समाजशास्त्र कक्षा 12 अध्याय 6 प्रश्न और उत्तर: सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ question answer
Textbook | Ncert |
Class | Class 12 |
Subject | समाजशास्त्र |
Chapter | Chapter 6 |
Chapter Name | सांस्कृतिक विविधता की चुनौतियाँ ncert solutions |
Category | Ncert Solutions |
Medium | Hindi |
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प्रश्न 1: सांस्कृतिक विविधता का क्या अर्थ है? भारत को एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश क्यों कहा जाता है?
उत्तर 1: सांस्कृतिक विविधता का अर्थ: सांस्कृतिक विविधता का तात्पर्य समाज में विभिन्न संस्कृतियों, परंपराओं, भाषाओं, धर्मों, रीति-रिवाजों और जीवनशैलियों की मौजूदगी से है। यह एक समुदाय या देश में भिन्न-भिन्न सांस्कृतिक विशेषताओं का समावेश है। सांस्कृतिक विविधता यह दर्शाती है कि एक समाज में कई प्रकार की सांस्कृतिक पहचान एक साथ सह-अस्तित्व कर सकती हैं और एक-दूसरे को समृद्ध बना सकती हैं।
भारत को एक अत्यंत विविधतापूर्ण देश माना जाता है क्योंकि:
1. भाषाई विविधता: भारत में 22 आधिकारिक भाषाएँ और 1600 से अधिक भाषाएँ व बोलियाँ बोली जाती हैं। हिंदी, बांग्ला, तमिल, पंजाबी, उर्दू, तेलुगु आदि यहाँ की प्रमुख भाषाएँ हैं।
2. धार्मिक विविधता: भारत में हिंदू, मुस्लिम, सिख, ईसाई, बौद्ध, जैन, पारसी और अन्य धर्मों के अनुयायी एक साथ रहते हैं। यह विभिन्न धर्मों का उद्गम स्थल भी है।
3. भोजन और पहनावा: देश के विभिन्न हिस्सों में खान-पान और पहनावे में भारी विविधता है। उत्तर भारत में तंदूरी और पंजाबी भोजन, दक्षिण भारत में इडली-डोसा, पूर्व में मोमोज और पश्चिम में गुजराती थाली का स्वाद लिया जाता है।
4. रीति-रिवाज और परंपराएँ: विभिन्न समुदायों के अलग-अलग रीति-रिवाज हैं। शादी, त्यौहार और उत्सव मनाने के तरीके क्षेत्रीय और सांस्कृतिक विविधता को दर्शाते हैं।
5. त्यौहार: भारत में दीपावली, ईद, क्रिसमस, गुरुपुरब, होली, पोंगल, बिहू और नवरात्रि जैसे त्योहार मनाए जाते हैं, जो इसकी सांस्कृतिक विविधता का प्रमाण हैं।
6. भौगोलिक विविधता: यहाँ की भौगोलिक स्थिति भी विविधतापूर्ण है। हिमालय, रेगिस्तान, समुद्र तट, मैदान, और घने जंगल-भारत के विभिन्न हिस्सों की भौगोलिक विशेषताओं में भी विविधता है।
प्रश्न 2: सामुदायिक पहचान क्या होती है और वह कैसे बनती है?
उत्तर 2: सामुदायिक पहचान जन्म से सम्बन्धित होने के भाव पर आधारित होती है न कि किसी अर्जित योग्यता अथवा प्रस्थिति की उपलब्धि के आधार पर। यह ‘हम क्या हैं’ इस भाव का परिचायक होती है न कि इस भाव का परिचायक है कि ‘हम क्या बन गये हैं। किसी भी समुदाय में जन्म लेने के लिए हमें कुछ भी नहीं करना पड़ता है।
सत्य तो यही है कि किसी परिवार, समुदाय अथवा देश में उत्पन्न होने अथवा जन्म लेने पर हमारा कोई वश नहीं होता है। इस प्रकार की पहचानों को प्रदत्त पहचान के रूप में जाना जाता है। दूसरे शब्दों में, प्रदत्त पहचान व्यक्ति के जन्म पर आधारित होती है और जन्म से निश्चित होती है। सम्बन्धित लोगों की पसन्द अथवा नापसन्द इसके साथ जुड़ी नहीं होती है।
प्रश्न 3: राष्ट्र को परिभाषित करना क्यों कठिन है? आधुनिक समाज में राष्ट्र और राज्य कैसे संबंधित हैं?
उत्तर 3: राष्ट्र को परिभाषित करना कठिन है क्योंकि यह एक जटिल सामाजिक, सांस्कृतिक, ऐतिहासिक और राजनीतिक अवधारणा है। राष्ट्र केवल भौगोलिक सीमाओं से परिभाषित नहीं होता, बल्कि इसमें लोगों की साझा पहचान, संस्कृति, भाषा, धर्म, परंपराएँ, और ऐतिहासिक अनुभव शामिल होते हैं।
अलग-अलग समाजों और विचारधाराओं में राष्ट्र की परिभाषा अलग हो सकती है। कुछ विचारधाराएँ इसे सांस्कृतिक और भावनात्मक संबंधों पर आधारित मानती हैं, तो कुछ इसे राजनीतिक और भौगोलिक संदर्भों से जोड़कर देखती हैं। यह विविधताएँ राष्ट्र की एक स्पष्ट और सर्वमान्य परिभाषा बनाने में बाधा उत्पन्न करती हैं।
आधुनिक समाज में राष्ट्र और राज्य का संबंध घनिष्ठ लेकिन भिन्न है। राज्य एक राजनीतिक इकाई है, जिसमें एक सीमांकित क्षेत्र, सरकार, और संप्रभुता होती है, जबकि राष्ट्र सांस्कृतिक और भावनात्मक जुड़ाव से निर्मित होता है। कई बार एक राज्य में एक से अधिक राष्ट्र होते हैं, जैसे भारत में विभिन्न भाषाई और सांस्कृतिक समुदाय। वहीं, कभी-कभी एक ही राष्ट्र के लोग विभिन्न राज्यों में विभाजित होते हैं, जैसे कोरिया। आधुनिक समाज में राष्ट्र और राज्य का संतुलन सामाजिक एकता, राजनीतिक स्थिरता, और वैश्विक संबंधों को प्रभावित करता है।
प्रश्न 4: राज्य अक्सर सांस्कृतिक विविधता के बारे में शंकालु क्यों होते हैं?
उत्तर 4: राज्यों ने अपने राष्ट्र निर्माण की रणनीतियों के माध्यम से अपनी राजनीतिक वैधता को स्थापित करने के प्रयास किए हैं।
- उन्होंने आत्मसातकरण और एकीकरण की नीतियों के जरिए अपने नागरिकों की निष्ठा तथा आज्ञाकारिता प्राप्त करने के प्रयास किए हैं।
- ऐसा इसलिए था क्योंकि अधिकांश राज्य ऐसा मानते थे कि सांस्कृतिक विविधता खतरनाक है। तथा उन्होंने इसे खत्म करने अथवा कम करने का पूरा प्रयास किया। अधिकांश राज्यों को यह डर था। कि सांस्कृतिक विविधता जैसे भाषा, नृजातीयता, धार्मिकता इत्यादि की मान्यता प्रदान किए जाने से सामाजिक विखंडन की स्थिति उत्पन्न की जाएगी और समरसतापूर्ण समाज के निर्माण में बाधा आएगी।
- इसके अतिरिक्त इस प्रकार के अंतरों को समायोजित | करना राजनीतिक दृष्टि से चुनौतीपूर्ण होता है।
- इस प्रकार से अनेक राज्यों ने इन विविध पहचानों को राजनीतिक स्तर पर दबाया या नजरअंदाज किया।
प्रश्न 5: क्षेत्रवाद क्या होता है? आमतौर पर यह किन कारकों पर आधारित होता है?
उत्तर 5: क्षेत्रवाद का तात्पर्य किसी विशेष भौगोलिक क्षेत्र या स्थान के प्रति गहरी निष्ठा और प्राथमिकता से है, जो अक्सर अन्य क्षेत्रों के प्रति असमानता या विरोध की भावना पैदा करता है। यह आमतौर पर क्षेत्र विशेष की सांस्कृतिक, भाषाई, ऐतिहासिक, या आर्थिक विशिष्टताओं पर आधारित होता है। क्षेत्रवाद उस समय उभरता है जब लोगों को लगता है कि उनके क्षेत्र की पहचान, अधिकार, या संसाधनों की उपेक्षा हो रही है, या उन्हें राष्ट्रीय या अन्य क्षेत्रों के हितों के अधीन रखा जा रहा है।
यह भावना रोजगार, शिक्षा, संसाधनों के वितरण, या राजनीतिक प्रतिनिधित्व में असमानता के कारण भी उत्पन्न हो सकती है। क्षेत्रवाद के पीछे सामाजिक-आर्थिक असमानताएँ, सांस्कृतिक भिन्नताएँ, और ऐतिहासिक कारण भी प्रमुख भूमिका निभाते हैं। यह कभी-कभी समाज में विभाजन और संघर्ष का कारण बन सकता है, लेकिन संतुलित दृष्टिकोण अपनाने से इसे क्षेत्रीय विकास और पहचान को मजबूत करने के लिए सकारात्मक रूप में भी उपयोग किया जा सकता है।
प्रश्न 6: आपकी राय में, राज्यों के भाषाई पुनर्गठन ने भारत का हित या अहित किया है?
उत्तर 6:
- धर्म ही नहीं बल्कि भाषा ने क्षेत्रीय तथा जनजातीय पहचान के साथ मिलकर भारत में नृजातीय-राष्ट्रीय पहचान बनाने के लिए एक अत्यंत सशक्त माध्यम का काम किया। भाषा के कारण संवाद सुगम बना तथा प्रशासन और अधिक प्रभावकारी हो पाया।
- मद्रास प्रेसीडेंसी मद्रास, केरल तथा मैसूर राज्यों में विभाजित हो गया। राज्य पुनर्गठन आयोग (SRC) की रिपोर्ट, जिसका कि क्रियान्वयन 1 नवंबर, 1956 में किया गया – ने राष्ट्र को राजनीतिक तथा संस्थागत जीवन की एक नई दिशा दी।
- केन्नड़ और भारतीय, बंगाली और भारतीय, तमिल और भारतीय, गुजराती और भारतीय के रूप में देश में एकात्मकता बनी रही।
- सन् 1953 में पोट्टि श्रीमुलु की अनशन के कार मृत्यु हो जाने के पश्चात् हिंसा भड़क उठी। तत्पश्चात् आंध्र प्रदेश राज्य का गठन हुआ। इसके कारण ही राज्य पुनर्गठन आयोग की स्थापना करनी पड़ी जिसने 1956 में भाषा आधारित सिद्धांत के अनुमोदन पर औपचारिक रूप से अंतिम मोहर लगा दी। भाषा पर आधारित राज्य कभी-कभी आपस में लड़ते-भिड़ते हैं। यद्यपि इस तरह के विवाद अच्छे नहीं होते, किंतु ये और भी खराब हो सकते थे। वर्तमान में 29 राज्य (संघीय इकाई) तथा 7 केंद्रशासित प्रदेश भारतीय राष्ट्र-राज्य में विद्यमान हैं।
प्रश्न 7: ‘अल्पसंख्यक’ (वर्ग) क्या होता है? अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की क्यों ज़रूरत होती है?
उत्तर 7: अल्पसंख्यक वर्ग से तात्पर्य समाज के उन समूहों से है, जो संख्या, शक्ति, या प्रभाव के मामले में बहुसंख्यक समूहों से कम होते हैं। यह वर्ग जाति, धर्म, भाषा, संस्कृति, या अन्य सामाजिक विशेषताओं के आधार पर भिन्न हो सकता है। उदाहरण के लिए, भारत में मुस्लिम, सिख, बौद्ध, ईसाई, और पारसी जैसे धार्मिक समुदाय अल्पसंख्यक माने जाते हैं।
अल्पसंख्यक वर्गों को राज्य से संरक्षण की आवश्यकता कई कारणों से होती है:
- समानता की गारंटी: अल्पसंख्यक वर्गों को यह सुनिश्चित करने के लिए संरक्षण की आवश्यकता होती है कि उनके साथ भेदभाव न हो और उन्हें सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक अधिकारों में बराबरी का अवसर मिले।
- संस्कृति और पहचान की सुरक्षा: अल्पसंख्यक समूहों की अपनी विशिष्ट भाषाएँ, परंपराएँ, और रीति-रिवाज होते हैं। बहुसंख्यक प्रभाव के कारण उनकी संस्कृति और पहचान के विलुप्त होने का खतरा रहता है।
- शिक्षा और रोजगार में अवसर: कई बार अल्पसंख्यक वर्ग शिक्षा और रोजगार के क्षेत्र में पिछड़े रह जाते हैं। राज्य उन्हें विशेष योजनाओं और आरक्षण के माध्यम से अवसर प्रदान करता है।
- सामाजिक समरसता: अल्पसंख्यकों को संरक्षण देकर समाज में समानता और समरसता बनाए रखना संभव होता है, जिससे सामाजिक टकराव और असंतोष को कम किया जा सके।
- राजनीतिक प्रतिनिधित्व: अल्पसंख्यक वर्गों को अक्सर राजनीति में पर्याप्त प्रतिनिधित्व नहीं मिलता। राज्य विशेष उपायों के माध्यम से उनकी भागीदारी सुनिश्चित करता है।
- धार्मिक स्वतंत्रता की रक्षा: अल्पसंख्यकों को अपने धर्म का पालन करने और प्रचार करने की स्वतंत्रता की गारंटी संविधान द्वारा दी जाती है। संरक्षण उनके धार्मिक अधिकारों की रक्षा करता है।
- सामाजिक भेदभाव और उत्पीड़न से बचाव: ऐतिहासिक और सामाजिक परिस्थितियों के कारण अल्पसंख्यक वर्ग अक्सर भेदभाव और उत्पीड़न का शिकार होते हैं। राज्य उनके अधिकारों की रक्षा कर समानता स्थापित करने का प्रयास करता है।
प्रश्न 8: सांप्रदायवाद या सांप्रदायिकता क्या है?
उत्तर 8: सांप्रदायवाद या सांप्रदायिकता एक सामाजिक और राजनीतिक विचारधारा है, जिसमें धर्म या समुदाय को प्राथमिकता देते हुए अन्य धर्मों या समुदायों के प्रति विरोध, असहिष्णुता, और भेदभाव की भावना विकसित होती है। यह धार्मिक या सांप्रदायिक पहचान को इस हद तक बढ़ावा देता है कि यह राष्ट्रीय एकता, सामाजिक समरसता, और लोकतांत्रिक मूल्यों को प्रभावित करता है। सांप्रदायिकता का मुख्य उद्देश्य धर्म के आधार पर समाज को विभाजित करना होता है, जो कभी-कभी दंगों, हिंसा, और राजनीतिक अस्थिरता का कारण बनती है।
सांप्रदायिकता का उदय प्रायः राजनैतिक हितों, धार्मिक कट्टरता, ऐतिहासिक तनाव, और सामाजिक असमानताओं के परिणामस्वरूप होता है। यह किसी देश के विकास, सामाजिक सौहार्द, और भाईचारे के लिए एक बड़ी चुनौती बन जाती है। एक प्रगतिशील समाज के लिए यह आवश्यक है कि सांप्रदायिकता को समाप्त करने के लिए धर्मनिरपेक्षता, शिक्षा, और आपसी संवाद को बढ़ावा दिया जाए।
प्रश्न 9: भारत में वह विभिन्न भाव (अर्थ) कौन से हैं, जिनमें धर्मनिरपेक्षता या धर्मनिरपेक्षतावाद को समझा जाता है?
उत्तर 9:
- भारत में धर्मनिरपेक्षतावाद से तात्पर्य यह है कि राज्य किसी भी धर्म का समर्थन नहीं करेगा। यह सभी धर्मों को समान रूप से आदर प्रदान करता है। यह धर्मों से दूरी बनाए रखने का भाव प्रदर्शित नहीं करता।
- पश्चिमी देशों में धर्मनिरपेक्षतावाद का अर्थ चर्च तथा राज्य के बीच अलगाव से लिया जाता है। यह सार्वजनिक जीवन से धर्म को अलग करने का एक प्रगतिशील कदम माना जाता है, क्योंकि धर्म का एक अनिवार्य दायित्व के बजाय स्वैच्छिक व्यक्तिगत व्यवहार के रूप में बदल दिया गया।
- धर्मनिरपेक्षीकरण स्वयं आधुनिकता के आगमन और विश्व को समझने के धार्मिक तरीकों के विकल्प के रूप में विज्ञान और तर्कशक्ति के उदय से संबंधित था।
- कठिनाई तथा तनाव की स्थिति तब पैदा हो जाती है, जबकि पाश्चात्य राज्य सभी धर्मों से दूरी बनाए रखने के पक्षधर हैं, जबकि भारतीय राज्य सभी धर्मों को समान रूप से आदर देने के पक्षधर हैं।
प्रश्न 10: आज नागरिक समाज संगठनों की क्या प्रासंगिकता है?
उत्तर 10: आज नागरिक समाज संगठनों की प्रासंगिकता अत्यधिक महत्वपूर्ण है, क्योंकि ये संगठन लोकतंत्र को सशक्त बनाने और सामाजिक न्याय सुनिश्चित करने में अहम भूमिका निभाते हैं। ये संगठन वंचित और कमजोर वर्गों की आवाज़ बनकर सरकार और प्रशासन को उनकी समस्याओं की ओर ध्यान केंद्रित करने के लिए प्रेरित करते हैं। नागरिक समाज संगठन मानवाधिकारों की रक्षा, पर्यावरण संरक्षण, महिला सशक्तिकरण, शिक्षा और स्वास्थ्य जैसे विभिन्न क्षेत्रों में काम करते हैं।
ये न केवल सामाजिक असमानताओं को कम करने का प्रयास करते हैं, बल्कि नागरिकों को उनके अधिकारों और कर्तव्यों के प्रति जागरूक भी बनाते हैं। इसके अतिरिक्त, ये संगठन नीतिगत सुधारों के लिए जनमत तैयार करने में भी सहायक होते हैं। वर्तमान समय में, जब समाज अनेक चुनौतियों का सामना कर रहा है, नागरिक समाज संगठनों की भूमिका और भी महत्वपूर्ण हो जाती है, क्योंकि वे शासन व्यवस्था में पारदर्शिता, जवाबदेही और समावेशिता सुनिश्चित करने का माध्यम बनते हैं।