Class 12 history chapter 2 notes in hindi, राजा किसान और नगर notes

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12 Class History Chapter 2 राजा किसान और नगर Notes In Hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 2
Chapter Nameराजा किसान और नगर
CategoryClass 12 History
MediumHindi

Class 12 History Chapter 2 राजा किसान और नगर Notes in Hindi इस अध्याय में हम राजा , किसान और नगर , 16 महाजनपद के बारे में विस्तार से पढ़ेंगे और जानेंगे की किस प्रकार यहाँ आर्थिक राजनीतिक सामाजिक व्यवस्था थी एव युद्धों पर भी चर्चा करेंगे ।

छठी शताब्दी ई. पूर्व. एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल : –

🔹 छठी शताब्दी ई. पूर्व. को एक महत्वपूर्ण परिवर्तनकारी काल माना जाता है। इसका कारण आरंभिक राज्यों व नगरों का विकास, लोहे के बढ़ते प्रयोग और सिक्कों का प्रचलन है ।

🔹 इसी काल में बौद्ध तथा जैन सहित विभिन्न दार्शनिक विचारधाराओं का विकास हुआ। बौद्ध और जैन धर्म के आरंभिक ग्रंथों में महाजनपद नाम से सोलह राज्यों का उल्लेख मिलता है।

जनपद : –

🔹 जनपद का अर्थ एक ऐसा भूखंड है जहाँ कोई जन (लोग, कुल या जनजाति) अपना पाँव रखता है अथवा बस जाता है। इस शब्द का प्रयोग प्राकृत व संस्कृत दोनों में मिलता है ।

🔹 लगभग छठी शताब्दी ई. पू. में नवीन तकनीकों के प्रयोग के कारण अधिशेष उत्पादन होने लगा, जिसके कारण उत्तरवैदिक काल के जनपद महाजनपदों में परिवर्तित हो गए।

महाजनपद ( सोलह महाजनपद ) : –

🔹 महाजनपदों की कुल संख्या 16 थी, जिसका उल्लेख बौद्ध ग्रन्थ अंगुत्तर निकाय, महावस्तु एवं जैन ग्रन्थ भगवती सूत्र में मिलता है। महाजनपदों के नाम की सूची इन ग्रंथों में एकसमान नहीं है लेकिन वज्जि, मगध, कोशल, कुरु, पांचाल, गांधार और अवन्ति जैसे नाम प्रायः मिलते हैं। इससे यह स्पष्ट है कि उक्त महाजनपद सबसे महत्वपूर्ण महाजनपदों में गिने जाते होंगे।

🔹 प्रत्येक महाजनपद की एक राजधानी होती थी जिसे प्रायः किले से घेरा जाता था। किलेबंद राजधानियों के रख-रखाव और प्रारंभी सेनाओं और नौकरशाही के लिए भारी आर्थिक स्रोत की आवश्यकता होती थी।

महाजनपद एवं उनकी राजधानी : –

महाजनपदराजधानी
1. अंगचंपा
2. मगधराजगृह,वैशाली,पाटलिपुत्र
3. काशीवाराणसी
4. वत्सकौशाम्बी
5. वज्जीवैशाली ,विदेह,मिथिला
6. कोसलश्रावस्ती
7. अवन्तीउज्जैन ,महिष्मति
8. मल्लकुशावती
9. पंचालअहिछत्र ,काम्पिल्य
10. चेदीशक्तिमती
11. कुरुइंद्रप्रस्थ
12. मत्स्यविराट नगर
13. कम्बोजहाटक
14. शूरसेनमथुरा
15. अश्मकपोतन
16. गंधारतक्षशिला

महाजनपदों के शासक : –

🔸 महाजनपदों के प्रमुख शासक : – बिम्बिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग (मगध के) चण्डप्रद्योत (अवन्ति के) बानर, अश्वसेन (काशी के); प्रसेनजित ( कोसल के ); ब्रह्मदत्त (अंग के); उपचापर (चेदि के); उदयन (वत्स के); कोरव्य (कुरु के); विराट (मत्स्य के); अवंतीपुत्र ( सुरसेन के ); तथा चन्द्रवर्मन एवं सुदक्षिण (गांधार के) महाजनपदों के प्रमुख शासक थे।

🔹 लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से संस्कृत में ब्राह्मणों ने धर्मशास्त्र नामक ग्रंथों की रचना शुरू की। इनमें शासक सहित अन्य के लिए नियमों का निर्धारण किया गया और यह अपेक्षा की जाती थी कि शासक क्षत्रिय वर्ण से ही होंगे । शासकों का काम किसानों, व्यापारियों और शिल्पकारों से कर तथा भेंट वसूलना माना जाता था ।

महाजनपदों में शासन प्रणालियाँ : –

🔹 इस समय तीन प्रकार की शासन प्रणालियाँ अस्तित्व में थीं : –

🔸 (1) राजतंत्रात्मक शासन (Monarchy ) : – इनमें राज्य का प्रमुख राजा था। इनमें अंग, मगध, काशी, कौशल, चेदि, वत्स, कुरु, पंचाल, मत्स्य, शूरसेन, अश्मक, अवन्ति, गान्धार तथा कम्बोज प्रमुख थे। शासक तानाशाह नहीं थे ।

🔸 (2) गणतन्त्रात्मक शासन (Republic) : – सर्वप्रथम 1903 ई. में रिज डेविड्स ने भारत में गणराज्यों की खोज की। ‘संघ’ गण का पर्यायवाची था । बौद्ध साहित्य में कुछ गणराज्यों का उल्लेख मिलता है । वज्जि संघ में 8 राज्य सम्मिलित थे। प्रत्येक गाँव के सरदार को राजा कहा जाता था। राज्य के सामूहिक कार्य का विचार एक परिषद् में लेना था जिसके सभी सदस्य होते थे ।

🔸 (3) कुलीनतंत्र (Oligarchy) : – इस प्रकार की शासन व्यवस्था में शासन का संचालन सम्पूर्ण प्रजा द्वारा न होकर किसी कुल विशेष के व्यक्तियों द्वारा किया जाता था। इस प्रकार की शासन व्यवस्था कुलीन तंत्र कहलाती थी। उदाहरण के लिये वैशाली के लिच्छवि का अर्थ है कि यहाँ का शासन लिच्छवि कुल के व्यक्तियों द्वारा किया जाता था। ऐसे ही कपिलवस्तु के शाक्य, मिथिला के विदेह एवं पिप्पलीवन के मोरिय आदि कुलीनतंत्रात्मक शासन थे ।

सोलह महाजनपदों में प्रथम : ( मगध ) : –

🔹 मगध आधुनिक विहार राज्य में स्थित है । छठी से चौथी शताब्दी ई. पू. में मगध ( आधुनिक बिहार ) सबसे शक्तिशाली महाजनपद बन गया । प्रारंभ में राजगृह मगध की राजधानी थी । पहाड़ियों के बीच बसा राजगृह एक किलेबंद शहर था । बाद में चौथी शताब्दी ई. पू. में पाटलिपुत्र को राजधानी बनाया गया, जिसे अब पटना कहा जाता है जिसकी गंगा के रास्ते आवागमन के मार्ग पर महत्वपूर्ण अवस्थिति थी ।

🔹 मगध का प्ररंभिक इतिहास हर्यक कुल में राजा बिम्बिसार से प्रारंभ होता है मगध को इन्होंने दिग्विजय और उत्कर्ष के जिस मार्ग पर अग्रसर किया, वह तभी समाप्त हुआ जब कलिंग के युद्ध के उपरांत अशोक ने अपनी तलवार को म्यान में शांति दी ।

मगध महाजनपद के समृद्ध और शक्तिशाली महाजनपद बनने के कारण : –

  • मगध क्षेत्र में खेती की उपज खास तौर पर अच्छी होती थी।
  • दूसरे यह कि लोहे की खदानें (आधुनिक झारखंड में ) भी आसानी से उपलब्ध थीं जिससे उपकरण और हथियार बनाना सरल होता था।
  • जंगली क्षेत्रों में हाथी उपलब्ध थे जो सेना के एक महत्वपूर्ण अंग थे।
  • साथ ही गंगा और इसकी उपनदियों से आवागमन सस्ता व सुलभ होता था।

🔹 लेकिन आरंभिक जैन और बौद्ध लेखकों ने मगध की महत्ता का कारण विभिन्न शासकों की नीतियों को बताया है। इन लेखकों के अनुसार बिंबिसार, अजातसत्तु और महापद्मनंद जैसे प्रसिद्ध राजा अत्यंत महत्त्वाकांक्षी शासक थे, और इनके मंत्री उनकी नीतियाँ लागू करते थे।

एक आरंभिक सम्राज्य (मौर्य साम्राज्य ) 321-185 BC : –

🔹 मगध के विकास के साथ-साथ मौर्य साम्राज्य का उदय हुआ। मौर्य साम्राज्य के संस्थापक चंद्रगुप्त मौर्य ( लगभग 321 ई.पू.) का शासन पश्चिमोत्तर में अफ़गानिस्तान और बलूचिस्तान तक फैला था। उनके पौत्र असोक ने जिन्हें आरंभिक भारत का सर्वप्रसिद्ध शासक माना जा सकता है, कलिंग (आधुनिक उड़ीसा) पर विजय प्राप्त की ।

चंद्रगुप्त मौर्य : –

🔹 चंद्रगुप्त मौर्य का जन्म 340 ई. पूर्व में पटना ( पाटलीपुत्र ) के बिहार जिले में हुआ था। मौर्य साम्राज्य भारत का पहला साम्राज्य था । इन्होंने मौर्य साम्राज्य की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त मौर्य के गुरु (विष्णुगुप्त, कौटिल्य, चाणक्य ) थे ।

मौर्य वंश के बारे में जानकारी के स्रोत : –

🔹 मौर्य साम्राज्य का इतिहास जानने में हमें साहित्य, विदेशी विवरण तथा पुरातात्विक सामग्री इन तीनों से ही पर्याप्त मदद मिलती है।

  • साहित्यिक स्रोतों में कौटिल्य (चाणक्य) का अर्थशास्त्र, विशाखदत्त का मुद्राराक्षस, विष्णु पुराण एवं बौद्ध व जैन ग्रन्थों से मौर्य इतिहास की जानकारी मिलती है।
  • विदेशी विवरण में राजदूत मैगस्थनीज की इण्डिका मौर्यकालीन इतिहास जानने का प्रमुख स्रोत है। सोमदेव का ‘कथासरित्सागर’ और क्षेमेन्द्र का ‘वृहतकथामंजरी’ भी मौर्य इतिहास पर प्रकाश डालते हैं।
  • पुरातात्विक स्रोतों में चन्द्रगुप्त मौर्य, अशोक एवं रुद्रदामन के अभिलेख एवं सिक्के मौर्यकालीन इतिहास को लिखने में अत्यधिक प्रमाणिक एवं मददगार साबित हुये हैं।

मौर्य साम्राज्य की जानकारी के स्त्रोत ( in short ) : –

  • मेगस्थनीज़ की इंडिका कौटिल्य का अर्थशास्त्र
  • जैन साहित्य
  • बौद्ध साहित्य
  • पौराणिक ग्रंथ
  • अभिलेख (अशोक के )
  • संस्कृत वाङमय

मौर्य साम्राज्य में प्रशासन : –

🔹 मौर्य साम्राज्य का शासन प्रबन्ध चार भागों में बाँटा जा सकता है : –

  • केन्द्रीय शासन,
  • प्रान्तीय शासन,
  • नगर शासन,
  • ग्राम शासन ( सेना व्यवस्था )।

(1) केन्द्रीय शासन : –

राजा : – राजा सत्ता का केन्द्र था। वह निरंकुश नहीं था। उस पर मंत्रिपरिषद् का अंकुश था। चाणक्य ने राज्य के सात अंग- राजा, अमात्य, जनपद, दुर्ग, कोष, सेना और मित्र, बताये हैं।

मंत्रिपरिषद् : – इसमें 12 से 20 तक मंत्री होते थे। प्रत्येक मंत्री को 12,000 पण वार्षिक वेतन मिलता था।

अमात्य मण्डल (तीर्थ) : – केन्द्रीय शासन सुविधा की दृष्टि से कई भागों में विभक्त था जिन्हें तीर्थ कहा जाता था। प्रत्येक तीर्थ (विभाग) का अध्यक्ष महामात्र (अमात्य) कहलाता था। अर्थशास्त्र में कुल 18 तीर्थों का उल्लेख है। उदाहरण के लिये एक तीर्थ का प्रधान समाहर्ता था जिसका कार्य राज्य के आय-व्यय का ब्यौरा रखना था । यह राजस्व भी एकत्रित करता था ।

(2) प्रान्तीय शासन : –

  • तक्षशिला और उज्जयिनी दोनो लंबी दूरी वाले महत्वपूर्ण व्यापार मार्ग थे ।
  • सुवर्णगिरी (सोने का पहाड़ ) कर्नाटक में सोने की खाने थी
  • साम्राज्य के संचालन में भूमि और नदियों दोनों मार्गों से आवागमन बना रहना आवश्यक था ।
  • राजधानी से प्रांतो तक जाने में कई सप्ताह या महीने का समय लगता होगा ।

🔹 साम्राज्य के पाँच प्रमुख राजनीतिक केंद्र थे । राजधानी – पाटलिपुत्र और चार प्रांतीय केंद्र – तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि, स्वर्णगिरी । इन सब का उल्लेख अशोक के अभिलेखो में किया जाता है । पश्चिम में पाक से आंध्र प्रदेश, उड़ीसा और उत्तराखण्ड तक हर स्थान पर एक जैसे संदेश उत्कीर्ण किर गए थे । ऐसा माना जाता है इस साम्राज्य में हर जगह एक समान प्रशासनिक व्यवस्था नहीं रही होगी क्योकि अफगानिस्तान का पहाड़ी इलाका दूसरी तरफ उडीसा तटवर्ती क्षेत्र ।

(3) नगर शासन : –

  • शिल्पकला समिति,
  • जनसंख्या समिति,
  • विदेश समिति,
  • उद्योग-व्यापार समिति,
  • वस्तु-निरीक्षक समिति एवं
  • कर निरीक्षक समिति ।

🔹 मेगस्थनीज ने पाटलिपुत्र के नगर प्रशासन का वर्णन किया है। नगर का प्रमुख अधिकारी एस्ट्रोनोमोई तथा जिले का अधिकारी एग्रोनोमोई था। पाटलिपुत्र नगर का प्रशासन 30 सदस्यों के समूह द्वारा होता था । इसकी कुल 6 समितियाँ होती थीं तथा प्रत्येक समिति में 5 सदस्य होते थे। ये समितियाँ थीं : –

सेना व्यवस्था : –

🔹 मेगास्थनीज़ के अनुसार मौर्य साम्राज्य में सेना के संचालन के लिए 1 समिति और 6 उप्समीतियाँ थी ।

  • इनमें से एक का काम नौसेना का संचालन करना था ।
  • तो दूसरी यातायात और खान-पान का संचालन करती थी ।
  • तीसरी का काम पैदल सैनिकों का संचालन, करना ।
  • चौथी का काम अश्वरोही का संचालन करना ।
  • पाँचवी का काम रथारोही का संचालन करना ।
  • छठवी का काम हथियारो का संचालन करना ।

अन्य उपसमितियां : –

🔹 दूसरी उपसमिति का दायित्व विभिन्न प्रकार का था जैसे :- उपकरणों के ढोने के लिए बैलगाड़ियों की व्यवस्था, सैनिकों के लिए भोजन और जानवरों के लिए चारे की व्यवस्था करना तथा सैनिकों की देखभाल के लिए सेवकों और शिल्पकारों की नियुक्ति करना।

मेगस्थनीज : –

  • गस्थनीज यूनानका राजदूत और एक महान इतिहासकार था ।
  • मेगस्थनीज ने एक पुस्तक लिखी थी जिसका नाम इंडिका था , इस पुस्तक से हमें मौर्य साम्राज्य की जानकारी मिलती है ।
  • मेगस्थनीज ने बताया की मौर्य साम्राज्य में सेना के संचालन के लिए 1 समिति और 6 उप्समीतियाँ थी ।

मौर्य साम्राज्य के प्रशासन की प्रमुख विशेषताएं : –

  • एक केन्द्रीयकृत प्रशासनिक व्यवस्था ।
  • सत्ता के पाँच राजनीतिक केन्द्र पाटलिपुत्र, तक्षशिला, उज्जयिनी, तोसलि और सुवर्णगिरि ।
  • सड़कमार्ग एवं नौसेना का विकास करके सुदूर केन्द्रों तक नियंत्रण ।
  • प्रशासनिक नियंत्रण के लिए संगठित सेना का गठन ।
  • ‘धम्म’ के द्वारा जनता तक पहुंचना ।
  • न्यायालयों की स्थापना ।
  • उच्च अधिकारियों की नुियक्ति ।
  • वित्त व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने हेतु व्यवस्थित कर प्रणाली ।
  • सैन्य गतिविधियों का उचित संचालन ।

मौर्य साम्राज्य की आर्थिक व राजनैतिक उपलब्धियां : –

  • मौर्य साम्राज्य आर्थिक एवं राजनैतिक दृष्टि से एक मजबूत साम्राज्य था ।
  • अच्छी कर प्रणाली द्वारा वित्तीय स्थिरता थी ।
  • कृषि में नई तकनीकों का समावेश एवं सिंचाई की अच्छी व्यवस्था ।
  • वाणिज्य एवं व्यापार में सुरक्षा एवं स्थिरता ।
  • सड़क एवं जलमार्ग द्वारा आवागमन अत्यंत सुगम एवं सुरक्षित ।
  • साम्राज्य का विस्तार ।
  • मजबूत सैन्य संगठन द्वारा साम्राज्य की तथा प्रजा की सुरक्षा ।
  • एक आदर्श राज्य की स्थापना ।
  • प्रजा में राजा की दैवीय छवि ।
  • हर प्रकार से एक समृद्ध राज्य की स्थापना ।

सम्राट अशोक : –

🔹 बिन्दुसार के पश्चात् उसका पुत्र अशोक सम्राट बना। वह मौर्य वंश का तीसरा शासक था। अपने पिता के शासन काल में वह उज्जैन तथा तक्षशिला का शासक रह चुका था। देवी, तिस्यरक्षिता, कारुवाकि, आसंदिमित्रा एवं पदमावती आदि अशोक की पत्नियाँ थीं। देवी से उत्पन्न महेन्द्र एवं संघमित्रा अशोक के पुत्र-पुत्री थे।

कलिंग का युद्ध : –

🔹 अशोक ने 261 ईसा पूर्व कलिंग का युद्ध किया। कलिंग युद्ध के बाद अशोक के साम्राज्य में नेपाल, सम्पूर्ण उत्तरी भारत, दक्षिण भारत में मैसूर, कश्मीर के कुछ भाग काबुल, हेरात, बलूचिस्तान तथा बैक्ट्रीया सम्मिलित हो गये। अशोक के तेरहवें शिलालेख से पता चलता है कि उसने राज्याभिषेक के पश्चात् 8वें वर्ष में कलिंग पर विजय प्राप्त की।

🔹 इस युद्ध में डेढ़ लाख लोग बन्दी बनाये गये एवं एक लाख लोग मारे गये । इस भीषण नरसंहार को देखकर अशोक का कठोर हृदय द्रवित हो गया । उसने अब कभी भी शस्त्र ग्रहण न करने की प्रतिज्ञा की। उसने चन्द्रगुप्त द्वारा गठित सेना भंग कर दी, अब उसने युद्ध विजय के स्थान पर धम्म विजय का निश्चय किया।

धम्म से अभिप्राय :-

🔹 अपने दूसरे तथा सातवें स्तम्भ लेखों में अशोक ने धम्म की व्याख्या इस प्रकार की है-धम्म है साधुता, बहुत से कल्याणकारी अच्छे कार्य करना, पापरहित होना, मृदुता, दूसरों के प्रति व्यवहार में मधुरता, दया, दान तथा शुचिता । जीव हिंसा न करना, माता-पिता तथा बड़ों की आज्ञा मानना, गुरुजनों के प्रति आदर, मित्र, परिचितों, सम्बन्धियों, ब्राह्मणों तथा श्रमणों के प्रति दानशीलता तथा उचित व्यवहार भी धम्म के अन्तर्गत आते हैं।

अशोक का धम्म : –

अशोक के धम्म की परिभाषा राहुलोवादसुत्त से ली गई है। धम्म शब्द संस्कृत भाषा के धर्म का प्राकृत रूपान्तर है। अशोक के धम्म में किसी देवता की पूजा अथवा किसी कर्मकाण्ड की आवश्यकता नहीं थी । स्वनियन्त्रण अशोक की धम्म नीति का मुख्य सिद्धान्त था।

🔹 धम्म के सिद्धांत बहुत ही साधारण और सार्वभौमिक थे। असोक के अनुसार धम्म के माध्यम से लोगों का जीवन इस संसार में और इसके बाद के संसार में अच्छा रहेगा। धम्म के प्रचार के लिए धम्म महामात्त नाम से विशेष अधिकारियों की नियुक्ति की गई ।

भारतीय इतिहास में राजा अशोक का योगदान : –

🔹 भारतीय इतिहास में सम्राट अशोक के योगदानों को निम्नलिखित बिन्दुओं में समझा जा सकता है।

  • एक मजबूत साम्राज्य की स्थापना ।
  • केन्द्रीयकृत प्रशासनिक व्यवस्था ।
  • मजबूत सैन्य संगठन ।
  • न्यायालयों की स्थापना ।
  • एक आदर्श राज्य की संकल्पना ।
  • गुप्तचर विभाग की स्थापना।
  • साम्राज्य का विस्तार ।
  • धर्म की स्थापना ।
  • वाणिज्य व्यापार में वृद्धि ।
  • अच्छी कर प्रणाली ।
  • अच्छी सड़क मार्ग एवं नौसेना का गठन ।

मौर्य साम्राज्य कितना महत्वपूर्ण था ?

🔹 9 वी शताब्दी मे जब इतिहासकारो में जब भारत के प्रारंभिक इतिहास की रचना करनी शुरू की तो मौर्य साम्राज्य को इतिहास का मुख्य काल माना गया । इस समय भारत ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन एक औपनिवेशिक देश था ।

  • अदभुत कला का साक्ष्य
  • मूर्तियाँ (सम्राज्य की पहचान )
  • अभिलेख (दूसरो से अलग )
  • अशोक एक महान शासक था ।
  • मौर्य सम्राज्य 150 वर्ष तक ही चल पाया ।

दक्षिण के राजा और सरदार : –

🔹 दक्षिण भारत में ( तमिलनाडु / आंध्रप्रदेश / केरल ) में चोल चेर एवं पांड्य जैसी सरदारियो का उदय हुआ । ये राज्य सृमद्ध तथा स्थाई थे । प्राचीन तमिल संगम ग्रन्थों में इसका उल्लेख मिलता है । सरदार/राजा लंबी दूरी के व्यपार से राजस्व जुटाते थे । इनमें मध्य और पश्चिम भारत के क्षेत्रों पर शासन करने वाले सातवाहन ( लगभग द्वितीय शताब्दी ई. पू. से द्वितीय शताब्दी ई. तक) और उपमहाद्वीप के पश्चिमोत्तर और पश्चिम में शासन करने वाले मध्य एशियाई मूल के शक शासक शामिल थे।

सरदार और सरदारी : –

🔹 सरदार एक शक्तिशाली व्यक्ति होता है जिसका पद वंशानुगत भी हो सकता है और नहीं भी। उसके समर्थक उसके खानदान के लोग होते हैं । सरदारी में सामान्यतया कोई स्थायी सेना या अधिकारी नहीं होते हैं।

सरदार के कार्य : –

🔹 सरदार के कार्यों में विशेष अनुष्ठान का संचालन, युद्ध के समय नेतृत्व करना और विवादों को सुलझाने में मध्यस्थता की भूमिका निभाना शामिल है। वह अपने अधीन लोगों से भेंट लेता है ( जबकि राजा कर वसूली करते हैं), और अपने समर्थकों में उस भेंट का वितरण करता है।

दैविक राजा :-

  • देवी – देवता की पूजा से राजा उच्च उच्च स्थिति हासिल करते थे । कुषाण – शासक ने ऐसा किया ।
  • U. P में मथुरा के पास माट के एक देवस्थान पर कुषाण शासको ने विशाल काय मूर्ति स्थापित की ।
  • अफगानिस्तान में भी ऐसा किया इन मूर्तियो के माध्यम से राजा खुद को देवतुल्य पेश करते थे ।

गुप्त शासकों के इतिहास के स्त्रोत : –

  • अभिलेख
  • सिक्के
  • साहित्य
  • प्रशस्तियाँ (प्रयाग प्रशस्ति समुद्रगुप्त हेतु)

🔹 गुप्त शासकों का इतिहास साहित्य, सिक्कों और अभिलेखों की सहायता से लिखा गया है। साथ ही कवियों द्वारा अपने राजा या स्वामी की प्रशंसा में लिखी प्रशस्तियाँ भी उपयोगी रही हैं।

जनता के बीच राजा की छवी कैसी थी ?

🔹 इसके साक्ष्य ज्यादा नहीं प्राप्त है । जातक कथाओं से इतिहासकारों ने पता लगाने का प्रयास किया । ये कहानियाँ मौखिक थी। फिर बाद में इन्हें पालि भाषा में लिखा गया । गंदतिन्दु जातक कहानी में प्रजा के दुख के बारे में बताया गया ।

🔹 इस कथा से पता चलता है कि राजा और प्रजा, विशेषकर ग्रामीण प्रजा, के बीच संबंध तनावपूर्ण रहते थे, क्योंकि शासक अपने राजकोष को भरने के लिए बड़े-बड़े कर की माँग करते थे जिससे किसान खासतौर पर त्रस्त रहते थे। इस जातक कथा से पता चलता है कि इस संकट से बचने का एक उपाय जंगल की ओर भाग जाना होता था। इसी बीच करों की बढ़ती माँग को पूरा करने के लिए किसानों ने उपज बढ़ाने के और उपाए ढूँढ़ने शुरू किए।

उपज बढ़ाने के तरीके : –

  • उपज बढ़ाने के लिए हल का प्रयोग किया गया
  • लोहे की फाल का प्रयोग किया गया यह भी उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था ।
  • फसल को बढ़ाने के लिए कृषक समुदाय ने मिलकर सिंचाई के नए नए साधन को बनाना शुरू किया ।
  • फसल की उपज बढ़ाने के लिए कई जगह पर तलाब , कुआँ और नहरे जैसे सिंचाई साधन को बनाया गया जो की उपज बढ़ाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाता था ।

ग्रामीण समाज में विभिन्नताएँ : –

🔹 यद्यपि खेती की इन नयी तकनीकों से उपज तो बढ़ी लेकिन इसके लाभ समान नहीं थे। इस बात के प्रमाण मिलते हैं कि खेती से जुड़े लोगों में उत्तरोत्तर भेद बढ़ता जा रहा था।

🔹 बड़े-बड़े ज़मींदार और ग्राम प्रधान शक्तिशाली माने जाते थे जो प्रायः किसानों पर नियंत्रण रखते थे। ग्राम प्रधान का पद प्रायः वंशानुगत होता था । आरंभिक तमिल संगम साहित्य में भी गाँवों में रहने वाले विभिन्न वर्गों के लोगों का उल्लेख है, जैसे कि वेल्लालर या बड़े ज़मींदार; हलवाहा या उल्वर और दास अणिमई ।

गहपति : –

🔹 गहपति घर का मुखिया होता था और घर में रहने वाली महिलाओं, बच्चों, नौकरों और दासों पर नियंत्रण करता था। घर से जुड़े भूमि जानवर या अन्य सभी वस्तुओं का वह मालिक होता था। कभी-कभी इस शब्द का प्रयोग नगरों में रहने वाले संभ्रांत व्यक्तियों और व्यापारियों के लिए भी होता था।

भूमिदान तथा नए सभ्रांत ग्रामीण :-

🔹 ई० की आरंभिक शताब्दियों से ही भूमिदान के प्रमाण मिलते हैं । इनमे से कई का उल्लेख अभिलेखों में मिलता है ।

🔹 इनमे से कुछ अभिलेख पत्थरों पर लिखे गये थे लेकिन अधिकांश ताम्रपत्रो पर खुदे होते थे । जिहे संभवतः उन लोगों को प्रमाण रूप मे दिया जाता था । जो भूमिदान लेते थे ।

🔹 भूमिदान के जो प्रमाण मिले हैं । वे साधारण तौर पर धार्मिक सस्थाओं या ब्राह्मणो को दिए गए थे । इनमे से कुछ अभिलेख संस्कृत में थे ।

🔹 प्रभावतीगुप्त आरंभिक भारत के एक सबसे महत्वपूर्ण शासक चन्द्रगुप्त द्वितीय ( 375 – 415 ई.पू ) की पुत्री थी । उसका विवाह दक्कन पठार के वाकाटक परिवार मे हुआ जो एक महत्वपूर्ण शासक वंश था ।

🔹 संस्कृत धर्मशास्त्रो के अनुसार माहिलाओ को भूमि जैसी संपत्ति पर स्वतंत्र अधिकार नही था लेकिन एक अभिलेख से पता चलता है कि प्रमावति भूमि की स्वामी थी और उसने दान भी किया था इसका कारण यह हो सकता है कि वह एक रानी ( आरंभिक भारतीय इतिहास जी ज्ञात कुछ रानियों में से से एक थी ) और इसलिए उसका यह उदाहरण ही रहा है । यह भी संभव है कि धर्मशास्त्रो को घर स्थान से पर समान रूप से लागू नही किया जाता हो ।

🔹 इतिहासकारो मे भूमिदान का प्रभाव एक महत्वपूर्ण वाद – विवाद का विषय बना हुआ है ।

नए नगर : –

🔹 इनमें से अधिकांश नगर महाजनपदों की राजधानियाँ थे। प्रायः सभी नगर संचार मार्गों के किनारे बसे थे। पाटलिपुत्र जैसे कुछ नगर नदीमार्ग के किनारे बसे थे। उज्जयिनी जैसे अन्य नगर भूतल मार्गों के किनारे थे। इसके अलावा पुहार जैसे नगर समुद्रतट पर थे, जहाँ से समुद्री मार्ग प्रारंभ हुए। मथुरा ‘जैसे अनेक शहर व्यावसायिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक गतिविधि यों के जीवंत केंद्र थे।

पाटलिपुत्र का इतिहास : –

🔹 प्रत्येक नगर का अपना इतिहास था। उदाहरण के तौर पर, पाटलिपुत्र का विकास पाटलिग्राम नाम के एक गाँव से हुआ। फिर पाँचवीं सदी ई. पू. में मगध शासकों ने अपनी राजधानी राजगाह से हटाकर इसे बस्ती में लाने का निर्णय किया और इसका नाम बदल दिया।

🔹 चौथी शताब्दी ई. पू. तक आते-आते यह मौर्य साम्राज्य की राजधानी और एशिया के सबसे बड़े नगरों में से एक बन गया। बाद में इसका महत्त्व कम हो गया और जब चीनी यात्री श्वैन सांग सातवीं सदी ई. में यहाँ आया तो इसे यह नगर खंडहर में बदला मिला और उस समय यहाँ की जनसंख्या भी कम थी।

संभ्रांत वर्ग और शिल्पकार : –

🔹 शासक वर्ग और राजा किलेबंद नगरों में रहते थे। यहां खुदाई में इनमें उत्कृष्ट श्रेणी के मिट्टी के कटोरे और थालियाँ मिली हैं जिन पर चमकदार कलई चढ़ी है। इन्हें उत्तरी कृष्ण मार्जित पात्र कहा जाता है। संभवतः इनका उपयोग अमीर लोग किया करते होंगे। साथ ही सोने चाँदी, कांस्य, ताँबे, हाथी दाँत, शीशे जैसे तरह-तरह के पदार्थों के बने गहने, उपकरण, हथियार, बर्तन, सीप और पक्की मिट्टी मिली हैं।

व्यापार और व्यवसाय : –

🔹 द्वितीय शताब्दी ई.पू. आते-आते हमें कई नगरों में छोटे दानात्मक अभिलेख प्राप्त होते हैं। इनमें दाता के नाम के साथ-साथ प्रायः उसके व्यवसाय का भी उल्लेख होता है। इनमें नगरों में रहने वाले धोबी, बुनकर, लिपिक, बढ़ाई, कुम्हार, स्वर्णकार, लौहकार, अधिकारी, धार्मिक गुरु, व्यापारी और राजाओं के बारे में विवरण लिखे होते हैं।

🔹 कभी-कभी उत्पादकों और व्यापारियों के संघ का भी उल्लेख मिलता है जिन्हें श्रेणी कहा गया है। ये श्रेणियाँ संभवत: पहले कच्चे माल को खरीदती थीं; फिर उनसे सामान तैयार कर बाज़ार में बेच देती थीं।

उपमहाद्वीप और उसके बाहर का व्यापार : –

🔹 छठी शताब्दी ई.पू. से ही उपमहाद्वीप में नदी मार्गों और भूमार्गों का मानो जाल बिछ गया था और कई दिशाओं में फैल गया था। मध्य एशिया और उससे भी आगे तक भू-मार्ग थे। समुद्रतट पर बने कई बंदरगाहों से जलमार्ग अरब सागर से होते हुए, उत्तरी अफ्रीका, पश्चिम एशिया तक फैल गया; और बंगाल की खाड़ी से यह मार्ग चीन और दक्षिणपूर्व एशिया तक फैल गया था।

🔹 इन मार्गों पर चलने वाले व्यापारियों में पैदल फेरी लगाने वाले व्यापारी तथा बैलगाड़ी और घोड़े – खच्चरों जैसे जानवरों के दल के साथ चलने वाले व्यापारी होते थे।

🔹 तमिल भाषा में मसत्थुवन और प्राकृत में सत्थवाह और सेट्ठी के नाम से प्रसिद्ध सफल व्यापारी बड़े धनी हो जाते थे। नमक, अनाज, कपड़ा, धातु और उससे निर्मित उत्पाद, पत्थर, लकड़ी, जड़ी-बूटी जैसे अनेक प्रकार के सामान एक स्थान से दूसरे स्थान तक पहुँचाए जाते थे।

सिक्के और राजा :-

  • सिक्के के चलन से व्यापार आसान हो गया ।
  • चॉदी । ताँबे के आहत सिक्के प्रयोग में लाए ।
  • ये सिक्के खुदाई में मिले है ।
  • आहत सिक्के पर प्रतीक चिहन भी थे ।
  • सिक्के राजाओं ने जारी किए थे ।
  • शासको की प्रतिमा तथा नाम के साथ सबसे पहले सिक्के यूनानी शासको ने जारी किए ।
  • सोने के सिक्के सर्वप्रथम कुषाण राजाओ ने जारी किए थे ।
  • मूल्यांकन वस्तु के विनिमय में सोने के सिक्के का प्रयोग किया जाता था ।
  • दक्षिण भारत मे बड़ी तादात में रोमन सिक्के मीले है।
  • सोने के सबसे आकर्षक सिक्के गुप्त शासको ने जारी किए ।

ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ : –

🔹 भारतीय अभिलेख विज्ञान में एक उल्लेखनीय प्रगति 1830 के दशक में हुई, जब ईस्ट इंडिया कंपनी के एक अधिकारी जेम्स प्रिंसेप ने ब्राह्मी और खरोष्ठी लिपियों का अर्थ निकाला। इन लिपियों का उपयोग सबसे आरंभिक अभिलेखों और सिक्कों में किया गया है।

पियदस्सी :-

🔹 पियदस्सी का मतलब होता है मनोहर मुखाकृति वाला राजा अर्थात जिसका मुह सुंदर हो ऐसा राजा ।

ब्राह्मी लिपि का अध्ययन : –

🔹 आधुनिक भारतीय भाषाओं में प्रयुक्त लगभग सभी लिपियों का मूल ब्राह्मी लिपि है। ब्राह्मी लिपि का प्रयोग असोक के अभिलेखों में किया गया है।

🔹 आरंभिक अभिलेखों का अध्ययन करने वाले विद्वानों ने कई बार यह अनुमान लगाया कि ये संस्कृत में लिखे हैं जबकि प्राचीनतम अभिलेख वस्तुतः प्राकृत में थे। फिर कई दशकों बाद अभिलेख वैज्ञानिकों के अथक परिश्रम के बाद जेम्स प्रिंसेप ने असोककालीन ब्राह्मी लिपि का 1838 ई. में अर्थ निकाल लिया।

खरोष्ठी लिपि को कैसे पढ़ा गया?

  • पश्चिमोत्तर से पाए गए अभिलेखों में खरोष्ठी लिपि का प्रयोग किया गया था ।
  • इस क्षेत्र में हिन्दू – यूनानी शासक शासन करते थे और उनके द्वारा बनवाये गए सिक्को से खरोष्ठी लिपि के बारे में जानकारी मिलती है ।
  • उनके द्वारा बनवाये गए सिक्कों में राजाओं के नाम यूनानी और खरोष्ठी में लिखे गए थे ।
  • यूनानी भाषा पढने वाले यूरोपीय विद्वानों में अक्षरों का मेल किया ।

अभिलेख : –

🔹 अभिलेख उन्हें कहते हैं जो पत्थर, धातु या मिट्टी के बर्तन जैसी कठोर सतह पर खुदे होते हैं। अभिलेखों के अध्ययन को अभिलेखशास्त्र कहते हैं । अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियाँ, क्रियाकलाप या विचार लिखे जाते हैं जो उन्हें बनवाते हैं। इनमें राजाओं के क्रियाकलाप तथा महिलाओं और पुरुषों द्वारा धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्योरा होता है। यानी अभिलेख एक प्रकार से स्थायी प्रमाण होते हैं।

अभिलेखों से प्राप्त ऐतिहासिक साक्ष्य : –

  • इनमें धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का ब्यौरा होता है ।
  • ये स्थाई प्रमाण होते हैं।
  • प्राचीनतम अभिलेख प्राकृत (जनसामान्य ) भाषाओं में लिखे जाते थे ।
  • अभिलेखों में उन लोगों की उपलब्धियां क्रियाकलाप तथा विचार लिखे जाते है जो इन्हें बनवाते हैं ।
  • इन पर ‘इनके निर्माण की तिथि भी खुदी होती है।
  • तिथि न मिलने पर इनका काल निर्धारण पुरालिपि) अथवा लेखन शैली के आधर पर किया जाता है ।

अभिलेख की साक्ष्य सीमा : –

  • तकनीकी सीमा अक्षरों को हल्के ढंग से उत्कीर्ण किया जाता है जिन्हें पढ़ पाना मुश्किल होता है।
  • कभी-कभी अभिलेख नष्ट भी हो जाते हैं जिनसे अक्षर लुप्त हो जाते हैं।
  • शब्दों के वास्तविक अर्थ का पूर्व रूप से ज्ञान नहीं होता कुछ किसी विशेष स्थान या समय से संबंधित ।
  • कई हजार अभिलेख प्राप्त हुए हैं लेकिन सभी का अर्थ, प्रकाशन या अनुवाद नहीं किया गया है।
  • प्रायः अभिलेख बड़े और विशेष अवसरों का वर्णन करते हैं
  • जरूरी नहीं है जिसे आज राजनीतिक और आर्थिक रूप से महत्वपूर्ण मानते हैं उन्हें अभिलेखों में अंकित किया गया हो।
  • इसके अलावा अभिलेख हमेशा उन्हीं व्यक्तियों के विचार व्यक्त करते हैं जो उन्हें बनवाते थे।
  • इनमें खेती की दैनिक क्रियाएं प्रक्रियाएं और रोजमर्रा की जिंदगी के दुख सुख का उल्लेख नही है।
  • अभिलेखों में व्यक्त विचारों की समीक्षा अन्य विचारों के परिप्रेक्ष्य में करनी होगी ताकि अपनी अतीत का बेहतर ज्ञान हो सके।
  • अनेक अभिलेख जो कालांतर में सुरक्षित नहीं बचे जो अभी उपलब्ध हैं वह संभवत अभिलेखों के अंश मात्र हैं।

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