विद्रोही और राज question answer: Class 12 history chapter 10 ncert solutions in hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 10 ncert solutions |
Chapter Name | विद्रोही और राज |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
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Class 12 History chapter 10 questions and answers in hindi [ उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में) ]
note: ये सभी प्रश्न और उत्तर नए सिलेबस पर आधारित है। इसलिए चैप्टर नंबर आपको अलग लग रहे होंगे।
प्रश्न 1. बहुत सारे स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों ने नेतृत्व सँभालने के लिए पुराने शासकों से क्यों आग्रह किया?
उत्तर: बिना नेतृत्व और संगठन के अंग्रेजों से लोहा लेना काफी मुश्किल था। इसलिए यह आवश्यक था कि विद्रोहियों को किसी के नेतृत्व में और संगठित होकर लड़ा जाए। इसी उद्देश्य से विभिन्न स्थानों पर विद्रोही सिपाहियों ने नेतृत्व संभालने के लिए पुराने शासकों से आग्रह किया। सबसे पहले मेरठ के सिपाहियों ने दिल्ली पहुँचकर मुगल बादशाह बहादुरशाह से नेतृत्व संभालने का आग्रह किया। इसी प्रकार, कानपुर में पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहिब तथा झाँसी में रानी लक्ष्मीबाई से नेतृत्व संभालने का आग्रह किया गया। बिहार में आय के स्थानीय जमींदार वीर कुंवर सिंह, अवध में नवाब वाजिद अली शाह, लखनऊ में बिरजिस कद्र को विद्रोहियों ने अपना नेता घोषित कर दिया।
प्रश्न 2. उन साक्ष्यों के बारे में चर्चा कीजिए जिनसे पता चलता है कि विद्रोही योजनाबद्ध और समन्वित ढंग से काम कर रहे थे?
उत्तर: विद्रोहों की रूप-रेखा और प्रमाणों के आधार पर ऐसा प्रतीत होता है कि विद्रोही योजनाबद्ध और समन्वित ढंग से काम कर रहे थे। विद्रोह बहुत सुनियोजित था इसका प्रमाण एक घटना द्वारा जाना जा सकता है। विद्रोह के दौरान अवध मिलिट्री पुलिस के कैप्टेन हियर्स की सुरक्षा की जिम्मेदारी भारतीय सिपाहियों पर थी। जहाँ कैप्टेन हियर्स तैनात था वहीं 41 वीं नेटिव इन्फेंट्री भी तैनात थी। इन्फेंट्री की दलील थी कि क्योंकि वे अपने सारे अग्रेंज अफसरों को मार चुके थे इसलिए अवध मिलिट्री का यह फर्ज बनता है कि या तो वे हियर्स को भी मार दें या उसे गिरफ्तार करके 41 वीं नेटिव इन्फेंट्री के हवाले कर दें।
मिलिट्री पुलिस ने इन दोनों दलीलों को खारिज कर दिया। अब यह तय किया गया कि इस मामले को हल करने के लिए प्रत्येक रेजीमेंट के देशी अफसरों की एक पंचायत बुलाई जाए। विद्रोह की सुनियोजिता के बारे में इतिहासकार चार्ल्स बॉल के लेख से पता चलता है। उसके अनुसार ये पंचायतें रात के समय कानपुर सिपाही लाइनों में जुटती थीं। स्पष्ट है कि सामूहिक रूप से कुछ फैसले जरूर लिए जा रहे थे। सिपाही लाइनों में रहते थे और सभी की जीवनशैली एक जैसी थी और क्योंकि उनमें बहुत सारे प्रायः एक ही जाति के होते थे, ऐसे में कोई योजना बनाना उनके लिए आसान था।
प्रश्न 3. 1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की किस हद तक भूमिका थी?
उत्तर: 1857 के घटनाक्रम को निर्धारित करने में धार्मिक विश्वासों की अहम् भूमिका थी।
- (i) इस संदर्भ में सबसे महत्वपूर्ण एवं तात्कालिक कारण था गाय तथा सूअर की चर्बी का लेप लगे हुए कारतूसों को मुँह से हटाना। हिन्दू और मुस्लिम दोनों ही समुदाय के सिपाही इस बात को मान रहे थे कि चर्बी लगे कारतूस को मुँह से लगाने पर उनकी जाति और धर्म दोनों भ्रष्ट हो जाएँगे।
- (ii) ईसाई पादरी भारतवासियों को लालच देकर उन्हें ईसाई बना रहे थे। इस कारण भारतीय अंग्रेजों के विरूद्ध हो गए।
- (ii) विलियम बैंटिंक द्वारा सती प्रथा को खत्म करने और हिन्दू विधवा विवाह को वैधता देने को भी धार्मिक विश्वासों के खिलाफ माना गया।
- (iii) अंग्रेजी शिक्षा के प्रसार के कारण भी भारतीयों में असंतोष फैल गया। उन्हें अब विश्वास हो गया कि अंग्रेज इस बहाने उनका धर्म परिवर्तन कर उन्हें ईसाई बना देंगे।
- (iv) ईसाई प्रचारकों द्वारा अपने धर्म के प्रचार करने तथा हिन्दू धर्म ग्रंथों की निंदा करने से भी भारतीय जनता में व्यापक असंतोष फैला।
- (v) 1856 में बने सैनिक कानून के तहत सैनिकों को लड़ने के लिए समुद्र पार भेजा जा सकता था। हिन्दू सैनिकों द्वारा इसे अपने धर्म के विरूद्ध माना गया।
प्रश्न 4. विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए क्या तरीके अपनाए गए?
उत्तर: विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए विभिन्न तरीके अपनाए गए। विद्रोहियों द्वारा जिस प्रकार की घोषणाएँ की गई उनमें किसी प्रकार के जाति और धर्म का भेदभाव नहीं किया गया था और समाज के सभी वर्गों का आहवान किया गया था। बहुत सारी घोषणाएँ मुस्लिम राजकुमारों या नवाबों की तरफ से या उनके नाम पर जारी की गई थी। लेकिन उन घोषणाओं में भी हिन्दुओं की भावनाओं का ख्याल रखा जाता था। यह विद्रोह एक ऐसे युद्ध के रूप में था जिसमें हिन्दुओं और मुसलमानों दोनों का नफा नुकसान बराबर था। इश्तहारों में अंग्रेजों के शासन से पहले के हिन्दू-मुस्लिम शासकों के अतीत का उदाहरण दिया जाता था और मुगल साम्राज्य के अन्तर्गत विभिन्न समुदायों के सहअस्तित्व का गौरवगान किया जाता था।
बहादुरशाह के नाम से जारी की गई घोषणा में मुहम्मद और महावीर, दोनों की दुहाई देते हुए जनता से इस लड़ाई में पूरे तन-मन से शरीक होने का आह्वान किया गया था। अंग्रेजों ने हिन्दू और मुसलमानों के बीच खाई पैदा करने की पूरी कोशिश की परंतु इसमें वे रत्ती भर भी सफल नहीं हो सके। जनता उनकी चाल को अच्छी तरह समझ चुकी थी। अंग्रेज शासन ने दिसंबर 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित बरेली में हिन्दुओं को मुसलमानों के खिलाफ भड़काने के लिए 50,000 रुपये खर्च किए, लेकिन वे अपनी इस कोशिश में पूरी तरह से विफल रहे।
प्रश्न 5. अंग्रेज़ों ने विद्रोह को कुचलने के लिए क्या कदम उठाए?
उत्तर: अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने के लिए अनेक कदम उठाए। उन्होंने उपद्रव शांत करने के लिए फौजियों की सुविधा के लिए कई कानून पारित कर दिए थे। मई और जून 1857 में कई कानूनों को पारित किया गया और उन कानूनों के मार्फत् समूचे उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू कर दिया गया और फौजी अफसरों और यहाँ तक कि आम अंग्रेजों को भी ऐसे हिन्दुस्तानियों पर मुकदमा चलाने और उनको सजा देने का अधिकार दे दिया गया जिन पर विद्रोह में शामिल होने का शक था। इससे पता चलता है कि अंग्रेजों ने कानून और मुकदमें की सामान्य प्रक्रिया रद्द कर दी थी और यह स्पष्ट कर दिया था कि विद्रोह की केवल एक ही सजा हो सकती है सजा-ए-मौत।
अंग्रेजों ने सैनिक ताकत का भयानक पैमाने पर इस्तमाल किया। लेकिन यह उनका एकमात्र हथियार नहीं था। अंग्रेजों ने भूस्वामियों और काश्तकारों की एकता तोड़ने के लिए बड़े जमींदारों को भी प्रलोभन दिया कि उनकी जमींदारी लौटा दी जाएगी। कई जमींदार अंग्रेजों की इस चाल में फंस गए। जिन जमींदारों ने उनकी इस चाल में फंसने से इन्कार कर दिया, उन्हें उनकी अपने हीं जमीन से बेदखल कर दिया और जो उनके वफादार बन गए, उन्हें अंग्रेजों ने ईनाम दिया। इस प्रकार उन्होंने ‘फूट डालो की नीति’ भी अपनाई।
History class 12th chapter 10 question answer in hindi [ निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में) ]
प्रश्न 6. अवध में विद्रोह इतना व्यापक क्यों था? किसान, ताल्लुक़दार और ज़मींदार उसमें क्यों शामिल हुए?
उत्तर: अवध में विद्रोह (1857) की व्यापकता का कारण –
लार्ड डलहौजी द्वारा किए गए राज्यों के अधिग्रहण के सभी इलाकों और रियासतों में गहरा असंतोष था। परंतु इतना रोष और कहीं नहीं था जैसा कि उत्तर भारत की शान कहे जाने वाले अवध में था। यहाँ के नवाब वाजिद अली पर कुशासन का आरोप लगाकर गद्दी से हटा दिया गया था और कलकत्ता निष्कासित कर दिया गया था। ब्रिटिश सरकार ने यह निराधार निष्कर्ष भी निकाल लिया कि वाजिद अली शाह लोकप्रिय नहीं है। परंतु सच यह है कि लोग उसे दिल से चाहते थे। जब वे अपने प्यारे लखनऊ से विदा ले रहे थे तो बहुत से लोग विलाप करते हुए कानपुर तक उनके पीछे गए थे।
इस भावनात्मक उथल-पुथल को भौतिक क्षति के कारण और बल मिला। नवाब को हटाए जाने से दरबार और उसकी संस्कृति भी समाप्त हो गई। संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों और बहुत से लोगों की रोजी-रोटी जाती रही। अतः सभी ने विद्रोह में बढ़-चढ़कर भाग लिया, जिससे विद्रोह एक व्यापक जन-आंदोलन बन गया।
किसानों, ताल्लुकदारों तथा जमींदारों का विद्रोह में शामिल होना: अवध के किसानों, ताल्लुकदारों तथा जमींदारों में निम्नलिखित कई बातों के कारण रोष व्याप्त था जो 1857 के विद्रोह के रूप में फूट पड़ा।
(i) अवध में लोगों की पीड़ा ने राजकुमारों, ताल्लुकदारों, किसानों और सिपाहियों को एक-दूसरे से जोड़ दिया था। फिरंगी राज के आगमन से वह सब कुछ बिखर रहा था जो लोगों के लिए बहुमूल्य था और जिसे वे प्यार करते थे। उनकी भावनाएँ और मुद्दे, परंपराएं और निष्ठाएँ 1857 के विद्रोह के रूप में अभिव्यक्त हो रही थीं।
(ii) अवध के अधिग्रहण से केवल नवाब की ही गद्दी नहीं गई थी। इसने प्रदेश के ताल्लुकदारों को भी लाचार कर दिया था। अवध के समूचे देहात में तालुक्कदारों की जागीरें और किले बिखरे हुए थे। वे लोग सदियों से अपने सिपाही रखते थे। उनके अपने किले थे। यदि वे नवाब की संप्रभुता को स्वीकार कर लेते और अपने ताल्लुक का राजस्व चुकाते रहते तो उनके पास काफी स्वायत्ता भी होती थी। कुछ बड़े ताल्लुकदारों के पास 12000 तक पैदल सिपाही होते थे। छोटे-मोटे ताल्लुकदारों के पास 200 से कम सिपाही नहीं होते थे। अंग्रेज इन ताल्लुकदारों की सत्ता को स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थे। इसलिए अवध के शासन को समाप्त करने के तुरंत बाद ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग कर दी गई और उनके दुर्ग ध्वस्त कर दिए गए।
(iii) ब्रिटिश भू-राजस्व नीति ने ताल्लुकदारों की शक्ति एवं सत्ता को ओर अधिक चोट पहुंचाई। अधिग्रहण के बाद 1856 में एकमुश्त बंदोबस्त के नाम से ब्रिटिश भू-राजस्व लागू कर दी गई। यह बंदोबस्त इस मान्यता पर आधारित था कि ताल्लकदार बिचौलिए थे जिनके पास जमीन का स्वामित्व जिनके पास जमीन का स्वामित्व नहीं था। उन्होंने बल और धोखाधड़ी से अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था। एकमुश्त बंदोबस्त के अंतर्गत ताल्लुकदारों को उनकी जमींनों से बेदखल किया जाने लगा। आंकड़ों से पता चलता है कि अंग्रेजी शासन से पहले ताल्लुकदारों के पास अवध के 67 प्रतिशत गाँव थे। परंतु एकमुश्त बंदोबस्त लागू होने के बाद यह संख्या घटकर 38 प्रतिशत रह गई। दक्षिण अवध के ताल्लुकदारों को सबसे अधिक क्षति उठानी पड़ी। कुछ के तो आधे से अधिक गाँव हाथ से जाते रहे।
(iv) ब्रिटिश भू-राजस्व अधिकारियों का विचार था कि ताल्लुकदारों को हटाकर वे जमीन असली स्वामी को सौंप देंगे जिससे किसानों के शोषण में कमी आएगी और राजस्व वसूली में वृद्धि होगी। वास्तव में ऐसा नहीं हुआ। भू-राजस्व वसूली में अवश्य वृद्धि हुई परंतु किसानों के बोझ में कोई कमी नहीं आई। अधिकारियों को जल्दी ही समझ में आने लगा कि अवध के बहुत से क्षेत्र का मूल्य निर्धारण बहुत बढ़ा-चढ़ाकर किया गया था। कुछ स्थानों पर तो राजस्व माँग 30 से 70 से प्रतिशत तक बढ़ गयी थी। इसलिए न तो ताल्लुकदार प्रसन्न थे और न ही काश्तकार।
(v) ताल्लुकदारों की सत्ता छिनने का परिणाम यह हुआ कि एक पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग हो गई। निष्ठा और सरंक्षण के जिन बंधनों से किसान ताल्लुकदारों के साथ जुड़े हुए थे वे अस्त-व्यस्त हो गए। अंग्रेजों से पहले ताल्लुकदार ही जनता का उत्पीड़न करते थे, परंतु जनता की नजर में बहुत-से ताल्लुकदार दयालु होने की छवि भी रखते थे। वे किसानों से तरह-तरह से पैसा तो वसूलते थे, परंतु बुरे वक्त में किसानों की सहायता भी करते थे। अब अंग्रेजी राज में किसान मनमानी राजस्व वसूली तथा गैर-लचीली राजस्व व्यवस्था के अंतर्गत बुरी तरह पिसने लगे थे। अब इस बात की कोई गारंटी नहीं थी कि सरकार कठिन समय में या फसल खराब हो जाने पर राजस्व मांग में कोई कमी करेगी। वसूली को कुछ समय के लिए टाल देना भी असंभव सा लगता था। न ही किसानों को इस बात की आशा थी कि उन्हें तीज-त्योहारों पर कोई ऋण या सहायता मिल पाएगी जो पहले ताल्लुकदारों से मिल जाती थी।
(vi) अवध जैसे प्रदेशों में जहां 1857 के दौरान प्रतिरोध अत्यधिक लंबा चला था, वहां लड़ाई की बागडोर वास्तव में ताल्लुकदारों और उनके किसानों के हाथों में थी। बहुत-से ताल्लुकदार अवध के नवाब के प्रति निष्ठा रखते थे। इसलिए वे अंग्रेजों से लोहा लेने के लिए लखनऊ जाकर बेगम हजरत महल (नवाब की पत्नी) के साथ मिल गए। उनमें से कुछ तो बेगम की पराजय के बाद भी अपने संघर्ष पर डटे रहे। किसानों का असंतोष अब सैनिक बैरकों में भी पहुँचने लगा था क्योंकि बहुत से सिपाही अवध के गाँवों से ही भर्ती किए गए थे।
प्रश्न 7. विद्रोही क्या चाहते थे? विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में कितना फ़र्क था?
उत्तर: विजेता के रूप में कठिनाईयों, चुनौतियाँ तथा बहादुरी के बारे में अंग्रेजों की अपनी ही सोच थी। वे विद्रोहियों को स्वार्थी और बर्बर लोगों का झुंड मानते थे। विद्रोहियों को कुचलने का एक अर्थ यह भी था कि उनकी आवाज को दबा दिया जाए। बहुत कम विद्रोहियों में अधिकतर सिपाही तथा आम लोग शामिल थे, जो पढ़े-लिखे नहीं थे। इसलिए अपने विचारों के प्रसार और लोगों को विद्रोह में शामिल करने के लिए जारी की गई कुछ घोषणाओं तथा इश्तहारों के अतिरिक्त हमारे पास विद्रोहियों के नजरिए को समझने के लिए और कुछ नहीं है।
1857 में जो कुछ हुआ, उसे जानने के लिए इतिहासकारों को मुख्यतः अंग्रेजों के दस्तावेजों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। इन स्रोतों से अंग्रेज अफसरों की सोच का तो पता चलता है परंतु यह पता नहीं चल पाता कि विद्रोही क्या चाहते थे। घोषणाओं पर आधारित विद्रोहियों की आकांक्षाएँ:
(i) घोषणाओं में ब्रिटिश राज (जिसे विद्रोही फिरंगी राज कहते थे) से संबंधित हर चीज का विरोध किया जाता था। देशी रियासतों पर अधिकार करने और समझौतों का उल्लंघन करने के लिए अंग्रेजों की निंदा की जाती थी। विद्रोही नेताओं का कहना था कि अंग्रेजों पर भरोसा नहीं किया जा सकता।
(ii) लोगों में इस बात का रोष था कि ब्रिटिश भूराजस्व व्यवस्था ने सभी बड़े-छोटे भू-स्वामियों को जमीन से बेदखल कर दिया था और विदेशी व्यापार ने दस्तकारों और बुनकरों को बरबाद कर डाला था। ब्रिटिश शासन के हर पहलू पर निशाना साधा जाता था। फिरंगियों पर स्थापित जीवन-शैली को नष्ट करने का आरोप लगाया जाता था। विद्रोही अपनी पहले की दुनिया को जीवित करना चाहते थे।
(iii) विद्रोही उद्घोषणाएँ इस भय को व्यक्त करती थीं कि अंग्रेज, हिन्दुओं और मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट करने पर तुले हैं। वे लोगों को ईसाई बनाना चाहते हैं। इसी भय के कारण ही लोग चल रही अफवाहों पर भरोसा करने लगे। लोगों को प्रेरित किया गया कि वे एकजुट होकर अपने रोजगार, धर्म, इज्जत और अस्मिता के लिए लड़ें। इसे ‘व्यापक सार्वजनिक भलाई’ की लड़ाई का नाम दिया गया।
(iv) बहुत-से स्थानों पर अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह उन सभी शक्तियों के विरूद्ध आक्रमण का रूप ले लेता था, जिनको अंग्रेजों का समर्थक या जनता का उत्पीड़क माना जाता था। कई बार विद्रोही शहर के संभ्रांत वर्ग को जान-बूझकर बेइज्जत करते थे। गाँवों में उन्होंने सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घर तोड़-फोड़ डाले। इससे पता चलता है कि विद्रोही सब उत्पीड़कों के विरूद्ध थे और परंपरागत सोपानों (ऊँच-नीच) को समाप्त करना चाहते थे।
(v) विद्रोही वैकल्पिक सत्ता की तलाश में भी थे। उदाहरण के लिए दिल्ली, लखनऊ और कानपुर आदि स्थानों पर ब्रिटिश शासन ध्वस्त हो जाने के बाद विद्रोहियों ने एक जैसी सत्ता और शासन स्थापित करने का प्रयास किया। भले ही यह प्रयोग सफल नहीं रहा, फिर भी इन कोशिशों से पता चलता है कि विद्रोही नेता अठारहवीं सदी की पूर्व ब्रिटिश शासन-संरचना को फिर से स्थापित करना चाहते थे। इन नेताओं ने पुरानी दरबारी संस्कृति का सहारा लिया। विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ की गई। भू-राजस्व वसूली और सैनिकों के वेतन के भुगतान की व्यवस्था की गयी।
लूटपाट बंद करने के लिए हुक्मनामे जारी किए गए। इसके साथ-साथ अंग्रेजों के विरूद्ध युद्ध जारी रखने की योजनाएँ भी बनाई गई। सेना की कमान श्रृंखला तय की गई। इन सभी प्रयासों में विद्रोही अठारहवीं सदी के मुगल जगत से ही प्रेरणा ले रहे थे-ये जगत उन सभी बातों का प्रतीक बन गया जो उनसे छिन चुकी थी। विद्रोहियों द्वारा स्थापित सरंचना का प्राथमिक उद्देश्य युद्ध की जरूरतों को पूरा करना था। परंतु ज्यादातर मामलों में वे संरचनाएँ अधिक देर तक टिक नहीं पाई और विद्रोह का दमन कर दिया गया।
प्रश्न 8. 1857 के विद्रोह के विषय में चित्रों से क्या पता चलता है? इतिहासकार इन चित्रों को किस तरह विश्लेषण करते हैं?
उत्तर: 1857 के विद्रोह के बारे में चित्रों से प्राप्त जानकारी तथा इतिहासकारों द्वारा उनका विश्लेषण –
- अंग्रेजों द्वारा बनाए गए चित्रों पर तरह-तरह की भावनाएँ और प्रतिक्रिया उत्पन्न होती हैं।
(i) इनमें से कुछ चित्रों में अंग्रेजों को बचाने और विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज नायकों का गुणगान किया गया है। 1859 में टॉमस जोन्स बार्कर द्वारा बनाया गया चित्र ‘रिलीफ ऑफ लखनऊ’ इसका एक उदाहरण है। जब विद्रोही सेना ने लखनऊ पर घेरा डाल दिया तो लखनऊ के कमिश्नर हेनरी लारेंस ने ईसाईयों को एकत्र किया और अति सुरक्षित रेजीडेंसी में शरण ली। बाद में ब्रिटिश टुकड़ियों का नया कमांडर कॉलिन कैंपबेल भारी संख्या में सेना लेकर वहाँ पहुँचा और उसने ब्रिटिश रक्षक सेना को घेरे से छुड़ाया। बार्कर की पेंटिंग कैंपबेल के आगमन के क्षण को दर्शाती है। उसे जिस प्रकार विजयी मुद्रा में दिखाया गया है तो उससे लगता है कि रेजीडेंसी में घिरे अंग्रेजों के लिए संकट की घड़ी बीत चुकी है और विद्रोह समाप्त हो गया है। इसका अर्थ यह है कि अंग्रेज जीत चुके हैं।
(ii) कुछ चित्रो में संकट में फंसी अंग्रेज औरतों तथा बच्चों की पीड़ा तथा वेदना को व्यक्त किया गया है। जोजेफ नोएल पेटन द्वारा बनाए गए चित्र में अंग्रेज औरतों और बच्चों को एक घेरे में एक-दूसरे से लिपटा दिखाया गया है। वे लाचार और मासूम लग रहे हैं, मानों कि किसी भयानक घड़ी की आशंका में हैं। वे अपने अपमान, हिंसा और मृत्यु का इंतजार कर रहे हैं। यह पेंटिंग-दर्शक की कल्पना को झिंझोड़ती है और उसमें गुस्से और बैचेनी का भाव पैदा करती है। साथ ही इसमें विद्रोहियों को हिंसक और बर्बर बताया गया है।
(iii) कुछ अन्य रेखाचित्रों तथा पेंटिंग्स में औरतें अलग तेवर में दिखाई देती हैं। इनमें उन्हें विद्रोहियों के हमले से अपना बचाव करते हुए दिखाया गया है। उन्हें वीरता की मूर्ति के रूप में प्रस्तुत किया गया है। एक चित्र में मिस व्हीलर को अकेले ही विद्रोहियों को मौत की नींद सुलाते हुए अपनी इज्जत की रक्षा करते दिखाया गया है। सभी ब्रिटिश चित्रों की तरह यहां भी विद्रोहियों को दानवों के रूप में प्रस्तुत किया गया है।
(iv) जैसे-जैसे ब्रिटेन में क्रोध का वातावरण बनता गया, बदले की मांग मजबूत होती गई। विद्रोह के बारे में प्रकाशित चित्रों तथा समाचारों ने हिंसक, दमन और प्रतिरोध को और अनिवार्य बना दिया। वातावरण ऐसा था कि विद्रोह से आंतकित अंग्रेजों को लगता था कि उन्हें अपनी अपराजेयता का प्रदर्शन करना ही होगा। ऐसे में ही एक चित्र में हमें न्याय की एक रूपकात्मक स्त्री छवि दिखाई देती है जिसके एक हाथ में तलवार और दूसरे हाथ में ढाल है। उसके चेहरे पर अत्यधिक क्रोध और बदला लेने की तड़प दिखाई देती है। वह सिपाहियों को अपने पैरों तले कुचल रही है जबकि भारतीय औरतों और बच्चों की भीड़ भय से कांप रही है। इनके अतिरिक्त ब्रिटिश प्रेस में असंख्य अन्य तस्वीरें और कार्टून भी थे जो निर्मम दमन और हिंसक प्रतिशोध की आवश्यकता पर बल दे रहे थे।
(v) प्रतिशोध और सबक सिखाने की चाह इस बात से भी उजागर होती है कि विद्रोहियों को कितने निर्मम ढंग से मौत के घाट उतारा गया। उन्हें तोपों के मुंह पर बांधकर उड़ा दिया गया या फांसी पर लटका दिया गया। इन सजाओं के चित्र आम पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से दूर-दूर तक पहुँच रहे थे।
(vi) जब प्रतिशोध की मांग मजबूत हो रही हो, तब नर्म सुझाव मजाक बन कर ही रह जाते हैं। अतः जब गवर्नर जनरल कैनिंग ने यह कहा कि नर्मी और दया भाव से सिपाहियों की वफादारी प्राप्त करने में सहायता मिलेगी तो ब्रिटिश प्रेस में उसका मजाक उड़ाया गया। हास्यपरक व्यंग्य की ब्रिटिश पत्रिका ‘पंच’ में प्रकाशित एक कार्टून में कैनिंग को एक भव्य नेक बुजुर्ग के रूप में दर्शाया गया। उसका हाथ एक सिपाही के सिर पर है जो अभी भी नंगी तलवार और कतार लिए हुए हैं और दोनों से खून टपक रहा है। यह एक ऐसी छवि थी जो उस समय की ब्रिटिश तस्वीरों में बार-बार दिखाई देती थी।
- भारतीय कलाकारों ने विद्रोह के नेताओं को ऐसे नायकों के रूप में प्रस्तुत किया जो देश को रणभूमि की ओर ले जा रहे हैं।
उन्हें लोगों को दमनकारी साम्राज्यवादी शासन के विरूद्ध उत्तेजित करते हुए दर्शाया जाता था। रानी को एक हाथ में घोड़े की लगाम और दूसरे हाथ में तलवार लिए अपनी मातृभूमि की मुक्ति के लिए लड़ाई लड़ते दर्शाया जाता था। उसे एक ऐसे मर्दाना व्यक्तित्व के रूप में चित्रित किया जाता था जो शत्रु का पीछा करते हुए ब्रिटिश सिपाहियों को मौत की नींद सुलाते हुए आगे बढ़ रही थी। देश के विभिन्न भागों में बच्चे सुभद्रा कुमारी चौहान की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए बड़े हो रहे थे : “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झांसी वाली रानी थी।” लोक छवियों में रानी लक्ष्मीबाई को प्रायः सैनिक पोशाक में घोड़े पर सवार और एक हाथ में तलवार लिए दिखाया जाता है जो अन्याय और विदेशी शासन के दृढ़ प्रतिरोध का प्रतीक है।
निष्कर्ष – इन चित्रों से पता चलता है कि उन्हें बनाने वाले चित्रकार किस सोच के व्यक्ति थे और वे क्या कहना चाहते थे। इन चित्रों और कार्टूनों के माध्यम से हम उन लोगों के बारे में भी जान सकते हैं जो इन चित्रों की प्रशंसा या आलोचना करते थे।
ये चित्र केवल अपने समय की भावनाओं को ही व्यक्त नहीं कर रहे थे, उन्होंने संवेदनाओं को भी आकार दिया। ब्रिटेन में छप रहे चित्रों से उत्तेजित होकर वहां की जनता विद्रोहियों को निर्ममता के साथ कुचल डालने के लिए आवाज उठा रही थी। दूसरी ओर भारतीय राष्ट्रवादी चित्र हमारी राष्ट्रवादी कल्पना को साकार करने में सहायता दे रहे थे।
प्रश्न 9. एक चित्र और एक लिखित पाठ को चुनकर किन्हीं दो स्रोतों की पड़ताल कीजिए और इस बारे में चर्चा कीजिए। कि उनसे विजेताओं और पराजितों के दृष्टिकोण के बारे में क्या पता चलता है?
उत्तर: यदि हम प्रस्तुत अध्ययन में दिए गए एक चित्र और एक लिखित पाठ का चुनाव करके उनका परीक्षण करते हैं, तो उनसे पता लगता है कि विद्रोह के विषय में विजेताओं अर्थात् अंग्रेज़ों और पराजितों अर्थात् भारतीयों के दृष्टिकोण में भिन्नता थी।
1.उदाहरण के लिए, यदि हम ऊपर दिए गए चित्र का परीक्षण करते हैं, तो स्पष्ट हो जाता है कि अंग्रेजों ने जिस संघर्ष को ‘एक सैनिक विद्रोह मात्र’ कहा भारतीयों के लिए ब्रिटिश सत्ता के विरुद्ध छेड़ा गया भारत का प्रथम स्वतंत्रता संग्राम था। इसका प्रमुख उद्देश्य देश को विदेशी प्रभुत्व से मुक्त करवाना था। झाँसी में विद्रोह का नेतृत्व रानी लक्ष्मीबाई ने किया। इस चित्र में रानी लक्ष्मीबाई को वीरता की साकार प्रतिमा के रूप में चित्रित किया गया है। उल्लेखनीय है कि झाँसी में महिलाओं ने पुरुषों के वेश में अस्त्र-शस्त्र धारण कर ब्रिटिश सैनिकों का डटकर मुकाबला किया। रानी लक्ष्मीबाई शत्रुओं का पीछा करते हुए, ब्रिटिश सैनिकों को मौत के घाट उतारते हुए निरंतर आगे बढ़ती रही और अंत में मातृभूमि के लिए अपने प्राणों की बलि दे दी। लक्ष्मीबाई की यह वीरता देशभक्तों के लिए एक प्रेरणा का स्रोत बन गई। चित्रों में रानी को वीरता की साकार प्रतिमा के रूप में चित्रित किया गया तथा उनकी वीरता की सराहना में अनेक कविताओं की रचना की गई। लोक छवियों में झाँसी की यह रानी अन्याय एवं विदेशी सत्ता के दृढ़ प्रतिरोध की प्रतीक बन गई। रानी की वीरता का गौरवगान करते हुए सुभद्रा कुमारी चौहान द्वारा लिखी गई ये पंक्तियाँ “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी” देश के बच्चे-बच्चे की जुबाँ पर आ गईं।
2.पाठ्यपुस्तक में दिए गए इस स्रोत (स्रोत-7), “अवध के लोग उत्तर से जोड़ने वाली संचार लाइन पर जोर बना रहे हैं… अवध के लोग गाँव वाले हैं…। ये यूरोपीयों की पकड़ से बिलकुल बाहर हैं। पलभर में बिखर जाते हैं : पलभर में फिर जुट जाते हैं; शासकीय अधिकारियों का कहना है कि इन गाँव वालों की संख्या बहुत बड़ी है और उनके पास बाकायदा बंदूकें हैं।” के परीक्षण से पता चलता है कि अवध में इस विद्रोह का व्यापक प्रसार हुआ था और यह विदेशी शासन के विरुद्ध लोक-प्रतिरोध की अभिव्यक्ति बन गया था। उल्लेखनीय है कि इस क्षेत्र में ब्रिटिश शासन ने राजकुमारों, ताल्लुकदारों, किसानों एवं सिपाहियों सभी को समान रूप से प्रभावित किया था। सभी ने अवध में बिटिश शासन की स्थापना के परिणामस्वरूप अनेक प्रकार की पीड़ाओं को अनुभव किया था। सभी के लिए अवध में ब्रिटिश शासन का आगमन एक दुनिया की समाप्ति का प्रतीक बन गया था। जो चीजें लोगों को बहुत प्रिय थीं, वे उनकी आँखों के सामने ही छिन्न-भिन्न हो रही थीं।
1857 ई० का विद्रोह मानो उनकी सभी भावनाओं, मुद्दों, परम्पराओं एवं निष्ठाओं की अभिव्यक्ति का स्रोत बन गया था। अवध में ताल्लुकदारों को उनकी सत्ता से वंचित कर दिए जाने के कारण एक संपूर्ण सामाजिक व्यवस्था नष्ट हो गई थी। किसानों को ताल्लुकदारों के साथ बाँधने वाले निष्ठा और संरक्षण के बंधन नष्ट-भ्रष्ट हो गए थे। उल्लेखनीय है कि 1857 ई० में अवध के जिन-जिन क्षेत्रों में ब्रिटिश शासन को कठोर प्रतिरोध का सामना करना पड़ा, वहाँ-वहाँ संघर्ष की वास्तविक बागडोर ताल्लुकदारों एवं किसानों के हाथों में थी। हमें याद रखना चाहिए कि अधिकांश सैनिकों का संबंध किसान परिवारों से था। यदि सिपाही अपने अफसरों के आदेशों की अवहेलना करके शस्त्रे उठा लेते थे, तो तत्काल ही उन्हें ग्रामों से अपने भाई-बंधुओं को सहयोग प्राप्त हो जाता था। इस प्रकार अवध में विद्रोह का व्यापक प्रसार हुआ। इस विद्रोह में किसानों ने सिपाहियों के कंधे-से-कंधा मिलाकर ब्रिटिश शासन के विरुद्ध संघर्ष किया।