ये स्थायी कृषि में विश्वास करते थे।
संथालो का आगमन : –
🔹 सन् 1800 ई. के आसपास राजमहल के पहाड़ी क्षेत्रों में संथाल लोगों का आगमन हुआ। ये लोग वहाँ के जंगलों को साफ करने के लिए इमारती लकड़ी को काटते थे तथा वहाँ की जमीन जोतकर चावल तथा कपास उगाते थे। चूँकि संथालों ने निचली पहाड़ियों पर अपना अधिकार जमा लिया था इसलिए पहाड़ी लोगों को राजमहल की पहाड़ियों में और भी पीछे हटना पड़ा।
🔹 वैसे दोनों जनजातियाँ थीं, दोनों झूम खेती करते थे लेकिन फर्क इतना था कि पहाड़िया खेती के लिए कुदाल का प्रयोग करते थे जबकि संथाल हलों का। संथाल और पहाड़ियों के मध्य संघर्ष काफी समय तक चला। (संघर्ष में पहाड़ियों को पीछे हटना पड़ा था। )
संथाल लोग राजमहल की पहाड़ियों में कैसे पहुँचे ?
🔹 संथाल 1780 के दशक के आस-पास बंगाल में आने लगे थे। ज़मींदार लोग खेती के लिए नयी भूमि तैयार करने और खेती का विस्तार करने के लिए उन्हें भाड़े पर रखते थे । ब्रिटिश अधिकारियों का ध्यान संथालों की ओर गया।
🔹 उन्होंने संथालों को राजमहल की पहाड़ियों पर जंगल साफ करने के लिए आमन्त्रण दिया था। ये स्थायी कृषि भी करते थे तथा हल भी चलाते थे। 1832 में इन्हें राजमहल पहाड़ियों के निचले भाग में बसने के लिए एक बड़ा क्षेत्र ‘दामिन-इ-कोह’ दे दिया। इस जगह को संथालों की भूमि घोषित कर यहाँ तक इनको सीमांकित कर दिया ।
संथालों की बस्तियों में वृद्धि : –
🔹 दामिन-इ-कोह के सीमांकन के बाद, संथालों की बस्तियाँ बड़ी तेजी से बढ़ीं, संथालों के गाँवों की संख्या जो 1838 में 40 थी, तेज़ी से बढ़कर 1851 तक 1,473 तक पहुँच गई। इसी अवधि में, संथालों की जनसंख्या जो केवल 3,000 थी, बढ़कर 82,000 से भी अधिक हो गई। जैसे-जैसे खेती का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे कंपनी की तिजोरियों में राजस्व राशि में वृद्धि होती गई ।
संथाल विद्रोह : –
🔹 संथालों ने स्थायी कृषि तो शुरू कर दी, परन्तु सरकार के द्वारा संथालों की जमीन पर भारी कर लगा दिया गया। साहूकार बहुत उच्च ब्याज दर पर ऋण दे रहे थे व कर्ज अदा न कर पाने की स्थिति में उनकी जमीन पर कब्जा कर रहे थे और तो और जमींदार लोग संथालों की जमीन पर नियन्त्रण का दावा कर रहे थे। अतः 1850 ई. के दशक में उन्होंने विद्रोह कर दिया जिसे अंग्रेजों ने बुरी तरह कुचला ।
🔹इस विद्रोह का नेतृत्व सिद्धू तथा कान्हू ने किया था । विद्रोही गतिविधियों के तहत संथालों ने जमींदारों तथा महाजनों के घरों को लूटा, खाद्यान्न को छीना, सरकारी अधिकारियों ने विद्रोह को दबाने के लिये मार-पीट करके उनका दमन प्रारम्भ किया जिससे ये विद्रोही और अधिक उग्र हो गये। सिद्धू तथा कान्हू को संथालों ने ईश्वर के भेजे हुए दूत माना और इन्हें विश्वास था कि ये इन शोषणों से मुक्ति दिलायेंगे ।
संथाल विद्रोह के प्रमुख कारण : –
- संथालों की जमीन पर सरकार द्वारा भारी कर लगाना।
- सरकार द्वारा ऊँची ब्याज दर वसूलना तथा कर्ज न अदा करने की स्थिति में जमीन पर कब्जा कर लेना था।
संथालो की माँगें : –
🔹 संथाल अस्त्र-शस्त्र, तीर-कमान, भाला, कुल्हाड़ी आदि लेकर एकत्रित हुए और अंग्रेजों (सरकारी अधिकारियों) तथा जमींदारों से धमकी के साथ तीन माँगें प्रस्तुत कीं : –
- (i) उनका शोषण बन्द किया जाये,
- (ii) उनकी जमीनें वापस की जायें,
- (iii) उनको स्वतन्त्र जीवन जीने दिया जाये।
🔹 सरकारी अधिकारियों ने इस चेतावनी पर ध्यान नहीं दिया तो संथालों ने जमींदारों, साहूकारों तथा सरकारी अधिकारियों के विरोध में सशस्त्र विद्रोह आरम्भ कर दिया।
विद्रोह का दमन : –
🔹 संथाल परगनों में यह विद्रोह तीव्र गति से फैला जिसमें निम्न वर्ग के गैर-संथालियों ने संथालों के साथ विद्रोह में बढ़-चढ़कर भाग लिया। लेकिन सरकारी अधिकारियों द्वारा यह विद्रोह दबा दिया गया क्योंकि अंग्रेजों के हथियार अधिक आधुनिक थे।
🔹 अंग्रेजी दमन ने विद्रोह को कुचने के लिए सारे क्षेत्र की छानबीन कर, विद्रोह में लिप्त व्यक्तियों को पकड़ लिया गया तथा गाँवों में अधिकारियों ने आग लगा दी है । अन्त में अंग्रेजों द्वारा संथालों का दमन कर दिया गया।
सूपा : –
🔹 सूपा (पूना जिले का एक बड़ा गाँव) एक विपणन केन्द्र (मंडी) जहाँ अनेक व्यापारी और साहूकार रहते थे। यहाँ 12 मई 1875 को ग्रामीण इलाकों में किसानों ने विद्रोह कर दिया। साहूकारों के बही खाते, ऋणपत्र को जला दिया। इसे दक्कन का विद्रोह कहते हैं।
1780 के दशक के आस-पास संथालों का बंगाल क्षेत्र में आगमन : –
- जमींदारों द्वारा खेती के लिए नयी भूमि की आवश्यकता ।
- भूमि तैयार करने में संथालों के श्रम का प्रयोग ।
- ब्रिटिश अधिकारियों द्वारा संथालों को महालों में बसने का निमंत्रण।
- ब्रिटिश पहाड़ियों को नियंत्रित करने में असफल ।
- पहाड़ियों का हल को अपनाने से इंकार।
- उपरोक्त कारणों से ब्रिटिश का झुकाव संथालों की ओर ।
- ब्रिटिश की नजर में संथाल आदर्श वाशिंदे क्योंकि – संथालों को जंगल साफ करने से परहेज नहीं ।
- संथाल का भूमि को पूरी ताकत लगाकर जोतना ।
- अंग्रेजों द्वारा संथालों को राजमहल की तलहटी में बसाना ।
- 1832 तक जमीन का काफी बड़ा इलाका दामिन-इ-कोह के रूप में सीमांकित ।
- दामिन-इ-कोह संथालों की भूमि घोषित ।
- संथाल स्थायी किसान के रूप में स्थापित ।
- अंग्रेजों के भू-राजस्व में संथालों का योगदान ।
देहात में विद्रोह ( बम्बई दक्कन का विद्रोह ) : –
🔹 19वीं शताब्दी के दौरान, भारत के विभिन्न प्रान्तों के किसानों ने साहूकारों और अनाज के व्यापारियों के विरुद्ध अनेक विद्रोह किए। ऐसा ही एक विद्रोह दक्कन में 1875 ई. में हुआ।
🔹 यह आन्दोलन पूना (आधुनिक पुणे) जिले के एक बड़े गाँव सूप में प्रारम्भ हुआ। 12 मई, 1875 ई. को आसपास के ग्रामीण रैयत (किसान) एकत्रित हो गए, उन्होंने साहूकारों से उनके बही खातों और ऋणपत्रों की माँग करते हुए उन पर हमला बोल दिया। उन्होंने उनके बहीखाते जला दिए, साहूकारों के घरों को भी जला दिया तथा अनाज की दुकानें लूट ली।
🔹 पूना से यह विद्रोह अहमदनगर में फैल गया। फिर अगले दो महीनों में यहाँ और भी आग फैल गई और 6,500 वर्ग किलोमीटर का इलाका इनकी चपेट में आ गया।
दक्कन का विद्रोह के परीणाम : –
- तीस से अधिक गाँव इससे कुप्रभावित हुए।
- सब जगह विद्रोह का स्वरूप एकसमान ही था।
- साहूकारों पर हमला किया गया।
- बही-खाते जला दिए गए और ऋणबंध नष्ट कर दिए गए।
- किसानों के हमलों से घबराकर साहूकार गाँव छोड़कर भाग गए।
- अधिकतर मामलों में वे अपनी संपत्ति और धन-दौलत भी वहीं पीछे छोड़ गए।
- विद्रोही किसानों के गाँवों में पुलिस थाने स्थापित किए गए।
- जल्दी से सेनाएँ बुला ली गईं।
- 95 व्यक्तियों को गिरफ़्तार कर लिया गया और उनमें से बहुतों को दंडित दिया गया।
- लेकिन देहात को काबू करने में कई महीने लग गए।
एक नयी राजस्व प्रणाली : –
🔹 1810 ई. के बाद खेती की कीमतें बढ़ गईं जिससे उपज के मूल्य में वृद्धि हुई ।
🔹 इसके फलस्वरूप बंगाल के जमींदारों की आय में वृद्धि हुई । 19वीं शताब्दी में औपनिवेशिक शासन में शामिल किए गए क्षेत्रों में नये राजस्व बंदोबस्त लागू किए गए।
🔹 1820 के दशक तक इंग्लैण्ड में डेविड रिकार्डों एक प्रमुख अधिकारी के रूप में प्रसिद्ध थे जिनके अनुसार भू-स्वामी को उस समय लागू ‘औसत लगानों’ को पाने का ही हक होना चाहिए। जब भूमि से औसत लगान’ से अधिक प्राप्ति होने लगे तो भू-स्वामी को अधिशेष आय होगी जिस पर सरकार को कर लगाने की जरूरत होगी।
रैयतवाड़ी : –
🔹 औपनिवेशिक सरकार द्वारा बम्बई दक्कन में लागू की गई राजस्व की प्रणाली को रैयतवाड़ी कहा गया। इस प्रणाली के तहत राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय की जाती थी।
🔸 रैयतवाड़ी के अंतर्गत : –
- राजस्व की राशि सीधे रैयत के साथ तय की जाती थी।
- भिन्न-भिन्न प्रकार की भूमि से होने वाली औसत आय का अनुमान लगा लिया जाता था ।
- रैयत की राजस्व अदा करने की क्षमता का आकलन कर लिया जाता था ।
- सरकार के हिस्से के रूप में उसका एक अनुपात निर्धारित कर दिया जाता था।
- हर 30 साल के बाद ज़मीनों का फिर से सर्वेक्षण किया जाता था और राजस्व की दर तदनुसार बढ़ा दी जाती थी।
- इसलिए राजस्व की माँग अब चिरस्थायी नहीं रही थी।
राजस्व की माँग और किसान का कर्ज़ : –
🔹 बम्बई दक्कन में पहला राजस्व बंदोबस्त 1820 के दशक में किया गया।। 1832 ई. के बाद कृषि उत्पादों में तेजी से गिरावट आयी जिसके परिणामस्वरूप किसानों की आय में और भी गिरावट आ गई।
🔹 1832-34 ई. के वर्षों में ग्रामीण इलाके अकाल की चपेट में बर्बाद हो गए। दक्कन का अधिकांश पशुधन अकाल की चपेट में आ गया तथा आधी मानव आबादी भी मौत की चपेट में आ गई। इन सभी समस्याओं से निपटने के लिए किसानों को महाजनों से ऋण लेना पड़ा ।
🔹 ऋणदाता से पैसा उधार लेकर ही राजस्व चुकाया जा सकता था लेकिन यदि रैयत ने एक बार ऋण ले लिया तो उसे वापस करना उसके लिए कठिन हो गया। कर्ज़ बढ़ता गया, उधार की राशियाँ बकाया रहती गईं और ऋणदाताओं पर किसानों की निर्भरता बढ़ती गई।
🔹 अब स्थिति यहाँ तक बिगड़ गई थी कि किसानों को अपनी रोज़मर्रा की जरूरतों को खरीदने और अपने उत्पादन के खर्च को पूरा करने के लिए भी कर्जे लेने पड़ते थे। 1840 के दशक तक अधिकारियों को भी इस बात का साक्ष्य मिलने लगा था कि सभी जगह के किसान कर्ज के बोझ के तले भयंकर रूप से दबे जा रहे थे।
ब्रिटेन ओर कपास : –
🔹 1860 के दशक से पूर्व ब्रिटेन में कच्चे माल के रूप में आयात की जाने वाली समस्त कपास का तीन-चौथाई भाग संयुक्त राज्य अमेरिका से आता था। ब्रिटेन के सूती वस्त्रों के विनिर्माता काफ़ी लंबे अरसे से अमेरिकी कपास पर अपनी निर्भरता के कारण बहुत परेशान थे। अगर यह स्रोत बंद हो गया तो हमारा क्या होगा?
🔹 इसलिए ब्रिटेन में 1857 ई. में कपास आपूर्ति संघ की स्थापना हुई तथा 1859 ई. में मैनचेस्टर कॉटन कंपनी बनाई गई। उनका उद्देश्य “दुनिया के हर भाग में कपास के उत्पादन को प्रोत्साहित करना था जिससे कि उनकी कंपनी का विकास हो सके।”
🔹 ब्रिटेन द्वारा भारत को एक ऐसा देश माना गया जो संयुक्त राज्य अमेरिका से कपास की आपूर्ति बन्द हो जाने की स्थिति में लंकाशायर को कपास दे सकता था ।
कपास में तेजी : –
🔹 अमेरिका में 1861 में गृह युद्ध छिड़ गया, तो ब्रिटेन के कपास क्षेत्र में तहलका मच गया, क्योंकि अमेरिका से कपास आयात मुश्किल हो गया जिस कमी की पूर्ति भारत से अधिक मात्रा में कपास का आयात करके किया गया, इसके लिए भारतीय किसानों को कपास के उत्पादन के लिए प्रोत्साहित किया गया। साहूकारों द्वारा ऋण उपलब्ध करवाया गया।
🔹 सन् 1862 ई. तक ब्रिटेन के आयात की कपास का 90 प्रतिशत भाग भारत से ही जाता था लेकिन इसका लाभ कुछ धनिक कृषकों को ही हुआ एवं शेष कृषक कर्ज के बोझ से दब गए।
कपास में गिरावट : –
🔹 1865 के आस-पास जब अमेरिकी गृहयुद्ध समाप्त हुआ तो अमेरिका में फिर से कपास का उत्पादन चालू हो गया, जिससे भारत से निर्यात में कमी आ गई।
🔹 निर्यात व्यापारी और साहूकार किसानों को दीर्घाविधि ऋण देने से इनकार करने लगे। उसी समय रैयतवाड़ी क्षेत्र में कर का फिर से निर्धारण होना था जिसे नाटकीय ढंग से 50 से 100% तक बढ़ा दिया गया। किसान अपने को ठगा महसूस करने लगे जो दक्कन विद्रोह का कारण बना।
🔹 ऋणदाताओं ने किसानों को ऋण देने से मना कर दिया जिससे वे ऋणदाताओं को कुटिल व धोखेबाज समझने लगे थे।
अमेरिकी गृहयुद्ध (सन् 1861 ) का ब्रिटेन के कपास क्षेत्र पर असर : –
- अमेरिका से ब्रिटेन आने वाले कच्चे माल में भारी गिरावट ।
- भारत तथा अन्य देशों को ब्रिटेन कपास निर्यात करने का संदेश ।
- बम्बई से कपास के सौदागरों द्वारा कपास पैदा करने वाले क्षेत्रों का दौरा ।
- कपास की कीमतों में उछाल ।
- कपास निर्यातकों द्वारा अधिक से अधिक कपास खरीदकर ब्रिटेन भेजना।
- शहरी साहुकारों को अधिक अग्रिम राशि दिया जाना ।
- कारण साहुकार ग्रामीण ऋणदाताओं को राशि दे सकें ।
- ग्रामीणों को ऋण आसानी से मिलना।
- दक्कन के इलाकों में रैयतों को अचानक असीमित ऋण उपलब्ध ।
- कपास के उत्पादन में तेजी ।
- कुछ धनी किसानों को लाभ।
- अधिकांश किसानों का कर्ज के बोझ से और अधिक दब जाना ।
परिसीमन क़ानून : –
🔹 सन् 1859 ई. में अंग्रेजों के द्वारा एक परिसीमन कानून पारित किया गया जिसमें कहा गया कि ऋणदाता व किसानों के मध्य हस्ताक्षरित ऋणपत्र केवल तीन वर्षों के लिए ही मान्य होगा ।
🔹 इस कानून का उद्देश्य लम्बे समय तक ब्याज को संचित होने से रोकना था, परन्तु सूदखोरों ने इस कानून में भी हेराफेरी कर इसे अपने पक्ष में कर लिया।
दक्कन जाँच आयोग की रिपोर्ट : –
🔹 दक्कन में विद्रोह फैलने पर बम्बई सरकार ने उसे गम्भीरतापूर्वक नहीं लिया। भारत सरकार द्वारा दबाव डालने पर बम्बई सरकार ने एक जाँच आयोग की स्थापना की। 1878 ई. में दक्कन जाँच आयोग की रिपोर्ट ब्रिटिश संसद में प्रस्तुत की गई जिसमें दंगा फैलने का कारण ऋणदाताओं और साहूकारों द्वारा अन्याय करना बताया गया था।
🔹 भारत में औपनिवेशिक सरकार कभी भी यह मानने को तैयार नहीं थी कि जनता में असन्तोष सरकारी कार्यवाही के कारण उत्पन्न हुआ था।
दक्कन दंगा कमीशन की रिपोर्ट की आलोचनात्मक समीक्षा : –
- दक्कन में विद्रोह के फैलने से अंग्रेज सरकार चिंतित ।
- बम्बई की सरकार पर विद्रोह के कारणों की छानबीन करने का दबाव ।
- कारणों की छानबीन के लिए आयोग का गठन |
- आयोग द्वारा रिपोर्ट तैयार कर 1878 में ब्रिटिश पार्लियामेंट में पेश ।
- रिपोर्ट को दक्कन दंगा रिपोर्ट कहा गया ।
- आयोग द्वारा दंगा पीड़ित जिलों की जाँच पड़ताल ।
- रैयत वर्ग, साहूकारों व चश्मदीद गवाहों के बयान दर्ज ।
- अलग-अलग क्षेत्रों में राजस्व दरों, कीमतों और ब्याज के संदर्भ में आंकड़े इकट्ठे ।
- जिला कलैक्टरों द्वार भेजी गई रिपोर्टों का संकलन ।
- इन रिपोर्टों का अध्ययन आलोचनात्मक रूप से करने की आवश्यकता ।
- रिपोर्ट सरकारी हैं और प्रशासन के नजरिए से लिखी गई हैं।
- ये रिपोर्ट सरकारी सरोकार और अर्थ प्रतिबिंबित करती हैं।
- उदाहरण सरकार द्वारा जाँच क्या राजस्व की मांग का स्तर विद्रोह का कारण ।
- निष्कर्ष : – सरकारी मांग रैयत के विद्रोह का कारण नहीं। सारा दोष ऋणदाताओं – या साहूकारों का ।
- औपनिवेशिक सरकार की नकारात्मक सोच – सरकारी रिपोर्ट एक बहुमूल्य स्त्रोत तथापि इसकी विश्वसनीयता की जाँच अन्य गैर-सरकारी स्त्रोतों के मिलान द्वारा किया जाना ।
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