Ncert Solutions for Class 12 Macro Economics Chapter 5 in hindi: सरकारी बजट एवं अर्थव्यवस्था question answer
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | Economics |
Chapter | Chapter 5 |
Chapter Name | सरकारी बजट एवं अर्थव्यवस्था class 12 ncert solutions |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
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प्रश्न 1: सार्वजनिक वस्तु सरकार के द्वारा ही प्रदान की जानी चाहिए, क्यों? व्याख्या कीजिए।
उत्तर 1: सार्वजनिक वस्तुएं वे वस्तुएं होती हैं जिनका उपयोग समाज के सभी सदस्य कर सकते हैं और इनका उपभोग एक व्यक्ति द्वारा करने से दूसरे व्यक्ति के उपभोग पर कोई असर नहीं पड़ता। इन्हें “Non-rivalrous” और “Non-excludable” भी कहा जाता है। उदाहरण के लिए, सड़कें, सिचाई, प्रदूषण नियंत्रण, राष्ट्रीय रक्षा आदि।
सार्वजनिक वस्तुएं सरकार के द्वारा प्रदान की जानी चाहिए, इसके प्रमुख कारण निम्नलिखित हैं:
- पारंपरिक लाभ का अभाव: निजी क्षेत्र सार्वजनिक वस्तुओं का उत्पादन नहीं करता क्योंकि इनमें लाभ कम होता है और इनका उपयोग व्यक्तिगत रूप से सीमित नहीं किया जा सकता।
- समानता और समावेशिता: सरकार सुनिश्चित करती है कि सभी नागरिकों को समान रूप से सार्वजनिक सेवाओं का लाभ मिले, चाहे उनकी आर्थिक स्थिति जैसी भी हो।
- समाज कल्याण: सरकारी प्रबंधन के द्वारा सार्वजनिक वस्तुएं समाज की भलाई के लिए प्रदान की जाती हैं, जैसे कि शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा।
- सकारात्मक बाह्य प्रभाव: सरकार सार्वजनिक वस्तुओं की आपूर्ति करके समाज में सकारात्मक प्रभाव (जैसे स्वच्छ पर्यावरण) सुनिश्चित करती है।
- संसाधनों का संरक्षण: प्राकृतिक संसाधनों और सार्वजनिक सेवाओं का संरक्षण और सही उपयोग सुनिश्चित करने के लिए सरकारी नियंत्रण आवश्यक है।
प्रश्न 2: राजस्व व्यय और पूँजीगत व्यय में भेद कीजिए।
उत्तर 2: राजस्व व्यय और पूंजीगत व्यय में प्रमुख अंतर निम्नलिखित हैं:
1. प्रकृति:
- राजस्व व्यय: यह उन खर्चों को कहा जाता है जो सरकार के नियमित कार्यों और प्रशासनिक खर्चों से संबंधित होते हैं, जैसे वेतन, पेंशन, सब्सिडी, इत्यादि। ये खर्चे तत्काल लाभ प्रदान करते हैं और आमतौर पर इनका कोई दीर्घकालिक प्रभाव नहीं होता।
- पूंजीगत व्यय: यह वे खर्चे होते हैं जो दीर्घकालिक संपत्ति या संसाधन की खरीदारी में किए जाते हैं, जैसे इन्फ्रास्ट्रक्चर निर्माण, शिक्षा और स्वास्थ्य संस्थानों का निर्माण, मशीनरी खरीदना, इत्यादि।
2. उद्देश्य:
- राजस्व व्यय: इसका उद्देश्य सरकार के सामान्य संचालन और सेवा प्रदान करने के लिए धन का खर्च करना होता है।
- पूंजीगत व्यय: इसका उद्देश्य दीर्घकालिक संपत्ति बनाना या सुधारना होता है, जिससे भविष्य में लाभ या राजस्व प्राप्त हो सके।
3. प्रभाव:
- राजस्व व्यय: यह तत्काल प्रभाव डालता है, और अगले साल या वर्ष में सरकार को फिर से इसका भुगतान करना होता है।
- पूंजीगत व्यय: यह दीर्घकालिक प्रभाव डालता है और सरकार को भविष्य में इन परिसंपत्तियों से लाभ होता है, जैसे सड़कें, भवन, संयंत्र इत्यादि।
4. वित्तीय प्रभाव:
- राजस्व व्यय: यह सीधे सरकार के राजस्व पर असर डालता है और बजट घाटे को प्रभावित करता है।
- पूंजीगत व्यय: यह सरकार के कुल पूंजीगत निवेश को बढ़ाता है और आमतौर पर दीर्घकालिक विकास में सहायक होता है।
संक्षेप में, राजस्व व्यय सरकार के रोज़मर्रा के खर्चों से संबंधित होता है, जबकि पूंजीगत व्यय दीर्घकालिक संपत्तियों के निर्माण और विकास के लिए होता है।
राजस्व व्यय | पूंजीगत व्यय |
---|---|
प्रकृति: नियमित और प्रशासनिक खर्च | प्रकृति: दीर्घकालिक संपत्तियों पर खर्च |
उद्देश्य: सरकारी कार्यों का संचालन | उद्देश्य: दीर्घकालिक परिसंपत्तियों का निर्माण या सुधार |
उदाहरण: वेतन, पेंशन, सब्सिडी, ब्याज भुगतान | उदाहरण: सड़कें, स्कूल भवन, मशीनरी की खरीद |
प्रभाव: तत्काल प्रभाव, कोई दीर्घकालिक लाभ नहीं | प्रभाव: दीर्घकालिक प्रभाव, भविष्य में लाभ या राजस्व प्राप्ति |
वित्तीय प्रभाव: बजट घाटे को प्रभावित करता है | वित्तीय प्रभाव: कुल पूंजीगत निवेश को बढ़ाता है |
समय: एक वर्ष में पूरा खर्च होता है | समय: दीर्घकालिक अवधि में असर करता है |
प्रश्न 3: राजकोषीय घाटे से सरकार को ऋण ग्रहण की आवश्यकता होती है। समझाइए।
उत्तर 3: यह कहना बिल्कुल उचित है कि राजकोषीय घाटे से सरकार को ऋण की आवश्यकता होती है। राजकोषीय घाटा सरकार के कुल व्यय और ऋण ग्रहण को छोड़कर कुल प्राप्तियों का अंतर है।
सकल राजकोषिय घाटा = कुल व्यये – (राजस्व प्राप्तियाँ + गैर-ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ)
हम जानते हैं दोहरे लेखांकन प्रणाली के अनुसार सरकार का कुल व्यय और कुल प्राप्तियाँ बराबर होनी ही चाहिए, क्योंकि सरकार ने जो व्यय किया है उसका भुगतान तो इसे करना ही होगा चाहे वह ऋण लेकर करे चाहे नये नोट छापकर जिसे घाटे की वित्त व्यवस्था कहा जाता है। अतः राजकोषीय घाटा सरकार की कुल ऋण ग्रहण की आवश्यकता के बराबर होता है।
राजकोषीय घाटा = ऋण से सृजित पूँजीगत प्राप्तियाँ
प्रश्न 4: राजस्व घाटा और राजकोषीय घाटी में संबंध समझाइए।
उत्तर 4: राजस्व घाटा और राजकोषीय घाटी में संबंध:
राजकोषीय घाटा में राजस्व घाटा शामिल है: राजकोषीय घाटा, राजस्व घाटे के अलावा पूंजीगत व्यय और अन्य खर्चों को भी शामिल करता है। इसलिए, यदि राजस्व घाटा होता है, तो यह राजकोषीय घाटा बढ़ाने में योगदान करता है।
राजस्व घाटा राजकोषीय घाटे का एक घटक है: यदि सरकार का राजस्व घाटा अधिक है, तो इसका मतलब है कि सरकार की आय, खर्चों से कम है, जिससे राजकोषीय घाटा और बढ़ सकता है, क्योंकि सरकार को पूंजीगत खर्चों को पूरा करने के लिए उधारी लेनी पड़ सकती है।
राजकोषीय घाटा आर्थिक स्थिरता को प्रभावित कर सकता है: जब सरकार का राजकोषीय घाटा अधिक होता है, तो इसका अर्थ है कि सरकार का वित्तीय अनुशासन बिगड़ रहा है, और इसके लिए उधारी में वृद्धि हो सकती है। यदि राजस्व घाटा बढ़ेगा, तो यह राजकोषीय घाटे को और बढ़ा सकता है।
थोड़े शब्दों में
- राजस्व घाटा सरकार की नियमित आय और खर्च के बीच अंतर को दर्शाता है।
- राजकोषीय घाटा सरकार के कुल खर्च और कुल आय के बीच अंतर को दर्शाता है, जिसमें राजस्व घाटा भी शामिल है।
- राजस्व घाटा राजकोषीय घाटे को प्रभावित करता है, क्योंकि यदि सरकार के पास पर्याप्त राजस्व नहीं है, तो उसे अन्य स्रोतों से उधारी लेनी पड़ सकती है, जिससे राजकोषीय घाटा बढ़ेगा।
प्रश्न 5: मान लीजिए एक विशेष अर्थव्यवस्था में निवेश 200 के बराबर है, सरकार के क्रय की मात्रा 150 है, निवल कर (अर्थात् इकमुश्त कर से अंतरण को घटाने पर) 100 है और उपभोग C = 100 + 0.75Y दिया हुआ है तो (a) संतुलन आय स्तर क्या है? (b) सरकारी व्यय गुणांक और कर गुणांक के मानों की गणना करो। (c) यदि सरकार के व्यय में 200 की बढ़ोतरी होती है, तो संतुलन आय में क्या परिवर्तन होगा?
उत्तर 5:
(a) संतुलन आय स्तर वहाँ होती है जहाँ
- AD = AS, AD = C + 1 + G
AS = y
∴ y = 100 + 0.75(y – 100) + 200 + 150
∴ y = 100 + 0.75 – 75 + 375
y – 0.75y = 375, 0.25y = 375 - y = \(\frac{375}{0.25} \), y = \(\frac{37500}{25} \)
- y = रु 1500 करोड़
(b) सरकारी व्यय गुणांक और कर गुणांक के मानों की गणना:
- सरकारी व्यय गुणांक:
सरकारी व्यय गुणांक = \(\frac{1}{1 – MPC}\)
जहां, (MPC = 0.75)
सरकारी व्यय गुणांक = \(\frac{1}{1 – 0.75} = \frac{1}{0.25} = 4 \) - कर गुणांक:
कर गुणांक = \(-\frac{MPC}{1 – MPC} \)
कर गुणांक = \(-\frac{0.75}{1 – 0.75} = -\frac{0.75}{0.25} = -3 \)
(c) सरकारी व्यय में 200 की बढ़ोतरी पर संतुलन आय में परिवर्तन:
सरकारी व्यय गुणांक = 4
सरकारी व्यय में वृद्धि = 200
सरकारी व्यय गुणांक का उपयोग करके हम संतुलन आय में परिवर्तन की गणना कर सकते हैं।
- संतुलन आय में परिवर्तन = सरकारी व्यय गुणांक × सरकार के व्यय में परिवर्तन
- संतुलन आय में परिवर्तन = 4 × 200 = 800
इस प्रकार, सरकार के व्यय में 200 की बढ़ोतरी से संतुलन आय में 800 की वृद्धि होगी।
प्रश्न 6: एक ऐसी अर्थव्यवस्था पर विचार कीजिए, जिसमें निम्नलिखित फलन हैं:
C = 20 + 0.8Y, I = 30, G = 50, TR = 100
(a) आय का संतुलन स्तर और मॉडल में स्वायत्त व्यय ज्ञात कीजिए।
(b) यदि सरकार के व्यय में 30 की वृद्धि होती है, तो संतुलन आय पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
(c) यदि इकमुश्त कर 30 जोड़ दिया जाए, जिससे सरकार के क्रय में बढ़ोत्तरी का भुगतान जा सके, तो संतुल आय में किस प्रकार का परिवर्तन होगा?
उत्तर 6:
दिए गए हैं:
- उपभोग फलन: C = 20 + 0.8Y
- निवेश (I): I = 30
- सरकारी व्यय (G): G = 50
- सरकारी ट्रांसफर (TR): TR = 100
(a) आय का संतुलन स्तर और मॉडल में स्वायत्त व्यय ज्ञात कीजिए
- कुल व्यय (Aggregate Expenditure, AE) का समीकरण इस प्रकार होगा:
- AE = C + I + G
- जहाँ C = 20 + 0.80Y कुल व्यय (Aggregate Expenditure, AE) का समीकरण इस प्रकार होगा:,
I = 30 (निवेश),
G = 50 (सरकारी व्यय)। - तो, कुल व्यय का समीकरण होगा:
- AE = (20 + 0.80Y) + 30 + 50 =
- AE = 100 + 0.80Y
- अब, संतुलन आय (Y) के लिए, कुल व्यय (AE) को कुल उत्पादन (Y) के बराबर रखना होगा:
- Y = 100 + 0.80Y
- इस समीकरण को हल करें:
- Y – 0.80Y = 100
- 0.20Y = 100
- Y = \(\frac{100}{0.20}\)
- Y = 500
- तो, संतुलन आय का स्तर Y = 500 है।
- स्वायत्त व्यय गुणांक निम्नलिखित सूत्र से प्राप्त किया जा सकता है:
- Multiplier = \(\frac{1}{1 – \text{Marginal Propensity to Consume (MPC)}}\)
- यहाँ, Marginal Propensity to Consume (MPC) = 0.80 है।
- तो,
- Multiplier = \(\frac{1}{1 – 0.80} = \frac{1}{0.20}\) = 5
- इसलिए, स्वायत्त व्यय गुणांक = 5 है।
(b) यदि सरकार के व्यय में 30 की वृद्धि होती है, तो संतुलन आय पर क्या प्रभाव पड़ेगा?
- सरकारी व्यय(G) में वृद्धि के कारण संतुलन आय में परिवर्तन की गणना करने के लिए हम स्वायत्त व्यय गुणांक का उपयोग करेंगे:
- \(\Delta Y = \text{Multiplier} \times \Delta G\)
- यहाँ, \(\Delta G = 30\) और मल्टीप्लायर = 5 है।
- तो,
- \(\Delta Y = 5 \times 30 = 150\)
- इसलिए, संतुलन आय में वृद्धि होगी और यह 150 बढ़ेगा।
नया संतुलन आय = 500 + 150 = 650 होगा।
(c) यदि इकमुश्त कर 30 जोड़ दिया जाए, जिससे सरकार के क्रय में बढ़ोत्तरी का भुगतान जा सके, तो संतुलन आय में किस प्रकार का परिवर्तन होगा?
लम्प-सम टैक्स का प्रभाव उपभोग (C) पर पड़ता है, क्योंकि उपभोग आय (Y) पर निर्भर करता है। टैक्स का प्रभाव निम्नलिखित तरीके से गणना किया जाएगा:
- टैक्स के कारण उपभोग में कमी:
लम्प-सम टैक्स (T) = 30, इसका प्रभाव उपभोग (C) पर इस प्रकार पड़ेगा:
नया C = 20 + 0.80(Y – T)
जहाँ (T = 30) है। तो उपभोग का नया रूप होगा:
C = 20 + 0.80(Y – 30) = 20 + 0.80Y – 24 = -4 + 0.80Y - कुल व्यय (AE) का नया रूप: अब कुल व्यय (AE) होगा:
AE = (-4 + 0.80Y) + 30 + 50 = 76 + 0.80Y - संतुलन आय का नया स्तर: संतुलन आय प्राप्त करने के लिए, AE = Y होगा:
Y = 76 + 0.80Y
इस समीकरण को हल करें:
Y – 0.80Y = 76
0.20Y = 76
Y = \(\frac{76}{0.20} = 380\)
इसलिए, लम्प-सम टैक्स लगाने के बाद संतुलन आय 380 हो जाएगी।
- (a) संतुलन आय = 500, स्वायत्त व्यय गुणांक = 5
- (b) सरकार के खर्च में 30 की वृद्धि से संतुलन आय 150 बढ़ेगी और नया संतुलन आय 650 होगा।
- (c) लम्प-सम टैक्स के बाद संतुलन आय 380 होगी।
प्रश्न 7: उपर्युक्त प्रश्न में अंतरण में 10% की वृद्धि और इकमुश्त करों में 10% की वृद्धि का निर्गत पर पड़ने वाले प्रभाव की गणना करें। दोनों प्रभावों की तुलना करें।
उत्तर 7: यदि अंतरण में 10% की वृद्धि हो तो नया
AD = 20 + 0.8(y + 10) + 30 + 50
संतुलन आय y = AD
y = 20 + 0.8y + 8 + 30 + 50
y – 0.8y = 108, 0.2y = 108
y = 108/0.2 = 1080/2 = रु 540 करोड़
यदि करो में 10% की वृद्धि हो तो नया
AD = 20 + 0.8(y – 10) + 30 + 50
AD = 20 + 0.8y – 8 + 30 + 50
AD = 92 + 0.8y
संतुलन आय y = AD, y = 92 + 0.8y
y – 0.8y = 92, 0.2y = 92,
y = 92/0.2= 920/2 रु 460 करोड़
अतः अंतरण में वृद्धि आय के संतुलन स्तर को बढ़ा देती है जबकि एकमुश्त कर में वृद्धि आय के संतुलन स्तर को कम कर देती है।
प्रश्न 8: हम मान लेते हैं कि C = 70 + 0.70 YD, I = 90, G = 100, T = 0.10Y है तो (a) संतुलन आय ज्ञात करो। (b) संतुलन आय पर कर राजस्व क्या है? क्या सरकार का बजट संतुलित बजट है?
उत्तर 8: दिया गया है:
- उपभोग का फलन: C = 70 + 0.70 YD
जहां YD = Y – T (यानी डिस्पोजेबल आय, जहाँ ( T ) कर है) - निवेश: I = 90
- सरकारी व्यय: G = 100
- कर दर: T = 0.10Y
(a) संतुलन आय ज्ञात करें: संतुलन आय वह होती है जब कुल व्यय (AE) और कुल उत्पादन (Y) बराबर होते हैं। कुल व्यय (AE) का समीकरण निम्नलिखित होगा:
AE = C + I + G
जहां:
- C = 70 + 0.70 YD = 70 + 0.70 (Y – T) = 70 + 0.70 (Y – 0.10Y) = 70 + 0.70 (0.90Y) = 70 + 0.63Y
- I = 90
- G = 100
- अब कुल व्यय (AE) का समीकरण होगा:
- AE = (70 + 0.63Y) + 90 + 100
- AE = 260 + 0.63Y
- संतुलन आय के लिए ( AE = Y ), तो:
- 260 + 0.63Y = Y
- अब इसे हल करते हैं:
- 260 = Y – 0.63Y
- 260 = 0.37Y
- Y = \(\frac{260}{0.37}\)
- Y = 702.7
तो, संतुलन आय ( Y = 702.7 ) है।
(b) संतुलन आय पर कर राजस्व क्या है? क्या सरकार का बजट संतुलित बजट है?
अब हम संतुलन आय ( Y = 702.7 ) पर कर राजस्व (Tax Revenue) की गणना करेंगे।
चूंकि कर दर ( T = 0.10Y ) है, तो:
T = 0.10 × 702.7 = 70.27
कर राजस्व ( T = 70.27 ) है।
अब, सरकार के बजट का विश्लेषण करते हैं। सरकार का बजट संतुलित होता है जब सरकारी व्यय ( G ) और कर राजस्व ( T ) बराबर होते हैं। यहां:
- सरकारी व्यय ( G = 100 )
- कर राजस्व ( T = 70.27 )
चूंकि \( G \neq T \), सरकार का बजट असंतुलित बजट है। सरकार का वित्तीय घाटा है क्योंकि सरकारी व्यय (100) कर राजस्व (70.27) से अधिक है।
उत्तर:
- (a) संतुलन आय ( Y = 702.7 ) है।
- (b) संतुलन आय पर कर राजस्व ( T = 70.27 ) है। सरकार का बजट असंतुलित बजट है।
प्रश्न 9: मान लीजिए कि सीमान्त उपभोग प्रवृत्ति 0.75 है और अनुपातिक आय कर 20% है। संतुलन आय में निम्नलिखित परिवर्तनों को ज्ञात करो। (a) सरकार के क्रय में 20 की वृद्धि (b) अंतरण में 20 की कमी।
उत्तर 9: आनुपातिक करों के मामले में:
(a) MPC = 0.75 and ΔG = 20
\(\Delta \mathrm{Y} =\frac{1}{(1-\mathrm{c}(1-\mathrm{t}))} \times \Delta \mathrm{G}\)
\(=\frac{1}{(1-0.75(1-0.2))} \times 20\)
\(=\frac{1}{(1-0.75) \times 0.8} \times 20=50\)
(b) \(\Delta \mathrm{Y}= \frac{c}{1-c}\times \Delta \mathrm{T}\)
\(=\frac{0.75}{(1-0.75)} \times 20\)
\(=\frac{0.75}{0.25} \times 20\)
= 60
प्रश्न 10: निरपेक्ष मूल्य में कर गुणक सरकारी व्यय गुणक से छोटा क्यों होता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर 10: निरपेक्ष मूल्य में कर गुणक सरकारी व्यय गुणक से इसलिए छोटा होता है क्योंकि:
- करों का प्रभाव: जब सरकार करों में वृद्धि करती है, तो यह व्यक्तिगत आय को घटा देती है, जिससे उपभोक्ताओं का उपभोग घटता है। परिणामस्वरूप, कुल व्यय में कमी होती है।
- सरकारी व्यय: सरकारी व्यय में वृद्धि सीधे तौर पर कुल मांग और उत्पादन में वृद्धि करती है, क्योंकि यह बिना किसी बीचवर्ती प्रभाव के सीधे अर्थव्यवस्था में खर्च होता है।
इसलिए, सरकारी व्यय में वृद्धि का प्रभाव अधिक होता है, जबकि कर वृद्धि का प्रभाव कम होता है, क्योंकि करों के प्रभाव से खर्च में कमी आती है। इस कारण कर गुणक हमेशा सरकारी व्यय गुणक से छोटा होता है।
प्रश्न 11: सरकारी घाटे और सरकारी ऋण ग्रहण में क्या संबंध है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर 11: सरकारी घाटा एक वर्ष में व्यय के लिए सरकार द्वारा लिए गए आवश्यक ऋणों की मात्रा को उजागर करती है। सरकार द्वारा अधिक ऋण लेने का अर्थ है भावी पीढ़ी के उपकरण और ब्याज का पुनर्भुगतान करने का भार अधिक होता है। वर्ष प्रति वर्ष जब ये ऋण भार अधिक होते जाते हैं तो भावी पीढियों के लिए उपलब्ध साधन कम होते जाते हैं। यह निश्चित रूप से वृद्धि की प्रक्रिया में एक प्रतिबंधक के रूप में काम करेगी। विशेषतः जब सरकार गैर-उत्पादकीय उद्देश्य के लिए ऋण लेती है।
प्रश्न 12: क्या सार्वजनिक ऋण बोझ बनता है? व्याख्या कीजिए।
उत्तर 12: हाँ सार्वजनिक ऋण एक बोझ बनता है। आवर्ती उधार भावी पीढ़ी के लिए राष्ट्रीय ऋणों को संचित करता है। भावी पीढ़ी को विरासत में एक पिछड़ी हुई अर्थव्यवस्था मिलती है, जिसमें राष्ट्रीय सकल उत्पाद की वृद्धि निरंतर कम रहती है। इसके फलस्वरूप सकल राष्ट्रीय उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा ऋणों के पुनर्भुगतान या ब्याज भुगतान के लिए खपत होती है और घरेलू निवेश निचले स्तर पर बनी रहती है।
जब सकल राष्ट्रीय उत्पाद का एक बड़ा हिस्सा राजकोषीय घाटा होने पर ऐसी स्थिति उत्पन्न होती है, जहाँ एक दुश्चक्र जन्म लेता है, उच्च राजकोषीय घाटे के कारण सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि दर कम होती है और निम्न सकल घरेलू उत्पाद की संवृद्धि के कारण राजकोषीय घाटा उच्च होता है। अतः प्राप्तियाँ संकुचित होती हैं जबकि व्यय में विस्तार होता है। इससे राजकोषीय घाटा बढ़ता है। राजकोषीय घाटा बढ़ने से सरकारी व्यय का बड़ा हिस्सा कल्याण संबंधी व्ययों पर खर्च किया जाता है।
प्रश्न 13: क्या राजकोषीय घाटा आवश्यक रूप से स्फीतिकारी होता है?
उत्तर 13: यह हमेशा स्फीतिकारी हो यह आवश्यक नहीं। यदि राजकोषीय घाटे का प्रयोग उत्पादक क्रियाओं के लिए किया गया हो, जिससे अर्थव्यवस्था में वस्तुओं और सेवाओं की पूर्ति में वृद्धि हो तो संभव है कि राजकोषीय घाटा स्फीतिकारी सिद्ध न हो, परंतु वास्तव में सरकार द्वारा लिये जाने वाले उधार का एक महत्वपूर्ण संघटक भारतीय रिजर्व बैंक है। इसके कारण अर्थव्यवस्था में मुद्रा पूर्ति में वृद्धि होती है। मुद्रा पूर्ति में वृद्धि के कारण प्राय: कीमत स्तर में वृद्धि होती है। कीमत स्तर में साधारण वृद्धि उच्च लाभों के द्वारा अधिक निवेश को प्रेरित कर सकती है। परन्तु जब कीमत वृद्धि का स्तर भयाप्रद सीमाओं तक बढ़ जाता है, तो इसके कारण
- (i) आगतों को लागतों में वृद्धि तथा
- (ii) मुद्रा की गिरती क्रय क्षमता के कारण समग्र माँग में कमी होती है। आगतों की लागतों में वृद्धि तथा समग्र माँग में कमी एक साथ मिलकर निवेश में कमी करते हैं, जिसके कारण सकल घरेलू उत्पाद में कमी होती है। अंततः अर्थव्यवस्था में AD कम होने से अपस्फीति भी हो सकती है और आर्थिक मंदी भी जन्म ले सकती है।
प्रश्न 14: घाटे में कटौती के विषय में विमर्श कीजिए।
उत्तर 14: घाटे में कटौती के लिए दो विधियाँ अपनाई जा सकती हैं
(i) करों में वृद्धि – भारत में सरकार कर राजस्व में वृद्धि करने के लिए प्रत्यक्ष करों पर ज्यादा भरोसा करती है। इसका कारण यह है कि अप्रत्यक्ष कर अपनी प्रकृति में प्रतिगामी होता है। इसका प्रभाव सभी आय समूह के लोगों पर समान रूप से पड़ती है।
(ii) व्यय में कमी – सरकार ने घाटे में कटौती के लिए सरकारी व्यय को कम करने के लिए कटौती पर बल दिया है। सरकार के कार्यकलापों को सुनियोजित कार्यक्रमों और सुशासनों के माध्यम से संचालित करने से ही सरकारी व्यय में कटौती की जा सकती है। परंतु कृषि, शिक्षा, स्वास्थ्य, निर्धनता, निवारण जैसे महत्वपूर्ण क्षेत्रों में सरकार के कार्यक्रमों को रोकने से अर्थव्यवस्था पर प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है। अतः पूर्व निर्धारित स्तरों पर व्यय में वृद्धि नहीं करने के लिए सरकार स्वयं पर प्रतिबंधों का आरोपण करती है। इसके अतिरिक्त सरकार व्यय में कमी करने के लिए जिन क्षेत्रों में कार्यरत है स्वयं को उनमें से कुछ क्षेत्रों से निकाल लेती है। इस प्रकार सार्वजनिक उपक्रमों के शेयरों की बिक्री के द्वारा भी प्राप्तियों में बढ़ोत्तरी करने का एक प्रयास किया जाता है।
प्रश्न 15: वस्तु एवं सेवाकर (GST) से आप क्या समझते हैं? पुरानी कर व्यवस्था के मुकाबले GST व्यवस्था कितनी श्रेष्ठ है? इसकी श्रेणियों की व्याख्या कीजिये।
उत्तर 15: वस्तु एवं सेवाकर (GST) भारत में एक अप्रत्यक्ष कर है, जो वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति पर लगाया जाता है। यह 1 जुलाई 2017 को लागू किया गया था और इसका मुख्य उद्देश्य विभिन्न अप्रत्यक्ष करों को एकीकृत कर एक ही कर व्यवस्था स्थापित करना था। GST एक बहु-स्तरीय कर है जो उत्पादन से लेकर अंतिम उपभोग तक प्रत्येक चरण में लगाया जाता है, लेकिन इसका अंतिम बोझ उपभोक्ता पर ही पड़ता है। इस कर प्रणाली को “गंतव्य आधारित कर” कहा जाता है, क्योंकि यह उपभोग की जगह पर लगाया जाता है, न कि उत्पादन की जगह पर।
पुरानी कर व्यवस्था बनाम GST व्यवस्था: GST से पहले भारत में कई प्रकार के अप्रत्यक्ष कर थे, जो राज्य और केंद्र सरकार द्वारा अलग-अलग स्तर पर लगाए जाते थे। इनमें प्रमुख कर निम्नलिखित थे:
- केन्द्र सरकार के कर: केंद्रीय उत्पाद शुल्क, सेवा कर, अतिरिक्त सीमा शुल्क, विशेष अतिरिक्त सीमा शुल्क।
- राज्य सरकार के कर: मूल्य वर्धित कर (VAT), बिक्री कर, मनोरंजन कर, प्रवेश कर, लक्ज़री कर आदि।
इन करों के कारण करों की कई परतें बन जाती थीं, जिससे व्यापारियों और उपभोक्ताओं पर कर का बोझ अधिक पड़ता था। इस व्यवस्था को सुधारने के लिए GST लागू किया गया, जिससे कई करों को एक ही कर में समाहित कर दिया गया।
GST की श्रेष्ठता पुरानी कर व्यवस्था के मुकाबले: GST पुरानी कर व्यवस्था के मुकाबले कई मायनों में श्रेष्ठ साबित हुई है:
- एकल कर प्रणाली: GST ने कई करों को समाप्त कर एकल कर प्रणाली स्थापित की। इससे कर प्रक्रिया सरल हो गई और व्यापार में सुगमता आई।
- दोहरी कर प्रणाली: GST को केंद्र और राज्यों दोनों के द्वारा एक समान प्रणाली में लागू किया गया है। इससे राज्य और केंद्र सरकारों दोनों को राजस्व मिलता है, जिससे उनके बीच राजस्व का बंटवारा स्पष्ट और सरल हो गया है।
- करों की पारदर्शिता: GST ने अप्रत्यक्ष करों को पारदर्शी बना दिया है क्योंकि यह एक ही कर रिटर्न के माध्यम से दाखिल किया जाता है और हर लेन-देन को डिजिटल रूप से ट्रैक किया जा सकता है।
- कर की समरूपता: विभिन्न राज्यों में अलग-अलग अप्रत्यक्ष करों की दरें होती थीं, लेकिन GST ने देश भर में एक समान कर दरें सुनिश्चित की हैं, जिससे व्यापारियों के लिए व्यापार करना आसान हो गया है।
- दोहरी कराधान की समाप्ति: GST के लागू होने से केंद्र और राज्य दोनों स्तरों पर लगाए जाने वाले करों के दोहरे बोझ को समाप्त कर दिया गया है।
- क्रेडिट की सुगमता: GST में “इनपुट टैक्स क्रेडिट” की व्यवस्था है, जिससे वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति श्रृंखला में दोहराव से बचा जा सकता है। इससे उत्पादन लागत कम हो जाती है और उपभोक्ता को भी कम कीमतों का लाभ मिलता है।
GST की श्रेणियाँ: GST को चार प्रमुख श्रेणियों में बाँटा गया है:
- केन्द्र सरकार के लिए – CGST (Central Goods and Services Tax): यह कर उन वस्तुओं और सेवाओं पर लागू होता है जो एक ही राज्य के भीतर आपूर्ति की जाती हैं। CGST केंद्र सरकार द्वारा वसूला जाता है।
- राज्य सरकार के लिए – SGST (State Goods and Services Tax): यह कर भी उन वस्तुओं और सेवाओं पर लगाया जाता है जो एक राज्य के भीतर ही बेची जाती हैं। इसे राज्य सरकार द्वारा वसूला जाता है।
- अंतर-राज्यीय लेन-देन के लिए – IGST (Integrated Goods and Services Tax): यह कर उन वस्तुओं और सेवाओं पर लागू होता है जो एक राज्य से दूसरे राज्य में बेची जाती हैं। इसे केंद्र सरकार द्वारा वसूला जाता है और फिर राज्यों में बांटा जाता है।
- केंद्र शासित प्रदेशों के लिए – UTGST (Union Territory Goods and Services Tax): यह कर केंद्र शासित प्रदेशों में वस्तुओं और सेवाओं की आपूर्ति पर लगाया जाता है। UTGST केंद्र शासित प्रदेशों में राज्य कर की जगह लेता है।