Sociology Class 12 chapter 3 questions and answers in Hindi सामाजिक संस्थाएँ निरंतरता एवं परिवर्तन

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समाजशास्त्र कक्षा 12 अध्याय 3 प्रश्न और उत्तर: सामाजिक संस्थाएँ निरंतरता एवं परिवर्तन question answer

TextbookNcert
ClassClass 12
Subjectसमाजशास्त्र
ChapterChapter 3
Chapter Nameसामाजिक संस्थाएँ निरंतरता एवं परिवर्तन ncert solutions
CategoryNcert Solutions
MediumHindi

क्या आप Sociology Class 12 chapter 3 questions and answers in Hindi ढूंढ रहे हैं? अब आप यहां से सामाजिक संस्थाएँ निरंतरता एवं परिवर्तन प्रश्न उत्तर Download कर सकते हैं।

प्रश्न 1:  जाति व्यवस्था में पृथक्करण (separation) और अधिक्रम (hierarchy) की क्या भूमिका है?

उत्तर 1: जाति व्यवस्था के सिद्धांतों को दो समुच्चयों के संयोग के रूप में समझा जा सकता है। पहला भिन्नता और अलगाव पर आधारित है और दूसरा संपूर्णता और अधिक्रम पर। प्रत्येक जाति एक-दूसरे से भिन्न है तथा इस पृथकता का कठोरता से पालन किया जाता है। इस तरह के प्रतिबंधों में विवाह, खान-पान तथा सामाजिक अंतर्सबंध से लेकर व्यवसाय तक शामिल हैं।

भिन्न-भिन्न तथा पृथक जातियों का कोई व्यक्तिगत अस्तित्व नहीं है। संपूर्णता में ही उनका अस्तित्व है। यह सामाजिक संपूर्णता समतावादी होने के बजाय अधिक्रमित है। प्रत्येक जाति का समाज में एक विशिष्ट स्थान होने के साथ-साथ एक क्रम सीढ़ी भी होती है। ऊपर से नीचे जाती एक सीढ़ीनुमा व्यवस्था में प्रत्येक जाति का एक विशिष्ट स्थान होता है।

जाति की यह अधिक्रमित व्यवस्था ‘शुद्धता’ तथा ‘अशुद्धता’ के अंतर पर आधारित होती है। वे जातियाँ जिन्हें कर्मकांड की दृष्टि से शुद्ध माना जाता है, उनका स्थान उच्च होता है और जिनको अशुद्ध माना जाता है, उन्हें निम्न स्थान दिया जाता है। इतिहासकारों का मानना है कि युद्ध में पराजित झेने वाले लोगों को निचली जाति में स्थान मिला।

जातियाँ एक-दूसरे से सिर्फ कर्मकांड की दृष्टि से ही असमान नहीं हैं। बल्कि ये एक-दूसरे के पूरक तथा गैरप्रतिस्पर्धी समूह हैं। इसका अर्थ यह है कि प्रत्येक जाति का इस व्यवस्था में अपना एक स्थान है तथा यह स्थान कोई दूसरी जाति नहीं ले सकती। जाति का संबंध व्यवसाय से भी होता है। व्यवस्था श्रम के विभाजन के अनुरूप कार्य करती है। इसमें परिवर्तनशीलता की अनुमति नहीं होती। पृथक्करण तथा अधिक्रम का विचार भारतीय समाज में भेदभाव, असमानता तथा अन्नायमूलक व्यवस्था की तरफ इंगित करता है।

प्रश्न 2: वे कौन से नियम हैं जिनका पालन करने के लिए जाति व्यवस्था बाध्य करती है? कुछ के बारे में बताइए।

उत्तर 2: जाति व्यवस्था के द्वारा समाज पर आरोपित सर्वाधिक सामान्य नियम अग्रलिखित हैं:

  1. जन्म आधारित जाति निर्धारण: जाति का निर्धारण जन्म से होता है। कोई व्यक्ति अपनी जाति को बदल नहीं सकता, छोड़ नहीं सकता, और न ही किसी अन्य जाति को चुन सकता है।
  2. विवाह के कठोर नियम: जाति व्यवस्था विवाह के लिए ‘सजातीय’ नियमों को लागू करती है, जहां व्यक्ति केवल अपनी जाति या उप-जाति में ही विवाह कर सकता है।
  3. खान-पान के नियम: जाति के सदस्यों को विशेष खान-पान के नियमों का पालन करना होता है, जो अक्सर अन्य जातियों से भिन्न होते हैं।
  4. वंशानुगत व्यवसाय: जाति में जन्म लेने वाले व्यक्ति को पारंपरिक रूप से उसी जाति से जुड़े व्यवसाय को अपनाना होता है, क्योंकि व्यवसाय वंशानुगत होता है।
  5. जाति का पदानुक्रम: हर जाति का समाज में एक निश्चित स्थान होता है, और जातियों के बीच एक अधिक्रम (पदानुक्रम) बना रहता है।
  6. खंडात्मक संगठन: जातियों का उप-विभाजन होता है, जिसमें उप-जातियों और कभी-कभी उप-जातियों के भी खंड होते हैं।

प्रश्न 3: उपनिवेशवाद के कारण जाति व्यवस्था में क्या-क्या परिवर्तन आए?

उत्तर 3: उपनिवेशवाद ने भारत की जाति व्यवस्था पर गहरा प्रभाव डाला और इसमें कई बदलाव लाए। मुख्य परिवर्तन निम्नलिखित हैं:

1. जाति व्यवस्था का औपचारिक और कठोर वर्गीकरण

  • ब्रिटिश उपनिवेशवादियों ने जनगणना के दौरान जातियों का दस्तावेजीकरण किया और उन्हें वर्गीकृत किया।
  • इस प्रक्रिया ने जाति व्यवस्था को औपचारिक रूप से कठोर और स्थिर बना दिया।

2. आर्थिक संरचना में बदलाव

  • परंपरागत जाति आधारित व्यवसायों पर असर पड़ा क्योंकि औद्योगिकरण और बाजार अर्थव्यवस्था ने नई नौकरियों और अवसरों को जन्म दिया।
  • कृषि, कुटीर उद्योग, और स्थानीय व्यवसायों का पतन हुआ, जिससे जाति आधारित पेशों की पकड़ कमजोर हो गई।

3. शिक्षा और जाति

  • ब्रिटिश शासन के दौरान अंग्रेजी शिक्षा प्रणाली लागू हुई, जिससे निम्न जातियों के लिए नई शैक्षिक और व्यावसायिक संभावनाएं खुलीं।
  • उच्च जातियों का अंग्रेजी शिक्षा में अधिक दबदबा बना रहा, जिससे उनके लिए नए औपनिवेशिक प्रशासनिक पदों में स्थान सुरक्षित हुआ।

4. कानूनी और सामाजिक सुधार

  • ब्रिटिश शासन ने जाति आधारित भेदभाव को कम करने के लिए कई सुधार लागू किए।
  • सती प्रथा, बाल विवाह, और अस्पृश्यता जैसे सामाजिक मुद्दों पर कानून बनाए गए।

5. जाति और राजनीतिक पहचान

  • उपनिवेशवाद के दौरान जातियों का राजनीतिकरण हुआ। ब्रिटिश प्रशासन ने “फूट डालो और राज करो” नीति के तहत जातिगत विभाजन का उपयोग किया।
  • आरक्षित सीटों और प्रतिनिधित्व की अवधारणा को जन्म दिया, जिससे जाति राजनीति में एक प्रमुख कारक बन गई।

6. धार्मिक और सामाजिक आंदोलनों का उदय

  • इस अवधि में कई सुधारवादी और दलित आंदोलन हुए, जैसे कि ज्योतिबा फुले, सावित्रीबाई फुले और डॉ. भीमराव अंबेडकर द्वारा चलाए गए सामाजिक आंदोलन।
  • इन आंदोलनों ने जातिगत समानता और शिक्षा पर जोर दिया।

7. शहरीकरण और जाति

  • उपनिवेशवाद के दौरान शहरीकरण ने जाति व्यवस्था को कमजोर किया क्योंकि शहरों में जातिगत पहचान और भेदभाव कम प्रभावी रहे।
  • जातियों का पारंपरिक सामाजिक नियंत्रण ग्रामीण क्षेत्रों तक सीमित हो गया।

प्रश्न 4: किन अर्थों में नगरीय उच्च जातियों के लिए जाति अपेक्षाकृत ‘अदृश्य’ हो गई?

उत्तर 4: जाति व्यवस्था में परिवर्तन का सर्वाधिक लाभ शहरी मध्यम वर्ग तथा उच्च वर्ग को मिला। जातिगत अवस्था के कारण इन वर्गों को भरपूर आर्थिक तथा शैक्षणिक संसाधन उपलब्ध हुए तथा तीव्र विकास का लाभ भी उन्होंने पूरा-पूरा उठाया। विशेष तौर से ऊँची जातियों के अभिजात्य लोग आर्थिक सहायता प्राप्त सार्वजनिक शिक्षा, विशेष रूप से विज्ञान, प्रौद्योगिकी, चिकित्सा तथा प्रबंधन के क्षेत्र में, व्यावसायिक शिक्षा से लाभान्वित होने में सफल हुए।

इसके साथ ही, स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद के प्रारंभिक दशकों में राजकीय क्षेत्र की नौकरियों में हुए विस्तार को भी लाभ उठाने में सफल रहे। समाज की अन्य जातियों की तुलना में उनकी उच्च शैक्षणिक स्थिति ने उनकी एक विशेषाधिकार वाली स्थिति प्रदान की। अनुसूचित जाति, जनजाति तथा पिछड़े वर्ग की जातियों के लिए यह परिवर्तन नुकसानदेह साबित हुआ। इससे जाति और अधिक स्पष्ट हो गई। उन्हें विरासत में कोई शैक्षणिक तथा सामाजिक थाती नहीं मिली थी तथा उन्हें पूर्व स्थापित उच्च जातियों से प्रतिस्पर्धा करनी पड़ रही थी। वे अपनी जातीय पहचान को नहीं छोड़ सकते हैं। वे कई प्रकार के भेदभाव के शिकार हैं।

प्रश्न 5: भारत में जनजातियों का वर्गीकरण किस प्रकार किया गया है?

उत्तर 5: भारत में जनजातियों का वर्गीकरण उनके स्थायी तथा अर्जित लक्षणों के आधार पर किया गया है।

जनजातीय समाज का वर्गीकरण

  • अर्जित लक्षण
  • स्थायी लक्षण

1. भाषा के अधर पर वर्गीकरण

  • 1. इंडो-आर्यन: (1% जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)
  • 2. तिब्बती से बर्मन: (80% जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)
  • 3. ऑस्ट्रिक: (पूर्ण रूप से जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)
  • 4. द्रविड़ियन: (3% जनजातियों द्वारा बोली जाने वाली)

2. क्षेत्र के आधार पर वर्गीकरण

  • 1.उत्तर-पूर्व- असम (30%), अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड
  • 2. पारिस्थितिकीय अधिवास के आधार पर- राजस्थान, गुजरात, उड़ीसा, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, महाराष्ट्र, अरुणाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश
  • 3. राज्य की जनसंख्या के अधर पर: उत्तर-पुर (11%), शेष भारत

3. आकर के आधार पर वर्गीकरण 

शारीरिक विशेषताओं के आधार पर वर्गीकरण-

  • 1. आर्य
  • 2. नीग्रिटो, द्रविड़
  • 3. ऑरट्रेलॉइड
  • 4. मंगोलॉइड

4. अर्जित लक्षणों के आधार पर वर्गीकरण

  • 1. आजीविका के साधन
    • झूम खेती करने वाले
    • बागवानी तथा औधोगिक कार्य करने वाले
    • खेतिहर
    • मछुआरे
  • 2. संस्कृतिकरण के द्वारा जनजातियों को हिंदू समाज में आत्मसात् करने तथा शूद्रवर्ण वालों को स्वीकार करने की सीमा। इन लोगों को हिंदू समाज में उनके व्यवहार तथा वित्तीय स्थिति देखकर शामिल किया गया।

आकार की दृष्टि से जनजातियों की संख्या सर्वाधिक 70 लाख है, जबकि सबसे छोटी जनजातियों की संख्या अंडमान निकोबार द्वीप समूह में 100 व्यक्तियों से भी कम है। सबसे बड़ी जनजातियाँ गोंड, भील, संथाल, ओराँव, मीना, बोडो और मुंडा हैं, इनमें से सभी की जनसंख्या कम-से-कम 10 लाख है।

प्रश्न 6: “जनजातियाँ आदिम समुदाय हैं जो सभ्यता से अछूते रहकर अपना अलग-थलग जीवन व्यतीत करते हैं, इस दृष्टिकोण के विपक्ष में आप क्या साक्ष्य प्रस्तुत करना चाहेंगे?

उत्तर 6: यह मानने का कोई कारण नहीं है कि जनजातियाँ विश्व के शेष हिस्सों से कटी रही हैं तथा सदा से समाज का एक दबा-कुचला हिस्सा रही हैं। इस कथन के पीछे निम्नलिखित कारण दिए जा सकते हैं:

  • मध्य भारत में अनेक गोंड राज्य रहे हैं; जैसे – गढ़ मांडला या चाँद।
  • मध्यवर्ती तथा पश्चिमी भारत के तथाकथित राजपूत राज्यों में से अनेक रजवाड़े वास्तव में स्वयं आदिवासी समुदायों में स्तरीकरण की प्रक्रिया के माध्यम से ही उत्पन्न हुए।
  • आदिवासी लोग अकसर अपनी आक्रामकता तथा स्थानीय लड़ाकू दलों से मिलीभगत के कारण मैदानी इलाकों के लोगों पर अपना प्रभुत्व कायम करते हैं।
  • इसके अतिरिक्त कुछ विशेष प्रकार के व्यापार पर भी उनका अधिकार था; जैसे- वन्य उत्पाद, नमक और हाथियों का विक्रय।

जनजातियों को एक आदिम समुदाय के रूप में प्रमाणित करने वाले तथ्य:

  • सामान्य लोगों की तरह जनजातियों का कोई अपना राज्य अथवा राजनीतिक पद्धति नहीं है।
  • उनके समाज में कोई लिखित धार्मिक कानून भी नहीं है।
  • न तो वे हिंदू हैं न ही खेतिहर।
  • प्रारंभिक रूप से वे खाद्य संग्रहण, मछली पकड़ने, शिकार, कृषि इत्यादि गतिविधियों में संलिप्त रहे हैं।
  • जनजातियों का निवास घने जंगलों तथा पहाड़ी क्षेत्रों में होता है।

प्रश्न 7: आज जनजातीय पहचानों के लिए जो दावा किया जा रहा है, उसके पीछे क्या कारण है?

उत्तर 7:

  • जनजातीय समुदायों का मुख्यधारा की प्रक्रिया में बलात् समावेश को प्रभाव जनजातीय संस्कृति तथा समाज पर ही नहीं, अर्थव्यवस्था पर भी पड़ा है। आज जनजातीय पहचान का निर्माण अंत:क्रिया की प्रक्रियाओं द्वारा हो रहा है।
  • अंत:क्रिया की प्रक्रिया का जनजातियों के अनुकूल नहीं होने के कारण आज अनेक जनजातियाँ गैरजनजातीय जगत् की प्रचंड शक्तियों के प्रतिरोध की विचारधारा पर आधारित हैं।
  • झारखंड तथा छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों के गठन के कारण जो सकारात्मक असर पड़ा, वह सतत् समस्याओं के कारण नष्ट हो गया। पूर्वोत्तर राज्यों के बहुत से नागरिक एक विशेष कानून के अंतर्गत रह रहे हैं, जिसमें उनके नागरिक अधिकारों को सीमित कर दिया गया है। समस्त विद्रोह के दमन । के लिए सरकार द्वारा उठाए गए कठोर कदम तथा फिर उनसे भड़के विद्रोहों के दुष्चक्र ने पूर्वोत्तर राज्यों की अर्थव्यवस्था, संस्कृति और समाज को भारी हानि पहुँचाई है।
  • शनैः-शनैः उभरते हुए शिक्षित मध्यम वर्ग ने आरक्षण की नीतियों के साथ मिलकर एक नगरीकृत व्यावसायिक वर्ग का निर्माण किया है, क्योंकि जनजातीय समाज में विभेदीकरण तेजी से बढ़ रहा है, विकसित तथा अन्य के बीच विभाजन भी बढ़ रहा है। जनजातीय पहचान के नवीनतम आधार विकसित हो रहे हैं।
  • इन मुद्दों को हम दो प्रकार से वर्गीकृत कर सकते हैं। पहला भूमि तथा जंगल जैसे महत्त्वपूर्ण आर्थिक संसाधनों पर नियंत्रण से संबंधित है, दूसरा मुद्दा जातीय संस्कृति की पहचान को लेकर है।

प्रश्न 8: परिवार के विभिन्न रूप क्या हो सकते हैं?

उत्तर 8: परिवार एक महत्त्वपूर्ण सामाजिक संस्था है। चाहे वो एकल परिवार हो अथवा विस्तारित, यह कार्य निष्पादन का स्थान है। हाल के दिनों में परिवार की संरचना में काफी परिवर्तन हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, सॉफ्टवेयर उद्योग में कार्य कर रहे लोग जब कार्य समय के कारण बच्चों की देखरेख नहीं कर पाते हैं, तो दादा-दादी, नाना-नानी को बच्चों की देखभाल करनी पड़ती है। परिवार का मुखिया स्त्री अथवा पुरुष हो सकते हैं। बेहतर की खोज माता या पिता ही कर सकते हैं। परिवार के गठन की यह संरचना आर्थिक, राजनीतिक, सांस्कृतिक तथा शैक्षिक जैसे बहुत सारे कारकों पर निर्भर करती है।

आज जो हम परिवार की संरचना में परिवर्तन देखते हैं, उसका कारण है :

  1. समलैंगिक विवाह
  2. प्रेम विवाह
  • एकल परिवार- इसमें माता-पिता तथा उनके बच्चे शामिल होते हैं।
  • विस्तारित परिवार- इसमें एक से अधिक दंपति होते हैं। तथा अकसर दो से अधिक पीढ़ियों के लोग एक साथ रहते हैं। विस्तृत परिवार भारतीय होने का सूचक है।

परिवार के विविध रूप-

  • मातृवंशीय तथा पितृवंशीय (उत्तराधिकार के नियमों के आधार पर)
  • मातृवंशीय-पितृवंशीय (निवास के आधार पर)
  • मातृसत्तात्मक तथा पितृसत्तात्मक (अधिकार के आधार पर)

प्रश्न 9: सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में किस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं?

उत्तर 9: सामाजिक संरचना में होने वाले परिवर्तन पारिवारिक संरचना में इस प्रकार परिवर्तन ला सकते हैं:

1. आर्थिक परिवर्तन और पारिवारिक संरचना

  • आर्थिक अवसरों में बदलाव, जैसे शहरीकरण, औद्योगिकीकरण, और वैश्वीकरण, परिवार की संरचना पर गहरा प्रभाव डालते हैं।
  • उदाहरण: सॉफ्टवेयर उद्योग में काम करने वाले युवा माता-पिता बच्चों की देखभाल के लिए दादा-दादी पर निर्भर हो सकते हैं, जिससे संयुक्त परिवार के पुनर्गठन की संभावना बढ़ जाती है।

2. आधुनिकता और व्यक्तिगत स्वतंत्रता

  • आधुनिकता और विचारों के खुलेपन के कारण लोग व्यक्तिगत जीवनशैली और साथी के चुनाव में अधिक स्वतंत्र हो रहे हैं।
  • परिणाम: नाभिकीय परिवारों और एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि।

3. शिक्षा और सांस्कृतिक बदलाव

  • शिक्षा के प्रसार और सांस्कृतिक बदलावों के कारण पारंपरिक मान्यताओं और रीति-रिवाजों में कमी आई है।
  • उदाहरण: अंतर्जातीय और अंतर्धार्मिक विवाहों की स्वीकार्यता बढ़ रही है, जिससे परिवार के गठन के पारंपरिक नियमों में बदलाव हो रहा है।

4. युद्ध, दंगे और प्रवासन

  • युद्ध, दंगे या प्रवासन के कारण परिवार की संरचना में अप्रत्याशित बदलाव होते हैं।
  • परिणाम: सुरक्षा कारणों से लोग काम की तलाश में स्थान बदलते हैं, जिससे परिवार बिखर सकते हैं या नए प्रकार के परिवार गठित हो सकते हैं।

5. महिलाओं की भूमिका में बदलाव

  • महिलाओं की शिक्षा और कार्यबल में भागीदारी ने परिवार में उनकी भूमिका को बदला है।
  • परिणाम: पारंपरिक भूमिका में कमी और घर के कार्यों और जिम्मेदारियों का पुनर्वितरण।

6. प्रौद्योगिकी का प्रभाव

  • प्रौद्योगिकी और डिजिटल युग ने परिवार के भीतर संचार और रिश्तों को प्रभावित किया है।
  • उदाहरण: वर्चुअल प्लेटफॉर्म पर परिवारों के बीच संपर्क बनाए रखना।

7. संयुक्त परिवार से नाभिकीय परिवार की ओर प्रवृत्ति

  • शहरीकरण और स्थानांतरण के कारण पारंपरिक संयुक्त परिवारों की जगह नाभिकीय परिवार ले रहे हैं।
  • परिणाम: पारिवारिक समर्थन में कमी और व्यक्तिगत स्वतंत्रता में वृद्धि।

8. वृद्धजनों की भूमिका में परिवर्तन

  • जब युवा कामकाजी पीढ़ी बाहर जाती है, तो दादा-दादी बच्चों की देखभाल में अधिक सक्रिय भूमिका निभाते हैं।
  • परिणाम: पीढ़ियों के बीच संबंधों का पुनर्संयोजन।

प्रश्न 10: मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarchy) में क्या अंतर है? व्याख्या कीजिए।

उत्तर 10: मातृवंश (Matriliny) और मातृतंत्र (Matriarchy) के बीच अंतर मुख्य रूप से उनके उद्देश्य, संरचना, और कार्य प्रणाली में निहित है। दोनों ही माताओं के महत्व को स्वीकार करते हैं, लेकिन इनके संदर्भ और प्रभाव अलग-अलग हैं।

1. मातृवंश (Matriliny)

  • अर्थ: मातृवंश का तात्पर्य वंश परंपरा और उत्तराधिकार के मातृ पक्ष (माँ की ओर) से निर्धारण से है। इसमें संपत्ति, नाम, और सामाजिक पहचान माँ की ओर से संचारित होती है।
  • मुख्य विशेषताएँ:
    • संपत्ति और पद का स्थानांतरण माँ की ओर से होता है।
    • बच्चे की पहचान उसके माँ के परिवार से जुड़ी होती है।
    • पुरुष परिवार में निर्णय लेने की भूमिका में हो सकते हैं, लेकिन वंशानुगत अधिकार माँ के माध्यम से चलते हैं।
    • उदाहरण: भारत के मेघालय में खासी और गारो जनजातियाँ मातृवंशीय समाज का अनुसरण करती हैं।
  • प्रभाव: यह समाज में महिला की स्थिति को मजबूत कर सकता है।

2. मातृतंत्र (Matriarchy)

  • अर्थ: मातृतंत्र का तात्पर्य एक ऐसे सामाजिक व्यवस्था से है, जिसमें महिलाओं, विशेषकर माताओं, का प्रमुखता से शासन या सत्ता होती है। इसमें महिलाएँ न केवल वंश निर्धारण बल्कि राजनीतिक, आर्थिक, और सामाजिक निर्णय लेने में भी सर्वोपरि होती हैं।
  • मुख्य विशेषताएँ:
    • सत्ता और नेतृत्व महिलाओं के पास होता है।
    • सामाजिक, आर्थिक, और धार्मिक संस्थाएँ महिलाओं द्वारा नियंत्रित होती हैं।
    • परिवार और समुदाय की प्रमुख महिलाएँ होती हैं।
    • उदाहरण: ऐतिहासिक रूप से कुछ आदिवासी और प्राचीन समाजों में मातृतंत्र के उदाहरण देखे गए हैं, हालांकि आज यह प्रणाली लगभग समाप्त हो चुकी है।
  • प्रभाव: यह महिलाओं को सामाजिक, आर्थिक, और राजनीतिक शक्ति प्रदान करता है और समाज में लिंग आधारित असमानता को कम करता है।

मातृवंश और मातृतंत्र के बीच मुख्य अंतर

पहलूमातृवंश (Matriliny)मातृतंत्र (Matriarchy)
अर्थवंश और उत्तराधिकार माँ के माध्यम से चलता है।महिलाओं का शासन और सत्ता का वर्चस्व।
सत्ता और नियंत्रणपुरुष अक्सर सत्ता में रहते हैं।महिलाओं के पास प्रमुख सत्ता और नियंत्रण होता है।
सामाजिक संरचनावंशानुगत प्रणाली पर आधारित।शासन और निर्णय लेने की प्रणाली।
उदाहरणखासी और गारो जनजातियाँ।ऐतिहासिक मातृतंत्री समाज।
समकालीन प्रासंगिकताआज भी कुछ समाजों में प्रचलित।लगभग अप्रचलित।

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