राजा किसान और नगर question answer: Class 12 history Chapter 2 ncert solutions in hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 2 ncert solutions |
Chapter Name | राजा किसान और नगर ncert solutions |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
क्या आप कक्षा 12 इतिहास पाठ 2 राजा, किसान और नगर के प्रश्न उत्तर ढूंढ रहे हैं? अब आप यहां से Class 12 History chapter 2 questions and answers in hindi, राजा किसान और नगर question answer download कर सकते हैं।
Class 12 History chapter 2 questions and answers in hindi [ उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में) ]
प्रश्न 1. आरंभिक ऐतिहासिक नगरों में शिल्पकला के उत्पादन के प्रमाणों की चर्चा कीजिए। हड़प्पा के नगरों के प्रमाण से ये प्रमाण कितने भिन्न हैं?
उत्तर 1: प्रारंभिक ऐतिहासिक शहरों में व्यापक और गहन खुदाई संभव नहीं हो पाई है क्योंकि ये शहर अभी भी आबाद हैं। हड़प्पा सभ्यता में, हम भाग्यशाली रहे हैं कि खुदाई व्यापक रूप से हुई है। इस कमी के बावजूद, हमें ऐतिहासिक शहरों में कई कलाकृतियाँ मिली हैं।
इनसे उस समय की शिल्पकला पर प्रकाश पड़ता है। इसके अलावा भी कई अन्य साक्ष्य हैं जो उस समय की शिल्पकला पर प्रकाश डालते हैं। ऐसे साक्ष्यों की मुख्य विशेषताएं इस प्रकार हैं:
(i) मिट्टी के बर्तन और कलाकृतियाँ: प्रारंभिक ऐतिहासिक शहरों में विभिन्न प्रकार की कलाकृतियाँ पाई जाती हैं, जिनमें उत्तरी काले पॉलिश वाले बर्तन (NBPW) शामिल हैं, जो अपनी चमकदार फिनिश और धनी व्यक्तियों के साथ जुड़ाव के लिए जाने जाते हैं। यह हड़प्पा के बर्तनों से अलग है, जो परिष्कृत होने के बावजूद शैली और कार्य में भिन्न हैं।
(ii) विविध भौतिक संस्कृति: प्रारंभिक ऐतिहासिक शहरों की कलाकृतियाँ सोने, चांदी, तांबे, कांस्य, हाथी दांत, कांच, शंख और टेराकोटा जैसी विविध सामग्रियों से बने आभूषण, उपकरण, हथियार, बर्तन और मूर्तियाँ शामिल करती हैं। यह विविधता शिल्प और कारीगर कौशल की एक विस्तृत श्रृंखला को दर्शाती है।
(iii) पेशेवर और शिल्पकार: दाता शिलालेख बताता है कि पेशेवर और शिल्पकार के रूप में शहरों में कौन रहता था। इसमें धोबी, बुनकर, मुंशी, बढ़ई, सुनार, लोहार आदि शामिल थे। यह उल्लेखनीय है कि हड़प्पा के शहरों में लोहे के उपयोग के कोई सबूत नहीं हैं।
(iv) कारीगरों और शिल्पकारों ने भी अपने संघ बनाए। उन्होंने सामूहिक रूप से कच्चा माल खरीदा, अपने उत्पाद बनाए और बेचे।
प्रश्न 2. महाजनपदों के विशिष्ट अभिलक्षणों का वर्णन कीजिए।
उत्तर 2: महाजनपद की प्रमुख विशेषताएँ:
(i) प्रमुख महाजनपद: सबसे उल्लेखनीय महाजनपदों में वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पंचाल, गांधार और अवंती शामिल थे। ये अलग-अलग सांस्कृतिक और राजनीतिक पहचान वाले बड़े प्रादेशिक राज्य थे।
(ii) राजनीतिक संरचना: अधिकांश महाजनपदों पर राजाओं का शासन था। हालाँकि, कुछ, जिन्हें गण या संघ के रूप में जाना जाता था, कुलीनतंत्र थे जहाँ सत्ता कई पुरुषों द्वारा साझा की जाती थी, जिन्हें अक्सर सामूहिक रूप से राजा कहा जाता था। कुछ मामलों में, जैसे कि वज्जि संघ के मामले में, राजा संभवतः सामूहिक रूप से भूमि जैसे संसाधनों को नियंत्रित करते थे।
(iii) राजधानी शहर: प्रत्येक महाजनपद का एक सुपरिभाषित राजधानी शहर होता था, जिसे अक्सर सुरक्षा और प्रशासनिक उद्देश्यों के लिए किलेबंद किया जाता था। ये शहर राजनीतिक शक्ति और आर्थिक गतिविधियों के केंद्र के रूप में कार्य करते थे।
(iv) सामाजिक मानदंड और शासन: ब्राह्मणों ने धर्मसूत्रों की रचना की, जो शासकों और समाज के लिए दिशा-निर्देश प्रदान करते थे। शासकों से आमतौर पर क्षत्रिय होने की अपेक्षा की जाती थी और उन्हें शासन प्रथाओं, जिसमें कराधान और विभिन्न सामाजिक समूहों जैसे कि कृषकों, व्यापारियों और कारीगरों से श्रद्धांजलि एकत्र करना शामिल था, के बारे में सलाह दी जाती थी।
(v) सैन्य और विस्तार: कुछ महाजनपदों ने अपने क्षेत्रों पर कुशलतापूर्वक शासन करने के लिए स्थायी सेना और नौकरशाही बनाए रखी। कभी-कभी धन प्राप्त करने के लिए पड़ोसी राज्यों पर छापे मारे जाते थे। इन छापों को वैध साधन के रूप में मान्यता दी गई थी।
(vi) सांस्कृतिक और आर्थिक आदान-प्रदान: महाजनपदों ने भारतीय उपमहाद्वीप में सांस्कृतिक आदान-प्रदान, व्यापार मार्गों और विचारों के प्रसार को सुगम बनाया। वे प्रारंभिक भारतीय सभ्यता को आकार देने और बाद की शताब्दियों में बड़ी राजनीतिक संस्थाओं की नींव रखने में महत्वपूर्ण थे।
ये विशेषताएं सामूहिक रूप से प्राचीन भारत के महाजनपदों के भीतर शासन, सामाजिक संरचना और अंतःक्रियाओं की विविधता और जटिलता को उजागर करती हैं।
प्रश्न 3. सामान्य लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण इतिहासकार कैसे करते हैं?
उत्तर 3: इतिहासकार विभिन्न स्रोतों का उपयोग करके आम लोगों के जीवन का पुनर्निर्माण करते हैं, खासकर इसलिए क्योंकि आम लोग अक्सर अपने पीछे प्रत्यक्ष ऐतिहासिक साक्ष्य नहीं छोड़ते। यहाँ कुछ मुख्य विधियाँ दी गई हैं जिनका वे उपयोग करते हैं:
(i) पुरातात्विक खोजें: पुरातत्वविदों द्वारा खोजे गए घरों, मिट्टी के बर्तनों, औजारों और अन्य कलाकृतियों के अवशेष आम लोगों के दैनिक जीवन, आवास और भौतिक संस्कृति के बारे में जानकारी प्रदान करते हैं।
(ii) शिलालेख और धर्मग्रंथ: स्मारकों और धर्मग्रंथों पर कुछ शिलालेख शासकों और विषयों के बीच संबंधों के बारे में अप्रत्यक्ष जानकारी प्रदान करते हैं, जिनमें कराधान और आम जनता की सामान्य भलाई या शिकायतें जैसे मामले शामिल हैं।
(iii) भौतिक संस्कृति: कारीगरों, किसानों और अन्य श्रमिकों द्वारा उपयोग किए जाने वाले उपकरण, औजार और वस्तुएं उनके व्यवसायों, तकनीकी प्रथाओं और जीवन शैली के बारे में विवरण बताती हैं।
(iv) लोककथाएँ और मौखिक परंपराएँ: इतिहासकार पीढ़ियों से चली आ रही लोककथाओं, मिथकों और मौखिक परंपराओं का भी अध्ययन करते हैं। इन कथाओं में अक्सर आम लोगों के जीवन के बारे में मूल्यवान सांस्कृतिक, सामाजिक और कभी-कभी ऐतिहासिक अंतर्दृष्टि होती है।
प्रश्न 4. पाण्ड्य सरदार (स्रोत-3) को दी जाने वाली वस्तुओं की तुलना दंगुन गाँव (स्रोत-8) की वस्तुओं से कीजिए। आपको क्या समानताएँ और असमानताएँ दिखाई देती हैं?
उत्तर 4: उल्लेखनीय है कि पांड्य सरदारों और गुप्त सरदारों दोनों को ही समय-समय पर अपनी-अपनी प्रजा से अनेक प्रकार की भेंटें उपलब्ध होती रहती थीं। पाठ्यपुस्तक के स्रोत तीन और स्रोत आठ के अध्ययन से पता चलता है कि दोनों को मिलने वाली भेंटों में कुछ समानताएँ और कुछ असमानताएँ विद्यमान थीं। समानताएँ-जब पांड्य सरदार सेनगुत्तुवन वन-यात्रा पर थे, तो उन्हें अपनी प्रजा से हाथीदाँत, सुगंधित लकड़ी, हिरणों के बाल से बने चँवर, मधु, चंदन, गेरु, सुरमा, हल्दी, इलायची, नारियल, आम, जुड़ी-बूटी, फल, प्याज, गन्ना, फूल, सुपारी जैसी महत्त्वपूर्ण वस्तुएँ एवं फल-फूल तथा बाघों के बच्चे, शेर, हाथी, बंदर, भालू, हिरण, कस्तूरी मृग, लोमड़ी, मोर, जंगली मुर्गे और बोलने वाले तोते जैसे महत्त्वपूर्ण पशु-पक्षी भेंट में प्राप्त हुए। इसी प्रकार गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त द्वितीय की पुत्री प्रभावती गुप्त के अभिलेख से पता लगता है कि दंगुन गाँव के लोग अधिकारियों को घास, आसनों में प्रयोग की जाने वाली जानवरों की खाल, कोयला, गाँव में उपलब्ध खनिज पदार्थ, खदिर वृक्ष के उत्पाद, फूल और दूध आदि भेट में देते थे।
इन दोनों उदाहरणों में महत्त्वपूर्ण समानता यह है कि लोगों द्वारा अपने-अपने सरदारों को समय-समय पर अनेक वस्तुएँ भेंट में प्रदान की जाती थीं। दोनों उदाहरणों में स्थानीय रूप से उपलब्ध वस्तुओं के भेंट में दिए जाने का संकेत मिलता है। असमानताएँ-दोनों उदाहरणों में एक महत्त्वपूर्ण असमानता यह है कि पांड्य सरदार को मिलने वाली वस्तुओं की सूची गुप्त अथवा वाकाटक सरदार को मिलने वाली वस्तुओं की सूची की अपेक्षा अधिक विशाल है। प्रभावती गुप्त के अभिलेख से पता चलता है कि वाकाटक अधिकार क्षेत्रों में राज्य को मदिरा खरीदने और नमक हेतु खुदाई करने के राजसी अधिकारों को लागू करवाए जाने का भी अधिकार था। किंतु पांड्य अधिकार क्षेत्रों में हमें ऐसा कोई उल्लेख नहीं मिलता। एक अन्य महत्त्वपूर्ण असमानता जो हमें दृष्टिगोचर होती है यह है कि पांड्य राज्य के लोगों ने नाचते-गाते हुए ठीक उसी प्रकार सेनगुत्तुवन का स्वागत किया जैसे पराजित लोग विजयी का आदर करते हैं। संभवतः पांड्य राज्य में लोग स्वेच्छापूर्वक अधिक-से-अधिक वस्तुएँ अपने शासकों को भेंट के रूप में प्रदान करते थे। ऐसा लागता है कि वाकाटक अधिकार क्षेत्रों में लोग शासकीय अधिकारियों को दायित्व के रूप में भेट प्रदान करते थे।
प्रश्न 5. अभिलेखशास्त्रियों की कुछ समस्याओं की सूची बनाइए।
उत्तर 5: अभिलेखशास्त्रियों की प्रमुख समस्याएँ निम्नलिखित थीं
(i) धुँधले ढंग से उकेरे गए अक्षर: अक्सर, शिलालेखों के अक्षर बहुत धुँधले ढंग से उकेरे जाते हैं, जिससे मूल पाठ को निश्चितता के साथ फिर से बनाना मुश्किल हो जाता है। उकेरे गए अक्षरों के धुँधलेपन से व्याख्या में अनिश्चितता हो सकती है।
(ii) क्षतिग्रस्त या गायब शिलालेख: शिलालेख अक्सर क्षतिग्रस्त अवस्था में पाए जाते हैं, जिनमें पाठ के कुछ हिस्से गायब होते हैं। यह क्षति प्राकृतिक क्षरण, मानवीय हस्तक्षेप या समय बीतने के कारण हो सकती है, जिससे पाठ को सटीक रूप से समझने का कार्य जटिल हो जाता है।
(iii) अस्पष्ट अर्थ: शिलालेखों में प्रयुक्त शब्दों के सटीक अर्थ हमेशा स्पष्ट नहीं होते हैं। कुछ शब्द किसी विशेष स्थान या युग के लिए विशिष्ट हो सकते हैं, जिससे शिलालेखों के वैकल्पिक पाठ और व्याख्याओं के बारे में विद्वानों के बीच बहस होती है।
(iv) अपठित शिलालेख: यद्यपि कई हज़ार शिलालेख खोजे गए हैं, लेकिन उनमें से सभी को न तो पढ़ा जा सका है, न ही प्रकाशित किया जा सका है और न ही उनका अनुवाद किया जा सका है। व्यापक व्याख्या की कमी ऐतिहासिक संदर्भों और आख्यानों की समझ को सीमित करती है।
(v) खंडित साक्ष्य: कई और शिलालेख अवश्य ही मौजूद रहे होंगे, लेकिन वे समय की मार से बच नहीं पाए हैं। उपलब्ध शिलालेख उन सभी का केवल एक अंश दर्शाते हैं जो कभी मौजूद थे, जो अतीत की अधूरी तस्वीर पेश करते हैं।
(vi) चयनात्मक रिकॉर्डिंग: ऐसी संभावना है कि महत्वपूर्ण राजनीतिक या आर्थिक घटनाओं को अभिलेखों में दर्ज नहीं किया गया हो। उदाहरण के लिए, नियमित कृषि पद्धतियाँ और लोगों के जीवन के रोज़मर्रा के सुख-दुख अक्सर अभिलेखों में अनुपस्थित होते हैं, जिससे ऐतिहासिक अभिलेखों में अंतराल पैदा होता है।
History class 12th chapter 2 question answer in hindi [ निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में) ]
प्रश्न 6. मौर्य प्रशासन के प्रमुख अभिलक्षणों की चर्चा कीजिए। अशोक के अभिलेखों में इनमें से कौन-कौन से तत्त्वों के प्रमाण मिलते हैं?
उत्तर 6: अशोक के अभिलेखों में मौर्य साम्राज्य के प्रशासन की सभी मुख्य विशेषताओं का उल्लेख है। इस प्रकार, प्रशासन की विशेषताएं अशोक युग के अभिलेखों में स्पष्ट रूप से दिखाई देती हैं। इनकी महत्वपूर्ण विशेषताएं इस प्रकार हैं:
1. मौर्य साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र थी। राजधानी के अलावा साम्राज्य में राजनीतिक शक्ति के चार अन्य केंद्र थे। वे थे तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसली और सुवामगिरी।
2. प्रशासन चलाने और सीमाओं की सुरक्षा के लिए समिति और उपसमितियाँ बनाई गईं। मेगस्थनीज ने उल्लेख किया है कि एक समिति और छह उपसमितियाँ थीं। छह उपसमितियाँ और उनकी गतिविधियाँ इस प्रकार हैं:
- (i)पहली उप समिति नौसेना की देखभाल करती थी।
- (ii)दूसरी उप समिति परिवहन और संचार पर नजर रखती थी।
- (iii) तीसरी उप समिति पैदल सेना की देखभाल करती थी।
- (iv) चौथी उप समिति के पास घोड़ों की जिम्मेदारी थी।
- (v)पांचवें के पास रथों की जिम्मेदारी थी।
- (vi) छठे को हाथियों की जिम्मेदारी दी गई थी।
3.सड़कों और संचार का मजबूत नेटवर्क स्थापित किया गया। यह उल्लेखनीय है कि इसके अभाव में कोई भी बड़ा साम्राज्य कायम नहीं रह सकता।
4. अशोक ने धम्म के दर्शन द्वारा साम्राज्य को एकजुट रखने का प्रयास किया। धम्म कुछ और नहीं बल्कि नैतिक सिद्धांत हैं जो लोगों को अच्छे आचरण के लिए प्रेरित करते हैं। धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामंत्र नामक विशेष अधिकारी नियुक्त किए गए थे। वास्तव में रोमिला थापर ने इसे अशोक राज्य के शासन सिद्धांत का सबसे महत्वपूर्ण तत्व बताया है।
5. धम्म महामात्रों की नियुक्ति: अशोक ने अपने साम्राज्य को संगठित बनाए रखने का प्रयास किया। ऐसा उन्होंने धम्म के प्रचार द्वारा भी किया। धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण तथा सार्वभौमिक थे। अशोक का मानना था कि धम्म का पालन करके लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। अतः धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्र नामक विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई। इस बात का उल्लेख भी अभिलेखों में मिलता है।
प्रश्न 7. यह बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री, डी०सी० सरकार का वक्तव्य है-भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिनका प्रतिबिंब अभिलेखों में नहीं है : चर्चा कीजिए।
उत्तर 7: पत्थर, धातु अथवा मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे हुए लेखों को अभिलेख के नाम से जाना जाता है। अभिलेख अथवा उत्कीर्ण लेख पुरातात्विक साधनों में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण साधन हैं। अभिलेख प्रस्तर स्तूपों, शिलाओं, मंदिरों की दीवारों, ईंटों, मूर्तियों, ताम्रपत्रों और मुहरों आदि पर मिलते हैं। अभिलेखों में उनके निर्माताओं की उपलब्धियों, क्रियाकलापों अथवा विचारों का उल्लेख होता है। इनमें राजाओं के क्रियाकलापों एवं स्त्री-पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का विवरण होता है। अभिलेख एक प्रकार के स्थायी प्रमाण होते हैं। इनमें साहित्य के समान हेर-फेर नहीं किया जा सकता। अतः इस दृष्टि से अभिलेखों का महत्त्व और भी
अधिक बढ़ जाता है। अनेक अभिलेखों में उनके निर्माण की तिथियाँ भी उत्कीर्ण हैं। जिन पर तिथि नहीं मिलती, उनका काल निर्धारण सामान्यत: पुरालिपि अथवा लेखन शैली के आधार पर किया जाता है। अभिलेखों में मौर्य सम्राट अशोक के स्तम्भ लेख तथा शिलालेख सर्वाधिक प्राचीन एवं अत्यधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ये अभिलेख उसके विशाल साम्राज्य के सभी भागों से प्राप्त हुए हैं। सम्राट अशोक के अभिलेख चार लिपियों में मिलते हैं। अफगानिस्तान के शिलालेखों में अरामाइक और यूनानी लिपियों का प्रयोग किया गया है। पाकिस्तान क्षेत्र के अभिलेख खरोष्ठी लिपि में हैं। उत्तर में उत्तराखंड में कलसी से लेकर दक्षिण में मैसूर तक फैले अशोक के शेष साम्राज्य के अभिलेख ब्राह्मी लिपि में हैं।
अशोक के अभिलेख उसके शासनकाल के विभिन्न वर्षों में उत्कीर्ण किए गए थे। उन्हें राज्यादेश अथवा शासनादेश कहा जाता है, क्योंकि वे राजा की इच्छा अथवा आदेशों के रूप में प्रजा के लिए प्रस्तुत किए गए थे। नि:संदेह अभिलेख प्राचीन इतिहास के पुनर्निर्माण में हमारी महत्त्वपूर्ण सहायता करते हैं। चट्टानों अथवा स्तंभों पर उत्कीर्ण लेखों के प्राप्ति स्थानों से संबंधित शासक के राज्य की सीमाओं का भी अनुमान लगाया जा सकता है। उदाहरण के लिए अशोक के अभिलेखों के प्राप्ति स्थानों से उसके राज्यविस्तार पर प्रकाश पड़ता है। अशोक के बाद के अभिलेखों को दो भागों में विभक्त किया जा सकता है-सरकारी अभिलेख और निजी अभिलेख। सरकारी अभिलेख या तो राजकवियों की लिखी हुई प्रशस्तियाँ हैं या भूमि अनुदान-पत्र। प्रशस्तियों में राजाओं और विजेताओं के गुणों राजा, किसान और नगर के और कीर्तियों का वर्णन किया गया है।
प्रशस्तियों का प्रसिद्ध उदाहरण-समुद्रगुप्त का प्रयोग अभिलेख है, जो अशोक स्तम्भ पर उत्कीर्ण है। इस प्रशस्ति में समुद्रगुप्त की विजयों और नीतियों का पूर्ण विवरण उपलब्ध होता है। गुप्तकाल के अधिकांश अभिलेखों में वंशावलियों का वर्णन है। इसी प्रकार राजा भोज की ग्वालियर प्रशस्ति में उसकी उपलब्धियों का वर्णन है। कलिंगराज खारवेल का हाथीगुम्फा अभिलेख, रुद्रदामा का गिरनार शिलालेख, स्कंदगुप्त का भीतरी स्तंभ लेख, बंगाल के शासक विजय सेन का देवपाड़ा अभिलेख और चालुक्य नरेश पुलकेशिन द्वितीय का ऐहोल अभिलेख इस प्रकार के अभिलेखों के अन्य उदाहरण हैं। भूमि अनुदान-पत्र अधिकतर ताम्रपत्रों पर उकेरे गए हैं। इनमें ब्राह्मणों, भिक्षुओं, जागीरदारों, अधिकारियों, मंदिरों और विहारों आदि को दिए गए गाँवों, भूमियों और राजस्व के दानों का उल्लेख है।
ये प्राकृत, संस्कृत, तमिल, तेलुगु आदि विभिन्न भाषाओं में लिखे गए हैं। निजी अभिलेख अधिकांशतः मंदिरों में या मूर्तियों पर उत्कीर्ण हैं। इन पर खुदी तिथियों से इन मंदिरों के निर्माण एवं मूर्ति प्रतिष्ठापन के समय का पता लगता है। ये अभिलेख तत्कालीन धार्मिक दशा, मूर्तिकला, वास्तुकला एवं भाषाओं के विकास पर भी प्रकाश डालते हैं। उदाहरण के लिए, गुप्तकाल से पहले के अधिकांश अभिलेखों की भाषा प्राकृत है और उनमें बौद्ध धर्म एवं जैन धर्म का उल्लेख है। गुप्त एवं गुप्तोत्तर काल के अधिकांश अभिलेखों में ब्राह्मण धर्म का उल्लेख है और उनकी भाषा संस्कृत है। निजी अभिलेख तत्कालीन राजनैतिक दशा पर भी पर्याप्त प्रकाश डालते हैं। अतः बीसवीं शताब्दी के एक सुविख्यात अभिलेखशास्त्री डी०सी० सरकार के शब्दों में यह कहना उचित ही होगा कि-” भारतीयों के जीवन, संस्कृति और गतिविधियों का ऐसा कोई पक्ष नहीं है जिसका प्रतिबिम्ब अभिलेखों में नहीं है।”
प्रश्न 8. उत्तर मौर्यकाल में विकसित राजत्व के विचारों की चर्चा कीजिए।
उत्तर 8: मौर्योत्तर काल में राजत्व की अवधारणा में महत्वपूर्ण विकास हुआ, जिसमें राज्य के दैवीय सिद्धांत को शामिल किया गया। राजाओं ने शासन करने के लिए दैवीय अनुमति का दावा करना शुरू कर दिया, यह अवधारणा कुषाण शासकों द्वारा बड़े पैमाने पर प्रचारित की गई, जिन्होंने मध्य एशिया से लेकर पश्चिमी भारत तक शासन किया।
कुषाण राजा: कनिष्क जैसे कुषाण राजा खुद को “देवपुत्र” (ईश्वर का पुत्र) कहते थे, इस प्रकार उन्होंने अपनी स्थिति को दैवीय स्तर तक बढ़ा दिया। उन्होंने मंदिरों में अपनी भव्य मूर्तियाँ बनवाकर इस दैवीय राजत्व को और मजबूत किया, जो उनकी दैवीय स्थिति का प्रतीक था और शासन करने के उनके दैवीय अधिकार पर जोर देता था।
गुप्त शासक: गुप्त राजवंश ने राजतंत्र का और अधिक विकास देखा। इस काल की विशेषता बड़े आकार के राज्यों का उदय था जो सामंतों (सामंती प्रभुओं) पर बहुत अधिक निर्भर थे। ये सामंत कभी-कभी राजा के अधिकार को चुनौती देने के लिए पर्याप्त शक्तिशाली हो जाते थे। गुप्तों ने रणनीतिक गठबंधनों और सैन्य कौशल के माध्यम से अपना शासन बनाए रखने में कामयाबी हासिल की।
साहित्य, सिक्के और शिलालेख: इन स्रोतों ने इस युग के दौरान राजतंत्र की हमारी समझ को आकार देने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कवियों और लेखकों ने अक्सर राजाओं के गुणों की प्रशंसा की, जिससे राजतंत्र की प्रकृति के बारे में बहुमूल्य जानकारी मिली। उदाहरण के लिए, दरबारी कवि हरिषेण ने एक उल्लेखनीय गुप्त शासक समुद्रगुप्त की प्रशंसा की, जिसमें उनकी सैन्य उपलब्धियों और दैवीय कृपा पर प्रकाश डाला गया।
प्रश्न 9. वर्णित काल में कृषि के तौर-तरीकों में किस हद तक परिवर्तन हुए?
उत्तर 9: 600 ईसा पूर्व के बाद की अवधि में कृषि पद्धतियों में महत्वपूर्ण परिवर्तन हुए, जो मुख्य रूप से करों की बढ़ती मांग से प्रेरित थे। अपनी उपज को कम किए बिना इन मांगों को पूरा करने के लिए, किसानों ने नए उपकरण और पद्धतियाँ अपनाईं, जिससे उत्पादकता में वृद्धि हुई। प्रमुख विकासों में शामिल हैं:
(i) हल का उपयोग: हल के इस्तेमाल और इसके व्यापक उपयोग ने कृषि पद्धतियों में एक बड़ा बदलाव किया। पहले दुर्लभ हलों का इस्तेमाल गंगा और कावेरी घाटियों में बड़े पैमाने पर किया जाने लगा। प्रचुर वर्षा वाले क्षेत्रों में, लोहे की नोक वाले हलों का इस्तेमाल किया जाने लगा, जिससे धान की पैदावार में काफी वृद्धि हुई। इस तकनीकी उन्नति ने मिट्टी की अधिक कुशल जुताई की अनुमति दी, जिससे अधिक उपज हुई।
(ii) कुदाल का उपयोग: कठोर भूमि परिस्थितियों वाले क्षेत्रों में, किसानों ने कुदाल का उपयोग करना शुरू कर दिया। यह उपकरण विशेष रूप से कम उपजाऊ या अधिक चुनौतीपूर्ण इलाकों से निपटने वाले लोगों के लिए उपयोगी था। कुदाल ने मिट्टी की बेहतर तैयारी और प्रबंधन को सक्षम किया, जिससे कठिन वातावरण में भी कृषि उत्पादकता में सुधार हुआ।
(iii) कृत्रिम सिंचाई: किसानों ने कृत्रिम सिंचाई विधियों के साथ वर्षा के जल का पूरक बनना शुरू कर दिया। इसमें अक्सर सामूहिक प्रयासों के माध्यम से कुओं, तालाबों और नहरों का निर्माण शामिल था। इन कृत्रिम सिंचाई प्रणालियों ने अधिक विश्वसनीय जल आपूर्ति सुनिश्चित की, जिससे अप्रत्याशित प्राकृतिक वर्षा पर निर्भरता कम हुई और कृषि उत्पादन में और वृद्धि हुई।
इन नई तकनीकों और प्रथाओं को अपनाने से कृषि उत्पादन में पर्याप्त वृद्धि हुई। इसके परिणामस्वरूप, एक नए सामाजिक स्तर का उदय हुआ। इस अवधि के बौद्ध साहित्य में छोटे और बड़े किसानों के उद्भव का वर्णन है, जिन्हें गृहपति कहा जाता है। तमिल साहित्य में भी इसी तरह के संदर्भ मिलते हैं, जो भूमि स्वामित्व के बढ़ते महत्व को उजागर करते हैं। गांव के मुखिया का पद अक्सर वंशानुगत हो जाता था, जो सामाजिक पदानुक्रम में भूमि स्वामित्व के महत्व पर जोर देता था।