Class 12 History Chapter 4 विचारक विश्वास और इमारतें Notes In Hindi
Textbook | NCERT |
Class | Class 12 |
Subject | History |
Chapter | Chapter 4 |
Chapter Name | विचारक विश्वास और इमारतें |
Category | Class 12 History |
Medium | Hindi |
Class 12 History Chapter 4 विचारक विश्वास और इमारतें Notes in Hindi इस अध्याय मे हम जैन तथा बौद्ध धर्म एवं स्तूप इत्यादि पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।
ईसा पूर्व 600 से ईसा संवत् 600 तक का कालखण्ड आरंभिक भारतीय इतिहास में एक निर्णायक मोड़ माना जाता है जिसमें नयी दार्शनिक विचारधाराओं का उद्गम हुआ। इस कालखण्ड के प्रमुख ऐतिहासिक स्रोत बौद्ध, जैन एवं ब्राह्मण ग्रन्थों के अतिरिक्त इमारतें एवं अभिलेख हैं। उस युग की बची हुई इमारतों में सबसे सुरक्षित है साँची का स्तूप।
ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि ( एक महत्वपूर्ण काल ) : –
🔹 ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि का काल विश्व इतिहास में एक महत्वपूर्ण मोड़ माना जाता है। इस काल में ईरान में जरथुस्त्र जैसे चिंतक, चीन में खुंगत्सी, यूनान में सुकरात, प्लेटो, अरस्तु और भारत में महावीर, बुद्ध और कई अन्य चिंतकों का उद्भव हुआ। उन्होंने जीवन के रहस्यों को समझने का प्रयास किया।
यज्ञ : –
- पूर्व वैदिक परंपरा जिसकी जानकारी हमें 1500 से 1000 ईसा पूर्व में संकलित ऋग्वेद से मिलती है।
- ऋग्वेद के अंदर अग्नि, इंद्र, सोम, आदि देवताओं को पूजा जाता है।
- यज्ञ के समय लोग मवेशी, बेटे, स्वास्थ्य, और लम्बी आयु के लिए प्रार्थना करते हैं ।
- शुरू शुरू में यज्ञ सामूहिक रूप से किए जाते थे। बाद में घर के मालिक खुद यज्ञ करवाने लगे ।
- राजसूय और अश्वमेध जैसे जटिल यज्ञ सरदार और राजा किया करते थे। इनके अनुष्ठान के लिए उन्हें ब्राह्मण पुरोहितों पर निर्भर रहना पड़ता था।
राजसूय यज्ञ : –
🔹 उत्तरवैदिक काल में राजा के राज्याभिषेक के समय किया जाने वाला अनुष्ठान जिसमें राजा रथों की दौड़ में भाग लेता था तथा यह आशा की जाती थी कि राजा का रथ सबसे आगे होगा।
अश्वमेध यज्ञ : –
🔹 उत्तर वैदिक काल में राजा व सरदारों द्वारा किये जाने वाला अनुष्ठान जिसमें राजा एक घोड़ा छोड़ता था जो जहाँ-जहाँ जाता था वह क्षेत्र राजा के अधिकार क्षेत्र में माना जाता था तथा जो शासक यज्ञ के घोड़े को पकड़ लेता था उसे यज्ञ करने वाले राजा से युद्ध करना होता था। यज्ञ की समाप्ति के उपरान्त राजा स्वयं को चक्रवर्ती सम्राट घोषित करता था ।
नए प्रश्न : –
🔹 उपनिषदों (छठी सदी ई. पू. से) में पाई गई विचारधाराओं से पता चलता है कि लोग जैसे : –
- जीवन का अर्थ क्या है ?
- मृत्यु के बाद जीवन की संभावना,
- पुनर्जन्म के बारे में जानने के लिए उत्सुक थे।
- क्या पुनर्जन्म अतीत के कर्मों के कारण होता था?
🔹 ऐसे मुद्दों पर पुरज़ोर बहस होती थी। वैदिक परंपरा से बाहर के कुछ दार्शनिक यह सवाल उठा रहे थे कि सत्य एक होता है या अनेक लोग यज्ञों के महत्त्व के बारे में भी चिंतन करने लगे।
सम्प्रदाय : –
🔹 किसी विषय या सिद्धान्त के संबंध में एक ही विचार या मत रखने वाले लोगों का समूह, वर्ग या शाखा।
वाद-विवाद और चर्चाएँ : –
🔹 समकालीन बौद्ध ग्रन्थों में हमें 64 सम्प्रदायों या चिन्तन परम्पराओं का उल्लेख मिलता है जिनसे हमें जीवन्त चर्चाओं एवं विवादों की एक झाँकी मिलती है। शिक्षक स्थान-स्थान पर घूमकर अपने दर्शन या विश्व के विषय में अपने ज्ञान को लेकर एक-दूसरे से एवं सामान्य लोगों से तर्क-वितर्क करते रहते थे।
🔹 ये चर्चाएँ कुटागारशालाओं (शब्दार्थ- नुकीली छत वाली झोपड़ी) या ऐसे उपवनों में होती थीं जहाँ घुमक्कड़ मनीषी ठहरा करते थे।
🔹 महावीर एवं बुद्ध सहित कई विचारकों ने वेदों के प्रभुत्व पर प्रश्न उठाया और कहा कि जीवन के दुःखों से मुक्ति का प्रयास प्रत्येक व्यक्ति स्वयं कर सकता है।
जातक : –
🔹 महात्मा बुद्ध के पूर्व जन्म की कहानियों का संग्रह जिनकी कुल संख्या 550 के लगभग है।
त्रिपिटक : –
🔹 बुद्ध के किसी भी संभाषण को उनके जीवन काल में लिखा नहीं गया। उनकी मृत्यु के बाद (पाँचवीं चौथी सदी ई.पू.) उनके शिष्यों ने ‘ज्येष्ठों’ या ज्यादा वरिष्ठ श्रमणों की एक सभा वेसली (बिहार स्थित वैशाली का पालि भाषा में रूप) में बुलाई। वहाँ पर ही उनकी शिक्षाओं का संकलन किया गया। इन संग्रहों को ‘त्रिपिटक’ कहा जाता था।
त्रिपिटक का अर्थ : –
🔹 त्रिपिटक शब्दार्थ भिन्न प्रकार के ग्रंथों को रखने के लिए ‘तीन टोकरियाँ’ अर्थात त्रिपिटक को तीन टोकरियाँ भी कहा जाता है जहां बुद्ध संग्रहों को रहा गया है।
- विनय पिटक : – विनय पिटक में संघ या बौद्ध मठों में रहने वाले लोगों के लिए नियमों का संग्रह था।
- सुन पिटक : – सुन पिटक में बुद्ध की शिक्षाएँ रखी गईं ।
- अभिधम्मपिटक : – दर्शन से जुड़े विषय अभिधम्मपिटक में आए।
दीपवंश : –
🔹 इसका अर्थ है – दीपों का इतिहास । यह एक सिंहली बौद्ध ग्रन्थ है। आरंभिक काल में बौद्ध धर्म जब श्रीलंका में प्रसारित हुआ उस समय इसकी रचना हुई थी।
महावंश : –
🔹 महावंश का शाब्दिक अर्थ है महान इतिहास। यह भी एक सिंहली बौद्ध ग्रन्थ है। इसके अनेक विवरण महात्मा बुद्ध के जीवन से संबंधित हैं।
नियतिवादी : –
🔹 बौद्ध धर्म से संबंधित आजीवक परम्परा के लोग जिनके अनुसार जीवन में सब कुछ पूर्व निर्धारित है। इसे परिवर्तित नहीं किया जा सकता नियतिवादी कहलाते थे।
भौतिकवादी : –
🔹 लोकायत परम्परा के वे लोग जो दान, दक्षिणा, चढ़ावा आदि देने को खोखला, झूठ एवं मूल्यों का सिद्धान्त मानते थे। वे जीवन का भरपूर आनन्द लेने में विश्वास करते थे ।
लोकायत : –
🔹 बौद्ध धर्म से संबंधित वह धार्मिक सम्प्रदाय जो अपने उपदेश गद्य में देते हैं। इन्हें भौतिकवादी भी कहा जाता है।
तीर्थंकर : –
🔹 जैन परम्परा के अनुसार महावीर स्वामी से पहले 23 शिक्षक हो चुके थे जिन्हें तीर्थंकर कहा जाता है। इसका अर्थ है कि वे महापुरुष जो पुरुषों और महिलाओं को जीवन की नदी के पार पहुँचाते हैं।
जैन धर्म : –
🔹 जैन धर्म के मूल सिद्धांत वर्द्धमान महावीर के जन्म से पूर्व छठी ई. पू. में प्रचलित थे । महावीर के पहले 23 तीर्थंकर हो चुके थे। पहले तीर्थंकर ऋषभदेव तथा 23वें पार्श्वनाथ थे।
🔹 प्राप्त साक्ष्यों के अनुसार जैन धर्म के 24वें तीर्थंकर वर्धमान महावीर ने जैन धर्म को तथा इसकी शिक्षाओं को जन मानस तक पहुँचाया।
🔹 जैन विद्वानों ने संस्कृत, प्राकृत एवं तमिल जैसी भाषाओं में साहित्य का सृजन किया ।
जैन दर्शन की अवधारणा : –
🔹 जैन दर्शन की सबसे महत्वपूर्ण अवधारणा यह है कि संपूर्ण विश्व प्राणवान है। यह माना जाता है कि पत्थर, चट्टान और जल में भी जीवन होता है। जीवों के प्रति अहिंसा – खासकर इनसानों, जानवरों, पेड़-पौधों और कीड़े-मकोड़ों को न मारना जैन दर्शन का केंद्र बिंदु है।
🔹 जैन मान्यता के अनुसार जन्म और पुनर्जन्म का चक्र कर्म के द्वारा निर्धारित होता है। कर्म के चक्र से मुक्ति के लिए त्याग और तपस्या की ज़रूरत होती है। यह संसार के त्याग से ही संभव हो पाता है।
जैन साधु और साध्वी के पाँच व्रत : –
🔹 जैन साधु और साध्वी पाँच व्रत करते थे : –
- अहिंसा – हत्या ना करना।
- सत्य – झूठ ना बोलना।
- अस्तेय – चोरी ना करना।
- अपरिग्रह – धन इकट्ठा ना करना।
- अमृषा – ब्रह्मचर्य का पालन करना।
जैन धर्म का विस्तार : –
🔹 धीरे-धीरे जैन धर्म भारत के कई हिस्सों में फैल गया। बौद्धों की तरह ही जैन विद्वानों ने प्राकृत, संस्कृत, तमिल जैसी अनेक भाषाओं में काफ़ी साहित्य का सृजन किया। सैकड़ों वर्षों से इन ग्रंथों की पांडुलिपियाँ मंदिरों से जुड़े पुस्तकालयों में संरक्षित हैं।
🔹 भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में पायी गई जैन तीर्थंकरों की मूर्तियाँ इस बात का प्रमाण हैं कि जैन धर्म भारत के कई भागों में फैला हुआ था।
संतचरित्र : –
🔹 संतचरित्र किसी संत या धार्मिक नेता की जीवनी है। संतचरित्र संत की उपलब्धियों का गुणगान करते हैं, जो तथ्यात्मक रूप से पूरी तरह सही नहीं होते। ये इसलिए महत्वपूर्ण हैं कि ये हमें उस परंपरा के अनुयायियों के विश्वासों के बारे में बताते हैं।
बौद्ध धर्म : –
- बौद्ध धर्म भारत की श्रावक परंपरा से निकला ज्ञान धर्म और दर्शन है।
- बौद्ध धर्म की स्थापना लगभग 6वीं शताब्दी ई० पु० में हुई।
- इस धर्म को मानने वाले ज्यादातर लोग चीन, जापान, कोरिया, थाईलैंड, श्रीलंका, नेपाल, इंडोनेशिया, म्यांमार, और भारत से हैं ।
महात्मा बुद्ध : –
- बौद्ध धर्म के संस्थापक = महात्मा बुद्ध
- पूरा नाम = गौतम बुद्ध
- बचपन का नाम = सिद्धार्थ
- जन्म = 563 ई . पू
- जन्म स्थान = लुम्बिनी , नेपाल
- पिता का नाम = शुशोधन
- माँ का नाम = मायादेवी ( बुद्ध के जन्म के 7 दिन बाद इनकी मृत्यु हुई )
- सौतेली माँ = महाप्रजापती गौतमी ( जिन्होंने इनका लालन – पोषण किया )
- वंश = शाक्य वंश
- पत्नी = यशोधरा
- पुत्र का नाम = राहुल
- गोत्र = गौतम
- राज्य का नाम = शाक्य गणराज्य
- राजधानी = कपिलवस्तु
- ज्ञान प्राप्ति = निरंजना / पुनपुन: नदी के किनारे वट व्रक्ष के नीचे उरन्वेला ( बोधगया ) नामक स्थान पर
- प्रथम उपदेश = सारनाथ, काशी अथवा वाराणसी के 10 किलोमीटर पूर्वोत्तर में स्थित प्रमुख बौद्ध तीर्थस्थल है। ज्ञान प्राप्ति के पश्चात भगवान बुद्ध ने अपना प्रथम उपदेश यहीं दिया था जिसे धर्म चक्र प्रवर्तन का नाम दिया जाता है ।
- उपदेश की भाषा = पाली
- अंतिम उपदेश = कुशीनगर
- मृत्यु = कुशीनगर में 483 ई० पु० में
- बौद्ध त्रिरत्न = बुद्ध , धम्म , संघ
- बुद्ध के प्रिय शिष्य = आनंद
बुद्ध द्वारा देखे गए 4 दृश्य : –
- बूढा व्यक्ति
- एक बीमार व्यक्ति
- एक लाश
- एक सन्यासी
बुद्ध की शिक्षाएँ : –
🔹 बुद्ध की शिक्षाओं को सुत्त पिटक में दी गई कहानियों के आधार पर पुनर्निर्मित किया गया है।
- बौद्ध दर्शन के अनुसार विश्व अनित्य है और लगातार बदल रहा है।
- यह आत्माविहीन (आत्मा) है क्योंकि यहाँ कुछ भी स्थायी या शाश्वत नहीं है।
- इस क्षणभंगुर दुनिया में दुख मनुष्य के जीवन का अंतर्निहित तत्व है।
- घोर तपस्या और विषयासक्ति के बीच मध्यम मार्ग अपनाकर मनुष्य दुनिया के दुखों से मुक्ति पा सकता है।
- बौद्ध धर्म की प्रारंभिक परंपराओं में भगवान का होना या न होना अप्रासंगिक था ।
- बुद्ध मानते थे कि समाज का निर्माण इनसानों ने किया था न कि ईश्वर ने ।
- दयावान एवं आचारणवान बनाने पर बल देना ।
- ऐसा माना जाता था कि व्यक्तिगत प्रयास से सामाजिक परिवेश को बदला जा सकता था।
निर्वाण : –
🔹 आत्मा का ज्ञान। बुद्ध के अनुसार मनुष्य के जीवन का सबसे बड़ा लक्ष्य निर्वाण प्राप्ति है। निर्वाण प्राप्ति से उनका अभिप्राय सच्चे ज्ञान से है। निर्वाण का मतलब था अहं और इच्छा का खत्म हो जाना जिससे गृहत्याग करने वालों के दुख के चक्र का अंत हो सकता था।
संघ : –
🔹 धम्म के शिक्षक बने भिक्षुओं के लिए बुद्ध द्वारा स्थापित संस्था जिसे मठ भी कहा जाता था।
धम्म : –
🔹 बौद्ध धर्म में इसका अर्थ है – बुद्ध की शिक्षाएँ ।
भिक्खु : –
🔹 बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए जिन्होंने संन्यास ग्रहण किया, उन्हें भिक्षु या भिक्षुक कहा जाता है। ये श्रमण एक सादा जीवन बिताते थे। उनके पास जीवनयापन के लिए अत्यावश्यक चीज़ों के अलावा कुछ नहीं होता था। जैसे कि दिन में एक बार उपासकों से भोजन दान पाने के लिए वे एक कटोरा रखते थे। चूँकि वे दान पर निर्भर थे इसलिए उन्हें भिक्खु कहा जाता था ।
भिक्खुनी : –
🔹 बौद्ध धर्म के प्रचार के लिए संन्यास ग्रहण करने वाली महिलाएँ । बुद्ध की उपमाता महाप्रजापति गोतमी संघ में आने वाली पहली भिक्खुनी बनीं। कई स्त्रियाँ जो संघ में आईं, वे धम्म की उपदेशिकाएँ बन गईं। आगे चलकर वे थेरी बनी जिसका मतलब है ऐसी महिलाएँ जिन्होंने निर्वाण प्राप्त कर लिया हो ।
थेरीगाथा : –
🔹 थेरीगाथा बौद्ध ग्रन्थ ‘सुत्तपिटक’ का भाग है जिसमें भिक्खुणियों द्वारा रचित छन्दों का संकलन किया गया है। इससे उस युग की महिलाओं के सामाजिक व आध्यात्मिक जीवन के बारे में जानकारी मिलती है।
बुद्ध के अनुयायी : –
🔹 बुद्ध के अनुयायी कई सामाजिक वर्गों से आए। इनमें राजा, धनवान, गृहपति और सामान्य जन कर्मकार, दास, शिल्पी, सभी शामिल थे। एक बार संघ में आ जाने पर सभी को बराबर माना जाता था क्योंकि भिक्खु और भिक्खुनी बनने पर उन्हें अपनी पुरानी पहचान को त्याग देना पड़ता था।
🔹 संघ की संचालन पद्धति गणों और संघों की परंपरा पर आधारित थी । इसके तहत लोग बातचीत के माध्यम से एकमत होने की कोशिश करते थे। अगर यह संभव नहीं होता था तो मतदान द्वारा निर्णय लिया जाता था।
भिक्षुओं और भिक्खुनियों के लिए नियम : –
🔹 ये नियम विनय पिटक में मिलते हैं। :
- जब कोई भिक्खु एक नया कंबल या गलीचा बनाएगा तो उसे इसका प्रयोग कम से कम छः वर्षों तक करना पड़ेगा। यदि छः वर्ष से कम अवधि में वह बिना भिक्खुओं की अनुमति के एक नया कंबल या गलीचा बनवाता है तो चाहे उसने अपने पुराने कंबल / गलीचे को छोड़ दिया हो या नहीं नया कंबल या गलीचा उससे ले लिया जाएगा और इसके लिए उसे अपराध स्वीकरण करना होगा।
- यदि कोई भिक्खु किसी गृहस्थ के घर जाता है और उसे टिकिया या पके अनाज का भोजन दिया जाता है तो यदि उसे इच्छा हो तो वह दो से तीन कटोरा भर ही स्वीकार कर सकता है। यदि वह इससे ज़्यादा स्वीकार करता है तो उसे अपना ‘अपराध’ स्वीकार करना होगा। दो या तीन कटोरे पकवान स्वीकार करने के बाद उसे इन्हें अन्य भिक्खुओं के साथ बाँटना होगा। यही सम्यक आचरण है।
- यदि कोई भिक्खु जो संघ के किसी विहार में ठहरा हुआ है, प्रस्थान के पहले अपने द्वारा बिछाए गए या बिछवाए गए बिस्तरे को न ही समेटता है, न ही समेटवाता है, या यदि वह बिना विदाई लिए चला जाता है तो उसे अपराध स्वीकरण करना होगा।
बुद्ध के जीवन से जुड़े स्थान : –
🔹 बौद्ध साहित्य में बुद्ध के जीवन से जुड़े स्थानों का भी वर्णन है जहाँ वे जन्मे (लुम्बिनी), जहाँ उन्होंने ज्ञान प्राप्त किया (बोधगया), जहाँ उन्होंने प्रथम उपदेश दिया (सारनाथ) तथा जहाँ उन्होंने निर्वाण प्राप्त किया (कुशीनगर)।
बौद्ध धर्म का तीव्रता से विस्तार क्यों हुआ ?
- जनता समकालीन धार्मिक प्रथाओं से असन्तुष्ट थी।
- बौद्ध शिक्षाओं में जन्म के आधार पर श्रेष्ठता की अपेक्षा अच्छे आचरण एवं मूल्यों को महत्व प्रदान किया गया।
- बौद्ध धर्म में स्वयं से छोटे और कमजोर लोगों की ओर मित्रता व करुणा के भाव को महत्व दिया गया था ।
अंड : –
🔹 स्तूप का जन्म एक गोलार्द्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ है; जिसे बाद में अंड कहा गया।
दानात्मक अभिलेख : –
🔹 धार्मिक संस्थाओं को दिए गए दान का विवरण रखने वाले अभिलेख । उदाहरण :- साँची का दानात्मक अभिलेख ।
चैत्य : –
🔹 शवदाह के पश्चात् बौद्धों के शरीर के कुछ अवशेष टीलों में सुरक्षित रख दिए जाते थे। अन्तिम संस्कार से जुड़े इन तरीकों को चैत्य कहा जाता था।
स्तूप क्या है ?
🔹 ऐसे कई अन्य स्थान हैं जिन्हें पवित्र माना जाता है। इन स्थानों पर बुद्ध से जुड़े कुछ अवशेष, जैसे- उनकी अस्थियाँ या उनके द्वारा प्रयुक्त सामान गाढ़ दिए गए थे। इन टीलों को स्तूप कहा जाता है। स्तूप को संस्कृत में टीला कहा जाता है।
स्तूप के प्रकार : –
🔹 स्तूप सामायतः चार प्रकार के होते थे
- शारीरिक : – इनमें भगवान बुद्ध व उनके शिष्यों की अस्थियाँ व शरीर के सब अंग रखे जाते थे ।
- पारिभौतिक : – इनमें बुद्ध द्वारा उपयोग में लाई गई वस्तुओं को रखा जाता था ।
- उद्देश्य : – यह स्तूप गौतम बुद्ध से संबंधित स्थानों जन्म, निर्वाण, यज्ञ स्थल आदि के स्मृति स्वरूप बनाये हैं ।
- संकल्पित : – यह बौद्ध तीर्थ स्थलों पर श्रद्धालुओं द्वारा बनाये गए हैं। इनका आकार छोटा होता है।
स्तूप क्यों बनाए जाते थे?
🔹 स्तूप बनाने की परम्परा बुद्ध से पहले रही होगी, परन्तु यह बौद्ध धर्म के साथ जुड़ गई। स्तूपों में पवित्र अवशेष होने के कारण समूचे स्तूप को बौद्ध धर्म और बुद्ध के प्रतीक के रूप में माना जाता था।
🔹 अशोकावदान नामक एक बौद्ध ग्रंथ के अनुसार असोक ने बुद्ध के अवशेषों के हिस्से हर महत्वपूर्ण शहर में बाँट कर उनके ऊपर स्तूप बनाने का आदेश दिया।
स्तूप कैसे बनाए गए ?
🔹 स्तूपों की वेदिकाओं और स्तंभों पर मिले अभिलेखों से इन्हें बनाने और सजाने के लिए दिए गए दान का पता चलता है। कुछ दान राजाओं के द्वारा दिए गए थे (जैसे सातवाहन वंश के राजा), तो कुछ दान शिल्पकारों और व्यापारियों की श्रेणियों द्वारा दिए गए। इन इमारतों को बनाने में भिक्खुओं और भिक्खुनियों ने भी दान दिया।
स्तूप की संरचना ( बनावट ) : –
- स्तूप (संस्कृत अर्थ टीला ) का जन्म एक गोलार्ध लिए हुए मिट्टी के टीले से हुआ ।
- इसे बाद में अंड कहा गया।
- धीरे-धीरे इसकी संरचना ज़्यादा जटिल हो गई जिसमें कई चौकोर और गोल आकारों का संतुलन बनाया गया।
- अंड के ऊपर एक हर्मिका होती थी।
- यह छज्जे जैसा ढाँचा देवताओं के घर का प्रतीक था।
- हर्मिका से एक मस्तूल निकलता था जिसे यष्टि कहते थे जिस पर अक्सर एक छत्री लगी होती थी।
- टीले के चारों ओर एक वेदिका होती थी जो पवित्र स्थल को सामान्य दुनिया से अलग करती थी ।
- उपासक पूर्वी तोरणद्वार से प्रवेश करके स्तूप की परिक्रमा करते थे ।
हर्मिका : –
🔹 ‘हर्मिका’ स्तूप का महत्वपूर्ण भाग है जिसका अर्थ देवताओं का निवास स्थान होता है।
अमरावती के स्तूप : –
🔹 स्तूपों की खोज का भी एक इतिहास है। अमरावती के स्तूप की खोज अचानक हुई। 1796 ई. में एक स्थानीय राना मन्दिर बनाना चाहता था। अचानक उन्हें अमरावती के स्तूप के अवशेष मिल गए।
🔹 आंध्र प्रदेश के गुंटूर के कमिश्नर एलियट ने जिज्ञासावश 1854 ई. में अमरावती की यात्रा की। वह यहाँ से कई मूर्तियों व उत्कीर्ण पत्थरों को मद्रास (वर्तमान चेन्नई) ले गया। उसने स्तूप के पश्चिमी तोरणद्वार को भी खोज निकाला। वह इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि अमरावती का स्तूप बौद्धों का सबसे विशाल एवं शानदार स्तूप था ।
🔹 पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल ने अमरावती के स्तूप को बचाने का भरसक प्रयास किया लेकिन वह इस स्तूप को नष्ट होने से नहीं बचा सके।
अमरावती का स्तूप नष्ट क्यों हुआ ?
- 1850 के दशक में अमरावती के उत्कीर्ण पत्थर अलग-अलग जगहों पर ले जाए जा रहे थे।
- कुछ पत्थर कलकत्ता में एशियाटिक सोसायटी ऑफ़ बंगाल पहुँचे, तो कुछ मद्रास में इंडिया ऑफिस ।
- कुछ पत्थर लंदन तक पहुँच गए।
🔹 कई अंग्रेज़ अधिकारियों के बागों में अमरावती की मूर्तियाँ पाना कोई असामान्य बात नहीं थी । वस्तुतः इस इलाके का हर नया अधिकारी यह कहकर कुछ मूर्तियाँ उठा ले जाता था कि उसके पहले के अधिकारियों ने भी ऐसा किया। इसी तरह धीरे- धीरे अमरावती का स्तूप नष्ट हो गया ।
एक अलग सोच के व्यक्ति – एच. एच कॉल : –
🔹 पुरातत्ववेत्ता एच. एच. कोल उन मुट्ठी भर लोगों में एक थे जो अलग सोचते थे। उन्होंने लिखा ” इस देश की प्राचीन कलाकृतियों की लूट होने देना मुझे आत्मघाती और असमर्थनीय नीति लगती है।” वे मानते थे कि संग्रहालयों में मूर्तियों की प्लास्टर प्रतिकृतियाँ रखी जानी चाहिए जबकि असली कृतियाँ खोज की जगह पर ही रखी जानी चाहिए।
🔹 दुर्भाग्य से कोल अधिकारियों को अमरावती पर इस बात के लिए राजी नहीं कर पाए। लेकिन खोज की जगह पर ही संरक्षण की बात को साँची के लिए मान लिया गया।
साँची का स्तूप : –
🔹 साँची में एक प्राचीन स्तूप है, जो की अपनी सुन्दरता के लिए काफी प्रसिद्ध है । साँची का यह प्राचीन स्तूप महान सम्राट अशोक द्वारा बनवाया गया था । इस स्तूप का निर्माणकार्य तीसरी शताब्दी ई० पू० से शुरू हुआ।
साँची का स्तूप कहाँ स्थित है ?
🔹 साँची भोपाल में एक जगह का नाम है जो मध्य प्रदेश राज्य के रायसेन जिले, में बेतवा नदी के तट स्थित एक छोटा सा गांव है। यह भोपाल से 46 कि०मी० पूर्वोत्तर में, तथा बेसनगर और विदिशा से 10 कि०मी० की दूरी पर मध्य प्रदेश के मध्य भाग में स्थित है।
साँची के स्तूप की खोज : –
🔹 साँची के स्तूप की खोज 1818 ई. में हुई थी। इसके चार तोरण द्वार थे। इनमें से तीन तोरण द्वार ठीक हालत में खड़े थे जबकि चौथा तोरण द्वार वहीं पर गिरा हुआ था ।
साँची के पूर्वी तोरण द्वार ले जाना : –
🔹 19वीं शताब्दी में यूरोपीय लोगों ने साँची के स्तूंप में बहुत अधिक रुचि दिखाई। ‘फ्रांसीसी तथा अंग्रेज साँची के पूर्वी तोरण द्वार को अपने देश ले जाना चाहते थे जिसके लिए उन्होंने शाहजहाँ बेगम से भी अनुमति माँगी। सौभाग्यवश वे इनकी प्लास्टिक प्रतिकृतियों से ही सन्तुष्ट हो गए। इस प्रकार यह मूल कृति भोपाल राज्य में अपने स्थान पर बनी रही।
साँची के स्तूप का सरंक्षण : –
🔹 साँची के स्तूप को भोपाल के शासकों ने संरक्षण प्रदान किया जिनमें शाहजहाँ बेगम एवं सुल्तान जहाँ बेगम आदि प्रमुख थी ।
🔹 उन्होंने इस प्राचीन स्थल के रख-रखाव के लिए धन का अनुदान दिया। आश्चर्य नहीं कि जॉन मार्शल ने साँची पर लिखे अपने महत्वपूर्ण ग्रंथों को सुल्तानजहाँ को समर्पित किया।
🔹 सुल्तानजहाँ बेगम ने वहाँ पर एक संग्रहालय और अतिथिशाला बनाने के लिए अनुदान दिया। वहाँ रहते हुए ही जॉन मार्शल ने उपर्युक्त पुस्तकें लिखीं। इस पुस्तक के विभिन्न खंडों के प्रकाशन में भी सुल्तानजहाँ बेगम ने अनुदान दिया ।
🔹 वर्तमान में साँची के स्तूप की देखरेख का कार्य भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभागकर रहा है।
साँची के स्तूप का महत्व : –
🔹 साँची का स्तूप प्राचीन भारत की अद्भुत स्थापत्य कला का उत्कृष्ट नमूना है।
- साँची से प्राप्त उत्कीर्णित अनेक मूर्तियों के अध्ययन द्वारा विद्वानों ने लोक- परम्पराओं को समझने का बहुत अधिक प्रयास किया है।
- साँची के स्तूप में उत्कीर्णित ‘शालभंजिका’ की मूर्ति के बारे में लोक-परम्परा के अनुसार यह माना जाता है कि इस स्त्री द्वारा छुए जाने से वृक्षों में फूल खिल उठते थे एवं फल आने लगते थे।
- साँची में जानवरों के कुछ बहुत सुन्दर उत्कीर्णन पाए गए हैं जिनमें हाथी, घोड़े, बन्दर एवं गाय-बैल आदि सम्मिलित हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि इन जानवरों का उत्कीर्णन लोगों को आकर्षित करने के लिए किया गया था।
शालभंजिका : –
🔹 लोक परम्परा के अनुसार इस स्त्री द्वारा छुए जाने से वृक्षों में फूल खिल उठते थे और वृक्ष फल देने लगते हैं। साँची में इसकी मूर्तियाँ मिली हैं।
महापरिनिर्वाण : –
🔹 483 ई. पू. बुद्ध ने 80 वर्ष की अवस्था में कुशीनगर ( देवरिया, उत्तर प्रदेश) में अपने शरीर का त्याग किया जिसे बौद्ध धर्म में महापरिनिर्वाण कहा गया है।
उपनिषद् : –
🔹 जीवन, मृत्यु एवं पारब्रह्म से संबंधित गहन विचारों वाले ग्रन्थ जिनमें आर्यों की दार्शनिक विचारधारा का भी विवरण मिलता है।
महायान बौद्ध मत का विकास : –
🔹 प्रारम्भ में महात्मा बुद्ध को भी एक साधारण मानव समझा गया, लेकिन धीरे-धीरे एक मुक्तिदाता के रूप में बुद्ध की कल्पना उभरने लगी। यह विश्वास किया जाने लगा कि वे सांसारिक लोगों को मुक्ति प्रदान करने में सक्षम हैं।
🔹 साथ ही साथ बोधिसत्त की अवधारणा भी उभरने लगी तथा बुद्ध और बोधिसंतों की मूर्तियों की पूजा होने लगी। बौद्ध चिन्तन की इस परम्परा को ‘महायान’ के नाम से जाना गया। जिन लोगों ने इन विश्वासों को अपनाया उन्होंने पुरानी परम्परा को ‘हीनयान’ नाम से सम्बोधित किया।
हीनयान : –
🔹 बौद्ध धर्म की प्राचीन शाखा जिसके अनुयायी न तो देवताओं में विश्वास रखते थे और न ही बुद्ध को देवता मानते थे । वे बुद्ध को मनुष्य मानते थे, जिसने व्यक्तिगत प्रयास से प्रबोधन व निर्वाण प्राप्त किया था।
महायान : –
🔹 बौद्ध धर्म की वह नयी परम्परा जिसके अनुयायी बुद्ध को देवता मानते – थे तथा उनकी मूर्ति की पूजा करते थे। इस शाखा की हिन्दू धर्म के सिद्धान्तों से समानता है।
बोधिसत्त : –
🔹 बौद्ध धर्म की हीनयान परम्परा में बोधिसत्त को एक दयावान जीव माना गया जो सत्कर्मों से पुण्य कमाते थे, परन्तु वे इस पुण्य का प्रयोग संन्यास लेकर निर्वाण प्राप्त करने के लिए नहीं करते अपितु वे इससे दूसरों की सहायता करते थे।
पौराणिक हिंदू धर्म का उदय : –
🔹 पौराणिक हिन्दू धर्म का उदय एक मुक्तिदाता की कल्पना के रूप में हुआ। हिन्दू धर्म में दो परम्पराएँ सम्मिलित थी वैष्णव व शैव । वैष्णव परम्परा में विष्णु को सबसे महत्त्वपूर्ण देवता माना गया, जबकि शैव संकल्पना में शिव परमेश्वर हैं।
🔹 वैष्णव और शैव मत में देवता की पूजा-आराधना में भक्त और भगवान के मध्य प्रेम और समर्पण का संबंध माना जाता था, जिसे हम भक्ति भी कह सकते हैं।
वैष्णव धर्म : –
🔹 भगवान विष्णु की पूजा करने वालों को वैष्णव एवं विष्णु से संबंधित धर्म को वैष्णव धर्म कहा गया है।
शैव धर्म : –
🔹 भगवान शिव की पूजा करने वालों को शैव एवं शिव से संबंधित धर्म को शैव धर्म कहा गया है।
अवतार : –
🔹 ईश्वर या किसी परम सर्वोच्च देव का मनुष्य रूप में संसार के लोगों के कल्याण के लिए जन्म लेना अवतार कहलाता है।
भक्ति : –
🔹 जिस आराधना में उपासना और ईश्वर के मध्य का रिश्ता प्रेम का रिश्ता माना जाता है उसे भक्ति कहते हैं।
भगवान के अलग-अलग रूपों में अवतार : –
🔹 वैष्णववाद में कई अवतारों के आसपास पूजा पद्धतियाँ विकसित हुईं। इस परम्परा में दस अवतारों की रचना की गई है। यह माना जाता था कि संसार में पापों के बढ़ने पर अव्यवस्था और विनाश की स्थिति आ जाती है। तब संसार की रक्षा हेतु भगवान अलग-अलग रूपों में अवतार लेते हैं।
🔹 हिन्दू धर्म में कई अवतारों एवं देवताओं को मूर्तियों के रूप में दिखाया गया है। शिव को उनके प्रतीक लिंग के रूप में दर्शाया गया है, लेकिन उन्हें कई बार मानव के रूप में भी दिखाया गया है।
पुराण : –
🔹 प्रथम सहस्राब्दि के मध्य ब्राह्मणों ने पुराणों की रचना की। सामान्यतः संस्कृत श्लोकों में लिखे गए पुराणों को ऊँची आवाज में पढ़ा जाता था जिन्हें कोई भी सुन सकता था । यहाँ तक कि महिलाएँ व शूद्र (जिन्हें वैदिक साहित्य पढ़ने-सुनने की अनुमति नहीं थी) भी इन्हें सुन सकते थे ।
पौराणिक हिन्दू धर्म की मुख्य विशेषताएँ : –
- मुख्य रूप से दो परंपराएँ – वैष्णव एवं शैव ।
- समर्पण के भाव को ही भक्ति कहते हैं ।
- वैष्णववाद में ईश्वर के दस अवतारों का वर्णन हैं ।
- विश्वरक्षा का काम विष्णु भगवान का है ।
- कई अवतारों को मूर्तियों में दिखाया गया है।
- शिव के प्रतीक के रूप में लिंग की पूजा होती है ।
- वेदों एवं पुराणों में हिन्दू धर्म के नियम मौजूद हैं।
- भारत के विभिन्न भागों में मंदिरों के निर्माण हुए ।
गर्भ गृह : –
🔹 यह एक प्रकार का चौकोर कमरा (मन्दिर) था जिसमें देव माता रखी जाती थी । उपासक वहीं बैठकर मूर्ति की पूजा करता था।
शिखर : –
🔹 गर्भगृह के ऊपर बना एक ऊँचा ढाँचा । इस प्रकार के शिखर : दक्षिण भारत के मन्दिरों में अधिक देखने को मिलते हैं जिसमें मन्दिरों की मीनार पर्वत चौटियों की भाँति ऊपर की ओर संकरी होती जाती हैं अर्थात् ऊपर की ओर उत्तरोत्तर गोलाई कम होती जाती हैं।
मंदिरों का बनाया जाना : –
🔹 देवी-देवताओं की मूर्तियों को रखने के लिए मन्दिरों का भी निर्माण किया जाने लगा। आरंभिक मन्दिर एक चौकोर कमरे के रूप में होते थे जिसे ‘गर्भगृह’ कहा जाता था। इसमें एक दरवाजा होता था जिसमें से होकर भक्तजन मूर्ति की पूजा करने के लिए अन्दर जा सकते थे। धीरे-धीरे मन्दिर स्थापत्य कला के विकसित होने पर गर्भगृह के ऊपर गुम्बद के आकार की एक संरचना निर्मित होने लगी जिसे ‘शिखर’ कहा जाता था।
कृत्रिम गुफा : –
🔹 कुछ प्रारंभिक मन्दिरों का निर्माण पहाड़ियों को काटकर उन्हें खोखला करके कृत्रिम गुफाओं के रूप में किया गया। कृत्रिम गुफाएँ बनाने की परम्परा बहुत पुरानी है। सबसे प्राचीन गुफाएँ सम्राट अशोक के आदेश से तीसरी शताब्दी ई. पू. में आजीवक सम्प्रदाय के सन्तों के लिए बनाई गई थीं।
🔹 कृत्रिम गुफा निर्माण की परम्परा अलग-अलग चरणों में विकसित होती रही । जिसका सबसे विकसित रूप हमें आठवीं शताब्दी के कैलाशनाथ मन्दिर (एलोरा, महाराष्ट्र) में दिखाई देता है। इसमें सम्पूर्ण पहाड़ी को काटकर उसे मन्दिर का रूप दिया गया था।
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