थेरीगाथा : –
🔹 थेरीगाथा बौद्ध ग्रन्थ ‘सुत्तपिटक’ का भाग है जिसमें भिक्खुणियों द्वारा रचित छन्दों का संकलन किया गया है। इससे उस युग की महिलाओं के सामाजिक व आध्यात्मिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
बुद्ध के अनुयायी : –
🔹 बुद्ध के अनुयायी कई सामाजिक वर्गों से आए। इनमें राजा, धनवान, गृहपति और सामान्य जन कर्मकार, दास, शिल्पी, सभी शामिल थे। एक बार संघ में आ जाने पर सभी को बराबर माना जाता था क्योंकि भिक्खु और भिक्खुनी बनने पर उन्हें अपनी पुरानी पहचान को त्याग देना पड़ता था।
🔹 संघ की संचालन पद्धति गणों और संघों की परंपरा पर आधारित थी । इसके तहत लोग बातचीत के माध्यम से एकमत होने की कोशिश करते थे। अगर यह संभव नहीं होता था तो मतदान द्वारा निर्णय लिया जाता था।
भिक्षुओं और भिक्खुनियों के लिए नियम : –
- ये नियम विनय पिटक में मिलते हैं। :
🔹 जब कोई भिक्खु एक नया कंबल या गलीचा बनाएगा तो उसे इसका प्रयोग कम से कम छः वर्षों तक करना पड़ेगा। यदि छः वर्ष से कम अवधि में वह बिना भिक्खुओं की अनुमति के एक नया कंबल या गलीचा बनवाता है तो चाहे उसने अपने पुराने कंबल / गलीचे को छोड़ दिया हो या नहीं नया कंबल या गलीचा उससे ले लिया जाएगा और इसके लिए उसे अपराध स्वीकरण करना होगा।
🔹 यदि कोई भिक्खु किसी गृहस्थ के घर जाता है और उसे टिकिया या पके अनाज का भोजन दिया जाता है तो यदि उसे इच्छा हो तो वह दो से तीन कटोरा भर ही स्वीकार कर सकता है। यदि वह इससे ज़्यादा स्वीकार करता है तो उसे अपना ‘अपराध’ स्वीकार करना होगा। दो या तीन कटोरे पकवान स्वीकार करने के बाद उसे इन्हें अन्य भिक्खुओं के साथ बाँटना होगा। यही सम्यक आचरण है।
🔹 यदि कोई भिक्खु जो संघ के किसी विहार में ठहरा हुआ है, प्रस्थान के पहले अपने द्वारा बिछाए गए या बिछवाए गए बिस्तरे को न ही समेटता है, न ही समेटवाता है, या यदि वह बिना विदाई लिए चला जाता है तो उसे अपराध स्वीकरण करना होगा।
बुद्ध के जीवन से जुड़े स्थान : –
🔹 बौद्ध साहित्य में बुद्ध के जीवन से जुड़े स्थानों का भी वर्णन है जहाँ वे जन्मे (लुम्बिनी), जहाँ उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया (बोधगया), जहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश दिया (सारनाथ) तथा जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया (कुशीनगर)।
बौद्ध धर्म का तीव्रता से विस्तार क्यों हुआ ?
- जनता समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असन्तुष्ट थी।
- बौद्ध शिक्षाओं में जन्म के आधार पर श्रेष्ठता की अपेक्षा अच्छे आचरण एवं मूल्यों को महत्व प्रदान किया गया।
- बौद्ध धर्म में स्वयं से छोटे और कमजोर लोगों की ओर मित्रता व करुणा के भाव को महत्व दिया गया था ।
अंड : –
🔹 स्तूप का जन्म एक गोलार्द्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ है; जिसे बाद में अंड कहा गया।
दानात्मक अभिलेख : –
🔹 धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का विवरण रखने वाले अभिलेख । उदाहरण :- साँची का दानात्मक अभिलेख ।
चैत्य : –
🔹 शवदाह के पश्चात् बौद्धों के शरीर के कुछ अवशेष टीलों में सुरक्षित रख दिए जाते थे। अन्तिम संस्कार से जुड़े इन तरीकों को चैत्य कहा जाता था।
स्तूप क्या है ?
🔹 ऐसे कई अन्य स्थान हैं जिन्हें पवित्र माना जाता है। इन स्थानों पर बुद्ध से जुड़े कुछ अवशेष, जैसे- उनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त सामान गाढ़ दिए गए थे। इन टीलों को स्तूप कहा जाता है। स्तूप को संस्कृत में टीला कहा जाता है।
स्तूप के प्रकार : –
🔹 स्तूप सामायतः चार प्रकार के होते थे
🔸 शारीरिक : – इनमें भगवान बुद्ध व उनके शिष्यों की अस्थियाँ व शरीर के सब अंग रखे जाते थे ।
🔸 पारिभौतिक : – इनमें बुद्ध द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुओं को रखा जाता था ।
🔸 उद्देश्य : – यह स्तूप गौतम बुद्ध से संबंधित स्थानों जन्म, निर्वाण, यज्ञ स्थल आदि के स्मृति स्वरूप बनाये हैं ।
🔸 संकल्पित : – यह बौद्ध तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं द्वारा बनाये गए हैं। इनका आकार छोटा होता है।
स्तूप क्यों बनाए जाते थे?
🔹 स्तूप बनाने की परम्परा बुद्ध से पहले रही होगी, परन्तु यह बौद्ध धर्म के साथ जुड़ गई। स्तूपों में पवित्र अवशेष होने के कारण समूचे स्तूप को बौद्ध धर्म और बुद्ध के प्रतीक के रूप में माना जाता था।
🔹 अशोकावदान नामक एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार असोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से हर महत्वपूर्ण शहर में बाँट कर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश दिया।
स्तूप कैसे बनाए गए ?
🔹 स्तूपों की वेदिकाओं और स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इन्हें बनाने और सजाने के लिए दिए गए दान का पता चलता है। कुछ दान राजाओं के द्वारा दिए गए थे (जैसे सातवाहन वंश के राजा), तो कुछ दान शिल्पकारों और व्यापारियों की श्रेणियों द्वारा दिए गए। इन इमारतों को बनाने में भिक्खुओं और भिक्खुनियों ने भी दान दिया।
स्तूप की संरचना ( बनावट ) : –
- स्तूप (संस्कृत अर्थ टीला ) का जन्म एक गोलार्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ ।
- इसे बाद में अंड कहा गया।
- धीरे-धीरे इसकी संरचना ज़्यादा जटिल हो गई जिसमें कई चौकोर और गोल आकारों का संतुलन बनाया गया।
- अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी।
- यह छज्जे जैसा ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था।
- हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर अक्सर एक छत्री लगी होती थी।
- टीले के चारों ओर एक वेदिका होती थी जो पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से अलग करती थी ।
- उपासक पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके स्तूप की परिक्रमा करते थे ।
हर्मिका : –
🔹 ‘हर्मिका’ स्तूप का महत्वपूर्ण भाग है जिसका अर्थ देवताओं का निवास स्थान होता है।
अमरावती के स्तूप : –
🔹 स्तूपों की खोज का भी एक इतिहास है। अमरावती के स्तूप की खोज अचानक हुई। 1796 ई. में एक स्थानीय राना मन्दिर बनाना चाहता था। अचानक उन्हें अमरावती के स्तूप के अवशेष मिल गए।
🔹 आंध्र प्रदेश के गुंटूर के कमिश्नर एलियट ने जिज्ञासावश 1854 ई. में अमरावती की यात्रा की। वह यहाँ से कई मूर्तियों व उत्कीर्ण पत्थरों को मद्रास (वर्तमान चेन्नई) ले गया। उसने स्तूप के पश्चिमी तोरणद्वार को भी खोज निकाला। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अमरावती का स्तूप बौद्धों का सबसे विशाल एवं शानदार स्तूप था ।
🔹 पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल ने अमरावती के स्तूप को बचाने का भरसक प्रयास किया लेकिन वह इस स्तूप को नष्ट होने से नहीं बचा सके।
अमरावती का स्तूप नष्ट क्यों हुआ ?
- 1850 के दशक में अमरावती के उत्कीर्ण पत्थर अलग-अलग जगहों पर ले जाए जा रहे थे।
- कुछ पत्थर कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल पहुँचे, तो कुछ मद्रास में इंडिया ऑफिस ।
- कुछ पत्थर लंदन तक पहुँच गए।
🔹 कई अंग्रेज़ अधिकारियों के बागों में अमरावती की मूर्तियाँ पाना कोई असामान्य बात नहीं थी । वस्तुतः इस इलाके का हर नया अधिकारी यह कहकर कुछ मूर्तियाँ उठा ले जाता था कि उसके पहले के अधिकारियों ने भी ऐसा किया। इसी तरह धीरे- धीरे अमरावती का स्तूप नष्ट हो गया ।
एक अलग सोच के व्यक्ति – एच. एच कॉल : –
🔹 पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल उन मुट्ठी भर लोगों में एक थे जो अलग सोचते थे। उन्होंने लिखा ” इस देश की प्राचीन कलाकृतियों की लूट होने देना मुझे आत्मघाती और असमर्थनीय नीति लगती है।” वे मानते थे कि संग्रहालयों में मूर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृतियाँ रखी जानी चाहिए जबकि असली कृतियाँ खोज की जगह पर ही रखी जानी चाहिए।
🔹 दुर्भाग्य से कोल अधिकारियों को अमरावती पर इस बात के लिए राजी नहीं कर पाए। लेकिन खोज की जगह पर ही संरक्षण की बात को साँची के लिए मान लिया गया।
साँची का स्तूप : –
🔹 साँची में एक प्राचीन स्तूप है, जो की अपनी सुन्दरता के लिए काफी प्रसिद्ध है । साँची का यह प्राचीन स्तूप महान सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था । इस स्तूप का निर्माणकार्य तीसरी शताब्दी ई० पू० से शुरू हुआ।
साँची का स्तूप कहाँ स्थित है ?
🔹 साँची भोपाल में एक जगह का नाम है जो मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले, में बेतवा नदी के तट स्थित एक छोटा सा गांव है। यह भोपाल से 46 कि०मी० पूर्वोत्तर में, तथा बेसनगर और विदिशा से 10 कि०मी० की दूरी पर मध्य प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है।
साँची के स्तूप की खोज : –
🔹 साँची के स्तूप की खोज 1818 ई. में हुई थी। इसके चार तोरण द्वार थे। इनमें से तीन तोरण द्वार ठीक हालत में खड़े थे जबकि चौथा तोरण द्वार वहीं पर गिरा हुआ था ।
साँची के पूर्वी तोरण द्वार ले जाना : –
🔹 19वीं शताब्दी में यूरोपीय लोगों ने साँची के स्तूंप में बहुत अधिक रुचि दिखाई। ‘फ्रांसीसी तथा अंग्रेज साँची के पूर्वी तोरण द्वार को अपने देश ले जाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से भी अनुमति माँगी। सौभाग्यवश वे इनकी प्लास्टिक प्रतिकृतियों से ही सन्तुष्ट हो गए। इस प्रकार यह मूल कृति भोपाल राज्य में अपने स्थान पर बनी रही।
साँची के स्तूप का सरंक्षण : –
🔹 साँची के स्तूप को भोपाल के शासकों ने संरक्षण प्रदान किया जिनमें शाहजहाँ बेगम एवं सुल्तान जहाँ बेगम आदि प्रमुख थी ।
🔹 उन्होंने इस प्राचीन स्थल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान दिया। आश्चर्य नहीं कि जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे अपने महत्वपूर्ण ग्रंथों को सुल्तानजहाँ को समर्पित किया।
🔹 सुल्तानजहाँ बेगम ने वहाँ पर एक संग्रहालय और अतिथिशाला बनाने के लिए अनुदान दिया। वहाँ रहते हुए ही जॉन मार्शल ने उपर्युक्त पुस्तकें लिखीं। इस पुस्तक के विभिन्न खंडों के प्रकाशन में भी सुल्तानजहाँ बेगम ने अनुदान दिया ।
🔹 वर्तमान में साँची के स्तूप की देखरेख का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभागकर रहा है।
साँची के स्तूप का महत्व : –
🔹 साँची का स्तूप प्राचीन भारत की अद्भुत स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है।
- साँची से प्राप्त उत्कीर्णित अनेक मूर्तियों के अध्ययन द्वारा विद्वानों ने लोक- परम्पराओं को समझने का बहुत अधिक प्रयास किया है।
- साँची के स्तूप में उत्कीर्णित ‘शालभंजिका’ की मूर्ति के बारे में लोक-परम्परा के अनुसार यह माना जाता है कि इस स्त्री द्वारा छुए जाने से वृक्षों में फूल खिल उठते थे एवं फल आने लगते थे।
- साँची में जानवरों के कुछ बहुत सुन्दर उत्कीर्णन पाए गए हैं जिनमें हाथी, घोड़े, बन्दर एवं गाय-बैल आदि सम्मिलित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन जानवरों का उत्कीर्णन लोगों को आकर्षित करने के लिए किया गया था।