Class 12 Political science chapter 8 question answers in hindi

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भारतीय राजनीति नए बदलाव प्रश्न उत्तर: Class 12 Political Science chapter 8 ncert solutions in hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectPolitical Science 2nd book
ChapterChapter 8 ncert solutions
Chapter Nameभारतीय राजनीति नए बदलाव
CategoryNcert Solutions
MediumHindi

क्या आप कक्षा 12 विषय राजनीति विज्ञान स्वतंत्र भारत में राजनीति पाठ 8 भारतीय राजनीति नए बदलाव प्रश्न उत्तर ढूंढ रहे हैं? अब आप यहां से Class 12 Political science chapter 8 question answers in hindi, भारतीय राजनीति नए बदलाव प्रश्न उत्तर download कर सकते हैं।

note: ये सभी प्रश्न और उत्तर नए सिलेबस पर आधारित है। इसलिए चैप्टर नंबर आपको अलग लग रहे होंगे।

प्रश्न 1. उन्नी – मुन्नी ने अखबार की कुछ कतरनों को बिखेर दिया है। आप उन्हें कालक्रम के अनुसार व्यवस्थित करें:

  1. (क) मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करना
  2. (ख) जनता दल का गठन
  3. (ग) राम जन्मभूमि पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय
  4. (घ) इंदिरा गाँधी की हत्या
  5. (ङ) राजग सरकार का गठन
  6. (च) संप्रग सरकार का गठन

उत्तर: कालक्रम के अनुसार निम्नलिखित ढंग से व्यवस्थित किया जा सकता है –

  1. (घ) इंदिरा गाँधी की हत्या – 31 अक्टूबर 1984
  2. (क) मंडल आयोग की सिफारिश को लागू करना – 1990 (आधिकारिक तौर पर लागू: 7 अगस्त 1990)
  3. (ख) जनता दल का गठन – 1988
  4. (ग) राम जन्मभूमि पर सर्वोच्च न्यायालय का निर्णय – 9 नवंबर 2019
  5. (ङ) राजग सरकार का गठन – 1998
  6. (च) संप्रग सरकार का गठन – 2004

प्रश्न 2. निम्नलिखित में मेल करें:

(क) सर्वानुमति की राजनीती(i) शाहबानो मामला
(ख) जाति आधारित दल(ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार
(ग) पर्सनल लॉ और लोगिक न्याय(iii) गठबंधन सरकार
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत(iv) आर्थिक नीतियों पर सहमति

उत्तर:

(क) सर्वानुमति की राजनीती(i) आर्थिक नीतियों पर सहमति
(ख) जाति आधारित दल(ii) अन्य पिछड़ा वर्ग का उभार
(ग) पर्सनल लॉ और लोगिक न्याय(iii) शाहबानो मामला
(घ) क्षेत्रीय पार्टियों की बढ़ती ताकत(iv) गठबंधन सरकार

प्रश्न 3. 1989 के बाद की अवधि में भारतीय राजनीति के मुख्य मुद्दे क्या रहे हैं? इन मुद्दों से राजनितिक दलों के आपसी जुड़ाव के क्या रूप सामने आए हैं?

उत्तर: 1989 के बाद की अवधि में भारतीय राजनीती के मुख्य मुद्दे इस प्रकार से थे –

(i) लोकसभा के आम चुनाव में कांग्रेस की हार हुई। इसे सिर्फ 197 सीटें मिली। इस कारण सरकारें अस्थिर रहीं और 1991 में पुनः मध्यावधि चुनाव हुआ। कांग्रेस की प्रमुखता समाप्त होने के कारण देश के राजनितिक दलों में आपसी जुड़ाव बढ़ा। राष्ट्रिय मोर्चे की दो बार सरकारों बनी परन्तु कांग्रेस द्वारा समर्थन खींचने और विरोधों दलों में एकता के अभाव के कारण देश में राजनैतिक अस्थितरता रही।

(ii) देश राजनीति में मंडल मुद्दे का उदय हुआ। इसने 1989 के बाद की राजनीति में अहम भूमिका निभाई। सभी पार्टियों वोटों की राजनीति करने लगीं। इसलिए पिछड़े वर्ग के लोगों को आरक्षण दिए जाने के मामले में अधिकतर दलों में आपसी जुड़ाव हुआ।

(iii) 1990 के बाद से ही विभिन्न दलों की सरकारों ने जो आर्थिक नीतियाँ अपनाई वे बुनियादी तौर पर बदल चुकी थीं। आर्थिक सुधार और नई आर्थिक निति के कारण देश के अनेक दक्षिण पंथी राष्ट्र और क्षेत्रीय दल परस्पर जुड़ने लगे। इस संदर्भ में दो प्रवृत्तत्रियाँ उभरकर आई। कुछ दल गैर कांग्रेसी गठबंधन और कुछ दल गैर भाजपा दल गठबंधन के समर्थक बने।

(iv) दिसंबर 1992 में अयोध्या स्थित एक विवादित ढाँचा (बाबरी महजिद के रूप में प्रसिद्द) विध्वंस कर दिया गया। इस घटना के बाद भारतीय राष्ट्रवाद और धर्म निरपेक्षता पर बहस तेज हो गई। इन बदलावों का संबंध भाजपा के उदय और हिंदुत्व की राजनीति से है।

प्रश्न 4. “गठबंधन की राजनीति के इस नए दौर में राजनीतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठजोड़ नहीं करते हैं।” इस कथन के पक्ष या विपक्ष में आप कौन – से तर्क देंगे।

उत्तर: पक्ष में तर्क – गठबंधन की राजनीति के भारत में चल रहे नए दौर में राजनैतिक दल विचारधारा को आधार मानकर गठबंधन नहीं करते। इसके समर्थन में निम्नलिखित तर्क हैं –

(i) 1977 में जे. पी. के आह्वान पर जो जनता दल (जनता पार्टी) बना था उसमे कांग्रेस के विरोधी प्रायः सी.पी.आई. को छोड़कर अधिकांश विपक्षी दल जिनमे भरतीय जनसंघ, कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी, भारतीय क्रांति दल, तेलगू देशम, समाजवादी पार्टी अकाली दल, आदि शामिल थे। इन सभी दलों को हम एक ही विचारधारा वाले दल नहीं कह सकते।

(ii) जनता पार्टी की सरकार गिरने के बाद केंद्र में राष्ट्रिय मोर्चा बना जिसमे एक ओर जनता दल के वी.पी. सिंह तो दूसरी ओर उन्हें समर्थन देने वाले वामपंथी और भाजपा जैसे तथा कथिक हिंदुत्व समर्थन, गाँधीवादी, राष्ट्रवादी दल भी थे। कुछ ही महीनों के बाद वी. पी. सिंह प्रधानमंत्री नहीं रहे तो केवल मात्र साल महीनों के लिए चंद्रशेखर को कांग्रेस ने समर्थन दे दिया। ये वही चंद्रशेखर जी थे जो इंदिरा, उनके द्वारा लागए गए आपातकालीन संकट के कटटर विरोधी और जनता पार्टी के अध्यक्ष थे। उन्हें और उनके नेता मोरारजी को कारावास की सजाए भुगतनी पड़ी थीं।

(iii) कांग्रेस की सरकार 1991 से 1996 तक नरसिंह राव के नेतृत्व में अल्पमत में होते हुए भी इसलिए जारी रही क्योंकि अनेक ऐसे दलों ने उन्हें बाहर से ऑक्सीजन दी ताकि तथा कथित सांप्रदायिक शक्तियाँ सत्ता में न आ सकें। ये शक्तियाँ केरल में सांप्रदायिक शक्तियों से सहयोग प्राप्त करती रही हैं या जाति प्रथा पर टिकी हुई पार्टियों से उत्तर प्रदेश, बिहार आदि राज्यों में समर्थन लेती रही हैं।

(v) अटल बिहारी जी के नेतृत्व में राष्ट्रिय जनतांत्रिक गठबंधन (एन. डी. ए.) की सरकार लगभग 6 वर्षों तक चली लेकिन उसे जहाँ एक ओर अकालियों ने तो दूसरी ओर तृणमूल कांग्रेस, बीजू पटनायक कांग्रेस, कुछ संभव के लिए समता पार्टी, जनता दल, जनता पार्टी आदि ने भी सहयोग और समर्थन दिया। यही नहीं जम्मू – कश्मीर के फारुख अब्दुल्ला, एक समय बाजपेयी सरकार के कटटर समर्थक लेती रही हैं। संक्षेप में हम कह सकते हैं की राजनीती में कोई किसी का स्थायी शत्रु नहीं होता।

हकीकत में अवसरवादिता सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है उत्तर प्रदेश में कुमारी सुश्री सायावती की बहुजन पार्टी भारतीय जनता पार्टी के साथ मिलकर संयुक्त सरकार बनाती रही हैं, महाराष्ट्र में शिव सेना और भारतीय जनता पार्टी और राजस्थान में भारतीय जनता पार्टी की सरकारें ऐसे निर्दलीय अथवा लघु क्षेत्रीय दलों के सहयोग में चलती रहीं जो भाजपा को चुनावों मंचों और अभियानों में भला – बुरा कहते रहे हैं।

हँसी तो तब आती है जब राज्य विधान सभा के चुनाव के दौरान गठबंधन या राजनैतिक दल परस्पर कीचड़ उछालते हैं लेकिन उसी काल या दिनों के दौरान केन्द्र में हाथ मिलाते और समर्थन लेते देते हुए दिखाई देते हैं। यह मजबूरी है या लोकतंत्र में भोली-भाली लेकिन जागरूक जनता का मजाक उड़ाने का एक दर्दनाक प्रयास कहा जा सकता है।

विपक्ष में तर्क

(i) हम इस कथन से सहमत नहीं है। गठबंधन की राजनीति के नए दौर में भी वामपंथ के चारों दल अर्थात् सी.पी.एम., सी. पी.आई., फारवर्ड ब्लॉक, आर.एस. ने भारतीय जनता पार्टी से हाथ नहीं मिलाया। वह उसे अब भी राजनीतिक दृष्टि से अस्पर्शनीय पार्टी मानती है।

(ii) समाजवादी पार्टी, वामपंथी मोर्चा जैसे क्षेत्रीय दल किसी भी उस प्रत्याशी को खुला समर्थन नहीं देना चाहते जो एन.डी.ए. अथवा भाजपा का प्रत्याशी हो क्योंकि उनकी वोटों की राजनीति को ठेस पहुँचती है।

(iii) कांग्रेस पार्टी ने अधिकांश मोर्चा पर बी.जे.पी. विरोधी और बी.जे.पी. ने कांग्रेस विरोधी रुखा अपनाया है।

प्रश्न 5. आपातकाल के बाद के दौर में भाजपा एक महत्वपूर्ण शक्ति के रूप में उभरी इस दौर में इस पार्टी के विकास – क्रम का उल्लेख करें।

उत्तर: (i) आपातकाल के दौरान भाजपा नाम की कोई पार्टी अस्तित्व में नहीं थी। 1977 में बनी पहली विपक्ष पार्टी जनता पार्टी की सरकार में भारतीय जनसंघ का प्रतिनिधित्व अवश्य था। कालांतर में 1980 में भारतीय जनसंघ को समाप्त कर भारतीय जनता पार्टी का गठन किया गया। अटल बिहारी वाजपेयी इसके संस्थापक अध्यक्ष बने।

(ii) श्रीमती इंदिरा गाँधी की हत्या 1984 में कर दी गई। चुनावों में कुछ सहानुभूति की लहर होने के कारण कांग्रेस को जबरदस्त सफलता मिली जबकि भारतीय जनता पार्टी को केवल दो सीटें ही प्राप्त हुई। स्वयं अटल बिहारी वाजपेयी ग्वालियर से चुनाव हार गए। सफलता ने अभी भाजपा के कदम नहीं चूमे थे। इस बीच रामजन्म – भूमि की ताला खुलने का अदालती आदेश आ चूका था। कांग्रेस सरकार ने वहाँ का ताला खुलवाया। भाजपा ने इसका राजनितिक लाभ उठाने का फैसला किया।

(iii) 1989 के चुनावों में इसे आशा से अधिक सफलता मिली और इसने कांग्रेस का विकल्प बनने की इक्छा शक्ति दिखाई। जो भी हो कांग्रेस से बहार हुए वी. पी. सिंह ने जनता दल का गठन किया तथा 1989 के चुनाव लड़े। उन्हें पूर्ण बहुमत नहीं मिली पर भाजपा ने उन्हें बाहर से समर्थन देकर संयुक्त मोर्चा की सरकार का गठन कराया। भाजपा के नेता लालकृष्ण अडवाणी ने हिंदुत्व तथा राम मंदिर के मुद्दे को लेकर एक रथ यात्रा का आयोजन किया। यह यात्रा जब बिहार से गुजर रही थी तो तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव ने इसे रोक दिया। भाजपा ने इस मुद्दे पर केंद्र से समर्थन वापस ले लिया और वी. पी. सिंह की सरकार जाती रही।

(iv) भाजपा ने 1991 तथा 1996 के चुनावों में अपनी स्थिति लगातार मजबूत की। 1996 के चुनावों में यह सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरी। इस नाते भाजपा को सरकार बनाने का न्योता मिला। लेकिन अधिकांश दल भाजपा की कुछ नीतियों के खिलाफ थे और इस वजह से भाजपा की सरकार लोकसभा में बहुमत प्राप्त नहीं कर सकी। आख़िरकार भाजपा एक गठबंध न (राष्ट्रिय जनतांत्रिक गठबंधन – राजग) के अगुआ के रूप में सत्ता में आयी और 1998 के मई से 1999 के जून तक सत्ता में रहीं। फिर, 1999 में इस गठबंधन ने दोबारा सत्ता हासिल की। राजग की इन दोनों सरकारों में अटल बिहारी वाजपेयी प्रधनमंत्री बने। 1999 की राजग सरकार ने अपना निर्धारित कार्यकाल पूरा किया। 2004 में पुनः चुनाव को अपेक्षित सफलता नहीं मिली।

प्रश्न 6. कांग्रेस के प्रभुत्व का दौर समाप्त हो गया है। इसके बावजूद देश की राजनिति पर कांग्रेस का असर लगातार कायम है। क्या आप इस बात से सहमत हैं? अपने उत्तर के पक्ष में तर्क दीजिए।

उत्तर: हाँ, मैं इस कथन से सहमत हूँ की यद्धपि कांग्रेस का पतन हो गया है या कहिए की उसका केंद्र एवं अधिकांश प्रांतों में जो राजनैतिक सत्ता का असर आजादी से लेकर 1960 तक कायम रहा वह अब वैसा नहीं दिखाई देता तथापि वह आज भी लोकसभा में सबसे बड़ा दल है। उसी का अध्यक्ष संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (सप्रंग) का अध्यक्ष है और उसी का प्रधानमंत्री है। अनेक राज्यों में आज भी वह सत्ता में हैं। लेकिन देश का राजनैतिक इतिहास इस बात का गवाह है की 1960 के दशक के अंतिम सालों में कांग्रेस के एक छात्र राज को चुनौती मिली थी लेकिन इंदिरा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रस ने भारतीय राजनीती पर अपना प्रभुत्व फिर से कायम किया।

नब्बे के दशक में कांग्रेस की अग्रणी हैसियत को एक बार फिर चुनौती मिली। जो भी हो, इसका मतलब यह नहीं की कांग्रेस की जगह कोई दूसरी पार्टी प्रमुख हो गई। अभी भी कांग्रेस पार्टी देश की सबसे बड़ी और पुरानी पार्टी मानी जाती है। 2004 के चुनावों में कांग्रेस भी पुरे जोर के साथ गठबंध न में शामिल हुई। राजग की हार हुई और संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की सरकार बनी। इस गठबंधन का नेतृत्व कांग्रेस ने किया।

संप्रग को वाम मोर्चा ने समर्थन दिया। 2004 के चुनावों में एक हद तक कांग्रेस का पुनरुत्थान भी हुआ। 1991 के बाद इस दफे पार्टी के सीटों की संख्या एक बार फिर बढ़ी। जो भी हो, 2004 के चुनावों में राजग और संप्रग को मिले कुल वोटों का अंतर् बड़ा कम था। 2009 के आम चुनावों में कांग्रेस ने फिर अपनी पुरानी रंगत दिखाई और पहले से काफी अधिक सीटों पर जीत हासिल की। यद्यिपी उसे सहयोगियों की अभी भी आवश्यकता है।

प्रश्न 7. अनेक लोग सोचते हैं की सफल लोकतंत्र के लिए दो – दलीय व्यवस्था ज़रूरी है। पिछले तीस सालों के भारतीय अनुभवों को आधार बनाकर एक लेख लिखिए और इसमें बताइए की भारत की मौजूदा बहुदलीय व्यवस्था के क्या फायदे हैं।

उत्तर: दलीय व्यवस्था: अनेक लोग सोचते हैं की सफल लोकतंत्र के लिए दलीय व्यवस्था आवश्यक है। वे इसके पक्ष में निम्नलिखित तर्क देते हैं:

(i) दो दलीय व्यवस्था से साधारण बहुमत के दोष समाप्त हो जाते है और जो भी प्रत्याक्षी या दल जीतता है वह आधे से अधिक अर्थात 50 प्रतिशत से ज्यादा (मतदान किए गए कुल मतों का अंश) होते हैं।

(ii) देश में सभी को पता होता है की यदि सत्ता एक दल से दूसरे दल के पास जाएगी तो कौन – कौन प्रमुख पदों – प्रधानमंत्री, उपप्रधानमंत्री, गृहमंत्री, वित्तमंत्री, विदेश मंत्री आदि पर आएँगे। प्रायः इंग्लैंड और अमेरिका में ऐसा ही होता है।

(iii) सरकार ज्यादा स्थायी रहती है और वह गठबंधन की सरकारों के समान दूसरे दलों की बैसाखियों पर टिकी नहीं होती। वह उनके निर्देशों को सरकार गिरने के भय से मानने के लिए बाध्य नहीं होती। बहुदलीय प्रणालियों में देश में फुट पैदा होती है। दल जातिगत या व्यक्ति विशेष के प्रभाव पर टिके होते हैं और सरकार के काम में अनावश्यक विलंब होता रहता है।

(iv) बहुदलीय प्रणाली में भ्र्ष्टाचार फैलता है। सबसे ज्यादा कुशल व्यक्तियों की सेवाओं का अनुभव प्राप्त नहीं होता और जहाँ साम्यवादी देशों की तरह केवल एक ही पार्टी की सरकार होती है तो वहाँ दल विशेष या वर्ग विशेष की तानाशाही नहीं होती।

गत तीस वर्षों के भारतीय अनुभव एवं विद्यमान बहुदलीय व्यवस्था के लाभ: भारत विभिन्नताओं वाला देश है। यहाँ गत 60 वर्षों से बहुदलीय प्रणाली जारी है। यह दल प्रणाली देश के लिए निम्नलिखित कारणों से अधिक फायेदमंद जान पड़ती है:

(i) भारत जैसे विशाल तथा विभिन्नताओं वाले देश के लिए कई राजनितिक दल लोकतंत्र की सफलता के लिए परम आवश्यक हैं। प्रजातंत्र में दलीय प्रथा प्रणतुल्य होती है। राजनितिक दल जनमत का निर्माण करते हैं। चुनाव लड़ते हैं। सरकार बनाते हैं, विपक्ष की भूमिका भी अदा करते हैं।

(ii) दलीय प्रणाली जनता को राजनितिक शिक्षा प्रदान करती है। राजनितिक दल सभाएँ करते है, सम्मेलन करते हैं, जलूस निकलते हैं तथा अपने दल की नीतियाँ बनाकर जनता के सामने प्रचार करते हैं। सरकार की आलोचना करते हैं। संसद में अपना पक्ष प्रस्तुत करते हैं और इस प्रकार जनता को राजनितिक शिक्षा प्राप्त होती रहती है।

(iii) दलीय प्रणाली के कारण सरकार में दृढ़ता आती है क्योंकि दलीय आधार पर सरकार को समर्थन मिलता रहता है।

(iv) विपक्षी दल सरकार की निरंकुशता पर रोक लगाते हैं।

(v) दलीय प्रणाली में शासन और जनता दोनों में अनुशासन बना रहता है। राष्ट्रिय हितो पर अधिक ध्यान दिया जाता है।

(vi) अनेक राजनितिक दल राजनितिक कार्यों के साथ – साथ सामाजिक सुधार के कार्य भी करते हैं।

प्रश्न 8. निम्नलिखित अवतरण को पढ़ें और इसके आधार पर पूछे गए प्रश्नों के उत्तर दें:

भारत की दलगत राजनीती ने कई चुनौतियों का सामना किया है। कांग्रेस – प्रणाली ने अपना खात्मा ही नहीं किया, बल्कि कांग्रेस के जमावड़े के बिखरे जाने से आत्म – प्रतिनिधित्व की नयी प्रवृत्ति का भी ज़ोर बढ़ा। इससे दलगत व्यवस्था और विभिन्न हितों की समाई करने की इसकी क्षमता पर भी सवाल उठे। राजव्यवस्था के सामने एक महत्त्वपूर्ण काम एक ऐसी दलगत व्यवस्था खड़ी करने अथवा राजनितिक दलों को गढ़ने की है, जो कारगर तरिके से विभिन्न हितों को मुखर और एकजुट करें।………( जोया हसन )

  • (i) इस अध्याय को पढ़ने के बाद क्या आप दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची बना सकते हैं?
  • (ii) विभिन्न हितों का समाहार और उनमें एकजुटता का होना क्यों ज़रूरी है।
  • (iii) इस अध्याय में आपने अयोध्या विवाद के बारे में पढ़ा। इस विवाद ने भारत के राजनितिक दलों की समाहार की क्षमता के आगे क्या चुनौती पेश की?

उत्तर:

(i) दलगत व्यवस्था की चुनौतियों की सूची:

  • कांग्रेस प्रणाली का खात्मा: कांग्रेस का पतन दलगत राजनीति के लिए एक बड़ी चुनौती साबित हुई।
  • आत्म-प्रतिनिधित्व की नई प्रवृत्ति: कांग्रेस के बिखरने से आत्म-प्रतिनिधित्व की प्रवृत्ति बढ़ी, जिससे दलगत व्यवस्था पर असर पड़ा।
  • विभिन्न हितों की समाई करने की क्षमता: विभिन्न हितों को शामिल करने और एकजुट करने की क्षमता में कमी आई।
  • एक प्रभावी दलगत व्यवस्था का निर्माण: राजव्यवस्था के सामने एक चुनौती यह है कि एक ऐसी प्रभावी दलगत व्यवस्था का निर्माण किया जाए जो विभिन्न हितों को मुखर और एकजुट कर सके।

(ii) विभिन्न हितों का समाहार और उनमें एकजुटता का होना क्यों जरूरी है:

  • राजनीतिक स्थिरता: विभिन्न हितों का समाहार और एकजुटता राजनीतिक स्थिरता बनाए रखने में मदद करती है।
  • समाज में समरसता: विभिन्न सामाजिक और आर्थिक समूहों के हितों का प्रतिनिधित्व करने से समाज में समरसता बनी रहती है।
  • लोकतंत्र की मजबूती: विभिन्न हितों को शामिल करने से लोकतंत्र मजबूत होता है और जनता का विश्वास बढ़ता है।
  • समावेशिता: सभी वर्गों और समुदायों का प्रतिनिधित्व सुनिश्चित करने से समावेशिता बढ़ती है।

(iii) अयोध्या विवाद ने दलगत राजनीति की समाहार की क्षमता के आगे क्या चुनौती पेश की:

  • धार्मिक ध्रुवीकरण: अयोध्या विवाद ने समाज में धार्मिक ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया, जिससे दलगत राजनीति के लिए सभी हितों को समाहित करना मुश्किल हो गया।
  • सामाजिक एकता: इस विवाद ने सामाजिक एकता को तोड़ा और विभिन्न समुदायों के बीच तनाव बढ़ाया।
  • राजनीतिक विभाजन: राजनीतिक दलों के बीच विभाजन और ध्रुवीकरण को बढ़ावा दिया, जिससे समाहार की क्षमता में कमी आई।
  • सांप्रदायिक राजनीति: अयोध्या विवाद के चलते सांप्रदायिक राजनीति को बल मिला, जो विभिन्न हितों को एकजुट करने में बड़ी बाधा बनी।

इन चुनौतियों का सामना करने के लिए एक सुदृढ़ और समावेशी दलगत व्यवस्था की आवश्यकता है जो विभिन्न हितों को एक मंच पर ला सके और राजनीतिक स्थिरता बनाए रख सके।

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