12 Class Political Science – II Chapter 6 लोकतांत्रिक पुनरुत्थान Notes In Hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Political Science 2nd book |
Chapter | Chapter 6 |
Chapter Name | लोकतांत्रिक पुनरुत्थान |
Category | Class 12 Political Science |
Medium | Hindi |
Class 12 Political Science – II Chapter 6 लोकतांत्रिक पुनरुत्थान Notes in Hindi इस अध्याय मे हम जय प्रकाश नारायण और समग्र क्रान्ति , राम मनोहर लोहिया और समाजवाद , पंडित दीन दयाल उपाध्याय और एकात्म मानववाद , राष्ट्रीय आपातकाल , लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान – वयस्क , पिछड़े और युवाओं की भागीदारी के बारे में विस्तार से जानेंगे ।
🍁 अध्याय = 6🍁
🌺 लोकतांत्रिक पुनरुत्थान 🌺
💠 लोकनायक जयप्रकाश नारायण ( जेपी ) ( 1902-1979 )
🔹 युवावस्था में मार्क्सवादी थे । कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी और सोशलिस्ट पार्टी संस्थापक एवं महासचिव थे । 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के नायक रहे एवं नेहरू के उत्तराधिकारी के रूप में देखे गए । इन्होंने नेहरू मंत्रिमंडल में शामिल होने से इनकार किया । 1955 के बाद सक्रिय राजनीति छोड़ी ।
🔹 गाँधीवादी बनने के बाद भूदान आंदोलन में सक्रिय रहे नगा विद्रोहियों से सुलह की बातचीत की एवं कश्मीर में शांति प्रयास किए । चंबल के डकैतों से आत्मसमर्पण कराया एवं बिहार आंदोलन के नेता रहे । आपातकाल के विरोध के प्रतीक बन गए थे ; जनता पार्टी के गठन के प्रेरणास्त्रोत रहे ।
💠 जय प्रकाश नारायण के प्रमुख योगदान : –
🔹 जय प्रकाश नारायण अपने तीन प्रमुख योगदानों के लिए जाने जाते हैं : –
- भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष ,
- सामुदायिक समाजवाद का सिद्धांत तथा
- ‘ समग्र क्रांति ‘ के प्रवर्तक ।
🔶 भ्रष्टाचार के विरूद्ध संघर्ष : – स्वातंत्र्योत्तर भारत में जय प्रकाश नारायण ऐसे प्रथम नेता थे जिन्होंने मुख्यतः गुजरात और बिहार में युवा सहभागिता द्वारा भ्रष्टाचार के विरूद्ध एक वृहत अभियान आरंभ किया । उन्होंने भ्रष्टाचार के विरूद्ध लोकपाल संस्था का पक्ष समर्थन किया ।
🔶 सामुदायिक समाजवाद का सिद्धांत : – सामुदायिक समाजवाद का उनका सिद्धांत समुदाय , क्षेत्र एवं राष्ट्र के त्रि – स्तरीय रूप में एक यथार्थ संघ का उदाहरण उदृत करते हुए भारत को समुदायों के एक समाज के रूप में दृष्टिगत करता है । उपरोक्त सिद्धांतों पर आधरित अपने ‘ समग्र आंदोलन ‘ के माध्यम से जय प्रकाश नारायण व्यक्ति , समाज तथा राज्य के रूपांतरण का प्रतिपादन करते हैं ।
🔶 समग्र क्रांति : – समग्र क्रांति के लिए उनका आह्वान नैतिक , सांस्कृतिक , आर्थिक , राजनीतिक तथा पारिस्थितिकीय रूपांतरण के समावेशन की पहल है । उनका राजनीतिक रूपांतरण लोकतांत्रिक राजनीति में प्रतिनिधियों को वापिस बुलाने के अधिकार , ग्राम्य / मौहल्ला समितियों के महत्व तथा देश की स्वच्छ राजनीति में ऊपर के लोगों / विशिष्ट वर्गों को राजनीतिक संघर्ष में सम्मिलित होने का आह्वान है । जय प्रकाश नारायण के अनुसार इस रूपांतरण का मूल तत्व ‘ व्यक्ति है जो भारत में परिर्वतन का प्रमुख द्योतक है ।
💠 राम मनोहर लोहिया :-
जन्म | 23 march, 1910 |
मृत्यु | 12 October, 1967 |
विचारधारा | समाजवाद, समाजवादी चिंतक, गांधीवाद |
💠 ‘ राम मनोहर लोहिया तथा लोकतांत्रिक समाजवाद ‘ : –
🔹 राम मनोहर लोहिया भारत में समाजवाद के प्रमुख प्रतिपादकों में से एक प्रतिपादक रहें हैं । समाजवाद को लोकतंत्र से सम्बद्ध करते हुए उन्होंने ‘ लोकतांत्रिक समाजवाद ‘ के विचार का प्रतिपादन किया । लोहिया भारतीय समाज में पूंजीवाद तथा साम्यवाद दोनों को ही समान रूप से अप्रसांगिक मानते थे ।
🔶 राम मनोहर लोहिया के लोकतांत्रिक समाजवाद के दो सिद्धांत : –
🔹 उनके लोकतांत्रिक समाजवाद के दो सिद्धांत थे भोजन एवं शरण के रूप में आर्थिक उद्देश्य तथा लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता के रूप में गैर – आर्थिक उद्देश्य ।
🔹 सकारात्मक कार्यवाही को प्रधानता देते हुए लोहिया का मत है कि यह सिद्धांत न केवल अशक्त लोगों के लिए होना चाहिए अपितु महिलाओं और गैर – धार्मिक अल्पसंख्यकों को भी इसका लाभ मिलना चाहिए ।
🔶 राम मनोहर लोहिया के राजनीति तथा समाजवाद के चार स्तम्भ : –
🔹 लोहिया ने चौबुर्ज राजनीति का प्रतिपादन किया जिसमें उन्होंने राजनीति तथा समाजवाद के चार स्तम्भों का वर्णन किया जो परस्पर एक दूसरे से सम्बद्ध हैं । ये चार स्तम्भ हैं :-
- केन्द्र ,
- क्षेत्र ,
- जिला एवं
- ग्राम्य ।
🔶 राम मनोहर लोहिया समाजवादी दल : –
🔹 लोकतांत्रिक समाजवाद तथा चौबुर्ज राजनीति के सिद्धांतों पर आधरित लोहिया ‘ समाजवादी दल ‘ ( Party of Socialism ) का पक्ष समर्थन करते हैं जो सभी दलों के विलय का एक प्रयास है । लोहिया के अनुसार समाजवाद दल तीन प्रतीकों पर आधरित होगा – कुदाल ( प्रयास का प्रतीक ) , मत ( मताधिकार का प्रतीक ) , बंधनग्रह ( समपर्ण का प्रतीक ) ।
💠 पंडित दीनदयाल उपाध्याय :-
जन्म | 25 sep, 1916 |
मृत्यु | 11 feb, 1968 |
पेशा | दार्शनिक, समाजशास्त्री, अर्थशास्त्री, राजनीतिज्ञ |
राजनीतिक दल | यह भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष भी रहे है । राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ से भी जुड़े । |
💠 ‘ दीन दयाल उपाध्याय तथा एकात्म मानवावाद ‘ : –
🔹 पंडित दीनदयाल उपाध्याय एक दार्शनिक , समाजशास्त्री , अर्थशास्त्री तथा राजनीतिज्ञ थे । उनके प्रदेश को ‘ एकात्म मानववाद ‘ कहा जाता हैं जो एक ‘ स्वदेशीय सामाजिक – आर्थिक प्रमिमान ‘ का प्रतिपादन है जहाँ मानव विकास का केन्द्र होता है ।
🔹 व्यक्ति तथा समाज की आवश्यकताओं के मध्य समन्वय स्थापित करते हुए प्रत्येक मानव के लिए एक गरिमामयी जीवन सुनिश्चित करना एकात्म मानववाद का उद्देश्य है ।
🔹 पंडित दीनदयाल उपाध्याय पश्चिमी ‘ पूंजीवादी व्यक्तिवाद ‘ तथा ‘ मार्क्सवादी समाजवाद ‘ दोनों के विरोधी थे । उनके अनुसार पूंजीवादी तथा समाजवादी विचारधराएँ केवल मानव शरीर और मस्तिष्क की आवश्यकताओं पर ही बल देती हैं , अतः ये भौतिकवादी उद्देश्य पर आधरित हैं जबकि मानव के समग्र विकास के लिए आध्यात्मिक विकास भी उतना ही आवश्यक है जो पूंजीवाद और समाजवाद दोनों में अनुपस्थित है । आंतरिक चेतना , पवित्र मानवीय आत्मा पर आधरित अपने दर्शन जिसे चित्ति कहते हैं , दीनदयाल उपाध्याय एक वर्गविहीन , जातिविहीन तथा संघर्षमुक्त सामाजिक व्यवस्था की परिकल्पना करते हैं ।
💠 एकात्म मानववाद : –
🔹 एकात्म मानववाद प्राकृतिक संसाधनों के समपोषित उपभोग का समर्थन करता है जिससे इन संसाधनों की पुर्नः पूर्ति हो सके । यह न केवल राजनीतिक अपितु आर्थिक तथा सामाजिक लोकतंत्र एवं स्वतंत्रता को भी बढाता है । चूंकि यह सिद्धांत विविधता का संवर्धन करता है , भारत जैसे विविध राष्ट्र के लिए यह श्रेष्ठकर है ।
💠 एकात्म मानववाद का दर्शन सिद्धांत : –
🔹 एकात्म मानववाद का दर्शन निम्न तीन सिद्धांत पर आधरित है :-
- समग्रता की प्रधनता
- धर्म की सर्वोच्चता
- समाज की स्वायतता
💠 1971 के बाद कि स्थिति : –
- 1971 के चुनाव में कांग्रेस ने ‘ गरीबी हटाओ ‘ का नारा दिया था ।
- 1971-72 के बाद के सालों में भी देश की सामाजिक – आर्थिक दशा में खास सुधार नहीं हुआ ।
- बांग्लादेश के संकट से भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ पड़ा था ।
- लगभग 80 लाख लोग पूर्वी पाकिस्तान की सीमा पार करके भारत आ गए थे ।
- इसके बाद पाकिस्तान से युद्ध भी करना पड़ा ।
- युद्ध के बाद अमरीका ने भारत को हर तरह की सहायता देना बंद कर दिया ।
- इसी अवधि में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों में कई गुना बढ़ोतरी हुई ।
- इससे विभिन्न चीज़ों की कीमतें भी तेज़ी से बढ़ीं ।
- 1973 में चीज़ों की कीमतों में 23 फीसदी और 1974 में 30 फीसदी का इज़ाफ़ा हुआ ।
- 1972-73 के वर्ष में मानसून असफल रहा । इससे कृषि की पैदावार में भारी गिरावट आई ।
💠 1971 के बाद कि राजनीति : –
🔹 25 जून 1975 से 18 माह तक अनुच्छेद 352 के प्रावधान आंतरिक अशांति के तहत भारत में आपातकाल लागू रहा । आपातकाल में देश की अखंडता व सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए रखते हुए समस्त शक्तियाँ केंद्रीय सरकार को प्राप्त हो जाती है ।
💠 राष्ट्रीय आपातकाल : –
🔹 25 जून 1975 से 18 माह तक अनुच्छेद 352 के प्रावधान आंतरिक अशांति के तहत भारत में आपातकाल लागू रहा । आपातकाल में देश की अखंडता व सुरक्षा को ध्यान में रखते हुए रखते हुए समस्त शक्तियाँ केंद्रीय सरकार को प्राप्त हो जाती है ।
💠 वे परिस्थितियॉ जिनके कारण 1975 में आपातकालीन स्थिति की घोषणा हुई : –
- ‘ गरीबी हटाओ ‘ का नारा अपना प्रभाव खोता जा रहा था ।
- 1972-73 में मानसून के विफल होने से कृषि की पैदावार में भारी गिरावट ।
- 1973 में अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमते बढ़ने से भारतीय अर्थव्यवस्था पर बुरा प्रभाव पड़ा ।
- रेलवे कर्मचारियों की हड़ताल ।
- गुजरात और बिहार के छात्र आंदोलन ।
- श्रीमती इंदिरा गांधी के निर्वाचन को इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा अवैध घोषित कर दिया गया था ।
- सरकार की गलत नीतियों के कारण जनता में आक्रोश पनपा ।
💠 आपातकाल के प्रमुख कारक : –
- आर्थिक कारक
- छात्र आंदोलन
- नक्सलवादी आंदोलन
- रेल हड़ताल
- न्यायपालिका के संघर्ष
💠 आर्थिक कारक : –
- गरीबी हटाओं का नारा कुछ खास नहीं कर पाया था ।
- बांग्लादेश के संकट से भारत की अर्थव्यवस्था पर भारी बोझ बड़ा था ।
- अमेरिका ने भारत को हर तरह की सहायता देनी बंद कर दी थी ।
- अंतर्राष्ट्रीय बाजार में तेल की कीमतों के बढ़ने से विभिन्न चीजों की कीमतें बहुत बढ़ गई थी ।
- औद्योगिक विकास की दर बहुत कम हो गयी थी ।
- शहरी एवं ग्रामीण क्षेत्रों में बेरोजगारी बहुत बढ़ गई थी ।
- सरकार ने खर्चे कम करने के लिए सरकारी कर्मचारियों का वेतन रोक दिया था ।
💠 छात्र आंदोलन : –
🔹 गुजरात के छात्रों ने खाद्यान्न , खाद्य तेल तथा अन्य आवश्यक वस्तुओं की बढ़ती हुई कीमतें तथा उच्च पदों पर व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ जनवरी 1974 में आंदोलन शुरू किया ।
🔹 मार्च 1974 में बढ़ती हुई कीमतों , खाद्यान्न के अभाव , बेरोजगारी और भ्रष्टाचार के खिलाफ बिहार में छात्रों ने आंदोलन शुरू कर दिया ।
🔶 जय प्रकाश नारायण की भूमिका :-
🔹 जय प्रकाश नारायण ( जेपी ) ने इस आंदोलन का नेतृत्व दो शर्तो पर स्वीकार किया ।
- ( क ) आंदोलन अहिंसक रहेगा ।
- ( ख ) यह बिहार तक सीमित नहीं रहेगा , अतिपु राष्ट्रव्यापी होगा ।
🔹 जयप्रकाश नारायण ने सम्पूर्ण क्रांति द्वारा सच्चे लोकतंत्र की स्थापना की बात की थी ।
🔹 जय प्रकाश नारायण ने भारतीय जनसंघ , कांग्रेस ( ओ ) , भारतीय लोकदल , सोशलिस्ट पार्टी जैसे गैर – कांग्रेसी दलों के समर्थन से ‘ संसद – मार्च ‘ का नेतृत्व किया था । इसे “ संपूर्ण क्रांति “ के नाम से जाना जाता है
🔹 इंदिरा गांधी ने इस आंदोलन को अपने प्रति व्यक्तिगत विरोध से प्रेरित बताया था ।
💠 रेल हड़ताल : –
🔹 जार्ज फर्नाडिस के नेतृत्व में बनी राष्ट्रीय समिति ने रेलवे कर्मचारियों की सेवा तथा बोनस आदि से जुड़ी माँगो को लेकर 1974 में हड़ताल की थी ।
🔹 सरकार मे हड़ताल को असंवैधानिक घोषित किया और उनकी माँगे स्वीकार नहीं की ।
🔹 इससे मजदूरों , रेलवे कर्मचारियों , आम आदमी और व्यापारियों में सरकार के खिलाफ असंतोष पैदा हुआ ।
💠 न्यायपालिका के संघर्ष : –
🔹 सरकार के मौलिक अधिकारों में कटौती , संपत्ति के अधिकार में कॉट – छॉट और नीति – निर्देशक सिद्धांतो को मौलिक अधिकारों पर ज्यादा शक्ति देना जैसे प्रावधानों को सर्वोच्च न्यायालय ने निरस्त कर दिया ।
🔹 सरकार ने जे . एम . शैलट , के . एस . हेगड़े तथा ए . एन . ग्रोवर की वरिष्ठता की अनदेखी करके ए . एन . रे . को सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायाधीश नियुक्त करवाया ।
🔹 सरकार के इन कार्यों से प्रतिबद्ध न्यायपालिका तथा नौकरशाही की बातें होने लगी थी ।
💠 आपातकाल की घोषणा : –
🔹 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया ।
🔹 24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले पर स्थगनादेश सुनाते हुए , कहा कि अपील का निर्णय आने तक इंदिरा गांधी सांसद बनी रहेगी परन्तु मंत्रिमंडल की बैठकों में भाग नहीं लेगी ।
🔹 25 जून 1975 को जेपी के नेतृत्व में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की ।
🔹 जेपी ने सेना , पुलिस और सरकारी कर्मचारियों से आग्रह किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें ।
🔹 25 जून 1975 की मध्यरात्रि में प्रधानमंत्री ने अनुच्छेद 352 ( आंतरिक गडबडी होने पर ) के तहत राष्ट्रपति से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की ।
💠 आपातकाल के परिणाम : –
- विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया ।
- प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी ।
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात – ए – इस्लामी पर प्रतिबंध ।
- धरना , प्रदर्शन और हड़ताल पर रोक ।
- नागरिकों के मौलिक अधिकार निष्प्रभावी कर दिये गये ।
- सरकार ने निवारक नजरबंदी कानून के द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया ।
- इंडियन एक्प्रेस और स्टेट्स मैन अखबारों को जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था , वे उनकी खाली जगह में छोड़ देते थे ।
- ‘ सेमिनार ‘ और ‘ मेनस्ट्रीम ‘ जैसी पत्रिकाओं ने प्रकाशन बंद कर दिया था ।
- कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत तथा हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में अपनी पदवी सरकार को लौटा दी ।
नोट :- 42 वें संविधान संशोधन ( 1976 ) द्वारा अनेक परिवर्तन किए गये जैसे प्रधानमंत्री , राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती न दे पाना तथा विधायिका के कार्यकाल को 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर देना आदि ।
💠 आपातकाल के पश्चात विपक्ष की भूमिका : –
- विपक्षी नेताओं ने एकजुट होकर जनता पार्टी बनाई ।
- 1977 में स्वतंत्र निष्पक्ष चुनाव हुए तथा इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को जनता ने हार का मुँह दिखाया ।
- आपातकाल के दौरान किए गये अनुचित संवैधानिक संशोधन बदल दिए गए ।
- विपक्ष अब आलोचना करने के लिए स्वतंत्र था ।
💠 आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतन्त्र की कमजोरियां : –
- लोकतांत्रिक संस्थओं का अपंग होना ।
- आपातकाल के प्रावधानों में अस्पष्टता ।
- पुलिस व प्रशासन का दुरूपयोग ।
💠 आपातकाल के दौरान लोकतंत्र की ताकत : –
- नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक होना ।
- लोकतंत्र की पुनः स्थापना ।
- नागरिक संगठनों का अस्तित्व में आना ।
💠 आपातकाल के सबक : –
🔹 आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतंत्र की ताकत ओर कमजोरियाँ उजागर हो गई थी , लेकिन जल्द ही कामकाज लोकतंत्र की राह पर लौट आया । इस प्रकार भारत से लोकतंत्र को विदा कर पाना बहुत कठिन है ।
🔹 आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई है तथा इन अधिकारों की रक्षा के लिए कई संगठन अस्तित्व में आये है ।
🔹 संविधान के आपातकाल के प्रावधान में ‘ आंतरिक अशान्ति ‘ शब्द के स्थान पर ‘ सशस्त्र विद्रोह ‘ शब्द को जोड़ा गया है । इसके साथ ही आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित में देगी ।
🔹 आपातकाल में शासक दल ने पुलिस तथा प्रशासन को अपना राजनीतिक औजार बनाकर इस्तेमाल किया था । ये संस्थाएँ स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर पाई थी ।
💠 भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का असर : –
- सत्ताधारी पार्टी को बहुमत मिलने की वजह से , नेतृत्व ने लोकतांत्रिक क्रियान्वयन को भी चुनौती देने की हिम्मत की ।
- कानून व लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने की वजह से संविधान निर्माताओं ने सरकार को आपातकाल के दौरान अधिक शक्तियाँ प्रदान की थीं ।
- संस्था पर आधारित लोकतंत्र और लोगों के सहयोग पर आधारित लोकतंत्र के बीच तनाव व मतभेद खड़े होने शुरू हो गए थे ।
- यह सब उस दलीय व्यवस्था की अक्षमता के कारण था , जो लोगों की आशाओं पर खरी नहीं उतर पा रही थी ।
- पहली बार विपक्षी पार्टियाँ , नई पार्टी ‘ जनता पार्टी ‘ के नाम से गैरकांग्रेस वोटों को भी न बाँटने के उद्देश्य से साथ आई ।
- 1977 चुनावों ने एक दल की सम्प्रभुता समाप्त की और गठबंधन सरकार को जन्म दिया ।
💠 आपातकाल के बाद की राजनीती : –
🔹 जनवारी 1977 में विपक्षी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया ।
🔹 कांग्रेसी नेता बाबू जगजीवन राम ने “ कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ‘ दल का गठन किया , जो बाद में जनता पार्टी में शामिल हो गया ।
🔹 जनता पार्टी ने आपातकाल की ज्यादतियों को मुद्दा बनाकर चुनावों को उस पर जनमत संग्रह का रूप दिया ।
💠 1977 के चुनाव : –
🔹 1977 के चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा में 154 सीटें तथा जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को 330 सीटे मिली ।
🔹 आपातकाल का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक होने के कारण 1977 के चुनाव में कांग्रेस को उत्तर भारत में ना के बराबर सीटें प्राप्त हुई ।
💠 जनता पार्टी की सरकार : –
- जनता पार्टी की सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री तथा चरण सिंह व जगजीवनराम दो उपप्रधानमंत्री बने ।
- जनता पार्टी के पास किसी दिशा , नेतृत्व व एक साझे कार्यक्रम के अभाव में यह सरकार जल्दी ही गिर गई ।
- 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 353 सीटें हासिल करके विरोधियों को करारी शिकस्त दी ।
💠 शाह आयोग : –
🔹 आपातकाल की जाँच के लिए जनता पार्टी की सरकार द्वारा मई 1977 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे . सी . शाह की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग की नियुक्ति की गई ।
💠 शाह आयोग द्वारा एकत्र किए गए प्रामाणिक तथ्य : –
- आपातकाल की घोषणा का निर्णय केवल प्रधानमंत्री का था ।
- सामाचार पत्रों के कार्यालयों की बिजली बंद करना पूर्णतः अनुचित था ।
- प्रधानमंत्री के निर्देश पर अनेक विपक्षी राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारी गैर – कानूनी थी ।
- मीसा ( MISA ) का दुरुपयोग किया गया था ।
- कुछ लोगों ने अधिकारिक पद पर न होते हुए भी सरकारी काम – काज में हस्तक्षेप किया था ।
💠 1980 में मध्यावधि चुनाव करवाने के कारण : –
🔹 क्योंकि जनता पार्टी मूलत : इंदिरा गाँधी के मनमाने शासन के विरुद्ध विभिन्न पार्टियों का गठबंधन था इसलिए शीघ्र ही जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया । कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर दूसरी सरकार चरण सिंह के नेतृत्व में बनी लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लेने का फैसला किया । इस वजह से चरण सिंह की सरकार मात्र चार महीने तक सत्ता में रही । इस प्रकार 1980 में लोकसभा के लिए नए सिरे से चुनाव करवाने पड़े ।
💠 नागरिक स्वतंत्रता संगठनों का उदय : –
🔹 नागरिक स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्टूबर , 1976 में हुआ ।
🔹 इन संगठनों ने न केवल आपातकाल बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा है ।
🔹 1980 में नागरिक स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘ नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए लोगों का संघ ‘ रख दिया गया ।
🔹 गरीबी सहभागिता , लोकतन्त्रीकरण तथा निष्पक्षता से सम्बन्धित चिन्ताओं के सन्दर्भ में भारतीय नागरिक स्वतंत्रता संगठनों ( CLOS ) ने अनेक क्षेत्रों में संगठित होकर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है ।
💠 ‘ लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान ‘ : –
🔹 देश की लोकतान्त्रिक राजनीति में जनता की बढ़ती सहभागिता को लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान के रूप में इंगित किया जाता है । इस सिद्धांत के आधार पर , समाज विज्ञानी भारत के स्वातंत्र्योत्तर इतिहास में तीन लोकतांन्त्रिक अभ्युत्थानों का वर्णन करते हैं ।
🔶 प्रथम लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान :-
🔹 प्रथम लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान को 1950 के दशक से 1970 के दशक तक चिन्हित किया जा सकता है जो केन्द्र व राज्य दोनों की लोकतान्त्रिक राजनीति में भारतीय वयस्क मतदाताओं की बढ़ती सहभागिता पर आधरिता था ।
🔹 पश्चिम के इस मिथक को मिथ्या सिद्ध करते हुए कि एक सफल लोकतन्त्र आधुनिकीकरण , नगरीकरण , शिक्षा तथा मीडिया पहुँच पर आधरित होता है , संसदीय लोकतंत्र के सिद्धान्त पर लोकसभा तथा राज्यों की विधनसभाओं में चुनावों के सफल आयोजन ने भारत के प्रथम लोकतांत्रिक अभ्युत्थान को सार्थक किया ।
🔶 द्वितीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान : –
🔹 1980 के दशक में समाज के निम्न वर्गों यथा अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग की बढ़ती राजनीतिक सहभागिता को द्वितीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान ‘ के रूप में व्याख्यायित किया गया है ।
🔹 इस सहभागिता ने भारतीय राजनीति को इन वर्गों के लिए अधिक अनुग्राही तथा सुगम बना दिया है । यद्यपि इस अभ्युत्थान ने इन वर्गों , विशेषतः दलितों के जीवन स्तर में कोई व्यापक परिवर्तन नहीं किया है , परन्तु संगठनात्मक तथा राजनीतिक मंचों पर इन वर्गों की सहभागिता ने इनके स्वाभिमान को सुदृढ़ तथा देश की लोकतान्त्रिक राजनीति में इन वर्गों के सशक्तिकरण को सुनिश्चित करने का अवसर प्रदान किया है ।
🔶 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान : –
🔹 1990 के दशक के प्रारम्भ से उदारीकरण , निजीकरण तथा वैश्वीकरण के युग ( LPG – Liberalization , Privatization , Globalization ) को एक प्रतिस्पर्धक बाजार समाज के उद्भव के लिए उत्तरदायी माना जाता है , जिसमें अर्थव्यवस्था , समाज और राजनीति के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है । उदारीकरण का यह दशक ‘ तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान के लिए मार्ग प्रशस्त करता है ।
🔹 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान एक प्रतिस्पर्धी चुनाव राजनीति का प्रतिनिधित्व करता है जो ‘ श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता ‘ ( Survival of the Fittest ) के सिद्धान्त पर आधरित ना होकर ‘ योग्यतम की उत्तरजीविता ‘ ( Survival of the Ablest ) पर आधरित होता है ।
🔶 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान का भारतीय चुनावी बाजार में परिवर्तन : –
🔹 यह भारतीय चुनावी बाजार में तीन परिवर्तनों को रेखांकित करता है :
- राज्य से बाजार की ओर ,
- सरकार से शासन की ओर तथा
- नियंत्रक राज्य से सुविधप्रदाता राज्य की ओर । इसके अतिरिक्त
🔹 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान ने उस युवा वर्ग की सहभागिता को इंगित किया है जो भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण भाग हैं तथा भारत की समकालीन लोकतान्त्रिक राजनीति में अपनी बढ़ती चुनावी प्राथमिकता की दृष्टि से विकास तथा प्रशासन दोनों के लिए वास्तविक परिवर्तन के रूप में उदित हुआ है ।