इब्न बतूता द्वारा संचार की एक अनूठी प्रणाली का वर्णन : –
🔹 इब्नबतूता ने उस समय में प्रचलित अनूठी डाक प्रणाली का भी वर्णन किया है। वह भारत की डाक प्रणाली की कार्यकुशलता देखकर चकित रह गया। इससे व्यापारियों के लिए न केवल लम्बी दूरी तक सूचनाएँ भेजी जा सकती थी बल्कि अल्प सूचना पर माल भी भेजा जा सकता था।
🔹 डाक प्रणाली इतनी अधिक कुशल थी कि जहाँ सिन्ध से दिल्ली की यात्रा में पचास दिन लग जाते थे, वहीं गुप्तचरों की खबरें सुल्तान तक मात्र पाँच दिनों में ही पहुँच जाती थीं ।
इब्न बतूता द्वारा डाक व्यवस्था का वर्णन : –
🔹 डाक व्यवस्था का वर्णन इब्न बतूता इस प्रकार करता है:
भारत में 2 प्रकार की डाक व्यवस्था थी :-
- (i) अश्व डाक व्यवस्था
- (ii) पैदल डाक व्यवस्था
🔸अश्व डाक व्यवस्था : – अश्व डाक व्यवस्था जिसे उलुक कहा जाता है, हर चार मील की दूरी पर स्थापित राजकीय घोड़ों द्वारा चालित होती है ।
🔸 पैदल डाक व्यवस्था : – पैदल डाक व्यवस्था के प्रति मील तीन अवस्था होते हैं; इसे दावा कहा जाता है, और यह एक मील का एक-तिहाई होता है।
इब्नबतूता द्वारा किया गया भारत का वर्णन ( in short ) : –
- भारतीय शहर अवसरों से भरपूर
- धनी आबादी वाले समृद्ध शहर तथा रंगीन बाजार
- बाजार सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र
- संचार की अनूठी प्रनाली , 1. दावा (पैदल ) , 2. उलूक (अश्व)
- बाजार सामाजिक तथा आर्थिक गतिविधियों के केन्द्र: नारियल , पान।
- भारतीय सामान की मध्य तथा दर्वक्षण एशिया में बहुत माँग।
इब्नबतूता के अनुसार दास प्रथा का वर्णन : –
- दासों का खुले आम बेचा जाना।
- दासों का भेंट स्वरूप दिया जाना।
- इब्नबतूता ने मुहम्मद बिन तुगलक के लिए भेंट स्वरूप घोड़े – ऊँट तथा दास खरीदे।
- दासों में विविधता थी।
- दासों को सामान्यता घरेलूकामों के लिए इस्तेमाल किया जाता है।
- घरेलू श्रम वाले दासों की कीमत कम होती थी।
- दासियाँ संगीत तथा गायन में निपुण होने के साथ-साथ गुप्तचर का भी काम करती थीं।
भारत में यूरोपीय यात्रियों का आगमन : –
🔹 लगभग 1500 ई. में भारत में पुर्तगालियों के आगमन के पश्चात उनमें से कई लोगों ने भारतीय सामाजिक रीति-रिवाजों तथा धार्मिक प्रथाओं के विषय में विस्तृत वृत्तांत लिखे। उनमें से कुछ चुनिंदा लोगों, जैसे जेसुइट रॉबर्टो नोबिली, ने तो भारतीय ग्रंथों को यूरोपीय भाषाओं में अनुवादित भी किया।
🔹 सबसे प्रसिद्ध यूरोपीय लेखकों में एक नाम दुआर्ते बरबोसा का है जिसने दक्षिण भारत में व्यापार और समाज का एक विस्तृत विवरण लिखा । कालान्तर में 1600 ई. के बाद भारत में आने वाले डच, अंग्रेज़ तथा फ्रांसीसी यात्रियों की संख्या बढ़ने लगी थी।
🔹 इनमें एक प्रसिद्ध नाम फ्रांसीसी जौहरी ज्यौं- बैप्टिस्ट तैवर्नियर का था जिसने कम से कम छह बार भारत की यात्रा की। वह विशेष रूप से भारत की व्यापारिक स्थितियों से बहुत प्रभावित था और उसने भारत की तुलना ईरान और ऑटोमन साम्राज्य से की। इनमें से कई यात्री जैसे इतालवी चिकित्सक मनूकी, कभी भी यूरोप वापस नहीं गए और भारत में ही बस गए।
फ्रांस्वा बर्नियर : –
🔹 फ्रांस का रहने वाला फ्रांस्वा बर्नियर एक चिकित्सक, राजनीतिक दार्शनिक तथा एक इतिहासकार था । वह 1656 से 1668 तक भारत में बारह वर्ष तक रहा और मुग़ल दरबार से नज़दीकी रूप से जुड़ा रहा- पहले सम्राट शाहजहाँ के ज्येष्ठ पुत्र दारा शिकोह के चिकित्सक के रूप में, और बाद में मुगल दरबार के एक आर्मीनियाई अमीर दानिशमंद खान के साथ एक बुद्धिजीवी तथा वैज्ञानिक के रूप में।
ट्रेवल इन द मुग़ल एंपायर ” Travels In Mughal Empire ” : –
🔹 बर्नियर ने अपनी यात्राओं के अनुभवों पर आधारित एक पुस्तक ‘ट्रैवल्स इन द मुगल एम्पायर’ की रचना की जो उसके गहन प्रेक्षण, आलोचनात्मक अन्तर्दृष्टि एवं गहन चिन्तन के लिए उल्लेखनीय है । बर्नियर ने अपने ग्रन्थ में मुगलों के इतिहास को एक प्रकार के वैश्विक ढाँचे में ढालने का प्रयास किया तथा मुगलकालीन भारत की तुलना तत्कालीन यूरोप से की व प्रायः यूरोप की श्रेष्ठता को दर्शाया।
“ट्रेवल्स इन द मुगल एम्पायर” में वर्णित विषय : –
- भारतीय स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया।
- भारत को यूरोप के प्रतिलोम के रूप में प्रस्तुत किया।
- भारत में निजी भूस्वामित्व का अभाव जबकि यूरोप में नहीं।
- भारतीय समाज को यूरोप की तुलना में दरिद्र लोगों का जनसमूह बताया।
- यूरोप में बेहतर भूधारक वर्ग का उदय जबकि भारत में इसका अभाव।
- भारत में यूरोप की तुलना में शासक वर्ग को छोड़कर समाज के सभी वर्गों के जीवन स्तर में अनवरत पतन।
बर्नियर के लेखनी की विशेषताएँ : –
🔸 नोट :- बर्नियर की लिखित पुस्तक : ” ट्रेवल इन द मुग़ल एंपायर ” Travels In Mughal Empire है।
- उसने अपनी प्रमुख कृति को फ्रांस के शासक लुई 14 वें को समर्पित किया ।
- बर्नियर ने भारत की स्थिति को यूरोप में हुए विकास की तुलना में दयनीय बताया।
🔹 बर्नियर के कार्य फ्रांस में 1670-71 में प्रकाशित हुए थे, और अगले पाँच वर्षों के भीतर ही अंग्रेज़ी, डच, जर्मन तथा इतालवी भाषाओं में इनका अनुवाद हो गया। 1670 और 1725 के बीच उसका वृत्तांत फ्रांसीसी में आठ बार पुनर्मुद्रित हो चुका था और 1684 तक यह तीन बार अंग्रेज़ी में पुनर्मुद्रित हुआ था।
भारत के विषय में विचारों का निर्माण व प्रसार : –
🔹 भारत के विषय में विचारों का सृजन और प्रसार कर यूरोपीय यात्रियों के वृत्तांतों ने उनकी पुस्तकों के प्रकाशन और प्रसार के माध्यम से यूरोपीय लोगों के लिए भारत की एक छवि के सृजन में सहायता की।
🔹 बाद में, 1750 के बाद, जब शेख इतिसमुद्दीन तथा मिर्ज़ा अबु तालिब जैसे भारतीयों ने यूरोप की यात्रा की तो उन्हें यूरोपीय लोगों की भारतीय समाज की छवि का सामना करना पड़ा और उन्होंने तथ्यों की अपनी अलग व्याख्या के माध्यम से इसे प्रभावित करने का प्रयास किया।
बर्नियर द्वारा भू – स्वामित्व का वर्णन : –
🔹 बर्नियर के अनुसार भारत और यूरोप के मध्य मूल भिन्नताओं में से एक, भारत में निजी स्वामित्व का अभाव था । उसका निजी स्वामित्व के गुणों में बहुत अधिक विश्वास था, इसलिए उसने भूमि पर राज्य के स्वामित्व को राज्य व उसके निवासियों के लिए हानिकारक माना ।
🔹 बर्नियर के अनुसार भूमि पर राजकीय स्वामित्व के कारण भू-धारक अपने बच्चों को भूमि नहीं दे सकते थे। इसलिए वे उत्पादन के स्तर को बनाए रखने एवं उसमें वृद्धि करने का कोई प्रयास नहीं करते थे।
🔹 भूमि पर निजी स्वामित्व न होने के कारण शासक वर्ग को छोड़कर शेष समाज के सभी वर्गों के जीवन-स्तर में लगातार पतन की स्थिति उत्पन्न हुई।
व्यापक गरीबी : –
🔹 17वीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में उपमहाद्वीप की यात्रा करने वाला डच यात्री पेलसर्ट भी लोगों में व्यापक गरीबी देखकर अचंभित था। लोगों की इस दशा के लिए राज्य को उत्तरदायी ठहराते हुए उसने कहा, “कृषकों को इतना ज्यादा निचोड़ा जाता है कि उनके पास पेट भरने के लिए सूखी रोटी भी मुश्किल से बचती है।”
बर्नियर द्वारा भारतीय समाज का वर्णन : –
🔹 बर्नियर के अनुसार भारतीय समाज दरिद्र लोगों के समरूप जनसमूह से बना जिसे एक बहुत अमीर और शक्तिशाली शासक वर्ग अपने अधीन रखता है। वह कहता है, “भारत में मध्य की स्थिति के लोग नहीं है। “
🔹 बर्नियर ने मुगल साम्राज्य का नकारात्मक चित्रण प्रस्तुत किया जिसके अनुसार मुगल साम्राज्य का राजा ‘भिखारियों और क्रूर लोगों का राजा’ था। इसके शहर ध्वस्त हो चुके थे तथा खराब वायु से दूषित थे तथा खेत झाड़ीदार व घातक दलदल से अटे हुए थे। इन सबका एकमात्र कारण भूमि पर राज्य का स्वामित्व होना था।
🔹 बर्नियर के विवरणों ने मॉन्टेस्क्यू व कार्ल मार्क्स जैसे दार्शनिकों के विचारों को बहुत प्रभावित किया।
नोट :- आश्चर्य की बात यह है कि एक भी सरकारी मुगल दस्तावेज यह इंगित नही करता कि राज्य की भूमि का एक मात्र स्वामी था ।
बर्नियर द्वारा शिल्पकारों का वर्णन : –
🔹 शिल्पकारों के संदर्भ मे बर्नियर लिखता है कि शिल्पकार मूल रूप से आलसी होता था। जो भी निर्माण करता वह अपनी आवश्यकताओं या अन्य बाध्यताओ के कारण करता था । शिल्पकारों के पास अपने उत्पादो को बेहतर बनाने की कोई प्रेणा नहीं थी क्योंकि मुनाफे का अधिग्रहण राज्य द्वारा किया जाता था । इसलिए उत्पादन हर जगह पतनोन्मुख था । हालाँकि वह यह भी मानता है पूर विश्व मे बडी मात्रा में बहुमूल्य धातुए भारत आती थी।
नोट :- बर्नियर एकमात्र इतिहास्कार था जो राजकीय कारखाने की कार्यप्रणाली का विस्तृत विवरण देता है।
बर्नियर द्वारा नगरों का वर्णन : –
🔹 नगरों के बारे में वह लिखता है भारत के नगरों में 17वीं शताब्दी में जनसंख्या का अनुपात यूरोप के नगरों से कहीं अधिक था फिर भी बर्नियर ने मुगलकालीन शहरों को ‘शिविर नगर’ की संज्ञा दी जो अपने अस्तित्व के लिए राजकीय संरक्षण पर निर्भर थे।
🔹 हालांकि वास्तविकता इसके विपरीत थी। मुगल काल में सभी प्रकार के नगर विकसित अवस्था में थे; जैसे कि उत्पादन केन्द्र, व्यापारिक नगर, बंदरगाह नगर, धार्मिक केन्द्र, तीर्थ स्थान आदि।
महाजन : –
🔹 बर्नियर के अनुसार पश्चिमी भारत में व्यापारी समुदाय को महाजन कहा जाता था।
सेठ : –
🔹 पश्चिमी भारत के महाजन – व्यापारी समुदाय के मुखिया को सेठ कहा जाता था।
नगर सेठ : –
🔹 अहमदाबाद जैसे शहरी केन्द्रों में समस्त महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय के मुखिया द्वारा होता था जिसे ‘नगर सेठ’ कहा जाता था।
बर्नियर द्वारा व्यापार का वर्णन : –
🔹 मुगलकाल में व्यापारी आपस में मजबूत सामुदायिक अथवा बन्धुत्व के संबंधों से जुड़े होते थे और अपनी जाति तथा व्यावसायिक संस्थाओं के माध्यम से संगठित रहते थे। पश्चिमी भारत में ऐसे समूहों को ‘महाजन’ कहा जाता था और उनके मुखिया को ‘सेठ’ ।
🔹 मुगलकाल में अहमदाबाद जैसे नगरों में सभी महाजनों का सामूहिक प्रतिनिधित्व व्यापारिक समुदाय का मुखिया करता था, जिसे नगर सेठ के नाम से जाना जाता था, जबकि अन्य शहरी समूहों में चिकित्सक (हकीम या वैद्य), अध्यापक (पंडित या मुल्ला), अधिवक्ता (वकील), चित्रकार, वास्तुविद, संगीतकार तथा सुलेखक जैसे व्यावसायिक वर्ग सम्मिलित थे।
दास और दासियाँ : –
🔹 इस काल में बाजारों में दास अन्य वस्तुओं की तरह खुलेआम बिकते थे और नियमित रूप से भेंट में भी दिए जाते थे। जब इब्नबतूता सिन्ध पहुँचा तो उसने भी सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को भेंट में देने के लिए घोड़े, ऊँट एवं दास खरीदे थे तथा मुल्तान के गवर्नर को उसने भेंट के तौर पर किशमिश और बादाम के साथ एक दास व घोड़ा दिया ।
🔹 इब्नबतूता के अनुसार नसीरुद्दीन नाम के धर्मोपदेशक के उपदेशों से खुश होकर मुहम्मद बिन तुगलक ने उसे इनाम स्वरूप एक लाख टका (मुद्रा) और दो सौ दास’ प्रदान किए।
दास और दासियाँ का उपयोग : –
🔹 इन्न बतूता के अनुसार दासों में बहुत अधिक विभिन्नताएँ थीं।
- सुल्तान की सेवा में कार्यरत कुछ दासियाँ गायन और संगीत में निपुण थीं।
- इब्नबतूता के अनुसार सुल्तान अपने अमीरों पर निगरानी रखने के लिए भी दासियों को नियुक्त करता था ।
- दासों को आमतौर पर घर के कार्यों के लिए काम में लाया जाता था ।
- पालकी या डोले में पुरुषों तथा महिलाओं को ले जाने के लिए इन दासों की सेवा मुख्य रूप से ली जाती थी।
- हालांकि घरेलू कार्य करने वाले इन दासों (विशेषतया दासी) की कीमत बहुत कम होती थी।
सती : –
🔹 वह महिला जो विधवा होने पर तुरन्त अपने पति के शव के साथ स्वेच्छा से अथवा जबरन जीवित ही जला दी जाती थी ।
सती प्रथा : –
🔹 बर्नियर ने सती-प्रथा का वर्णन बहुत ही मार्मिक ढंग से किया था। सती प्रथा समकालीन यूरोपीय यात्रियों के लिए भारत में महिलाओं के प्रति किया जाने वाला एक आश्चर्यजनक व्यवहार था ।
🔹 इस काल के विवरणों से स्पष्ट होता है कि महिलाएँ केवल घर की चारदीवारी में ही कैद नहीं रहती थीं, बल्कि वे कृषि एवं व्यापारिक गतिविधियों में भी भाग लेती थीं। वे कभी-कभी वाणिज्यिक विवादों को अदालत के समक्ष भी ले जाती थीं।
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