बंधुत्व जाति तथा वर्ग Notes: Class 12 history chapter 3 notes in hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 3 |
Chapter Name | बंधुत्व जाति तथा वर्ग |
Category | Class 12 History |
Medium | Hindi |
Class 12 history chapter 3 notes in hindi, बंधुत्व जाति तथा वर्ग notes इस अध्याय मे हम महाभारत और उस समय काल के लोगो के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर चर्चा करेंगे ।
महाकाव्य : –
🔹 महान व्यक्तियों के जीवन एवं उपलब्धियों अथवा किसी राष्ट्र विशेष के अतीत का वर्णन करने वाले विशाल काव्यात्मक ग्रंथ को महाकाव्य कहा जाता है।
🔹 अर्थात परिभाषा साहित्यशास्त्र के अनुसार वह सर्गबद्ध काव्य ग्रन्थ जिसमें प्रायः सभी रसों, ऋतुओं और प्राकृतिक दृश्यों का वर्णन हो, महाकाव्य कहलाता है। ये विशालतम एवं सर्वश्रेष्ठ काव्य होते हैं; उदाहरण : – महाभारत, रामायण आदि ।
महाभारत : –
🔹 महाभारत विश्व का सबसे विस्तृत और बड़ा महाकाव्य है। साहित्यिक परंपरा के अनुसार इस बृहत रचना के रचयिता ऋषि व्यास थे जिन्होंने श्री गणेश से यह ग्रंथ लिखवाया।
🔹 इसमें 18 पर्व और सभी पर्वों को मिलाकर 1948 अध्याय है, कहा जाता है इसमें कुल मिलाकर एक लाख से अधिक ( 1,00217) श्लोक हैं। यह भारत ही नहीं अपितु विश्व की सबसे महान धरोहर है।
🔹 महाभारत का पुराना नाम जय संहिता था । महाभारत ग्रन्थ का रचनाकाल बहुत अधिक लम्बा है, महाभारत की रचना 1000 वर्ष तक होती रही है (लगभग 500 BC ) तक होती रही। इस ग्रन्थ में समकालीन विभिन्न परिस्थितियों और सामाजिक श्रेणियों का लेखा-जोखा है । इसमें कुछ ऐसी कथाओं का भी समावेश है जो इस काल से पहले भी प्रचलित थी ।
महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण : –
🔹 सन् 1919 ई. में प्रसिद्ध संस्कृत विद्वान वी. एस. सुकथांकर के नेतृत्व में अनेक विद्वानों ने महाभारत के समालोचनात्मक संस्करण को तैयार करने की परियोजना प्रारम्भ की।
🔹 आरंभ में देश के विभिन्न भागों से विभिन्न लिपियों में लिखी गई महाभारत की संस्कृत पांडुलिपियों को एकत्रित किया गया। उन्होंने उन श्लोकों का चयन किया जो लगभग सभी पांडुलिपियों में पाए गए थे और उनका प्रकाशन 13,000 पृष्ठों में फैले अनेक ग्रंथ खंडों में किया।
🔹 इस परियोजना के अन्तर्गत देश के विभिन्न भागों से प्राप्त पाण्डुलिपियों के आधार पर महाभारत का समालोचनात्मक संस्करण तैयार करने में लगभग 47 वर्षों का समय लगा।
🔹 इस पूरी प्रक्रिया में दो बातें विशेष रूप से उभर कर आई : –
🔸 पहली बात यह कि संस्कृत के कई पाठों के अनेक अंशों में समानता थी। यह इस बात से ही स्पष्ट होता है कि समूचे उपमहाद्वीप में उत्तर में कश्मीर और नेपाल से लेकर दक्षिण में केरल और तमिलनाडु तक सभी पांडुलिपियों में यह समानता देखने में आई।
🔸 दूसरी बात यह भी कि कुछ शताब्दियों के दौरान हुए महाभारत के प्रेषण में अनेक क्षेत्रीय प्रभेद भी उभर कर सामने आए इन प्रभेदों का संकलन मुख्य पाठ की पादटिप्पणियों और परिशिष्टों के रूप में किया गया। 13,000 पृष्ठों में से आधे से भी अधिक इन प्रभेदों का ब्योरा देते हैं।
कुल : –
🔹 एक ही पूर्व पुरुष से उत्पन्न व्यक्तियों का समूह, वंश, घराना, खानदान। संस्कृत ग्रन्थों में कुल शब्द का प्रयोग प्रत्येक परिवार के लिए होता है।
जाति : –
🔹 हिन्दुओं का वह सामाजिक विभाग जो पहले कर्मानुसार था, पर अब जन्मानुसार माना जाता है। संस्कृत ग्रन्थों में जाति शब्द का प्रयोग बान्धवों (सगे- संबंधियों) के एक बड़े समूह के लिए होता है।
वंश : –
🔹 पीढ़ी-दर-पीढ़ी किसी भी कुल के पूर्वज इकट्ठे रूप में एक ही वंश के माने जाते हैं।
पितृवंशिकता : –
🔹 पितृवंशिकता का अर्थ है वह वंश परंपरा जो पिता के पुत्र फिर पौत्र, प्रपौत्र आदि से चलती है।
मातृवंशिकता : –
🔹 मातृवंशिकता शब्द का इस्तेमाल हम तब करते हैं जहाँ वंश परंपरा माँ से जुड़ी होती है।
बंधुता एवं विवाह
परिवार : –
🔹 परिवार एक बड़े समूह का हिस्सा होते हैं जिन्हें हम संबंधी कहते हैं, तकनीकी भाषा का इस्तेमाल करें तो हम संबंधियों को जाति समूह कह सकते हैं।
परिवारों के बारे में जानकारी : –
- परिवार समाज की एक महत्वपूर्ण संस्था थी ।
- एक ही परिवार के लोग भोजन मिल बाँटकर के करते हैं ।
- परिवार के लोग संसाधनों का प्रयोग मिल बाँटकर करते हैं ।
- एक साथ रहते और काम करते हैं ।
- परिवार के लोग एक साथ मिलकर पूजा पाठ करते हैं ।
- कुछ समाजों में चचेरे और मौसेरे भाई बहनों को भी खून का रिश्ता माना जाता ।
- पारिवारिक संबंध ‘नैसर्गिक’ एवं ‘रक्त’ से संबंधित माने जाते हैं।
पितृवंशिक व्यवस्था : –
🔹 महाभारत की मुख्य कथावस्तु ने पितृवंशिकता को मजबूत किया । पितृवंशिकता के अनुसार पिता की मृत्यु के पश्चात् उसके पुत्र उसके संसाधनों पर अधिकार स्थापित कर सकते हैं।
🔹 राजाओं के सन्दर्भ में राजसिंहासन भी सम्मिलित था। लगभग छठी शताब्दी ई. पू. से अधिकांश राजवंश पितृवंशिकता प्रणाली का अनुसरण करते थे। कभी पुत्र के न होने पर एक भाई दूसरे का उत्तराधिकारी हो जाता था तो कभी बंधु-बांधव सिंहासन पर अपना अधिकार जमाते थे। कुछ विशिष्ट परिस्थितियों में स्त्रियाँ जैसे प्रभावती गुप्त सत्ता का उपभोग करती थीं।
पितृवंशिक व्यवस्था में पुत्रियों की स्थिति : –
🔹 जहाँ पितृवंश को आगे बढ़ाने के लिए पुत्र महत्वपूर्ण थे वहाँ इस व्यवस्था में पुत्रियों को अलग तरह से देखा जाता था । पैतृक संसाधनों पर उनका कोई अधिकार नहीं था। अपने गोत्र से बाहर उनका विवाह कर देना ही अपेक्षित था। इस प्रथा को बहिर्विवाह पद्धति कहते हैं और इसका तात्पर्य यह था कि ऊँची प्रतिष्ठा वाले परिवारों की कम उम्र की कन्याओं और स्त्रियों का जीवन बहुत सावधानी से नियमित किया जाता था जिससे ‘उचित’ समय और ‘उचित’ व्यक्ति से उनका विवाह किया जा सके। इसका प्रभाव यह हुआ कि कन्यादान अर्थात् विवाह में कन्या की भेंट को पिता का महत्वपूर्ण धार्मिक कर्तव्य माना गया।
धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र : –
🔹 ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार की। 500 ई. पू. से इन मानदण्डों का संकलन जिन संस्कृत-ग्रन्थों में किया गया, वे धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र कहलाए।
मनुस्मृति : –
🔹 ‘धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में सबसे महत्त्वपूर्ण मनुस्मृति थी। यह आरंभिक भारत का सबसे प्रसिद्ध विधि ग्रन्थ है जिसे संस्कृत भाषा में 200 ई. पू.ई. के मध्य लिखा गया।
विवाह (Marriage ) : –
🔹 विवाह शब्द ‘वि’ उपसर्ग-पूर्वक ‘वह’ धातु से बना है जिसका शाब्दिक अर्थ है-वधू को वर के घर ले जाना या पहुँचाना। प्राचीन भारत में वर्णित 16 सामाजिक संस्कारों में विवाह एक महत्वपूर्ण संस्कार था। विवाह संस्कार के द्वारा ही स्त्री एवं पुरुष गृहस्थ जीवन में प्रवेश करते थे।
🔹 ब्राह्मणों ने समाज के लिए विस्तृत आचार संहिताएँ तैयार कीं । लगभग 500 ई.पू. से इन मानदंडों का संकलन धर्मसूत्र व धर्मशास्त्र नामक संस्कृत ग्रंथों में किया गया। इसमें सबसे महत्वपूर्ण मनुस्मृति थी जिसका संकलन लगभग 200 ई.पू. से 200 ईसवी के बीच हुआ। मनुस्मृति में 8 प्रकार के विवाहों का वर्णन है।
विवाह के नियम : –
🔹 दिलचस्प बात यह है कि धर्मसूत्र और धर्मशास्त्र विवाह के आठ प्रकारों को अपनी स्वीकृति देते हैं। इनमें से पहले चार ‘उत्तम’ माने जाते थे और बाकियों को निंदित माना गया। संभव है कि ये विवाह पद्धतियाँ उन लोगों में प्रचलित थीं जो ब्राह्मणीय नियमों को अस्वीकार करते थे।
अंतर्विवाह : –
🔹 अंतर्विवाह में वैवाहिक संबंध समूह मध्य ही होते हैं। यह समूह एक गोत्र कुल अथवा एक जाति या फिर एक ही स्थान पर बसने वालों का हो सकता है।
बर्हिविवाह : –
🔹 इस प्रथा में अपनी जाति, गोत्र से बाहर विवाह ही होता था।
गन्धर्व विवाह : –
🔹जब वर व कन्या एक-दूसरे के गुणों पर आकर्षित होकर विवाह करते हैं, वह गन्धर्व विवाह था । अर्थात गन्धर्व विवाह एक तरह का प्रेम विवाह होता था जिसमें पर व कन्या माता-पिता की अनुमति के बगैर ही विवाह कर लेते हैं।
बहुपति प्रथा : –
🔹 बहुपति प्रथा में एक स्त्री के कई पति होते थे । यह प्रथा कम ही प्रचलन में थी। महाभारत में द्रोपती इसका उदाहरण है।
बहुपत्नी प्रथा : –
🔹 इस प्रथा के तहत एक पुरुष कई स्त्रियों से विवाह कर सकता था । महाभारत में विचित्रर्वीय की दो पनियाँ थी। राजा पाण्डु की भी दो पत्नी थी।
गोत्र : –
🔹 गोत्र एक ब्राह्मण पद्धति जो लगभग 1000 ईसा पूर्व के बाद प्रचलन में आई। इसके तहत लोगों को गोत्र में वर्जित किया जाता था। प्रत्येक गोत्र एक वैदिक ऋषि के नाम पर होता था उस गोत्र के सदस्य ऋषि के वंशज माने जाते थे।
गोत्रों के नियम : –
🔹 गोत्रों के दो नियम महत्वपूर्ण थे : विवाह के पश्चात स्त्रियों को पिता के स्थान पर पति के गोत्र का माना जाता था तथा एक ही गोत्र के सदस्य आपस में विवाह संबंध नहीं रख सकते थे।
स्त्रियों का गोत्र : –
🔹 विवाह के पश्चात् स्त्रियों का गोत्र पिता के स्थान पर पति का गोत्र माना जाता था। परन्तु सातवाहन इसके अपवाद कहे जा सकते हैं। पुत्र के नाम के आगे माता का गोत्र होता था । उदाहरण के लिये गौतमी पुत्र शातकर्णी एवं वशिष्ठी पुत्र पुलुमावी। अर्थात् विवाह के पश्चात् भी सातवाहन रानियों ने अपने पति के स्थान पर पिता का गोत्र ही अपनाया। यह भी पता चलता है कि कुछ रानियाँ एक ही गोत्र से थीं। यह तथ्य बहिर्विवाह पद्धति के नियमों के विरुद्ध था।
क्या माताएँ महत्वपूर्ण थीं?
🔹 सातवाहन राजाओं को उनके मातृनाम से चिह्नित किया जाता था जिससे यह प्रतीत होता है कि माताएँ महत्त्वपूर्ण थीं, परन्तु इस निष्कर्ष पर पहुँचने से पहले हमें इस बात पर ध्यान देना होगा कि सातवाहन राजाओं में सिंहासन का उत्तराधिकार प्रायः पितृवंशिक होता था ।
सामाजिक विषमताएँ
वर्ण व्यवस्था : –
🔹 धर्मसूत्रों एवं धर्मशास्त्रों में वर्ग आधारित एक आदर्श व्यवस्था का उल्लेख मिलता है। इनके अनुसार समाज में चार वर्ग, थे, जिन्हें वर्ण कहा जाता था। ब्राह्मणों का यह मानना था कि यह व्यवस्था जिसमें स्वयं उन्हें पहला दर्जा प्राप्त है, एक दैवीय व्यवस्था है। शूद्रों और ‘अस्पृश्यों’ को सबसे निचले स्तर पर रखा जाता था। इस व्यवस्था में दर्ज़ा संभवत: जन्म के अनुसार निर्धारित माना जाता था ।
वर्ण’ शब्द का अर्थ : –
🔹 कर्म (कार्यों) के आधार पर आर्यों ने समाज को जिन चार भागों में बाँट दिया था, उन्हें वर्ण कहा जाता है। आरंभिक समाज में चार वर्ण : – ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र थे।
वर्ण व्यवस्था में ‘जीविका’ से जुड़े नियम : –
🔹 धर्मसूत्रों और धर्मशास्त्रों में चारों वर्गों के लिए आदर्श ‘जीविका’ से जुड़े कई नियम मिलते हैं।
🔸 ब्राह्मण : – ब्राह्मणों का कार्य अध्ययन, वेदों की शिक्षा, यज्ञ करना और करवाना था तथा उनका काम दान देना और लेना था।
🔸 क्षत्रिय : – क्षत्रियों का कर्म युद्ध करना, लोगों को सुरक्षा प्रदान करना, न्याय करना, वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना था।
🔸 वैश्य : – वेद पढ़ना, यज्ञ करवाना और दान-दक्षिणा देना साथ ही उनसे कृषि, गौ-पालन और व्यापार का कर्म भी अपेक्षित था।
🔸 शूद्र : – शूद्रों के लिए मात्र एक ही जीविका थी – तीनों ‘उच्च’ वर्णों की सेवा करना।
नियमों का पालन करवाने के लिए क्या किया जाता था ?
🔹 इन नियमों का पालन करवाने के लिए ब्राह्मणों ने दो-तीन नीतियाँ अपनाई ।
- एक, जैसा कि हमने अभी पढ़ा, यह बताया गया कि वर्ण व्यवस्था की उत्पत्ति एक दैवीय व्यवस्था है।
- दूसरा, वे शासकों को यह उपदेश देते थे कि वे इस व्यवस्था के नियमों का अपने राज्यों में अनुसरण करें।
- तीसरे, उन्होंने लोगों को यह विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया कि उनकी प्रतिष्ठा जन्म पर आधारित है।