किसान जमींदार और राज्य question answer: Class 12 history chapter 8 ncert solutions in hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 8 ncert solutions |
Chapter Name | किसान जमींदार और राज्य |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
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Class 12 History chapter 8 questions and answers in hindi [ उत्तर दीजिए (लगभग 100-150 शब्दों में) ]
note: ये सभी प्रश्न और उत्तर नए सिलेबस पर आधारित है। इसलिए चैप्टर नंबर आपको अलग लग रहे होंगे।
प्रश्न 1. कृषि इतिहास लिखने के लिए आइन को स्रोत के रूप में इस्तेमाल करने में कौन-सी समस्याएँ हैं? इतिहासकार इन समस्याओं से कैसे निपटते हैं?
उत्तर: आइन को अबुल फजल ने लिखा था। अपनी इस पुस्तक में उसने कृषि सम्बन्धी अनेक जानकारियाँ दी हैं। इस पुस्तक में खेतों की नियमित जुताई की तसल्ली करने के लिए, राज्य के नुमाइदों द्वारा करों की उगाही के लिए और राज्य तथा ग्रामीण जमीदारों के बीच के रिश्तों के नियमन के लिए जो इंतजाम राज्य ने किए थे, उसका लेखा-जोखा पेश किया गया है।
आइन में कृषि इतिहास के सन्दर्भ में संख्यात्मक आँकड़ों की दृष्टि से विषमताएँ पाई गई हैं। सभी सूबों से आँकड़े एक ही शक्ल में नहीं एकत्रित किए गए। मसलन, जहाँ कई सूबों के लिए जमींदारों की जाति के मुताबिक विस्तृत सूचनाएँ संकलित की गईं, वहीं बंगाल और उड़ीसा के लिए ऐसी सूचनाएँ मौजूद नहीं हैं। इसी प्रकार जहाँ राजकोषीय आंकड़े बड़ी तफसील से दिए गए हैं, वहीं उन्हीं इलाकों से कीमतों और मजदूरी जैसे इतने ही महत्त्वपूर्ण मापदंड इतने अच्छे से दर्ज नहीं किए गए हैं। कीमतों और मजदूरी की, दरों की जो विस्तृत सूची आइन में दी गई है। स्पष्ट है कि देश के बाकी हिस्सों के लिए इन आंकड़ों की प्रासंगिकता सीमित है।
इतिहासकारों आइन की समस्याओं से निपटने के लिए अन्य दूसरे स्त्रोतों का भी इस्तेमाल करते हैं जो मुगलों की राजधानी से दूर के क्षेत्रों में लिखे गए थे। इनमें सत्रहवीं एवं अठारहवीं सदी के गुजरात, महाराष्ट्र और राजस्थान से मिलने वाले वे दस्तावेज शामिल हैं जो सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं। इसके अतिरिक्त, ईस्ट इंडिया कपनी के बहुत सारे दस्तावेज भी हैं जो पूर्वी भारत में कृषि-संबंधों का उपयोगी खाका पेश करते हैं। ये सभी स्त्रोत यह समझने में हमारी मदद करते हैं कि किसान द्वारा राज्य को किस दृष्टिकोण से देखा जाता था और राज्य से उन्हें किस प्रकार के न्याय की उम्मीद थी।
प्रश्न 2. सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कृषि उत्पादन को किस हद तक महज़ गुज़ारे के लिए खेती कह सकते हैं? अपने उत्तर के कारण स्पष्ट कीजिए।
उत्तर: सोलहवीं-सतरहवीं सदी में दैनिक आहार की खेती पर विशेष बल दिया जाता था, लेकिन इसका अर्थ यह नहीं था कि मध्यकालीन भारत में खेती केवल गुजारा करने के लिए की जाती थी। स्त्रोतों में हमें प्रायः जिन्स-ए-कामिल, जिसका अर्थ है सर्वोत्तम फसलें, जैसे लफ़्ज़ मिलते हैं। मुगल राज्य भी किसानों को ऐसी फसलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देते थे क्योंकि इनसे राज्य को अधिक कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फसलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं। तिलहन और दलहन भी नकदी फसलों में आती थी। इससे पता चलता है कि एक औसत किसान की जमीन पर किस प्रकार पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक-दूसरे से सम्बन्धित थे।
प्रश्न 3. कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका का विवरण दीजिए।
उत्तर: कृषि उत्पादन में महिलाओं की भूमिका बहुत महत्त्वपूर्ण थी। महिलाएँ पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करती थीं। महिलाओं का काम बुआई, निराई और कटाई के साथ-साथ पकी हुई, फसल का दाना निकालने का था। सूत कातने, बरतन बनाने के लिए मिट्टी को साफ करना और गूँधने और कपड़ों पर कढ़ाई जैसे दस्तकारी का काम उत्पादन के ऐसे पहलू थे जो महिलाओं के श्रम पर निर्भर थे।
किसान और दस्तकार महिलाएँ आवश्यकता पड़ने पर न सिर्फ खेतों में काम करती थी बल्कि नियोक्ताओं के घरों का भी काम करती थी और बाजारों के काम भी। भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं को पुश्तैनी संपत्ति का हक मिला हुआ था। पंजाब में ऐसे उदाहरण प्राप्त हुए है जहाँ महिलाएँ पुश्तैनी संपत्ति के विक्रेता के रूप में ग्रामीण जमीन के बाजार में सक्रिय हिस्सेदारी रखती थीं।
प्रश्न 4. विचाराधीन काल में मौद्रिक कारोबार की अहमियत की विवेचना उदाहरण देकर कीजिए।
उत्तर: सोलहवीं से अठाहरवीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा खासकर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही। इसके साथ ही एक तरफ तो अर्थव्यवस्था में मुद्रा संचार और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ, दूसरी तरफ मुगल राज्य को नकदी कर उगाहने में आसानी हुई।
इटली के एक मुसाफिर जोवान्नी कारेरी, जो लगभग 1690 ई. में भारत से होकर गुजरा था, ने इस बात का बड़ा सजीव चित्र पेश किया है कि किस तरह चाँदी तमाम दुनिया से होकर भारत पहुँचती थी। उसी से हमें यह भी पता चलता है कि सत्रहवीं सदी के भारत में बड़ी अद्भुत मात्रा में नकद और वस्तुओं का आदान-प्रदान हो रहा था।
प्रश्न 5. उन सबूतों की जाँच कीजिए जो ये सुझाते हैं कि मुगल राजकोषीय व्यवस्था के लिए भू-राजस्व बहुत महत्त्वपूर्ण था।
उत्तर: मुगल साम्राज्य की आर्थिक बुनियाद जमीन से मिलने वाले राजस्व पर टिकी थी। इसी वजह से कृषि उत्पादन पर नियंत्रण रखने के लिए तथा तेजी से फैलते साम्राज्य के तमाम क्षेत्रों से राजस्व आकलन तथा वसूली के लिए यह आवश्यक था कि राज्य एक प्रशासनिक तंत्र खड़ा करें। इस तंत्र में दीवान शामिल था। वास्तव में, दीवान का दफ्तर ही पूरे राज्य की वित्तीय व्यवस्था की देख-रेख करता था। इस प्रकार खेती की दुनिया में हिसाब रखने वाले एवं राजस्व अधिकारी का प्रवेश हुआ। ये लोग कृषि संबंधों को शक्ल देने में एक निर्णायक ताकत के रूप में उमड़े।
कर निर्धारण और वसूली – लोगों पर कर का बोझ निर्धारित करने से पहले मुगल राज्य ने जमीन और उस पर होने वाले उत्पादन के बारे में विशेष प्रकार की सूचनाएँ एकत्र करने की कोशिश की। भू-राजस्व के प्राप्त करने में दो चरण होते थे – (i) कर निर्धारण (ii) वास्तविक वसूली। जमा निर्धारित रकम थी तथा हासिल वास्तव में वसूली गई रकम होती थी। वसूली करने वाले को अमील-गुजार कहा जाता था।
अमील-गुजार करने वाले राजस्व के कामों की सूची में अकबर ने यह हुक्म दिया कि उसे ज्यादा कोशिश करनी चाहिए कि खेतिहर नकद में ही भुगतान करें, लेकिन वह फसलों में भुगतान का विकल्प भी खुला रखें। राजस्व निर्धारित करते वक्त राज्य अपना हिस्सा अधिक से अधिक रखने का प्रयत्न करता था, लेकिन हालात के कारण कभी-कभी वास्तव में इतनी वसूली कर पाना संभव नहीं हो पाता था।
भूमि की माप – प्रत्येक प्रांत में जुती हुई जमीन तथा जोतने लायक जमीन दोनों को नापा गया। अकबर के शासनकाल में अबुल फजल ने आइन में ऐसी जमीनों के सभी आंकड़ों को संकलित किया। उसके बाद के बादशाहों के शासनकाल में भी जमीन को मापने का प्रयास जारी रहा।
History class 12th chapter 8 question answer in hindi [ निम्नलिखित पर एक लघु निबंध लिखिए (लगभग 250 से 300 शब्दों में) ]
प्रश्न 6. आपके मुताबिक कृषि समाज में सामाजिक व आर्थिक संबंधों को प्रभावित करने में जाति किस हद तक एक कारक थी?
उत्तर: जाति और जाति जैसे अन्य भेदभावों की वजह से खेतिहर किसान कई तरह के समूहों में बंटे थे। खेतों की जुताई करने वालों में एक बड़ी तादाद ऐसे लोगों की थी जो नीच समझे जाने वाले कामों में लगे थे, या फिर खेतों में मजदूरी करते थे। हालाँकि खेती लायक जमीन की कमी नहीं थी, फिर भी कुछ जाति के लोगों को सिर्फ नीच समझे जाने वाले काम ही दिए जाते थे। इस तरह वे गरीब रहने के लिए मजबूर थे। जनगणना तो उस वक्त नहीं होती थी, पर जो थोड़े-बहुत आंकड़े और तथ्य हमारे पास हैं, उनसे पता चलता है कि गांव की आबादी का बहुत बड़ा हिस्सा ऐसे ही समूहों का था। इनके पास संसाधन सबसे कम थे और ये जाति व्यवस्था की पाबंदियों से बंधे थे।
इनकी हालत कमोबेश वैसी ही थी जैसी कि आधुनिक भारत में दलितों की। दूसरे संप्रदायों में भी ऐसे भेदभाव फैलने लगे थे। मुसलमान समुदायों में हलालखोरान जैसे ‘नीच’ कामों से जुड़े समूह गांव की हदों के बाहर ही रह सकते थे; इसी तरह बिहार में मल्लाहजादाओं (शब्दिक अर्थ-नाविकों के पुत्र) की तुलना दासों से की जा सकती थी। समाज के निचले तबकों में जाति, गरीबी और सामाजिक हैसियत के बीच सीधा रिश्ता था। ऐसा बीच के समूहों में नहीं था। सत्रहवीं सदी में मारवाड़ में लिखी गई एक किताब राजपूतों की चर्चा किसानों के रूप में करती है।
इस किताब के मुताबिक जाट भी किसान थे, लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुकाबले नीची थी। सत्रहवीं सदी में राजपूत होने का दावा वृंदावन (उत्तर प्रदेश) के इलाके में गौरव समुदाय ने भी किया, बावजूद इसके कि वे जमीन की जुताई के काम में लगे थे। पशुपालन और बागवानी में बढ़ते मुनाफे की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियां सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठी। पूर्वी इलाकों में, पशुपालक और मछुआरी जातियां, जैसे-सद्गोप व कैवर्त भी किसानों की-सी सामाजिक स्थिति पाने लगीं।
प्रश्न 7. सोलहवीं और सत्रहवीं सदी में जंगलवासियों की जिंदगी किस तरह बदल गई?
उत्तर: वाणिज्यिक खेती का असर बाहरी कारक के रूप में जंगलवासियों की जिंदगी पर पड़ता था। जंगल के विभिन्न उत्पादों जैसे-शहद, मधुमोम और लाक की बहुत माँग थी। सत्ररहवीं सदी में भारत से समुद्र पार होने वाले निर्यात की मुख्य वस्तुओं में लाक जैसी कुछ वस्तुएँ थीं। जंगलों से हाथी भी पकड़े और बैचे जाते थे। व्यापार के अंतर्गत वस्तुओं की अदला-बदली भी होती थी। कुछ कबीले भारत और अफगानिस्तान के मध्य होने वाले जमीनी व्यापार में लगे थे।
जंगलवासियों के जीवन में आए परिवर्तनों में सामाजिक कारण भी था कबीलों के सरदार बहुत कुछ ग्रामीण समुदाय के ‘बड़े आदमियों’ की तरह होते थे। कुई, कबीलों के सरदार तो जमींदार बन गए, कुछ राजा भी बन गए। ऐसे में उन्हें अपनी सेना खड़ी करने की आवश्यकता महसूस हुई। उन्होंने अपने ही खानदान के लागों को सेना में भर्ती किया, या फिर अपने ही भाई-बंधुओं से सैन्य सेवा की माँग की। सिंध क्षेत्र की कबीलाई सेनाओं में 6000 घुड़सवार और 700 पैदल सिपाही होते थे। असम में, अहोम राजाओं के अपने पायक होते थे।
ये वे लोग थे जिन्हें जमीन के बदले सैनिक सेवा देनी पड़ती थी। अहोम राजाओं ने जंगली हाथी पकड़ने पर अपने एकाधिकार का ऐलान भी कर रखा था। सोलहवीं-सत्रहवीं सदी में कोच राजाओं ने पड़ोसी कबीलों के साथ बारी-बारी से युद्ध किया और उन पर अपना कब्जा जमा लिया। जंगल के क्षेत्रों में नए सांस्कृतिक प्रभावों के विस्तार की भी शुरूआत हुई। कुछ इतिहासकारों के अनुसार नए बसे क्षेत्रों के खेतिहर समुदायों ने जिस प्रकार ‘धीरे-धीरे इस्लाम को अपनाया उसमें सूफी संतों (पीर) ने एक बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
प्रश्न 8. मुग़ल भारत में ज़मींदारों की भूमिका की जाँच कीजिए।
उत्तर: मुगल भारत में जमींदारों की भूमिका : –
मुगल भारत में जमींदार जमीन के मालिक होते थे। ग्रामीण समाज में इन्हें ऊँची हैसियत प्राप्त थी। इस कारण इन्हें कुछ विशेष सामाजिक और आर्थिक सुविधाएँ मिली हुई थी। जमींदारों की बढ़ी हुई हैसियत के पीछे एक कारण जाति था। दूसरा कारण यह था कि वे लोग राज्य को विशेष तरह की सेवाएँ देते थे। जमींदारों की विस्तृत व्यक्तिगत जमीन उनकी समद्धि का कारण थी। इन्हें मिल्कियत कहा जाता था। मिल्कियत् जमीन पर जमींदार के निजी इस्तेमाल के लिए खेती की जाती थी। प्रायः इन जमीनों पर रोज कमाने वाले मजदूर या पराधीन मजदूर काम करते थे। जमींदार जब चाहें इन जमीनों को बेच सकते थे, किसी और के नाम कर सकते थे या उन्हें गिरवी रख सकते थे।
जमींदार की शक्ति इस बात से भी आती थी कि उन्हें प्रायः राज्य की ओर से कर वसूलने का कार्य दिया जाता था। इसके बदले उन्हें वित्तीय मुआवजा दिया जाता था। उनकी ताकत का एक और जरिया सैनिक संसाधन था। अधिकांश जमींदारों के पास अपने किले भी थे और अपनी सैनिक टुकड़ियाँ भी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे। इस प्रकार यदि हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों को एक पिरामिड के रूप में देखें तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे।
जमींदारों ने खेती लायक जमीनों को बसाने में महत्त्वपूर्ण भमिका निभाई। उन्होंने खेतिहरों को खेती के साजो-सामान तथा उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी सहायता की। जमींदारों की खरीद-फरोख्त से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई। इसके अतिरिक्त जमींदारों द्वारा अपनी मिल्कियत की जमीनों की फसलों को भी बेचा जाता था। सम्भवतः जमीदार प्रायः बाजार (हाट) स्थापित करते थे। इन हाटों में किसान भी अपनी फसले बेचने आते थे।
जमींदार वर्ग एक शोषण करने वाला वर्ग जरूर था, परंतु किसानों से उनके सम्बन्धों में पारस्परिकता, पैतृकवाद और संरक्षण का पुट था। किसान प्रायः राजस्व अधिकारियों को ही दोषी ठहराते थे। परवर्ती काल में अनेक कृषक – बिद्रोह हुए और उनमें राज्य के खिलाफ जमींदारों को अक्सर किसानों का समर्थन और सहयोग मिला।
प्रश्न 9. पंचायत और गाँव का मुखिया किस तरह से ग्रामीण समाज का नियमन करते थे? विवेचना कीजिए।
पंचायत का सरदार मुखिया होता था जिसे मुकद्दम या मंडल के नाम से जाना जाता था। मुखिया का मुख्य काम गाँव के आमदनी और खर्च का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना था। इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था। पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम खजाने से चलता था जिसमें प्रत्येक व्यक्ति अपना योगदान देता था। इस खजाने का उपयोग पंचायत द्वारा गाँव के समृद्धि के लिए विभिन्न कार्यों में लगाया जाता था।
पंचायत यह भी सुनिश्चित करता था कि गाँव में रहने वाले अलंग-अलग, समुदायों के लोग अपनी जाति की सीमा के अंदर रहें। पूर्वी भारत में सभी शादियाँ मंडल की मौजूदगी में होती थीं। यह कहा जा सकता है कि – जाति की अवहेलना रोकने के लिये लोगों के आचरण पर नजर रखना गाँव के मुखिया की जिम्मेदारियों में से एक था। पंचायत के पास ज्यादा गंभीर दंड देने का भी अधिकार था। वे जुर्माना लगा सकते थे और आवश्यकता पड़ने पर किसी को समुदाय से निष्कासित भी कर सकते थे।
ग्राम पंचायत के अतिरिक्त गाँव में प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत होती थी। समाज में इन पंचायतों को काफी ताकतवर माना जाता था। राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती थीं। ये पंचायतें जमीन से सम्बन्धित दावेदारियों के झगड़े सुलझाती थीं। इनके अतिरिक्त यह भी तय करती थीं कि शादियाँ जातिगत मानदंडों के मुताबिक हो रहीं हैं या नहीं। ये पंचायते यह भी तय करती थीं कि गाँव के आयोजन में किसको किसके ऊपर ज्यादा तरजीह दी जाएगी और यह भी कि कर्मकांडीय वर्चस्व किस क्रम में होगा। फौजदारी न्याय को छोड़कर अधिकांश मामलों में राज्य जाति पंचायत के फैसलों को मानता था।
“निचली जाति” के किसानों और राज्य के अधिकारियों या स्थानीय जमींदारों के बीच झगड़ों में पंचायत के फैसले अलग-अलग मामलों में अलग-अलग हो सकते थे। अत्यधिक कर की माँगों के मामले में पंचायत प्रायः समझौते का सुझाव देती थी। समझौता नहीं हो पाने की स्थिति में किसान विरोध के उग्र रास्ते को अपनाते थे, जैसे कि गाँव छोड़कर भाग जाना।