भारत के विदेश संबंध प्रश्न उत्तर: Class 12 Political Science chapter 4 ncert solutions in hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Political Science 2nd book |
Chapter | Chapter 4 ncert solutions |
Chapter Name | भारत के विदेश संबंध |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
क्या आप कक्षा 12 विषय राजनीति विज्ञान स्वतंत्र भारत में राजनीति पाठ 4 भारत के विदेश संबंध के प्रश्न उत्तर ढूंढ रहे हैं? अब आप यहां से Class 12 Political science chapter 4 question answers in hindi, भारत के विदेश संबंध प्रश्न उत्तर download कर सकते हैं।
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प्रश्न 1. इन बयानों के आगे सही या गलत का निशान लगाएं:
- (क) गुटनिरपेक्षता की नीति अपनाने के कारण भारत, सोवियत संघ और संयुक्त राज्य अमेरिका, दोनों की सहायता हासिल कर सका।
- (ख) अपने पड़ोसी देशों के साथ भारत के सम्बन्ध शुरुआत से ही तनावपूर्ण रहे।
- (ग) शीतयुद्ध का असर भारत-पाक सम्बन्धों पर भी पड़ा।
- (घ) 1971 की शान्ति और मैत्री की सन्धि संयुक्त राज्य अमेरिका से भारत की निकटता का परिणाम थी।
उत्तर: (क) सही (ख) गलत (ग) सही (घ) गलत।
प्रश्न 2. निम्नलिखित का सही जोड़ा मिलाएँ:
(क) 1950-64 के दौरान भारत की विदेश निति का लक्ष्य | 1. तिब्बत के धार्मिक नेता जो सीमा पार करके भारत चले आए। |
(ख) पंचशील | 2. क्षेत्रीय अंखडता और संप्रभुता की रक्षा तथा आर्थिक विकास। |
(ग) बांडुंग सम्मेलन | 3. शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व के पाँच सिद्धांत। |
(घ) दलाई लामा | 4. इसकी परिणति गुटनिरपेक्ष आंदोलन में हुई। |
उत्तर:
(क) 1950 – 64 के दौरान भारत की विदेश निति का लक्ष्य | 2. क्षेत्रीय अंखडता और संप्रभुता की रक्षा तथा आर्थिक विकास। |
(ख) पंचशील | 3. शांतिपूर्ण सह – अस्तित्व के पाँच सिद्धांत। |
(ग) बांडुंग सम्मेलन | 4. इसकी परिणति गुटनिरपेक्ष आंदोलन में हुई। |
(घ) दलाई लामा | 1. तिब्बत के धार्मिक नेता जो सीमा पार कर के भारत चले आए। |
प्रश्न 3. नेहरू विदेश निति के संचालन को स्वतंत्रता का एक अनिवार्य संकेतक क्यों मानते थे? अपने उत्तर में दो कारण बताएँ और उनके पक्ष में उदाहरण भी दें।
उत्तर: नेहरू निति के संचालन को स्वतंत्रता का एक अनिवार्य संकेतक मानते थे। नेहरू जी ही नहीं कांग्रेस के सभी नेता इस बात के समर्थक थे। जब 1939 में दूसरा युद्ध आरंभ हुआ तो ब्रिटिश सरकार ने भारतीय नेताओं से सलाह या बात किए बिना भारत के युद्ध में सम्मिलित होने की घोषणा कर दी। उस समय तो भारत स्वतंत्र नहीं था। उस समय भी कांग्रेस ने यह माँग की भारत के युद्ध में सम्मिलित होने की घोषणा किए जाने से पहले भारतीय नेताओं से बात – चित की जानी आवश्यक थी। इसके विरोध स्वरूप कंग्रेस ने सभी प्रांतों की मंत्रिपरिषद से त्यागपत्र दे दिए थे। विदेश निति के स्वतंत्र निर्धारण तथा संचालन को नेहरू जी द्वारा स्वतंत्रता का अनिवार्य संकेतक समझे जाने के कई कारण निम्नलिखित है-
(i) जो देश किसी दूसरे देश के दबाव में आकर अपनी विदेश निति का निर्धारण और संचालन करता है तो उसकी स्वतंत्रता निरर्थक होती है और वह एक प्रकार से उस दूसरे देश के अधीन ही हो जाता है तथा ऐसी अवस्था में उसे कई बार अपने राष्ट्रिय हितों की भी अनदेखी करनी पड़ती है। यह दूसरे देश की हाँ में हाँ और न में न मिलाने वाली एक मशीन बनकर रह जाता है। नेहरू जी ने 1947 में भारत में हुए एशिआई संबंध सम्मेलन में यह बात स्पष्ट रूप से कहि थी की भारत स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में अपनी स्वतंत्र विदेश निति के आधार पर सभी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में पूर्ण रूप से भाग लेगा, किसी महाशक्ति अथवा किसी दूसरी देश के दबाव में नहीं।
(ii) नेहरू जी का विचार था की किसी स्वतंत्र राष्ट्र में यदि अपनी विदेश निति का संचालन स्वतंत्रतापूर्णक नहीं कर सकता तो उसमे स्वाभिमान, आत्मसम्मान की भावना विकसित नहीं होती, वह विश्व समुदाय में सर ऊँचा उठाकर नहीं चल सकता और राष्ट्र का नैतिक विकास नहीं हो पाता। उसकी स्वतंत्रता नाममात्र होती है। बांडुंग सम्मेलन में बोलते हुए उन्होंने कहा था की यह बड़ी अपमानजनक तथा असहाय बात है की कोई एशियाई – अफ्रीकी देश महाशक्तियों के गुटों में से किसी गुट का दुमछल्ला बनकर जिए। हमें गुटों के आपसी झगड़ों से अलग रहना चाहिए और स्वतंत्रतापूर्णक अपनी विदेश निति का निर्माण तथा संचालन करना चाहिए।
प्रश्न 4. “विदेश नीति का निर्धारण घरेलू जरूरत और अंतरराष्ट्रीय परिस्थितियों के दोहरे दबाव में होता है।” 1960 के दशक में भारत द्वारा अपनाई गई विदेश निति से एक उदाहरण देते हुए अपने उत्तर की पुष्टि करें।
उत्तर: प्रत्येक देश अपनी विदेश निति का निर्धारण राष्ट्रीय जरूरतों और अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों के दोहरे दबाव के अंतर्गत करता है। इसमें शक नहीं की राष्ट्रीय जरूरतों अथवा हितों को प्रत्येक देश प्राथमिकता देता है, उसे सर्वोपरि मानता है परन्तु केवल राष्ट्रीय जरूरत ही विदेश निति के निर्माण का एकमात्र आधार नहीं होता। प्रत्येक देश भी व्यक्ति की तरह अकेला नहीं रहा सकता, उसे अन्य देशों के साथ संबंध बनाकर चलना पड़ता है। अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियाँ प्रत्येक देश की विदेश निति को प्रभावित करती हैं, उनकी किसी देश द्वारा अनदेखी नहीं की जा सकती।
जब भारत स्वतंत्र हुआ और इसने अपनी विदेश निति का निर्धारण किया तो भारत के सामने इसकी सबसे बड़ी राष्ट्रिय जरूरत सामाजिक – आर्थिक विकास की थी और विश्व की परिस्थितियाँ ऐसी थीं की उसने सारे संसार को दो महाशक्तियों की टक्कर में इसे भी चोट पहुँचने की संभावना रहती। अतः भारत ने दोनों गुटों से मित्रता की निति अपनाई ताकि वाहा आक्रमण का खतरा न बने और वह अपने सामाजिक – आर्थिक विकास की ओर ध्यान दे सके।
भारत पर 1942 में चीन का आक्रमण हुआ और इस समय सोवियत संघ ने तटस्थता दिखाई। पहले भारत सोवियत संघ पर अधिक निर्भर था क्योंकि कश्मीर के मामले में सोवियत संघ ने ही उसकी सहायता की थी। 1962 में हुए चीन के आक्रमण के समय भारत को अपनी सुरक्षानीति, उत्तर – पूर्व के क्षेत्रो के प्रति अपनी निति, सैनिक ढांचे के आधुनिकरण आदि के बारे में फिर से विचार करना पड़ा और अपने रक्षा व्यय में वृद्धि करनी पड़ी।
प्रश्न 5. अगर आपको भारत की विदेश निति के बारे में फैसला लेने को कहा जाए तो आप इसकी किन दो बातों को बदलना चाहेंगे। ठीक इसी तरह यह भी बताएँ की भारत की विदेश निति के किन दो पहलुओं को आप बरकरार रखना चाहेंगे। अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
उत्तर: मैं गुटनिरपेक्ष आंदोलन की सदस्यता को त्याग कर संयुक्त राज्य अमेरिका और पशिचमी योरोपीय देशों के साथ अधिक मित्रता बढ़ाना चाहूँगा। इसका कारण यह है की आज दुनिया में पशिचमी देशों की मनमानी चलती है और वे ही शक्ति संपन्न हैं। परन्तु साथ ही उसके साथ खास रिश्ता बनाए रखूँगा।
पड़ोसी देशों के साथ वर्तमान की ढुलमुल विदेश निति को बदलकर एक आक्रमकता निति अपनाऊँगा। पड़ोसी देशों के साथ अच्छे संबंध बनाने का प्रयास करूँगा, परन्तु आक्रमक निति के तहत।
जिन दो पहलुओं को बराबर रखुँगा वे निम्नलिखित हैं।
- सी.टी.बी.टी. के बारे में वर्तमान दृष्टिकोण को और परमाणु निति की वर्तमान निति को बनाए रखूँगा।
- संयुक्त राष्ट्र संघ की सदस्यता को बराबर रखना चाहूँगा और विश्व बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष से पूर्ववत सहयोग बरकरार रखना चाहूँगा।
प्रश्न 6. निम्नलिखित पर संक्षिप्त टिप्पणी लिखिए:
- (क) भारत की परमाणु नीति ।
- (ख) विदेश नीति के मामलों पर सर्व-सहमति ।
उत्तर: (क) भारत की परमाणु निति – भारत विश्व शांति और सुरक्षा को बढ़ावा दिए जाने के प्रसायों का समर्थक है और इसने सदा इस विषय पर संयुक्त राष्ट्र का समर्थन किया है तथा संयुक्त राष्ट्र ने जब किसी क्षेत्र में शांति सुरक्षा सेना भेजे जाने की अपील की, उसमे योगदान किया। इसके साथ ही भारत निःशस्त्रीकरण का समर्थक है और आरंभ से ही निःशस्त्रीकरण को लागू किए जाने का समर्थक है। परन्तु यह भी सत्य है की भारत ने अपनी परमाणु शक्ति के विकास के प्रयास किए हैं। भारत ने पहला परमाणु परिक्षरण 1974 में किया था। और फिर 1998 में भारत ने सफलता पूर्वक पाँच परमाणु परीक्षण किए। इन परीक्षणो के कारण भारत को महाशक्तियों द्वारा लगाए गए प्रतिबंधों का सामना भी करना पड़ा।
परन्तु भारत ने जो कदम उठाया था उससे पीछे नहीं हटा। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1969 में परमाणु अप्रसार संधि लागू की थी और गैर परमाणु शक्ति देशों पर यह प्रतिबंध लगाया था की वे अणु शक्ति का विकास नहीं कर सकते, परमाणु परीक्षण तथा परमाणु विस्फोट नहीं कर सकते। भारत ने इसका विरोध किया था। फिर इस संधि को 1994 में परमाणु परीक्षण प्रतिबंध संधि का नाम दिया गया।
भारत ने इसका भी विरोध किया और इसे भी भेदभावपूर्ण बताया और कहा की पाँच राष्ट्रों का परमाणु शक्ति के परीक्षणों तथा विकास पर एकाधिकार देना और शेष सभी देशों पर प्रतिबंध लगाना न्यायपूर्ण नहीं है, समानता के सिद्धांतों जिसके आधार पर संयुक्त राष्ट्र की स्थापना हुई, का उललंघन है। भारत का कहना है की युद्ध के हथियारों के लिए परमाणु परीक्षण करना तथा परमाणु शक्ति का विकास करना उचित नहीं है और इससे विश्व शांति और सुरक्षा को खतरा है। इस पर प्रतिबंध लगाना उचित है। परन्तु विकास और शन्ति के लिए अणुशक्ति के विकास की छूट प्रत्येक राष्ट्र को होनी वांछित और आवश्यक है।
(ख) विदेश निति के मामलों पर सर्व – सहमति – अंतरारष्ट्रीय स्तर पर भारत के विभिन्न राजनितिक दलों के बिच विदेश निति को लेकर मतभेद जरूर है परन्तु इन दलों के बीच राष्ट्रीय अखंडता, अंतर्राष्ट्रीय सीमा सुरक्षा तथा राष्ट्रीय हित के मसलों पर व्यापक सहमति हैं। इस कारण, हम देखते है की 1962 – 1972 के बीच जब भारत के तीन युद्धों का सामना किया और इसके बाद समय जब समय – समय पर कई पार्टियों ने सरकार बनाई, विदेश निति की भूमिका पार्टी राजनीती में बड़ी सिमित रही।
प्रश्न 7. भारत की विदेश निति का निर्माण शांति और सहयोग के सिद्धांतों को आधार मानकर हुआ। लेकिन, 1962 – 1972 की अवधि यानी महज दस सालों में भारत को तीन युद्धों का सामना करना पड़ा। क्या आपको लगता है की यह भारत की विदेश निति की असफलता है अथवा, आप इसे अंतर्राष्ट्रीय परिस्थितियों का परिणाम मानेंगे? अपने मंतव्य के पक्ष में तर्क दीजिए।
उत्तर: (i) भारत की विदेश निति शांति और सहयोग के आधार पर किटी हुई है। लेकिन यह भी सत्य है की 1962 में चीन ने ‘चीनी – हिंदुस्तानी भाई – भाई’ का नारा दिया और पंचशील पर हस्ताक्षर किए लेकिन भारत पर 1962 में आक्रमण करके पहला युद्ध थोपा दिया। निःसंदेह यह भारत की विदेश निति की असफलता थी। इसका कारण यह था की हमारे देश के कुछ नेता अपनी छवि के कारण अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर शन्ति के दूत कहलवाना चाहते थे।
यदि उन्होंने कूटनीति से काम लेकर दूरदर्शिता दिखाई होती और कम से कम चीन के विरुद्ध किसी ऐसी बड़ी शक्ति से गुप्त समझौता किया होता जिसके पास परमाणु हथियार होते या संकट की घड़ी में वह चीन के विरुद्ध किसी ऐसी बड़ी शक्ति से गुप्त समझौता किया होता जिसके पास परमाणु हथियार होते या संकट की घड़ी में वह चीन द्वारा दिखाई जा रही दादागिरी का उचित जवाब देने में हमारी सहायता करता तो चीन की इतनी जुर्रत नहीं होती।
(ii) 1965 में पाकिस्तान ने भारत पर आक्रमण किया लेकिन उस समय लाल बहादुर शस्त्री के नेतृत्व में भारतीय सरकार की विदेश निति असफल नहीं हुई और उसे महान नेता की आंतरिक निति के साथ – साथ भारत की विदेश निति की धाक भी जमी।
(iii) 1971 में बांग्लादेश के मामले पर तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने एक सफल कूटनीतिज्ञ के रूप में बांग्लादेश का समर्थन किया और एक शत्रु देश की कमर स्थायी रूप से तोड़कर यह सिद्ध किया की युद्ध में सब जायज है। हम भाई हैं पाकिस्तान के, ऐसे आदर्शवादी नारों का व्यवहारिकता में कोई स्थान नहीं है।
(iv) राजनीती में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता। विदेशी संबंध राष्ट्र हितों पर टिके होते हैं। हर समयआदर्शों का ढिंढोरा पीटने से काम नहीं चलता। हम परमाणु शक्ति संपन्न हैं सुरक्षा परिषद में स्थायी स्थान प्राप्त करेगें, केवल मात्र हमारा यही मंतव्य है और हम सदा ही इसके पक्ष में निर्णय लेंगे, काम करेंगे। आज की परिस्थितियां ऐसी हैं की हमें बराबरी से हर मंच, हर स्थान पर बात करनी चाहिए लेकिन यथासंभव अंतर्राष्ट्रीय शांति, सुरक्षा सहयोग, प्रेम, भाईचारे को बनाए रखने का प्रयास भी करना चाहिए।
प्रश्न 8. क्या भारत की विदेश निति से यह झलकता है की भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है? 1971 के बांग्लादेश युद्ध के संदर्भ में इस प्रश्न पर विचार करें।
उत्तर: भारत की विदेश निति से यह बिल्कुल नहीं झलकता की भारत क्षेत्रीय स्तर की महाशक्ति बनना चाहता है। 1971 का बांग्लादेश युद्ध इस बात को बिल्कुल साबित नहीं करता। बांग्लादेश के निर्माण के लिए स्वयं पाकिस्तान की पूर्वी पाकिस्तान के प्रति उपेक्षापूर्ण नीतियाँ थीं। भारत एक शांतिप्रिय देश है। यह शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की नीतियों में विश्वास करता आया है, कर रहा है। और भविष्य में भी करेगा।
भारत ने क्षेत्रीय महाशक्ति बनने की आकांक्षा कभी नहीं पाली। हालाकिं इसके पड़ोसी उस पर इस तरह के आरोप लगाते रहते हैं। भारत ने बांग्लादेश युद्ध के समय भी पाकिस्तान को धूल चटाया पर उनके सैनिकों को ससम्मान रिहा कर दिया। पाकिस्तान की भेदभावपूर्ण नीतियाँ और उपेक्षित व्यवहार के कारण ही पूर्वी पाकिस्तान की जनता विद्रोह कर बैठी और इसने युद्ध का रूप ले लिया। भारत ने इसे अपना नैतिक समर्थन दिया।
प्रश्न 9. किस राष्ट्र का राजनीतिक नेतृत्व किस तरह उस राष्ट्र की विदेश निति पर असर डालता है? भारत की विदेश निति के उदाहरण देते हुए इस प्रश्न पर विचार कीजिए।
उत्तर: हर देश का राजनैतिक नेतृत्व उस राष्ट्र की विदेश निति पर प्रभाव डालता हैं। उदाहरण के लिए –
(i) नेहरू जी के सरकार के काल में गुट – निरपेक्षता की निति बड़ी जोर – शोर से चली लेकिन शास्त्री जी ने पाकिस्तान को ईट का जवाब पत्थर से देकर यह साबित कर दिया की भारत की सेनाएँ हर दुश्मन को जवाब देने की ताकत रखती हैं। उन्होंने स्वाभिमान से जीना सिखाया ताशकंद समझौता किया लेकिन गुटनिरपेक्ष की निति को नेहरू जी के समान जारी रखा।
(ii) कहने को श्रीमती इंदिरा नेहरू जी की पुत्री थीं। लेकिन भावनात्मक रूप से वह सोवियत संघ से अधिक प्रभावित थी। उन्होंने बैंकों का राष्ट्रीयकरण किया। भूतपूर्व देशी नरेशों के प्रिवीपर्स समाप्त किए। गरीब हटाओं नारा दिया और सोवियत संघ से दीर्घ अनाक्रमक संधि की।
(iii) राजीव गाँधी के काल में चीन तथा पाकिस्तान सहित अनेक देशों से संबंध सिधारे गए तो श्रीलंका के उन देशद्रोहियों को दबाने में वहां की सरकार से सहायता देकर यह बात दिया की भारत छोटे – बड़े देशों की अखंडता का सम्मान करता है।
(iv) कहने को भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व वाले एन.डी.ए. की सरकार कुछ ऐसे तत्वों से प्रभावित थी जो सांप्रदायिक आक्षेप से बदनाम किए जाते हैं लेकिन उन्होंने चीन,रूस,अमरीका,पाकिस्तान,बांग्लादेश,श्रीलंका,जर्मनी,ब्रिटेन, फ्रांस आदि सभी देशों से विभिन्न क्षेत्रों में समझौते करके बस, रेल वायुयान,उदारीकरण, उन्मुक्त व्यापार, वैश्वीकरण और आतंकवादी विरोधी निति को अंतर्राष्ट्रीय मंचों और पड़ोसी देशों में उठकर यह साबित कर दिया की भारत की विदेश निति केवल देश हित में होगी उस पर धार्मिक या किसी राजनैतिक विचारधारा का वर्चस्व नहीं होगा। अटल बिहारी वाजपेय की विदेश निति, नेहरू जी की विदेश निति से जुदा न होकर लोगों को अधिक प्यारी लगी क्योंकि देश में परमाणु शक्ति का विस्तार हुआ तथा अमेरिका के साथ संबंधों में बहुत सुधार हुआ। ‘जय जवान’ के साथ आपने नारा दिया ‘जय जवान जय किसान और जय विज्ञान।
प्रश्न 10. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दीजिए:
गुटनिरपेक्ष का व्यापक अर्थ है अपने को किसी भी सैन्य गुट में शामिल नहीं करना इसका अर्थ होता है चीजों को यथासंभव सैन्य दृष्टिकोण से न देखना और इसकी कभी जरूरत आन पड़े तब भी किसी सैन्य गुट के नज़रिए को अपनाने की जगह स्वतंत्र रूप से स्थिति पर विचार करना तथा सभी देशों के साथ रिश्ते कायम करना ………… ( जवाहरलाल नेहरू )
- नेहरू सैन्य गुटों से दुरी क्यों बनाना चाहतें थे?
- क्या आप मानते हैं की भारत-सोवियत मैत्री की संधि से गुटनिरपेक्ष के सिद्धांतों का उललंघन हुआ? अपने उत्तर के समर्थन में तर्क दीजिए।
- अगर सैन्य-गुट न होते तो क्या गुटनिरपेक्षता की निति बेमानी होती?
उत्तर: (क) नेहरू सैन्य गुटों से निम्नलिखित कारणों से दुरी बनाना चाहते थे
a. वह देश में लोकतंत्र की जड़ें मजबूत करना चाहते थे। यह यकीन अमेरिका सहित सभी लोकतंत्रिक देशों को दिलाना चाहते थे।
b. वह गुट – निरपेक्षता की बात करके अमेरिका और सोवियत संघ दोनों के खेमों में सम्मिलित राष्ट्रों से भारत के लिए वित्तीय और तकनीकी सहायता पाकर तीव्र गति से आर्थिक विकास करना चाहते थे। यह एक और भांखड़ा नांगल जैसे विशाल बाँध, बहुउद्देशीय परियोजनाएँ बनाना चाहते थे तो दूसरी ओर भिलाई, राउलकेला आदि विशाल लौह – इस्पात के कारखानों लगाकर देश के औद्योगिक आधार को सुदृढ़ता देना चाहते थे।
c. उन्होंने नियोजन, सहकारी कृषि, भूमि सुधार, चकयंदी, जमींदारी उन्मूलन आदि वामपंथी कार्यक्रम लागू करके सोवियत संघ और साम्यवादी देशों में भारत की छवि को निखारा और ऐसा ही चाहते थे।
(ख) हमारे विचारनुसार भारत – सोवियत मैत्री संधि से गुटनिरपेक्षता के सिद्धांतों का उल्लंघन हुआ क्योंकि खुले तौर पर भारत सैद्धांतिक रूप से सोवियत संघ की तरफ झुक गया जिसका उल्लेख चीन, पाकिस्तान, और भारत के विरोधी राष्ट्र अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर करते हैं। कांग्रेस सरकार के विरोधी नेता और अमरीका समर्थक राजनैतिक दल भी ऐसा ही कहते थे।
(ग) हमारे विचरनुसार सैन्य गुट निरपेक्षता की निति के जनक थे। जब गुट ही नहीं होते तो निर्गुटता का प्रश्न ही नहीं उठता। निप्पक्ष मूल्यांकन हमारे ह्रदय और आत्मा को कहने के लिए विवश करता है की गुटनिरपेक्षता तभी पैदा हुई जब विश्व में सैन्य गुट रहे। 1990 के बाद ही गुटनिरपेक्षता के अस्तित्व के औचित्य को लेकर प्रश्न खड़े हुए हैं, उससे पहले नहीं।