मौर्य साम्राज्य की आर्थिक व राजनैतिक उपलब्धियां : –
- मौर्य साम्राज्य आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से एक मजबूत साम्राज्य था ।
- अच्छी कर प्रणाली द्वारा वित्तीय स्थिरता थी ।
- कृषि में नई तकनीकों का समावेश एवं सिंचाई की अच्छी व्यवस्था ।
- वाणिज्य एवं व्यापार में सुरक्षा एवं स्थिरता ।
- सड़क एवं जलमार्ग द्वारा आवागमन अत्यंत सुगम एवं सुरक्षित ।
- साम्राज्य का विस्तार ।
- मजबूत सैन्य संगठन द्वारा साम्राज्य की तथा प्रजा की सुरक्षा ।
- एक आदर्श राज्य की स्थापना ।
- प्रजा में राजा की दैवीय छवि ।
- हर प्रकार से एक समृद्ध राज्य की स्थापना ।
सम्राट अशोक : –
🔹 बिन्दुसार के पश्चात् उसका पुत्र अशोक सम्राट बना। वह मौर्य वंश का तीसरा शासक था। अपने पिता के शासन काल में वह उज्जैन तथा तक्षशिला का शासक रह चुका था। देवी, तिस्यरक्षिता, कारुवाकि, आसंदिमित्रा एवं पदमावती आदि अशोक की पत्नियाँ थीं। देवी से उत्पन्न महेन्द्र एवं संघमित्रा अशोक के पुत्र-पुत्री थे।
कलिंग का युद्ध : –
🔹 अशोक ने 261 ईसा पूर्व कलिंग का युद्ध किया। कलिंग युद्ध के बाद अशोक के साम्राज्य में नेपाल, सम्पूर्ण उत्तरी भारत, दक्षिण भारत में मैसूर, कश्मीर के कुछ भाग काबुल, हेरात, बलूचिस्तान तथा बैक्ट्रीया सम्मिलित हो गये। अशोक के तेरहवें शिलालेख से पता चलता है कि उसने राज्याभिषेक के पश्चात् 8वें वर्ष में कलिंग पर विजय प्राप्त की।
🔹 इस युद्ध में डेढ़ लाख लोग बन्दी बनाये गये एवं एक लाख लोग मारे गये । इस भीषण नरसंहार को देखकर अशोक का कठोर हृदय द्रवित हो गया । उसने अब कभी भी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की। उसने चन्द्रगुप्त द्वारा गठित सेना भंग कर दी, अब उसने युद्ध विजय के स्थान पर धम्म विजय का निश्चय किया।
धम्म से अभिप्राय :-
🔹 अपने दूसरे तथा सातवें स्तम्भ लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है-धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया, दान तथा शुचिता । जीव हिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार भी धम्म के अन्तर्गत आते हैं।
अशोक का धम्म : –
अशोक के धम्म की परिभाषा राहुलोवादसुत्त से ली गई है। धम्म शब्द संस्कृत भाषा के धर्म का प्राकृत रूपान्तर है। अशोक के धम्म में किसी देवता की पूजा अथवा किसी कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं थी । स्वनियन्त्रण अशोक की धम्म नीति का मुख्य सिद्धान्त था।
🔹 धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण और सार्वभौमिक थे। असोक के अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्त नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई ।
भारतीय इतिहास में राजा अशोक का योगदान : –
🔹 भारतीय इतिहास में सम्राट अशोक के योगदानों को निम्नलिखित बिन्दुओं में समझा जा सकता है।
- एक मजबूत साम्राज्य की स्थापना ।
- केन्द्रीयकृत प्रशासनिक व्यवस्था ।
- मजबूत सैन्य संगठन ।
- न्यायालयों की स्थापना ।
- एक आदर्श राज्य की संकल्पना ।
- गुप्तचर विभाग की स्थापना।
- साम्राज्य का विस्तार ।
- धर्म की स्थापना ।
- वाणिज्य व्यापार में वृद्धि ।
- अच्छी कर प्रणाली ।
- अच्छी सड़क मार्ग एवं नौसेना का गठन ।
मौर्य साम्राज्य कितना महत्वपूर्ण था ?
🔹 9 वी शताब्दी मे जब इतिहासकारो में जब भारत के प्रारंभिक इतिहास की रचना करनी शुरू की तो मौर्य साम्राज्य को इतिहास का मुख्य काल माना गया । इस समय भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक औपनिवेशिक देश था ।
- अदभुत कला का साक्ष्य
- मूर्तियाँ (सम्राज्य की पहचान )
- अभिलेख (दूसरो से अलग )
- अशोक एक महान शासक था ।
- मौर्य सम्राज्य 150 वर्ष तक ही चल पाया ।
दक्षिण के राजा और सरदार : –
🔹 दक्षिण भारत में ( तमिलनाडु / आंध्रप्रदेश / केरल ) में चोल चेर एवं पांड्य जैसी सरदारियो का उदय हुआ । ये राज्य सृमद्ध तथा स्थाई थे । प्राचीन तमिल संगम ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है । सरदार/राजा लंबी दूरी के व्यपार से राजस्व जुटाते थे । इनमें मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले सातवाहन ( लगभग द्वितीय शताब्दी ई. पू. से द्वितीय शताब्दी ई. तक) और उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक शामिल थे।
सरदार और सरदारी : –
🔹 सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता है जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता है और नहीं भी। उसके समर्थक उसके खानदान के लोग होते हैं । सरदारी में सामान्यतया कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते हैं।
सरदार के कार्य : –
🔹 सरदार के कार्यों में विशेष अनुष्ठान का संचालन, युद्ध के समय नेतृत्व करना और विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाना शामिल है। वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेता है ( जबकि राजा कर वसूली करते हैं), और अपने समर्थकों में उस भेंट का वितरण करता है।
दैविक राजा :-
🔹 देवी – देवता की पूजा से राजा उच्च उच्च स्थिति हासिल करते थे । कुषाण – शासक ने ऐसा किया ।
🔹 U. P में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासको ने विशाल काय मूर्ति स्थापित की ।
🔹 अफगानिस्तान में भी ऐसा किया इन मूर्तियो के माध्यम से राजा खुद को देवतुल्य पेश करते थे ।
गुप्त शासकों के इतिहास के स्त्रोत : –
- अभिलेख
- सिक्के
- साहित्य
- प्रशस्तियाँ (प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त हेतु)
🔹 गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है। साथ ही कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंसा में लिखी प्रशस्तियाँ भी उपयोगी रही हैं।
जनता के बीच राजा की छवी कैसी थी ?
🔹 इसके साक्ष्य ज्यादा नहीं प्राप्त है । जातक कथाओं से इतिहासकारों ने पता लगाने का प्रयास किया । ये कहानियाँ मौखिक थी। फिर बाद में इन्हें पालि भाषा में लिखा गया । गंदतिन्दु जातक कहानी में प्रजा के दुख के बारे में बताया गया ।
🔹 इस कथा से पता चलता है कि राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा, के बीच संबंध तनावपूर्ण रहते थे, क्योंकि शासक अपने राजकोष को भरने के लिए बड़े-बड़े कर की माँग करते थे जिससे किसान खासतौर पर त्रस्त रहते थे। इस जातक कथा से पता चलता है कि इस संकट से बचने का एक उपाय जंगल की ओर भाग जाना होता था। इसी बीच करों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसानों ने उपज बढ़ाने के और उपाए ढूँढ़ने शुरू किए।
उपज बढ़ाने के तरीके : –
🔹 उपज बढ़ाने के लिए हल का प्रयोग किया गया
🔹 लोहे की फाल का प्रयोग किया गया यह भी उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था ।
🔹 फसल को बढ़ाने के लिए कृषक समुदाय ने मिलकर सिंचाई के नए नए साधन को बनाना शुरू किया ।
🔹 फसल की उपज बढ़ाने के लिए कई जगह पर तलाब , कुआँ और नहरे जैसे सिंचाई साधन को बनाया गया जो की उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था ।
ग्रामीण समाज में विभिन्नताएँ : –
🔹 यद्यपि खेती की इन नयी तकनीकों से उपज तो बढ़ी लेकिन इसके लाभ समान नहीं थे। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि खेती से जुड़े लोगों में उत्तरोत्तर भेद बढ़ता जा रहा था।
🔹 बड़े-बड़े ज़मींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे जो प्रायः किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था । आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, जैसे कि वेल्लालर या बड़े ज़मींदार; हलवाहा या उल्वर और दास अणिमई ।
गहपति : –
🔹 गहपति घर का मुखिया होता था और घर में रहने वाली महिलाओं, बच्चों, नौकरों और दासों पर नियंत्रण करता था। घर से जुड़े भूमि जानवर या अन्य सभी वस्तुओं का वह मालिक होता था। कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग नगरों में रहने वाले संभ्रांत व्यक्तियों और व्यापारियों के लिए भी होता था।
भूमिदान तथा नए सभ्रांत ग्रामीण :-
🔹 ई० की आरंभिक शताब्दियों से ही भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं । इनमे से कई का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है ।
🔹 इनमे से कुछ अभिलेख पत्थरों पर लिखे गये थे लेकिन अधिकांश ताम्रपत्रो पर खुदे होते थे । जिहे संभवतः उन लोगों को प्रमाण रूप मे दिया जाता था । जो भूमिदान लेते थे ।
🔹 भूमिदान के जो प्रमाण मिले हैं । वे साधारण तौर पर धार्मिक सस्थाओं या ब्राह्मणो को दिए गए थे । इनमे से कुछ अभिलेख संस्कृत में थे ।
🔹 प्रभावतीगुप्त आरंभिक भारत के एक सबसे महत्वपूर्ण शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय ( 375 – 415 ई.पू ) की पुत्री थी । उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक परिवार मे हुआ जो एक महत्वपूर्ण शासक वंश था ।
🔹 संस्कृत धर्मशास्त्रो के अनुसार माहिलाओ को भूमि जैसी संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार नही था लेकिन एक अभिलेख से पता चलता है कि प्रमावति भूमि की स्वामी थी और उसने दान भी किया था इसका कारण यह हो सकता है कि वह एक रानी ( आरंभिक भारतीय इतिहास जी ज्ञात कुछ रानियों में से से एक थी ) और इसलिए उसका यह उदाहरण ही रहा है । यह भी संभव है कि धर्मशास्त्रो को घर स्थान से पर समान रूप से लागू नही किया जाता हो ।
🔹 इतिहासकारो मे भूमिदान का प्रभाव एक महत्वपूर्ण वाद – विवाद का विषय बना हुआ है ।
नए नगर : –
🔹 इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदीमार्ग के किनारे बसे थे। उज्जयिनी जैसे अन्य नगर भूतल मार्गों के किनारे थे। इसके अलावा पुहार जैसे नगर समुद्रतट पर थे, जहाँ से समुद्री मार्ग प्रारंभ हुए। मथुरा ‘जैसे अनेक शहर व्यावसायिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधि यों के जीवंत केंद्र थे।
पाटलिपुत्र का इतिहास : –
🔹 प्रत्येक नगर का अपना इतिहास था। उदाहरण के तौर पर, पाटलिपुत्र का विकास पाटलिग्राम नाम के एक गाँव से हुआ। फिर पाँचवीं सदी ई. पू. में मगध शासकों ने अपनी राजधानी राजगाह से हटाकर इसे बस्ती में लाने का निर्णय किया और इसका नाम बदल दिया।
🔹 चौथी शताब्दी ई. पू. तक आते-आते यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी और एशिया के सबसे बड़े नगरों में से एक बन गया। बाद में इसका महत्त्व कम हो गया और जब चीनी यात्री श्वैन सांग सातवीं सदी ई. में यहाँ आया तो इसे यह नगर खंडहर में बदला मिला और उस समय यहाँ की जनसंख्या भी कम थी।
संभ्रांत वर्ग और शिल्पकार : –
🔹 शासक वर्ग और राजा किलेबंद नगरों में रहते थे। यहां खुदाई में इनमें उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। इन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र कहा जाता है। संभवतः इनका उपयोग अमीर लोग किया करते होंगे। साथ ही सोने चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथी दाँत, शीशे जैसे तरह-तरह के पदार्थों के बने गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन, सीप और पक्की मिट्टी मिली हैं।