Class 12 history chapter 5 notes in hindi, यात्रियों के नजरिए notes

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Class 12 History Chapter 5 यात्रियों के नजरिए Notes In Hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 5
Chapter Nameयात्रियों के नजरिए
CategoryClass 12 History
MediumHindi

Class 12 History Chapter 5 यात्रियों के नजरिए Notes In Hindi इस अध्याय मे हम अल – बिरूनी , इब्न बतूता ,फ्रांस्वा बर्नियर इनके बारे में जानेंगे तथा मुगल काल के समयकाल पर विस्तार से चर्चा करेंगे ।

विभिन्न लोगों द्वारा यात्राओं के करने का उद्देश्य : –

🔹 महिलाओं और पुरुषों द्वारा यात्रा करने के अनेक कारण थे। जैसे कार्य की तलाश में, प्राकृतिक आपदाओं से बचाव के लिए, व्यापारियों, सैनिकों, पुरोहितों और तीर्थ यात्रियों के रूप में या फिर साहस की भावना से प्रेरित होकर यात्राएं की गई।

प्राचीन दौर में यात्राएं करने में आने वाली समस्याएं : –

  • लंबा समय
  • सुविधाओं का अभाव
  • समुद्री लुटेरों का भय
  • प्राकृतिक आपदाएं
  • बीमारियां
  • रास्ता भटकने का भय

भारत की यात्रा करने वाले मुख्य यात्री : –

🔹 10वीं सदी से 17वीं सदी तक तीन प्रमुख यात्री भारत में आये : –

  • अल-बिरूनी, जो ग्यारहवीं शताब्दी में उज़्बेकिस्तान से आया था, उसने किताब-उल-हिन्द नामक ग्रंथ लिखा जो अरबी भाषा में था।
  • इब्न बतूता, जो चौदहवीं शताब्दी में मोरक्को से आया था, उसने रिहला (यात्रा वृत्त) नामक ग्रंथ लिखा जो अरबी भाषा में था।
  • फ्रांस्वा बर्नियर, जो सत्रहवीं शताब्दी में फ्रांसीसी आया था, उसने ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर नामक ग्रंथ लिखा जो फ़्रेंच भाषा में था।

भारत की यात्रा करने वाले अन्य यात्री : –

🔹 अलबरूनी तथा इब्नबतूता के पदचिह्नों का अनुसरण करते हुए 1400 ई. से 1800 ई. के मध्य कई लेखकों ने भारत की यात्रा की इन लेखकों में से सबसे प्रसिद्ध लेखकों में अब्दुर रज़्ज़ाक समरकंदी जिसने 1440 के दशक में दक्षिण भारत की यात्रा की थी, महमूद वली बल्खी, जिसने 1620 के दशक में व्यापक रूप से यात्राएँ की थीं तथा शेख अली हाजिन जो 1740 के दशक में उत्तर भारत आया था, शामिल हैं।

अल-बिरूनी : –

🔹 अल-बिरूनी का जन्म आधुनिक उज़्बेकिस्तान में स्थित ख़्वारिज्म में सन् 973 में हुआ था। ख़्वारिज्म शिक्षा का एक महत्त्वपूर्ण केंद्र था। अल-बिरूनी सीरियाई, फारसी, हिब्रू, संस्कृत आदि भाषाओं का अच्छा ज्ञान रखता था।

🔹 वह बंधक के रूप में ग़ज़नी आया था पर धीरे-धीरे उसे यह शहर पसंद आने लगा और सत्तर वर्ष की आयु में अपनी मृत्यु तक उसने अपना बाकी जीवन यहीं बिताया।

अल – बिरूनी भारत कैसे आया ? ( अल-बिरूनी की यात्रा ) : –

🔹 सुल्तान महमूद गजनवी ने 1017 ई. में ख्वारिज्म पर आक्रमण किया। वह विद्वानों का बहुत सम्मान करता था इसलिए ख्वारिज्म के कई विद्वानों एवं कवियों को अपने साथ अपनी राजधानी गजनी ले आया, अल-बिरूनी भी उनमें से एक था।

🔹 गजनी में ही अल-बिरूनी की भारत के प्रति रुचि विकसित हुई। पंजाब के गजनवी साम्राज्य का हिस्सा बनने के पश्चात् उसने ब्राह्मण पुरोहितों एवं विद्वानों के साथ कई वर्ष व्यतीत किए तथा संस्कृत, धर्म एवं दर्शन का ज्ञान प्राप्त किया। हालाँकि उसका यात्रा कार्यक्रम स्पष्ट नहीं है फिर भी प्रतीत होता है कि उसने पंजाब और उत्तर भारत के कई हिस्सों की यात्रा की थी।

किताब-उल-हिन्द : –

🔹अल-बिरूनी ने अरबी भाषा में लिखित ”किताब-उल-हिन्द” नामक पुस्तक की रचना की इसकी भाषा सरल व स्पष्ट है । यह ग्रन्थ 80 अध्यायों में विभाजित है जिनमें धर्म और दर्शन, त्योहारों, खगोल विज्ञान, कीमिया, रीति-रिवाजों तथा प्रथाओं, सामाजिक जीवन, भार- तौल तथा मापन विधियों, मूर्तिकला, कानून, मापतंत्र विज्ञान आदि विषयों का वर्णन है।

अल – बिरूनी के लेखन कार्य की विशेषताएँ : –

🔹 अपने लेखन कार्य में उसने अरबी भाषा का प्रयोग किया । अल बिरूनी संस्कृत, पाली तथा प्राकृत ग्रंथों के अरबी भाषा में अनुवादों तथा रूपांतरणों से परिचित था। इनमें दंतकथाओं से लेकर खगोल विज्ञान और चिकित्सा संबंधी कृतियों भी शामिल थी ।

🔹 अल-बिरूनी ने प्रत्येक अध्याय में एक विशिष्ट शैली का प्रयोग किया जिसमें आरंभ में एक प्रश्न होता था, फिर संस्कृतवादी परंपराओं पर आधारित वर्णन और अंत में अन्य संस्कृतियों के साथ एक तुलना

हिंदू : –

🔹 “हिंदू” शब्द लगभग छठी-पाँचवीं शताब्दी ईसा पूर्व में प्रयुक्त होने वाले एक प्राचीन फ़ारसी शब्द, जिसका प्रयोग सिंधु नदी (Indus) के पूर्व के क्षेत्र के लिए होता था, से निकला था। अरबी लोगों ने इस फ़ारसी शब्द को जारी रखा और इस क्षेत्र को” अल-हिंद” तथा यहाँ के निवासियों को “हिंदी” कहा।

🔹 कालांतर में तुर्कों ने सिंधु से पूर्व में रहने वाले लोगों को “हिंदू”; उनके निवास क्षेत्र को “हिंदुस्तान” तथा उनकी भाषा को “हिंदवी ” का नाम दिया। इनमें से कोई भी शब्द लोगों की धार्मिक पहचान का द्योतक नहीं था । इस शब्द का धार्मिक संदर्भ में प्रयोग बहुत बाद की बात है ।

भारत समाज को समझने में अल-बिरूनी को आई बाधाएँ : –

🔹 अल – बिरूनी को भारतीय समाज को समझने में अनेक बाधाओं का सामना करना पड़ा जिनमें संस्कृत भाषा की कठिनाई, धार्मिक अवस्थाओं व प्रथाओं में भिन्नता, अभिमान आदि प्रमुख थीं। अलबरूनी ने भारतीय विचारों को समझने के लिए वेदों, पुराणों, भगवद्गीता, मनुस्मृति, पतंजलि की कृतियों आदि का उपयोग किया।

अल – बिरूनी का जाति व्यवस्था का विवरण : –

🔹 अलबरूनी द्वारा जाती व्यवस्था का विवरण दिया गया है उसके अनुसार भारत मे चार सामाजिक वर्ण थे और फारस में भी 4 सामाजिक वर्णों की मान्यता थी। दूसरे शब्दों में, वह यह दिखाना चाहता था कि ये सामाजिक वर्ग केवल भारत तक ही सीमित नहीं थे।

🔸 फारस के 4 सामाजिक वर्ण : –

  • घुड़सवार एवं शासक वर्ग
  • भिक्षु – आनुष्ठानिक पुरोहित तथा चिकित्सक
  • खगोल शास्त्री अन्य वैज्ञानिक
  • कृषक तथा शिल्पकार।

🔹जाति व्यवस्था के संबंध में ब्राह्मणवादी व्याख्या को मानने के बावजूद, अल- बिरूनी ने अपवित्रता की मान्यता को अस्वीकार किया। उसके अनुसार जाति व्यवस्था में निहित अपवित्रता की अवधारणा प्रकृति के नियमों के विरुद्ध हैं।

🔹 उसने लिखा अपवित्र वस्तु अपनी पवित्रता की मूल स्थिति को प्राप्त करने का प्रयास करती है। जैसे सूर्य हवा को स्वच्छ करता है और समुद्र में नमक पानी को गंदा होने से बचाता है। अल – बिरूनी ज़ोर देकर कहता है कि यदि ऐसा नहीं होता तो पृथ्वी पर जीवन असंभव होता ।

अल – बिरूनी द्वारा वर्ण व्यवस्था क्या है?

🔹 भारतीय जाति व्यवस्था पर प्रकाश डालते हुए अलबरूनी बताता है कि हिन्दू पुस्तकों के अनुसार ब्रह्मा के सिर से ब्राह्ममण वर्ण की उत्पत्ति हुई। कंधों और हाथों से क्षत्रिय, जंघा से वैश्व एवं पैरों से शुद्र वर्ण की उत्पत्ति हुई।

🔹 अंतिम दो वर्गों के बीच अधिक अंतर नहीं है। लेकिन इन वर्गों के बीच भिन्नता होने पर भी ये एक साथ एक ही शहरों और गाँवों में रहते हैं, समान घरों और आवासों में मिल-जुल कर ।

इब्नबतूता : –

🔹 मोरक्को के इस यात्री का जन्म तैंजियर के सबसे सम्मानित तथा शिक्षित परिवारों में से एक, जो इस्लामी कानून अथवा शरिया पर अपनी विशेषज्ञता के लिए प्रसिद्ध था में हुआ था। अपने परिवार की परंपरा के अनुसार इब्न बतूता ने कम उम्र में ही साहित्यिक तथा शास्त्ररूढ़ शिक्षा हासिल की।

🔹 अपनी श्रेणी के अन्य सदस्यों के विपरीत, इब्न बतूता पुस्तकों के स्थान पर यात्राओं से अर्जित अनुभव को ज्ञान का अधिक महत्त्वपूर्ण स्रोत मानता था।

इब्नबतूता द्वारा लिखित ग्रंथ ( रिहला ) : –

🔹 इब्नबतूता द्वारा अरबी भाषा में लिखा गया उसका यात्रा वृत्तांत जिसे रिहला कहा जाता है, चौदहवीं शताब्दी में भारतीय उपमहाद्वीप के सामाजिक तथा सांस्कृतिक जीवन के विषय में बहुत ही प्रचुर तथा रोचक जानकारियाँ देता है।

🔹 रिहला से खिलजी एवं तुगलक कालीन भारत की न्यायिक, आर्थिक, भौगोलिक, राजनीतिक एवं सामाजिक स्थिति, डाक, सड़क तथा गुप्तचर व्यवस्था, कला एवं स्थापत्य, कूटनीति तथा दरबारी षड्यन्त्रों एवं तत्युगीन लोगों के आचार-विचार की चीन तथ्यपरक् व निष्पक्ष जानकारी मिलती है।

इब्नबतूता की यात्रा : –

🔹 1332-33 में भारत के लिए प्रस्थान करने से पहले वह मक्का की तीर्थ यात्राएँ और सीरिया, इराक, फारस, यमन, ओमान तथा पूर्वी अफ्रीका के कई तटीय व्यापारिक बंदरगाहों की यात्राएँ कर चुका था।

🔹 इब्नबतूता 1333 ई. में मध्य एशिया होते हुए स्थल मार्ग से सिंध पहुँचा। उसने दिल्ली के सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक के बारे में सुन रखा था कि वह कला एवं साहित्य का संरक्षक है उसकी ख्याति से प्रभावित होकर इब्नबतूता मुल्तान एवं कच्छ के रास्ते दिल्ली पहुँचा।

🔹 सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने इब्नबतूता की विद्वता से प्रभावित होकर उसे दिल्ली का काजी (न्यायाधीश) नियुक्त कर दिया। वह इस पद पर कई वर्षों तक रहा। सुल्तान ने 1342 ई. में मंगोल शासक के पास सुल्तान के दूत के रूप में चीन जाने का आदेश दिया गया।

इब्नबतूता की चीन यात्रा : –

🔹 इब्नबतूता मालावाट, मालद्वीप, श्रीलंका एवं सुभासा रूकते हुऐ चीन पहुँचा। वह चीन के बन्दरगाह नगर जायतुन (वर्तमान क्वानझु) पर उतरा। उसने व्यापक रूप से चीन में यात्रा की और वह बीजिंग तक गया , लेकिन वहाँ लंबे समय तक नहीं ठहरा। 1347 में उसने वापस अपने घर जाने का निश्चय किया। चीन के विषय में उसने जो भी यात्रा वृतान्त लिखा उसकी तुलना प्रख्यात इटली यात्रा मार्को पोलो के यात्रा वृतान्त से की जाती है।

इब्नबतूता की यात्राओं का अनुभव : –

🔹 14वीं शताब्दी में इब्नबतूता की भारत यात्रा के समय सम्पूर्ण विश्व एक वैश्विक संचार प्रणाली का भाग बन चुका था जो पूर्व में चीन से लेकर पश्चिम में उत्तर- पश्चिमी अफ्रीका तक फैला हुआ था।

🔹 अपनी इन क्षेत्रों की यात्रा के दौरान इब्नबतूता ने पवित्र पूजा-स्थलों को देखा, विद्वानों और शासकों के साथ समय बिताया एवं कई बार काजी के पद पर भी रहा और शहरी केन्द्रों की विश्ववादी संस्कृति का उपभोग किया।

🔹 जहाँ अरबी, फारसी, तुर्की और अन्य भाषाएँ बोलने वाले लोग विचारों, सूचनाओं और उपाख्यानों को आपस में साझा करते थे । इब्नबतूता ने नारियल और पान का चित्रण बहुत ही रोचक ढंग से किया है। इन दोनों वानस्पतिक उपजों से उसकी पुस्तक के पाठक पूर्णत: अपरिचित थे।

इब्नबतूता द्वारा नारियल का वर्णन : –

🔹 इब्नबतूता द्वारा नारियल का वर्णन एक प्रकति के विष्मयकारी (आश्चर्यचकित ) वृक्षो के रूप में किया गया । ये हू-बहू खजूर के वृक्ष जैसे दिखते हैं।

🔹 इब्नबतूता कहता है की नारियल के वृक्ष का फल मानव सिर से मेल खाता है क्योंकि इसमें भी मानो दो आँखें तथा एक मुख है और अंदर का भाग हरा होने पर मस्तिष्क जैसा दिखता है और इससे जुड़ा रेशा बालों जैसा दिखाई देता है।

🔹 भारतीय इससे रस्सी बनाते हैं। लोहे की कीलों के प्रयोग के बजाय इनसे जहाज़ को सिलते हैं। वे इससे बर्तनों के लिए रस्सी भी बनाते हैं।

इब्नबतूता द्वारा पान का वर्णन : –

🔹 इब्नबतूता पान का वर्णन भी करता है । पान की बेल के बारे में इब्नबतूता ने लिखा की इस पर कोई फल नहीं होता इसे केवल पत्तियों के लिए उगाया जाता है ।

इब्न बतूता द्वारा भारतीय शहर का वर्णन : –

🔹 इब्नबतूता के अनुसार भारतीय उपमहाद्वीप के नगर समृद्ध थे जिनमें में सभी सुविधाएँ उपलब्ध थीं। अधिकांश नगरों में घनी आबादी, मोड़दार सड़कें एवं चमक-दमक वाले बाजार थे जिनमें विविध प्रकार की वस्तुएँ उपलब्ध रहती थीं।

🔹 इब्नबतूता के अनुसार दिल्ली बहुत बड़ा शहर, बड़ी आबादी के साथ भारत में सबसे बड़ा था लेकिन महाराष्ट्र का दौलताबाद भी कम नहीं था जो आकार में दिल्ली को चुनौती देता था ।

इब्न बतूता द्वारा भारतीय बाजार का वर्णन : –

🔹 बाजार केवल आर्थिक विनिमय के स्थान ही नहीं थे, बल्कि ये सामाजिक एवं आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र भी थे। अधिकतर बाजारों में एक मस्जिद और एक मन्दिर होता था जिनमें से कुछ में नर्तकों, संगीतकारों और गायकों के सार्वजनिक प्रदर्शन के लिए स्थान तक चिह्नित थे।

इब्न बतूता द्वारा भारतीय कृषि का वर्णन : –

🔹 इब्नबतूता के अनुसार भारतीय कृषि बहुत अधिक उन्नत थी जिसका कारण मिट्टी का उपजाऊपन था । किसान वर्ष में दो बार फसलें प्राप्त करते थे।

इब्न बतूता द्वारा व्यापार का वर्णन : –

🔹 भारतीय माल की मध्य एवं दक्षिण-पूर्व एशिया में बहुत माँग थी जिससे शिल्पकारों एवं व्यापारियों को बहुत अधिक लाभ होता था। भारतीय कपड़ों में विशेषकर सूती कपड़े, मलमल, रेशम, जरी एवं साटन की अत्यधिक माँग थी। महीन मलमल की कई किस्में इतनी अधिक महँगी होती थी कि उन्हें केवल अत्यधिक धनी लोग ही खरीद सकते थे।

🔹 इब्नबतूता के अनुसार व्यापारियों को प्रोत्साहित करने के लिए राज्य पर्याप्त उपाय करता था। लगभग सभी व्यापारिक मार्गों पर सरायें एवं विश्राम गृह स्थापित किए गए थे।

इब्न बतूता द्वारा संचार की एक अनूठी प्रणाली का वर्णन : –

🔹 इब्नबतूता ने उस समय में प्रचलित अनूठी डाक प्रणाली का भी वर्णन किया है। वह भारत की डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित रह गया। इससे व्यापारियों के लिए न केवल लम्बी दूरी तक सूचनाएँ भेजी जा सकती थी बल्कि अल्प सूचना पर माल भी भेजा जा सकता था।

🔹 डाक प्रणाली इतनी अधिक कुशल थी कि जहाँ सिन्ध से दिल्ली की यात्रा में पचास दिन लग जाते थे, वहीं गुप्तचरों की खबरें सुल्तान तक मात्र पाँच दिनों में ही पहुँच जाती थीं ।

इब्न बतूता द्वारा डाक व्यवस्था का वर्णन : –

🔹 डाक व्यवस्था का वर्णन इब्न बतूता इस प्रकार करता है:

भारत में 2 प्रकार की डाक व्यवस्था थी :-

  • (i) अश्व डाक व्यवस्था
  • (ii) पैदल डाक व्यवस्था
  • अश्व डाक व्यवस्था : – अश्व डाक व्यवस्था जिसे उलुक कहा जाता है, हर चार मील की दूरी पर स्थापित राजकीय घोड़ों द्वारा चालित होती है।
  • पैदल डाक व्यवस्था : – पैदल डाक व्यवस्था के प्रति मील तीन अवस्था होते हैं; इसे दावा कहा जाता है, और यह एक मील का एक-तिहाई होता है।

इब्नबतूता द्वारा किया गया भारत का वर्णन ( in short ) : –

  • भारतीय शहर अवसरों से भरपूर
  • धनी आबादी वाले समृद्ध शहर तथा रंगीन बाजार
  • बाजार सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र
  • संचार की अनूठी प्रनाली , 1. दावा (पैदल ) , 2. उलूक (अश्व)
  • बाजार सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र: नारियल , पान।
  • भारतीय सामान की मध्य तथा दर्वक्षण एशिया में बहुत माँग।

इब्नबतूता के अनुसार दास प्रथा का वर्णन : –

  • दासों का खुले आम बेचा जाना।
  • दासों का भेंट स्वरूप दिया जाना।
  • इब्नबतूता ने मुहम्मद बिन तुगलक के लिए भेंट स्वरूप घोड़े – ऊँट तथा दास खरीदे।
  • दासों में विविधता थी।
  • दासों को सामान्यता घरेलूकामों के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
  • घरेलू श्रम वाले दासों की कीमत कम होती थी।
  • दासियाँ संगीत तथा गायन में निपुण होने के साथ-साथ गुप्तचर का भी काम करती थीं।

भारत में यूरोपीय यात्रियों का आगमन : –

🔹 लगभग 1500 ई. में भारत में पुर्तगालियों के आगमन के पश्चात उनमें से कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में विस्तृत वृत्तांत लिखे। उनमें से कुछ चुनिंदा लोगों, जैसे जेसुइट रॉबर्टो नोबिली, ने तो भारतीय ग्रंथों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित भी किया।

🔹 सबसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों में एक नाम दुआर्ते बरबोसा का है जिसने दक्षिण भारत में व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा । कालान्तर में 1600 ई. के बाद भारत में आने वाले डच, अंग्रेज़ तथा फ्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी थी।

🔹 इनमें एक प्रसिद्ध नाम फ्रांसीसी जौहरी ज्यौं- बैप्टिस्ट तैवर्नियर का था जिसने कम से कम छह बार भारत की यात्रा की। वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से बहुत प्रभावित था और उसने भारत की तुलना ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से की। इनमें से कई यात्री जैसे इतालवी चिकित्सक मनूकी, कभी भी यूरोप वापस नहीं गए और भारत में ही बस गए।

फ्रांस्वा बर्नियर : –

🔹 फ्रांस का रहने वाला फ्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक, राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था । वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुग़ल दरबार से नज़दीकी रूप से जुड़ा रहा- पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चिकित्सक के रूप में, और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद खान के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।

ट्रेवल इन द मुग़ल एंपायर ” Travels In Mughal Empire ” : –

🔹 बर्नियर ने अपनी यात्राओं के अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ की रचना की जो उसके गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अन्तर्दृष्टि एवं गहन चिन्तन के लिए उल्लेखनीय है । बर्नियर ने अपने ग्रन्थ में मुगलों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में ढालने का प्रयास किया तथा मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से की व प्रायः यूरोप की श्रेष्ठता को दर्शाया।

“ट्रेवल्स इन द मुगल एम्पायर” में वर्णित विषय : –

  • भारतीय स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया।
  • भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में प्रस्तुत किया।
  • भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव जबकि यूरोप में नहीं।
  • भारतीय समाज को यूरोप की तुलना में दरिद्र लोगों का जनसमूह बताया।
  • यूरोप में बेहतर भूधारक वर्ग का उदय जबकि भारत में इसका अभाव।
  • भारत में यूरोप की तुलना में शासक वर्ग को छोड़कर समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन।

बर्नियर के लेखनी की विशेषताएँ : –

🔸 नोट :- बर्नियर की लिखित पुस्तक : ” ट्रेवल इन द मुग़ल एंपायर ” Travels In Mughal Empire है।

  • उसने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई 14 वें को समर्पित किया ।
  • बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया।

🔹 बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे, और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेज़ी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका वृत्तांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेज़ी में पुनर्मुद्रित हुआ था।

भारत के विषय में विचारों का निर्माण व प्रसार : –

🔹 भारत के विषय में विचारों का सृजन और प्रसार कर यूरोपीय यात्रियों के वृत्तांतों ने उनकी पुस्तकों के प्रकाशन और प्रसार के माध्यम से यूरोपीय लोगों के लिए भारत की एक छवि के सृजन में सहायता की।

🔹 बाद में, 1750 के बाद, जब शेख इतिसमुद्दीन तथा मिर्ज़ा अबु तालिब जैसे भारतीयों ने यूरोप की यात्रा की तो उन्हें यूरोपीय लोगों की भारतीय समाज की छवि का सामना करना पड़ा और उन्होंने तथ्यों की अपनी अलग व्याख्या के माध्यम से इसे प्रभावित करने का प्रयास किया।

बर्नियर द्वारा भू – स्वामित्व का वर्णन : –

🔹 बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के मध्य मूल भिन्नताओं में से एक, भारत में निजी स्वामित्व का अभाव था । उसका निजी स्वामित्व के गुणों में बहुत अधिक विश्वास था, इसलिए उसने भूमि पर राज्य के स्वामित्व को राज्य व उसके निवासियों के लिए हानिकारक माना ।

🔹 बर्नियर के अनुसार भूमि पर राजकीय स्वामित्व के कारण भू-धारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने एवं उसमें वृद्धि करने का कोई प्रयास नहीं करते थे।

🔹 भूमि पर निजी स्वामित्व न होने के कारण शासक वर्ग को छोड़कर शेष समाज के सभी वर्गों के जीवन-स्तर में लगातार पतन की स्थिति उत्पन्न हुई।

व्यापक गरीबी : –

🔹 17वीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में उपमहाद्वीप की यात्रा करने वाला डच यात्री पेलसर्ट भी लोगों में व्यापक गरीबी देखकर अचंभित था। लोगों की इस दशा के लिए राज्य को उत्तरदायी ठहराते हुए उसने कहा, “कृषकों को इतना ज्यादा निचोड़ा जाता है कि उनके पास पेट भरने के लिए सूखी रोटी भी मुश्किल से बचती है।”

बर्नियर द्वारा भारतीय समाज का वर्णन : –

🔹 बर्नियर के अनुसार भारतीय समाज दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना जिसे एक बहुत अमीर और शक्तिशाली शासक वर्ग अपने अधीन रखता है। वह कहता है, “भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है। “

🔹 बर्नियर ने मुगल साम्राज्य का नकारात्मक चित्रण प्रस्तुत किया जिसके अनुसार मुगल साम्राज्य का राजा ‘भिखारियों और क्रूर लोगों का राजा’ था। इसके शहर ध्वस्त हो चुके थे तथा खराब वायु से दूषित थे तथा खेत झाड़ीदार व घातक दलदल से अटे हुए थे। इन सबका एकमात्र कारण भूमि पर राज्य का स्वामित्व होना था।

🔹 बर्नियर के विवरणों ने मॉन्टेस्क्यू व कार्ल मार्क्स जैसे दार्शनिकों के विचारों को बहुत प्रभावित किया।

नोट :- आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुगल दस्तावेज यह इंगित नही करता कि राज्य की भूमि का एक मात्र स्वामी था ।

बर्नियर द्वारा शिल्पकारों का वर्णन : –

🔹 शिल्पकारों के संदर्भ मे बर्नियर लिखता है कि शिल्पकार मूल रूप से आलसी होता था। जो भी निर्माण करता वह अपनी आवश्यकताओं या अन्य बाध्यताओ के कारण करता था । शिल्पकारों के पास अपने उत्पादो को बेहतर बनाने की कोई प्रेणा नहीं थी क्योंकि मुनाफे का अधिग्रहण राज्य द्वारा किया जाता था । इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था । हालाँकि वह यह भी मानता है पूर विश्व मे बडी मात्रा में बहुमूल्य धातुए भारत आती थी।

नोट :- बर्नियर एकमात्र इतिहास्कार था जो राजकीय कारखाने की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण देता है।

बर्नियर द्वारा नगरों का वर्णन : –

🔹 नगरों के बारे में वह लिखता है भारत के नगरों में 17वीं शताब्दी में जनसंख्या का अनुपात यूरोप के नगरों से कहीं अधिक था फिर भी बर्नियर ने मुगलकालीन शहरों को ‘शिविर नगर’ की संज्ञा दी जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय संरक्षण पर निर्भर थे।

🔹 हालांकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। मुगल काल में सभी प्रकार के नगर विकसित अवस्था में थे; जैसे कि उत्पादन केन्द्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केन्द्र, तीर्थ स्थान आदि।

महाजन : –

🔹 बर्नियर के अनुसार पश्चिमी भारत में व्यापारी समुदाय को महाजन कहा जाता था।

सेठ : –

🔹 पश्चिमी भारत के महाजन – व्यापारी समुदाय के मुखिया को सेठ कहा जाता था।

नगर सेठ : –

🔹 अहमदाबाद जैसे शहरी केन्द्रों में समस्त महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे ‘नगर सेठ’ कहा जाता था।

बर्नियर द्वारा व्यापार का वर्णन : –

🔹 मुगलकाल में व्यापारी आपस में मजबूत सामुदायिक अथवा बन्धुत्व के संबंधों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को ‘महाजन’ कहा जाता था और उनके मुखिया को ‘सेठ’ ।

🔹 मुगलकाल में अहमदाबाद जैसे नगरों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय का मुखिया करता था, जिसे नगर सेठ के नाम से जाना जाता था, जबकि अन्य शहरी समूहों में चिकित्सक (हकीम या वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार तथा सुलेखक जैसे व्यावसायिक वर्ग सम्मिलित थे।

दास और दासियाँ : –

🔹 इस काल में बाजारों में दास अन्य वस्तुओं की तरह खुलेआम बिकते थे और नियमित रूप से भेंट में भी दिए जाते थे। जब इब्नबतूता सिन्ध पहुँचा तो उसने भी सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को भेंट में देने के लिए घोड़े, ऊँट एवं दास खरीदे थे तथा मुल्तान के गवर्नर को उसने भेंट के तौर पर किशमिश और बादाम के साथ एक दास व घोड़ा दिया ।

🔹 इब्नबतूता के अनुसार नसीरुद्दीन नाम के धर्मोपदेशक के उपदेशों से खुश होकर मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे इनाम स्वरूप एक लाख टका (मुद्रा) और दो सौ दास’ प्रदान किए।

दास और दासियाँ का उपयोग : –

🔹 इन्न बतूता के अनुसार दासों में बहुत अधिक विभिन्नताएँ थीं।

  • सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ गायन और संगीत में निपुण थीं।
  • इब्नबतूता के अनुसार सुल्तान अपने अमीरों पर निगरानी रखने के लिए भी दासियों को नियुक्त करता था ।
  • दासों को आमतौर पर घर के कार्यों के लिए काम में लाया जाता था ।
  • पालकी या डोले में पुरुषों तथा महिलाओं को ले जाने के लिए इन दासों की सेवा मुख्य रूप से ली जाती थी।
  • हालांकि घरेलू कार्य करने वाले इन दासों (विशेषतया दासी) की कीमत बहुत कम होती थी।

सती : –

🔹 वह महिला जो विधवा होने पर तुरन्त अपने पति के शव के साथ स्वेच्छा से अथवा जबरन जीवित ही जला दी जाती थी ।

सती प्रथा : –

🔹 बर्नियर ने सती-प्रथा का वर्णन बहुत ही मार्मिक ढंग से किया था। सती प्रथा समकालीन यूरोपीय यात्रियों के लिए भारत में महिलाओं के प्रति किया जाने वाला एक आश्चर्यजनक व्यवहार था ।

🔹 इस काल के विवरणों से स्पष्ट होता है कि महिलाएँ केवल घर की चारदीवारी में ही कैद नहीं रहती थीं, बल्कि वे कृषि एवं व्यापारिक गतिविधियों में भी भाग लेती थीं। वे कभी-कभी वाणिज्यिक विवादों को अदालत के समक्ष भी ले जाती थीं।


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