Class 12 History Chapter 15 संविधान का निर्माण Notes in hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 15 |
Chapter Name | संविधान का निर्माण |
Category | Class 12 History |
Medium | Hindi |
Class 12 History Class 15 संविधान का निर्माण Notes In Hindi इस अध्याय मे हम भारतीय संविधान के बारे में विस्तार से पड़ेगे ।
संविधान की परिभाषा : –
🔹 किसी भी देश को चलाने के लिए कुछ नियमों तथा कानूनों की आवश्यकता होती है जिससे कि शांतिपूर्ण व नियंत्रित तरीके से सभी कार्यों को किया जा सकें। सामान्यतः इन्हीं नियमों व कानूनों के संकलन को संविधान कहते हैं । संविधान उन नियमों या कानूनों का समूह है जो राज्य की सरकार के गठन, शक्तियों, कर्तव्यों तथा अधिकारों को निश्चित करता है।
🔹 जॉन ऑस्टिन के अनुसार, “जो सर्वोच्च शासन की संरचना को नियमित करता है संविधान कहलाता है।”
भारतीय संविधान : –
🔹 भारतीय संविधान 26 जनवरी, 1950 को लागू हुआ। यह विश्व का सबसे लम्बा लिखित संविधान है।
🔹 भारतीय संविधान को 9 दिसम्बर, 1946 से 28 नवम्बर 1949 के बीच सूत्रबद्ध किया गया । संविधान सभा के कुल 11 सत्र हुए जिनमें 165 बैठकें हुईं। लगभग तीन वर्ष तक चली बहस के पश्चात् संविधान पर 26 नवम्बर, 1949 को हस्ताक्षर किए गए।
🔹 भारतीय संविधान लगभग 2 साल 11 महीने और 18 दिन में बनकर तैयार हुआ । एव इसे बनाने हेतु लगभग 64 लाख का खर्चा किया गया ।
🔹 भारतीय संविधान में भारतीय शासन व्यवस्था, राज्य और केंद्र के संबंधों एवं राज्य के मुख्य अंगो के कार्यों का वर्णन किया गया है ।
🔹 भारतीय संविधान का निर्माण देश निर्माण के सबसे महत्वपूर्ण कार्य में से एक था भारतीय संविधान का निर्माण जवाहरलाल नेहरू, सरदार वल्लभभाई पटेल, डॉक्टर भीमराव अंबेडकर जैसे बड़े – बड़े नेताओं द्वारा किया गया था ।
🔹 भारतीय संविधान में समय-समय पर आवश्यकतानुसार संशोधन करने का प्रावधान है। वर्तमान में भारतीय संविधान में 470 अनुच्छेद, तथा 12 अनुसूचियाँ हैं और ये 25 भाग हैं। भारत के संविधान का स्रोत भारतीय जनता है।
भारतीय संविधान की कुछ प्रमुख विशेषताएँ : –
- यह लिखित, निर्मित एवं विश्व का विशालतम संविधान है।
- संविधान की प्रस्तावना में प्रभुत्व सम्पन्न, लोकतंत्रात्मक, पन्थनिरपेक्ष एवं समाजवादी गणराज्य की स्थापना की बात कही गई है।
- संविधान द्वारा भारत में संसदीय शासन प्रणाली की स्थापना की गई है।
- राज्य के लिए नीति-निर्देशक तत्वों का समावेश किया है।
- नागरिकों के मूल अधिकार एवं कर्त्तव्यों को दिया गया है।
- भारतीय संविधान लचीलेपन एवं कठोरता का अद्भुत मिश्रण है।
- वयस्क मताधिकार का प्रावधान किया गया है।
- एकल नागरिकता का प्रावधान किया गया है।
- स्वतन्त्र न्यायपालिका की स्थापना की गई है।
- भारत के एक कल्याणकारी राज्य की स्थापना की बात की गई है।
उथल पुथल का दौर : –
🔹 संविधान निर्माण से पहले के वर्ष बहुत अधिक उथल-पुथल वाले थे। 15 अगस्त, 1947 को अंग्रेजों द्वारा भारत को स्वतन्त्र तो कर दिया गया, किन्तु इसके साथ ही इसे विभाजित भी कर दिया गया।
🔸 आन्दोलनो का दौर : –
🔹 लोगों की स्मृति में 1942 ई. का भारत छोड़ो आन्दोलन, विदेशी सहायता से सशस्त्र संघर्ष के द्वारा स्वतंत्रता प्राप्ति के सुभाष चन्द्र बोस के प्रयास तथा बम्बई और अन्य शहरों में 1946 के वसंत में शाही भारतीय सेना (रॉयल इंडियन नेवी) के सिपाहियों का विद्रोह अभी भी जीवित थे।
🔹 1940 के दशक के अंतिम वर्षों में मजदूर व किसान भी देश के विभिन्न हिस्सों में आन्दोलन कर रहे थे।
🔹 व्यापक हिन्दू-मुस्लिम एकता इन जन आन्दोलनों का एक प्रमुख पक्ष था। इसके विपरीत कांग्रेस व मुस्लिम लीग जैसे राजनीतिक दल धार्मिक सौहार्द्र व सामाजिक सामंजस्य स्थापित करने के लिए लोगों को समझाने के प्रयासों में असफल होते जा रहे थे।
🔸 देश का विभाजन : –
🔹 अगस्त, 1946 में कलकत्ता से प्रारम्भ हुई हिंसा समस्त उत्तरी एवं पूर्वी भारत में फैल गई थी जो एक वर्ष तक जारी रही। इस दौरान देश विभाजन की घोषणा हुई तथा असंख्य लोगों का एक जगह से दूसरी जगह आने-जाने का सिलसिला शुरू हो गया।
🔹 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्रता दिवस पर आनन्द एवं उन्माद का वातावरण था, परन्तु भारत में निवास करने वाले मुसलमानों एवं पाकिस्तान में निवास करने वाले हिन्दुओं एवं सिखों के लिए यह एक निर्मम क्षण था जिसका उन्हें मृत्यु अथवा अपने पूर्वजों की पुरानी जगह छोड़ने के बीच चुनाव करना था ।
🔹 देश के विभाजन की घोषणा के साथ ही असंख्य लोग एक जगह से दूसरी जगह जाने लगे जिसके फलस्वरूप शरणार्थियों की समस्या खड़ी हो गई।
🔸 देशी रियासतों की समस्या : –
🔹 स्वतंत्र भारत के समक्ष देशी रियासतों के भारतीय संघ में एकीकरण को लेकर भी एक गम्भीर समस्या थी। ब्रिटिश शासन के दौरान भारतीय उपमहाद्वीप का लगभग एक तिहाई भू-भाग ऐसे नवाबों एवं रजवाड़ों के नियन्त्रण में था जो उसकी अधीनता स्वीकार कर चुके थे। उनके पास अपने राज्य को अपनी इच्छानुसार चलाने की स्वतंत्रता थी। अंग्रेजों ने भारत छोड़ा तो इन नवाबों व राजाओं की संवैधानिक स्थिति बहुत विचित्र हो गई।
संविधान सभा का गठन : –
🔹 संविधान सभा का गठन केबिनेट मिशन योजना द्वारा सुझाए गए प्रस्ताव के अनुसार 1946 में हुआ था ।
🔹 इसके अंतर्गत संविधान सभा के कुल चुने गए सदस्यों की संख्या की संख्या 389 थी। जिसमे से 292 ब्रिटिश प्रान्तों के प्रतिनिधि, 4 चीफ कमिश्नर क्षेत्रों के प्रतिनिधि और 93 देशी रियासतों से चुने गए ।
🔹 कैबिनेट मिशन योजना के अनुसार जुलाई 1946 में संविधान सभा के कुल 389 सदस्यों में से प्रान्तों के लिए निर्धारित 292 सदस्यों के स्थान को मिलाकर कुल 296 सदस्यों के लिए ही चुनाव हुए जिसमें से काँग्रेस के 208, मुस्लिम लीग के 73 तथा 15 अन्य दलों के व स्वतन्त्र उम्मीदवार निर्वाचित हुए। प्रारम्भिक बैठकों के पश्चात् मुस्लिम लीग ने अपनी निर्बल स्थिति देखकर संविधान सभा के बहिष्कार का निर्णय किया।
संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव : –
🔹 संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव सार्वभौमिक मताधिकार के आधार पर न होकर प्रान्तीय चुनावों के आधार पर किया गया था। 1945-46 में पहले देश में प्रान्तीय चुनाव हुए तथा इसके बाद प्रान्तीय सांसदों ने संविधान सभा के सदस्यों का चयन किया।
🔹 1946 ई. के प्रान्तीय चुनाव क्षेत्रों में कांग्रेस ने सामान्य चुनाव क्षेत्रों में भारी विजय प्राप्त की थी। अतः नई संविधान सभा में कांग्रेस प्रभावशाली स्थिति में थी । लगभग 82 प्रतिशत सदस्य कांग्रेस पार्टी के थे।
संविधान सभा में चर्चाएँ : –
🔹 संविधान सभा में हुई चर्चाएँ जनमत से भी प्रभावित होती थीं। जब संविधान सभा में बहस होती थी तो विभिन्न पक्षों के तर्क समाचार-पत्रों में छपते थे जिन पर सार्वजनिक रूप से बहस चलती थी जिसका प्रभाव किसी मुद्दे की सहमति व असहमति पर भी पड़ता था ।
🔹 सभा में सांस्कृतिक अधिकारों तथा सामाजिक न्याय के कई अहम मुद्दों पर चल रही सार्वजनिक चर्चाओं पर बहस हुई।
संविधान सभा में कुल सदस्य ओर सर्वाधिक महत्वपूर्ण सदस्य : –
🔹 संविधान सभा में तीन सौ सदस्य थे लेकिन इनमें कांग्रेस के जवाहरलाल नेहरू, वल्लभभाई पटेल व राजेन्द्र प्रसाद सहित छः सदस्यों की भूमिका अधिक महत्त्वपूर्ण थी, जिनमें से राजेन्द्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे। अन्य तीन सदस्यों में बी. आर. अम्बेडकर (संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष), के. एम. मुंशी व अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर शामिल थे।
संविधान सभा के छः सर्वाधिक महत्वपूर्ण सदस्यों के विचारों एवं संविधान निर्माण में उनकी भूमिका : –
🔸 ( 1 ) जवाहर लाल नेहरू : – जवाहर लाल नेहरू द्वारा ‘उद्देश्य प्रस्ताव’ प्रस्तुत । उन्होंने यह प्रस्ताव भी पेश किया था कि भारत का राष्ट्रीय ध्वज “केसरिया, सफ़ेद और गहरे हरे रंग की तीन बराबर चौड़ाई वाली पट्टियों का तिरंगा ” झंडा होगा जिसके बीच में गहरे नीले रंग का चक्र होगा।
🔸 ( 2 ) सरदार बल्लभ भाई पटेल : – पटेल मुख्य रूप से परदे के पीछे कई महत्त्वपूर्ण काम कर रहे थे। उन्होंने कई रिपोर्टों के प्रारूप लिखने में खास मदद की और कई परस्पर विरोधी विचारों के बीच सहमति पैदा करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका अदा की।
🔸( 3 ) राजेंद्र प्रसाद : – राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे। सभा में चर्चा रचनात्मक दिशा ले और सभी सदस्यों को अपनी बात कहने का मौका मिले यह उनकी ज़िम्मेदारियाँ थीं।
🔸 ( 4 ) डॉ. बी. आर. अम्बेडकर : – उन्होंने संविधान की प्रारूप समिति के अध्यक्ष के रूप में काम किया। एवं अम्बेडकर के पास सभा में संविधान के प्रारूप को पारित करवाने की ज़िम्मेदारी थी ।
🔸 ( 5 ) एक बी. एन. राव : – वह भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार थे और उन्होंने अन्य देशों की राजनीतिक व्यवस्थाओं का गहन अध्ययन करके कई चर्चा पत्र तैयार किए थे।
🔸 ( 6 ) एस.एन. मुखर्जी : – इनकी भूमिका मुख्य योजनाकार की थी। मुखर्जी जटिल प्रस्तावों को स्पष्ट वैधिक भाषा में व्यक्त करने की क्षमता रखते थे।
संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज का प्रस्ताव किसने प्रस्तुत किया था तथा क्या कहा था ?
🔹 संविधान सभा में राष्ट्रीय ध्वज का प्रस्ताव पं. जवाहरलाल नेहरू ने प्रस्तुत किया था। उन्होंने कहा था कि भारत का राष्ट्रीय ध्वज केसरिया, सफेद एवं गहरे हरे रंग की तीन बराबर पट्टियों वाला तिरंगा झंडा होगा जिसके मध्य में गहरे नीले रंग का चक्र होगा।
प्रारूप समिति : –
🔹 संविधान का प्रारूप तैयार करने के लिए 29 अगस्त, 1947 को संविधान सभा द्वारा प्रारूप समिति का गठन किया गया। इस समिति के अध्यक्ष के रूप में डॉ. भीमराव अम्बेडकर की नियुक्ति की गई।
🔹 सर्वश्री एन. गोपालास्वामी आयंगर, अल्लादि कृष्णास्वामी अय्यर, के. एम. मुंशी, टी. टी. कृष्णामाचारी, मोहम्मद सादुल्लाह, , डी. पी. खेतान और एन. माधवराव प्रारूप समिति के अन्य सदस्य थे।
प्रारूप समिति का कार्य : –
🔹 प्रारूप समिति का काम था कि वह संविधान सभा की परामर्श शाखा द्वारा तैयार किए गए संविधान का परीक्षण करे और संविधान के प्रारूप को विचारार्थ संविधान सभा के सम्मुख प्रस्तुत करे। प्रारूप समिति ने भारत के संविधान का जो प्रारूप तैयार किया वह फरवरी, 1948 में संविधान सभा के अध्यक्ष को सौंपा गया।
उद्देश्य प्रस्ताव : –
🔹 उद्देश्य प्रस्ताव भारतीय संविधान की प्रस्तावना का प्रमुख आधार है । यह पंडित जवाहरलाल नेहरू द्वारा 31 दिसंबर, 1946 को संविधान सभा के समक्ष प्रस्तुत किया गया था। इस प्रस्ताव में स्वतन्त्र भारत के मूल संविधान के आदर्शों की रूपरेखा प्रस्तुत की गई थी जिसमें भारत को एक ‘स्वतन्त्र सम्प्रभु गणराज्य’ घोषित किया गया था। यह भारतीय स्वाधीनता का घोषणा-पत्र था । इस प्रस्ताव को 22 जनवरी, 1947 को संविधान सभा द्वारा स्वीकार कर लिया गया।
उद्देश्य प्रस्ताव के प्रमुख आदर्श : –
- भारत में एक स्वतंत्र और सर्वप्रभुत्व संपन्न गणराज्य स्थापित किया जाएगा।
- भारत के सभी लोगों को समाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय की समानता प्राप्त होगी। सभी नागरिकों को विचार, अभिव्यक्ति, विश्वास, धर्म और उपासना की स्वतंत्रता प्राप्त होगी तथा प्रतिष्ठा और अवसर की समानता भी होगी।
- स्वतंत्र भारत और इसके संविधान की समस्त शक्तियाँ और सत्ता का स्रोत जनता है ।
- भारत में अल्पसंख्यकों को, पिछड़े व जनजातियों, दमित व अन्य पिछड़े वर्गों को समुचित सुरक्षा दी जाएगी।
- भारत पूर्व ब्रिटिश भारतीय क्षेत्रों, देशी रियासतों और ब्रिटिश क्षेत्रों तथा देशी रियासतों के बाहर के ऐसे क्षेत्रों जो हमारे संघ का अंग बनना चाहते हैं, का एक संघ होगा।
जवाहरलाल नेहरू का भाषण : –
🔹 13 दिसंबर 1946 को अपने प्रसिद्ध भाषण में जवाहरलाल नेहरू ने यह कहा था कि भारतीय संविधान का उद्देश्य लोकतंत्र के उदारवादी विचारों एवं आर्थिक न्याय के समाजवादी विचारों का एक-दूसरे में समावेश करना होगा।
लोगों की इच्छा : –
🔹 संविधान सभा के कम्युनिस्ट सदस्य सोमनाथ लाहिड़ी को संविधान सभा की चर्चाओं पर ब्रिटिश साम्राज्यवाद का स्याह साया दिखाई देता था । उन्होंने सदस्यों तथा आम भारतीयों से आग्रह किया कि वे साम्राज्यवादी शासन के प्रभाव से खुद को पूरी तरह आज़ाद करें।
🔹 1946-47 के जाड़ों में जब संविधान सभा में चर्चा चल रही थी तो अंग्रेज़ अभी भी भारत में ही थे। जवाहरलाल नेहरू के नेतृत्व में अंतरिम सरकार शासन तो चला रही थी परंतु उसे सारा काम वायसराय तथा लंदन में बैठी ब्रिटिश सरकार की देखरेख में करना पड़ता था । लाहिड़ी ने अपने साथियों को समझाया कि संविधान सभा अंग्रेज़ों की बनाई हुई है और वह ‘अंग्रेज़ों की योजना को साकार करने का काम कर रही है। ‘
संवैधानिक सुधार : –
🔹 जैसे-जैसे प्रतिनिधित्व की माँग बढ़ी, अंग्रेज़ों को चरणबद्ध ढंग से संवैधानिक सुधार करने पड़े।
- प्रांतीय सरकारों में भारतीयों की हिस्सेदारी बढ़ाने के लिए कई कानून (1909, 1919 और 1935) पारित किए गए।
- 1919 में कार्यपालिका को आंशिक रूप से प्रांतीय विधायिका के प्रति उत्तरदायी बनाया गया ।
- 1935 के गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के अंतर्गत उसे लगभग पूरी तरह विधायिका के प्रति उत्तरदायी बना दिया गया।
- जब गवर्नमेंट ऑफ इंडिया एक्ट के तहत 1937 में चुनाव हुए तो 11 में से 8 प्रांतों में कांग्रेस की सरकार बनी।
पृथक निर्वाचिका की समस्या : –
🔹 27 अगस्त, 1947 को मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने पृथक निर्वाचिका बनाए रखने का प्रस्ताव प्रस्तुत किया तथा इसके पक्ष में तर्क रखे जिससे राष्ट्रवादी नेता भड़क उठे। अधिकांश राष्ट्रवादियों को लग रहा था कि पृथक निर्वाचिका की व्यवस्था लोगों कों बाँटने के लिए अंग्रेजों की चाल थी।
🔹 संविधान सभा में पृथक निर्वाचिका की समस्या पर बहस हुई । मद्रास के बी. पोकर बहादुर ने इसका पक्ष लिया परंतु ज्यादातर राष्ट्रवादी नेताओ जैसे – आर. वी. धुलेकर, सरकार पटेल, गोविन्द वल्लभ पंत, बेगम ऐजाज रसूल आदि ने इसका कड़ा विरोध किया और इसे देश के लिए घातक बताया ।
पृथक निर्वाचिका को लेकर सरदार पटेल का दृष्टिकोण : –
🔹 सरदार पटेल ने कहा था कि पृथक निर्वाचिका एक ऐसा “ विष है जो हमारे देश की पूरी राजनीति समा चुका है। ” उनकी राय में यह एक ऐसी माँग थी जिसने एक समुदाय को दूसरे समुदाय से भिड़ा दिया, राष्ट्र के टुकड़े कर दिए, रक्तपात को जन्म दिया और देश के विभाजन का कारण बनी। पटेल ने कहा, “क्या तुम इस देश में शांति चाहते हो? अगर चाहते हो तो इसे ( पृथक निर्वाचिका को) फौरन छोड़ दो।”
पृथक निर्वाचिका को लेकर गोविन्द वल्लभ पंत का दृष्टिकोण : –
🔹 पृथक निर्वाचिकाओं की माँग का जवाब देते हुए गोविन्द वल्लभ पंत ने ऐलान किया कि यह प्रस्ताव न केवल राष्ट्र के लिए बल्कि अल्पसंख्यकों के लिए भी खतरनाक है। उनका कहना था कि यह एक आत्मघाती माँग है जो अल्पसंख्यकों को स्थायी रूप से अलग-थलग कर देगी, उन्हें कमज़ोर बना देगी और शासन में उन्हें प्रभावी हिस्सेदारी नहीं मिल पाएँगी ।
अल्पसंख्यक’ से क्या अभिप्राय है?
🔹 किसान आन्दोलन के नेता एन. जी. रंगा ने उद्देश्य प्रस्ताव का स्वागत करते हुए अल्पसंख्यक शब्द की व्याख्या आर्थिक स्तर पर करने की बात कही। रंगा की नज़र में असली अल्पसंख्यक गरीब और दबे-कुचले लोग थे। रंगा ने कहा कि, “उन्हें सहारों की ज़रूरत है। उन्हें एक सीढ़ी चाहिए। ” राजनीतिक व्यवस्था मर्के अल्पसंख्यकों के प्रतिनिधित्व की मांग।
संविधान में अल्पसंख्यक के हितों की रक्षा के लिए उठाये गए कदम : –
🔹 संविधान में अलपसंख्यकों की रक्षा के लिए उठाए गए कदम-
- शैक्षिक अधिकार, भाषा एवं संस्कृति के संरक्षण के लिए अनुच्छेद 29 दक 30 में विशेष प्रावधान।
- सभी धार्मिक भाषाई तथा सामुदायिक अल्पसंख्यक देश के प्रत्येक इकाई में अपनी इच्छानुसार कोई भी शैक्षिक संस्थान खोलने के लिए स्वतंत्र ।
- सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय ।
- विचार अभिव्यक्ति, विश्वास, श्रद्धा और उपासना की स्वतंत्रता ।
- अवसर की समानता ।
- सार्वभौमिक मताधिकार ।
आदिवासी और उनके अधिकार :-
🔹 आदिवासी, जयपाल सिंह, एक आदिवासी, ने इतिहास के माध्यम से आदिवासी के शोषण, उत्पीड़न और भेदभाव के बारे में विस्तार से बात की। उन्होंने आगे कहा कि जनजातियों की रक्षा करने और प्रावधान करने की आवश्यकता है जो उन्हें सामान्य आबादी के स्तर पर आने में मदद करेंगे ।
🔹 जयपाल सिंह ने कहा, उन्हें मुख्यधारा में एकीकृत करने के लिए शारीरिक और भावनात्मक दूरी को तोड़ने की जरूरत है । उन्होंने विधायिका में सीट के आरक्षण पर जोर दिया, क्योंकि यह उनकी मांगों को आवाज देने में मदद करता है और लोग इसे सुनने के लिए मजबूर होंगे ।
दलित जातियों के लोगो की समस्या : –
🔹 राष्ट्रीय आन्दोलन के दौरान डॉ. भीमराव अम्बेडकर ने दलित जातियों के लिए पृथक निर्वाचिकाओं की माँग की थी जिसका महात्मा गाँधी ने यह कहते हुए विरोध किया था कि ऐसा करने से ये समुदाय स्थायी रूप से शेष समाज से कट जायेगा ।
🔹 दमित जातियों के कुछ सदस्यों का आग्रह था कि “ अस्पृश्यों” (अछूतों) की समस्या को केवल संरक्षण और बचाव के ज़रिए हल नहीं किया जा सकता।
दलित जातियों को कष्ट : –
🔹 समाज ने उनकी सेवाओं और श्रम का इस्तेमाल किया है परंतु उन्हें सामाजिक तौर पर खुद से दूर रखा है, अन्य जातियों के लोग उनके साथ घुलने-मिलने से कतराते हैं, उनके साथ खाना नहीं खाते और उन्हें मंदिरों में नहीं जाने दिया जाता। मद्रास के सदस्य जे. नागप्पा ने कहा था, “हम सदा कष्ट उठाते रहे हैं पर अब और कष्ट उठाने को तैयार नहीं हैं। हमें अपनी ज़िम्मेदारियों का अहसास हो गया है। हमें मालूम है कि अपनी बात कैसे मनवानी है । “
दलित वर्गों के लिए संविधान में प्रावधान : –
🔹 अन्ततः, संविधान सभा में यह निर्णय हुआ कि अस्पृश्यता को जड़ से समाप्त किया जाए, हिन्दू मन्दिरों को सभी जातियों के लिए खोल दिया जाए तथा निचली जातियों को विधायिकाओं और राजकीय नौकरियों में आरक्षण प्रदान किया जाए। लोकतांत्रिक जनता ने इन प्रावधानों का स्वागत किया।
राज्य की शक्तियाँ ( संघ सूची, राज्य सूची तथा समवर्ती सूची ) : –
🔹 संविधान के प्रथम अनुच्छेद में कहा गया है कि “भारत अर्थात् इण्डिया राज्यों का संघ होगा।” केन्द्र तथा राज्यों के मध्य शक्तियों के विभाजन के लिए तीन सूचियाँ बनाई गई थीं : – संघ सूची या केन्द्रीय सूची, राज्य सूची और समवर्ती सूची ।
🔸 केंद्रीय सूची में कानून बनाने का अधिकार केंद्रीय सरकारों को दिया गया । केंद्रीय सूची वे विषय रखे गए जो राष्ट्रीय महत्व के हैं तथा जिनके बारे में देश भर में एकसमान नीति होना आवश्यक है। जैसे-प्रतिरक्षा, विदेश नीति, डाक, तार व टेलीफोन, रेल, मुद्रा, बीमा व विदेशी व्यापार इत्यादि । इस सूची में कुल 97 विषय हैं।
🔸 राज्य सूची में प्रादेशिक महत्व के विषय सम्मिलित किये गये थे जिन पर कानून बनाने का अधिकार राज्य सरकारों को दिया गया। राज्य सूची के प्रमुख विषय हैं – कृषि, पुलिस, जेल, चिकित्सा, स्वास्थ्य, सिंचाई इत्यादि । इन विषयों की संख्या 66 थी।
🔸 समवर्ती सूची में 47 विषय थे। इस सूची के विषयों पर केन्द्र तथा राज्य दोनों कानून बना सकते हैं परन्तु किसी विषय पर यदि संसद और राज्य के विधानमण्डल द्वारा बनाए गए कानूनों में विरोध होता है तो संसद द्वारा बनाए गए कानून ही मान्य होंगे। इस सूची के प्रमुख विषय हैं – बिजली, विवाह कानून, मूल्य नियन्त्रण, समाचार पत्र, छापेखाने, दीवानी कानून, शिक्षा, वन, जनसंख्या नियन्त्रण और परिवार नियोजन आदि ।
अनुच्छेद 356 क्या है ?
🔹 अनुच्छेद 356 में गवर्नर की सिफारिश पर केंद्र सरकार को राज्य सरकार के सारे अधिकार अपने हाथ में लेने का अधिकार दे दिया।
संविधान में राजकोषीय संघवाद : –
🔹 संविधान में राजकोषीय संघवाद की भी एक जटिल व्यवस्था बनाई गयी। जैसे :
- कुछ करों (जैसे- सीमा शुल्क और कंपनी कर) से होने वाली सारी आय केंद्र सरकार के पास रखी गई।
- कुछ अन्य मामलों में (जैसे- आय कर और आबकारी शुल्क) में होने वाली आय राज्य और केंद्र सरकारों के बीच बाँट दी गई।
- कुछ अन्य मामलों से होने वाली आय (जैसे राज्य स्तरीय शुल्क) पूरी तरह राज्यों को सौंप दी गई।
- राज्य सरकारों को अपने स्तर पर भी कुछ अधिभार और कर वसूलने का अधिकार दिया गया। उदाहरण के लिए, वे ज़मीन और संपत्ति कर, ब्रिकी कर तथा बोतलबंद शराब पर अलग कर वसूल कर सकते थे।
” केंद्र बिखर जाएगा” प्रान्तों के लिए ज्यादा शक्तियों के पक्ष में क्या तर्क : –
🔹 यदि केन्द्र के पास बहुत अधिक जिम्मेदारियाँ होंगी तो वह कुशलतापूर्वक अपना कार्य नहीं कर पाएगा इसलिए उसकी जिम्मेदारियों को सीमित कर उन्हें राज्यों के बीच बाँट देना चाहिए ताकि केन्द्र की कुशलता में कमी न आए।
🔹 राजकोषीय प्रावधान राज्यों को कमजोर बना देगा क्योंकि जब ज्यादातर कर केन्द्र के कोष में जाएँगे तो राज्य सरकारों के पास राज्य विकास हेतु धन ही नहीं होगा और धनाभाव के कारण राजकाज हेतु उन्हें केन्द्र के सामने हाथ फैलाना पड़ेगा।
🔹 पक्षधरों ने शक्तियों के मौजूदा वितरण को देश की एकता व अखंडता के लिए चुनौती माना। उनका कहना था कि यदि बिना सोचे-समझे शक्तियों का प्रस्तावित वितरण लागू किया गया तो देश का भविष्य खतरे में पड़ जाएगा तथा प्रांत केन्द्र के खिलाफ उठ खड़े होंगे।
🔹 प्रांतों के बहुत सारे दूसरे सदस्य भी इसी तरह की आशंकाओं से परेशान थे। उन्होंने इस बात के लिए जमकर जोर लगाया कि समवर्ती सूची और केंद्रीय सूची में कम से कम विषयों को रखा जाए। उड़ीसा के एक सदस्य ने यहाँ तक चेतावनी दे डाली कि संविधान में शक्तियो के बेहिसाब केंद्रीकरण के कारण “केंद्र बिखर जाएगा।”
मजबूत सरकार की आवश्यकता : –
🔹 विभाजन की घटनाओं से मजबूत सरकार की आवश्यकता को और मजबूती मिली। कई नेताओं जैसे जवाहरलाल नेहरू, बीआर अंबेडकर, गोपालस्वामी अय्यर आदि ने मजबूत केंद्र की वकालत की।
🔹 विभाजन से पहले कांग्रेस ने प्रांतों को काफी स्वायत्तता देने पर सहमति व्यक्त की थी। इस पर मुस्लिम लीग को संतुष्ट करने पर सहमति हुई । लेकिन विभाजन के बाद कोई राजनीतिक दबाव नहीं था और विभाजन के बाद की आवाज ने केंद्रीयकृत शक्ति को और बढ़ावा दिया ।
भारत में भाषा संबंधी विवाद : –
🔹 भारत एक ऐसा देश है जहाँ विभिन्न धर्मों, जातियों से संबंधित तथा विभिन्न भाषाओं को बोलने वाले लोग रहते हैं इसलिए जब राष्ट्रीय भाषा चुनने का सवाल आया तो इस मुद्दे पर संविधान सभा में बहुत तनाव पैदा हो गया विभिन्न क्षेत्र के लोग अपनी-अपनी भाषाओं को मान्यता दिलाने को लेकर उतावले हो गए।
🔹 हालाँकि यह बात पहले ही तय हो चुकी थी की हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाएगा। स्वयं राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी का भी यही मानना था कि देश की राष्ट्रीय भाषा ऐसी होनी चाहिए जिसे देश के अधिकांश लोग आसानी से बोल व समझ सके। इस समय हिन्दी और उर्दू के मेल से बनी हिन्दुस्तानी ही ऐसी भाषा थी जिसे भारत के बहुत बड़े हिस्से में बोला जाता था। गाँधी जी के अनुसार यही भाषा देश के समुदायों के बीच विचार-विमर्श का माध्यम बन सकती है।
हिन्दी भाषा को राष्ट्रीय भाषा बनाने को लेकर विवाद : –
🔹 जब हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाने का सुझाव दिया गया तो इस बात पर संविधान सभा में विवाद शुरू हो गया । गैर हिन्दी भाषी क्षेत्रों के लोगों को यह लगने लगा कि उन पर हिन्दी भाषा थोपी जा रही है और उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रीय भाषा बनाए जाने का विरोध करना शुरु कर दिया।
🔹 इन दंगों ने संविधान सभा को यह अहसास दिला दिया कि भाषा के विषय में जो भी निर्णय लिया जाए बहुत ही सोच-समझ कर लिया जाए। उन्नीसवीं सदी के आखिर से एक भाषा के रूप में हिंदुस्तानी धीरे-धीरे बदल रही थी। जैसे-जैसे सांप्रदायिक टकराव गहरे होते जा रहे थे, हिंदी और उर्दू एक-दूसरे से दूर जा रही थीं।
हिंदी की हिमायत : –
🔹 संविधान सभा के एक प्रारम्भिक सत्र में संयुक्त प्रान्त के कांग्रेसी सदस्य आर. बी. धुलेकर ने हिन्दी को संविधान निर्माण की भाषा के रूप में प्रयोग किए जाने का समर्थन किया।
🔹 संविधान सभा की भाषा समिति ने राष्ट्रीय भाषा के सवाल पर हिन्दी के समर्थकों एवं विरोधियों के बीच अन्यत्र गतिरोध को तोड़ने के लिए सुझाव दिया कि देवनागरी लिपि में लिखी हिन्दी भारत की राजभाषा होगी, परन्तु समिति ने इस फार्मूले को घोषित नहीं किया।
🔹 संविधान सभा की भाषा समिति ने यह भी सुझाव दिया कि हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने के लिए हमें धीरे-धीरे आगे बढ़ना चाहिए। पहले 15 वर्ष तक राष्ट्रीय कार्यों में अंग्रेजी का प्रयोग जारी रहेगा तथा भारतीय संघ के प्रत्येक राज्य को एक क्षेत्रीय भाषा चुनने का अधिकार होगा।
🔹 संयुक्त प्रान्त के कांग्रेसी सदस्य आर. बी. धुलेकर चाहते थे कि हिन्दी को राजभाषा नहीं बल्कि राष्ट्रभाषा घोषित किया जाना चाहिए। उन्होंने उन लोगों की आलोचना की जो यह सोचते थे कि हिन्दी को उन पर थोपने का प्रयास किया जा रहा है।
वर्चस्व का भय : –
🔹 संविधान सभा में मद्रास की सदस्य श्रीमती दुर्गाबाई ने सदन को बताया कि दक्षिण में अधिकांश लोग हिन्दी के विरुद्ध हैं, लेकिन उन्होंने महात्मा गाँधी के आह्वान का पालन करते हुए दक्षिण में हिन्दी का प्रचार जारी रखा।
🔹 दुर्गाबाई हिंदुस्तानी को जनता की भाषा स्वीकार कर चुकी थीं मगर अब उस भाषा को बदला जा रहा था, उर्दू तथा अन्य क्षेत्रीय भाषाओं के शब्दों को उससे निकाला जा रहा था। उनका मानना था कि हिंदुस्तानी के समावेशी और साझा स्वरूप को कमज़ोर करने वाले किसी भी कदम से विभिन्न भाषायी समूहों के बीच बेचैनी और भय पैदा होना निश्चित है।
महात्मा गाँधी ऐसा क्यों सोचते थे कि हिन्दुस्तानी को राष्ट्रभाषा होना चाहिए?
🔹 महात्मा गाँधी हिदुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा बनाना चाहते थे। उनके ऐसा सोचने के पीछे निम्न कारण थे : –
- स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान महात्मा गाँधी का मानना था कि प्रत्येक भारतीय को ऐसी भाषा बोलनी चाहिए जिसे सभी आसानी से समझ सकें।
- “हिन्दुस्तानी भाषा” एक ऐसी ही भाषा थी जो हिन्दी तथा उर्दू के शब्दों से मिलकर बनी थी तथा भारतीय जनता का एक बड़ा वर्ग इस भाषा का प्रयोग करता था।
- समय के साथ-साथ बहुत प्रकार के स्रोतों से नये- नये शब्द और अर्थ इसमें जुड़ते गए और उसे भिन्न-भिन्न क्षेत्रों के बहुत से लोग इसे समझने लगे।
- महात्मा गाँधी को लगता था कि “यह बहुसांस्कृतिक भाषा विविध समुदायों के बीच संचार की आदर्श भाषा हो सकती है ।
- यह हिन्दुओं और मुसलमानों तथा उत्तर और दक्षिण के लोगों को आपसी एकता प्रदान कर सकती है।
🔹 इस प्रकार स्वतन्त्रता आन्दोलन के दौरान काँग्रेस ने यह मान लिया था कि हिन्दुस्तानी को राष्ट्रीय भाषा का दर्जा दिया जाये।
राष्ट्रीय भाषा बनाने के लिए एक भाषा में क्या विशेषताएँ होनी चाहिए ?
🔹राष्ट्रभाषा में निम्न विशेषताएँ होनी चाहिए : –
- जिसे राष्ट्र के एक कोने से दूसरे कोने में रहने वाले सभी लोग समझ सके तथा अपनी भावनाओं को आपस में व्यक्त कर सके ।
- वह भाषा सभी लोगों की समझ में आसानी से आ जाए। ज्यादा से ज्यादा लोग उसे बोलते हो ।
- वह विविध संस्कृति के आदान-प्रदान में समृद्ध व साझी भाषा होनी चाहिए।
- वह देश की गरिमा के अनुकूल हो तथा उस भाषा का सम्मान हम अपने दिल से कर सकें ।
मौलिक अधिकार ” संविधान में इनकी व्यवस्था ” : –
🔹 जो अधिकार संविधान के द्वारा नागरिकों को प्रदान किए जाते है उन्हें मौलिक अधिकार कहते हैं । भारतीय संविधान में भी मौलिक अधिकारों की व्यवस्था की गई है। संविधान में इनकी व्यवस्था इसलिए की गई कि जिससे कोई सरकार नागरिकों के मूलभूत अधिकारों में हस्तक्षेप न कर सके तथा प्रत्येक व्यक्ति अपना जीवन भली प्रकार से जी सके। कोई भी सरकार मौलिक अधिकारों को स्थगित नहीं कर सकती है ।
संविधान सभा के वह मुद्दे जिन पर सबकी सहमति थी : –
🔹 संविधान के अधिकांश सदस्य इस बात पर सहमत थे कि प्रत्येक वयस्क भारतीय को मताधिकार प्रदान किया जाए।
🔹 भारतीय संविधान का एक अन्य महत्त्वपूर्ण लक्ष्य उसका धर्मनिरपेक्षता पर बल दिया जाना है। मूल अधिकारों में धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक व शैक्षिक अधिकार एवं समानता का अधिकार इसके प्रमाण हैं।
मौलिक अधिकारों का महत्व : –
🔹 मौलिक अधिकारों के महत्व का मूल कारण यह है कि राष्ट्र की सुरक्षा, एकता और अखंडता व्यक्तियों के अपने हित-स्वार्थों से कहीं अधिक महत्वपूर्ण होती है। अतः आवश्यकता पड़ने पर आपातकाल में मौलिक अधिकारों पर रोक लगाना कई परिस्थितियों में आवश्यक हो जाता है। मौलिक अधिकारों के दुरुपयोग को रोकने के लिए नागरिकों में जागरुकता लाना आवश्यक है। इनके अतिरिक्त किन्हीं अन्य कारणों से भी इनका महत्व बढ़ जाता है। ये निम्न हैं : –
- मौलिक अधिकार संविधान की उद्देशिका में दिए गए न्याय, समानता, स्वतंत्रता तथा व्यक्ति की गरिमा तथा राज्य की अखंडता और सुरक्षा की दृष्टि से बहुत महत्वपूर्ण हैं।
- मौलिक अधिकारों ने सामाजिक-आर्थिक न्याय को बढ़ावा दिया है।
- मौलिक अधिकार संविधान के आधार स्तंभ है। राज्य उन्हें समाप्त नहीं कर सकता ।
- मौलिक अधिकारों के द्वारा अल्पसंख्यकों में सुरक्षा और आत्मविश्वास बढ़ा है।
- मौलिक अधिकारों ने सरकार की शक्तियों पर अंकुश लगाकर देश में संवैधानिक और सीमित सरकार स्थापित करने में बड़ी सहायता पहुँचायी है।
किन-किन आधारों पर मौलिक अधिकारों को संविधान में शामिल किया गया?
🔹 जिन प्रमुख बिन्दुओं को आधार मानकर मौलिक अधिकारों को भारतीय संविधान में शामिल किया गया है, उनका विवरण निम्न प्रकार से हैं : –
- मौलिक अधिकार संविधान के मूल तत्व हैं।
- ये भारतीय लोकतंत्र की आधारशिला है।
- मौलिक अधिकार नागरिकों को राज्य की तानाशाही के विरुद्ध संरक्षण प्रदान करते हैं।
- मौलिक अधिकारों ने नागरिकों और सरकार के संबंधों को निश्चित किया है।
- मौलिक अधिकारों ने अल्पसंख्यकों को सुरक्षा प्रदान की है।
- मौलिक अधिकार साधारण कानूनों से श्रेष्ठ है।
- मौलिक अधिकारों से सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक न्याय स्थापित करने में सहायता मिलती है।
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