Class 12 history chapter 11 notes in hindi, विद्रोही और राज notes

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Class 12 History Chapter 11 विद्रोही और राज Notes in hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 11
Chapter Nameविद्रोही और राज
CategoryClass 12 History
MediumHindi

Class 12 Class History Chapter 11 विद्रोही और राज 1857 का आंदोलन और उसके व्याख्यान Notes In Hindi इस अध्याय मे हम पाठ 1857 के विद्रोह के कारण , स्थान , तथा उसे जुड़ी बातों पर चर्चा करेेंगे ।

फ़िरंगी : –

🔹 फ़िरंगी, फ़ारसी भाषा का शब्द है जो संभवत: फ्रैंक (जिससे फ्रांस का नाम पड़ा है) से निकला है। इसे उर्दू और हिंदी में पश्चिमी लोगों का मज़ाक उड़ाने के लिए कभी-कभी इसका प्रयोग अपमानजनक दृष्टि से भी किया जाता है।

मेरठ में बगावत : –

🔹 10 मई, 1857 को मेरठ छावनी में दोपहर बाद पैदल सेना ने विद्रोह कर दिया तथा शीघ्र ही घुड़सवार सेना ने भी विद्रोह कर दिया। यह विद्रोह सम्पूर्ण मेरठ शहर में फैल गया।

🔹 मेरठ शहर एवं आसपास के ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों ने विद्रोही सैनिकों का साथ दिया। सैनिकों ने शस्त्रागार पर नियन्त्रण स्थापित कर लिया जहाँ पर हथियार एवं गोला-बारूद रखे हुए थे।

दिल्ली में बगावत : –

🔹 11 मई, 1857 को घुड़सवार सेना ने दिल्ली पहुँचकर मुगल सम्राट बहादुर शाह नमाज़ से अंग्रेजों के विरुद्ध विद्रोह का नेतृत्व स्वीकार करने का निवेदन किया। रमज़ान का महीना था। विद्रोही सैनिकों से घिरे बहादुर शाह के समक्ष उनकी बात मानने के अतिरिक्त अन्य कोई विकल्प न था । इस तरह इस विद्रोह ने एक वैधता हासिल कर ली क्योंकि अब उसे मुग़ल बादशाह के नाम पर चलाया जा सकता था।

🔹 12 व 13 मई, 1857 को उत्तर भारत में शान्ति रही, लेकिन जैसे ही यह खबर फैली कि दिल्ली पर विद्रोहियों का कब्जा हो चुका है और बहादुर शाह ने विद्रोह को अपना समर्थन दे दिया है तो परिस्थितियाँ तेजी से बदलने लगी।

1857 के विद्रोह के कारण : –

🔹 1857 के विद्रोह के लिए जिम्मेदार कारक निम्न हैं : –

🔸 धार्मिक कारण : –

🔹 ईसाई मिशनरियाँ भारत में अपने धर्म प्रसार हेतु लालच देकर लोगों का धर्म परिवर्तन कर रही थी, साथ ही लार्ड डलहौजी द्वारा पारित कानून जिसके अंतर्गत धर्म परिवर्तन के बाद भी व्यक्ति को पैतृक सम्पत्ति में बराबर भाग मिलेगा इस घोषणा ने लोगों के असंतोष को बढ़ा दिया।

🔹 अंग्रेज सरकार ने भारतीय सैनिकों को गाय व सुअर की चर्बी चढ़े कारतूस दिए जिन्हें मुँह से काटना पड़ता था । इससे सैनिकों का धर्म खतरे में पड़ गया तथा उनकी धार्मिक भावना को चोट पहुँची ।

🔸 राजनीतिक कारण : –

🔹 अंग्रेजों ने कई राजाओं के राज्य हड़प कर उनकी पेंशन भी बंद कर दी।

🔹 लॉर्ड वेलेजली व डलहौजी ने विस्तारवादी नीतियों का प्रयोग कर भारतीय शासकों के राज्य छीनना शुरू कर दिया ।

🔹 अंग्रेज सरकार ने नि: संतान शासकों द्वारा बच्चे गोद लिए जाने की परंपरा को अवैध घोषित कर उनके राज्यों पर कब्जा कर लिया था। इससे शासकों व जनता में आक्रोश था ।

🔸 सामाजिक कारण : –

🔹 अंग्रेजों ने बाल विवाह, सती प्रथा तथा पर्दा प्रथा पर रोक लगा दी तथा विधवा विवाह शुरू करवा दिए, जिससे हिन्दू व मुसलमानों की सामाजिक मान्यताओं को चोट पहुँची और उनके मन में विद्रोह की भावना को जन्म दिया।

🔹 पाश्चात्य शिक्षा के आगमन से भारतीयों की रुचि परंपरागत शिक्षा प्रणाली से हटने लगी इसका पाठशालाओं और मदरसों पर बुरा प्रभाव पड़ा।

🔸 आर्थिक कारण : –

🔹 अंग्रेज सरकार ने जागीरदारों की जागीर छीन ली जमींदारों की जमीनों की नीलामी करवा दी तथा भू-राजस्व बढ़ा दिया। जिससे जमींदार, जागीरदार तथा किसान सभी अंग्रेजों के खिलाफ हो गए।

🔹 अंग्रेजों ने अपने यहाँ बने माल की खपत हेतु भारत पर कब्जा किया था इससे उनका व्यापार तो फल-फूल रहा था लेकिन भारतीय उद्योग धंधे चौपट हो गए थे ।

🔹 अंग्रेजों का सभी मुख्य धंधों पर एकाधिकार था तथा भारतीय जो व्यापार करते थे उस पर चुंगी, नाका आदि लगा दिया गया था। जिससे भारतीयों को पूर्ण लाभ नहीं मिल पाता था ।

🔹 शिक्षित भारतीयों को अंग्रेजों के समान उच्च पद तथा सम्मान नहीं दिया जाता था।

🔸 सैनिक कारण : –

🔹 सेना में अंग्रेज सैनिकों तथा भारतीय सैनिकों के बीच भेदभाव किया जाता था । भारतीय सैनिकों को उनकी तरह पद तथा वेतन नहीं दिया जाता था ।

🔹 उन्हें जानबूझकर चर्बी लगे कारतूस प्रयोग हेतु दिए गए थे।

🔹 यह अफवाह थी कि सैनिकों के आटे में हड्डियों का चूरा मिलाया जाता था। इन सब कारणों से सैनिकों ने विद्रोह कर दिया।

सैन्य विद्रोह कैसे शुरू हुए : –

🔹 विद्रोही सिपाहियों ने किसी-न-किसी विशेष संकेत के साथ अपनी कार्यवाही आरम्भ की। कहीं तोप का गोला दागा गया तो कहीं बिगुल बजाकर विद्रोह का संकेत दिया गया।

🔹 सर्वप्रथम विद्रोहियों ने शस्त्रागार पर कब्जा किया और सरकारी खजाने को लूटा। फिर जेल, टेलीग्राफ, कार्यालय, रिकॉर्ड रूम, बंगलों तथा सरकारी इमारतों पर हमले किये गए और सभी रिकॉर्ड जला डाले।

🔹 लखनऊ, कानपुर और बरेली जैसे बड़े शहरों में साहूकार और धनी लोग भी विद्रोहियों के क्रोध का शिकार बनने लगे।

🔹 किसान साहूकारों व अमीरों को अपना उत्पीड़क मानते थे। अधिकतर स्थानों पर अमीरों के घर-बार लूटकर ध्वस्त कर दिए गए। इन छोटे-छोटे विद्रोहों ने चारों तरफ एक बड़े विद्रोह का रूप ले लिया।

विद्रोह के स्वरूप में समानता : –

🔹 पृथक-पृथक जगहों पर विद्रोह के स्वरूप में समानता का कारण आंशिक रूप से उसकी योजना थी। विभिन्न छावनियों के सिपाहियों के बीच अच्छा समन्वय बना हुआ था। सभी सिपाही पुलिस लाइन में रहते थे और उनकी जीवनशैली एक जैसी थी।

नेता और अनुयायी का विद्रोह में नेतृत्व : –

🔹 अंग्रेजों के साथ मुकाबला करने के लिए उचित नेतृत्व एवं संगठन आवश्यक था। इस उद्देश्य से विद्रोहियों ने कई बार ऐसे शक्तिशाली व्यक्तियों की मदद ली, जो पहले से ही अंग्रेजों से किसी बात पर नाराज थे।

🔹 इसी कारण कानपुर के विद्रोही सैनिकों तथा लोगों ने पेशवा बाजीराव द्वितीय के उत्तराधिकारी नाना साहब को कानपुर से विद्रोह का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए मजबूर किया।

🔹 झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को आम जनता द्वारा झाँसी से विद्रोह का नेतृत्व स्वीकार करने के लिए मजबूर किया गया। इसी प्रकार बिहार में स्थानीय जमींदार कुंवर सिंह को भी मजबूर किया गया।

🔹 लखनऊ में अवध के नवाब वाजिद अली शाह के युवा बेटे बिरजिस कादिर को जनता ने अपना नेता घोषित किया।

विद्रोह के संदेश का फैलना : –

🔹 सभी जगहों पर नेता दरबारों से जुड़े व्यक्ति रानियाँ, राजा, नवाब, ताल्लुक़दार नहीं थे। अकसर विद्रोह का संदेश आम पुरुषों एवं महिलाओं के ज़रिए और कुछ स्थानों पर धार्मिक लोगों के ज़रिए भी फैल रहा था

🔹 लखनऊ में अवध पर क़ब्ज़े के बाद बहुत सारे धार्मिक नेता और स्वयंभू पैगम्बर – प्रचारक ब्रिटिश राज को नेस्तनाबूद करने का अलख जगा रहे थे।

🔹 अन्य स्थानों पर किसानों, ज़मींदारों और आदिवासियों को विद्रोह के लिए उकसाते हुए कई स्थानीय नेता सामने आ चुके थे।

शाहमल कौन था ?

🔹 शाहमल उत्तरप्रदेश में बड़ौत परगना के एक – बड़े गाँव का रहने वाला था। उसने चौरासी गाँव के मुखियाओं और काश्तकारों को संगठित कर अंग्रेजों के विरुद्ध व्यापक विद्रोह का नेतृत्व किया। जुलाई 1857 ई. में शाहमल को युद्ध में अंग्रेजों ने मार दिया।

अफ़वाहें और भविष्यवाणियाँ : –

🔹 लोगों को विद्रोह में भाग लेने के लिए तरह-तरह की अफवाहों एवं भविष्यवाणियों द्वारा इकट्ठा किया गया।

🔸 उदाहरण के लिए : – मेरठ से दिल्ली आने वाले सिपाहियों ने बहादुर शाह को उन कारतूसों के बारे में बताया था जिन पर गाय और सुअर की चर्बी का लेप लगा था। उनका कहना था कि अगर वे इन कारतूसों को मुँह से लगाएँगे तो उनकी जाति और मज़हब, दोनों भ्रष्ट हो जाएँगे। सिपाहियों का इशारा एन्फ़ील्ड राइफ़ल के उन कारतूसों की तरफ़ था जो हाल ही में उन्हें दिए गए थे। अंग्रेज़ों ने सिपाहियों को लाख समझाया कि ऐसा नहीं है लेकिन यह अफ़वाह उत्तर भारत की छावनियों में जंगल की आग की तरह फैलती चली गई।

🔹 यह अफवाह भी जोरों पर थी कि अंग्रेजों के द्वारा हिन्दुओं एवं मुसलमानों की जाति और धर्म को नष्ट किया जा रहा था। इसी उद्देश्य से अंग्रेजों ने बाजार में मिलने वाले आटे में गाय और सुअर की हड्डियों का चूरा मिलवा दिया है। चारों ओर सन्देह और भय का वातावरण था कि अंग्रेजों के द्वारा भारतीयों को ईसाई बनाया जा रहा है।

🔹 किसी बड़ी कार्रवाई के आह्वान को इस भविष्यवाणी से और बल मिला कि प्लासी की जंग के 100 साल पूरा होते ही 23 जून 1857 को अंग्रेज़ी राज ख़त्म हो जाएगा।

भारतीय समाज को सुधारने के लिए अंग्रेजों द्वारा विशेष प्रकार की नीति लागू करना : –

🔹 गवर्नर जनरल लॉर्ड विलियम बैंटिंक द्वारा पश्चिमी शिक्षा, पश्चिमी विचारों एवं पश्चिमी संस्थानों के माध्यम से भारतीय समाज को सुधारने के लिए विशेष प्रकार की नीति लागू की जा रही थी। अंग्रेजी माध्यम के स्कूल, कॉलेज एवं विश्वविद्यालय खोले जा रहे थे।

🔹 अंग्रेजों के द्वारा सती प्रथा ( 1829 ई.) को समाप्त किया गया तथा हिन्दू विधवा विवाह को वैधता प्रदान करने के लिए कानून बनाये गए। इन्हीं नीतियों के कारण जनता में असन्तोष व्याप्त था।

🔹 डॉक्ट्रिन ऑफ लेप्स, जिसे व्यपगत का सिद्धान्त या हड़पनीति भी कहा जाता था, के द्वारा लॉर्ड डलहौजी ने झाँसी, अवध जैसी रियासतों के पुत्र गोद लेने को अवैध घोषित करके हड़प लिया।

लोग अफ़वाहों में विश्वास क्यों कर रहे थे?

🔹 ये अफ़वाहें और भविष्यवाणियाँ उनके भय, उनकी आशंकाओं, उनके विश्वासों और प्रतिबद्धताओं के बारे में क्या बताती हैं। अफ़वाह तभी फैलती हैं जब उसमें लोगों के ज़हन में गहरे दबे डर और संदेह की अनुगूँज सुनाई देती है।

🔹 जैसे : – लोगों को लगता था कि वे अब तक जिन चीज़ों की क़द्र करते थे, जिनको पवित्र मानते थे चाहे राजे-रजवाड़े हों, सामाजिक-धार्मिक रीति-रिवाज हों या भूस्वामित्व, लगान अदायगी की प्रणाली हो उन सबको ख़त्म करके एक ऐसी व्यवस्था लागू की जा रही थी जो ज़्यादा हृदयहीन, परायी और दमनकारी थी। इस सोच को ईसाई प्रचारकों की गतिविधियों से भी बल मिल रहा था। ऐसे अनिश्चित हालात में अफ़वाहें रातोंरात फैलने लगती थीं।

रेज़ीडेंट : –

🔹 रेज़ीडेंट गवर्नर जनरल के प्रतिनिधि को कहा जाता था। उसे ऐसे राज्य में तैनात किया जाता था जो अंग्रेज़ों के प्रत्यक्ष शासन के अंतर्गत नहीं था।

अवध में विद्रोह : –

🔹 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र अवध था जिसके बारे में 1851 में गवर्नर जनरल लॉर्ड डलहौजी ने कहा था “ये फल एक दिन हमारे ही मुँह में आकर गिरेगा।” 1856 ई. में इस रियासत को औपचारिक रूप से ब्रिटिश साम्राज्य में मिला लिया गया।

🔹 1801 ई. में अवध पर सहायक सन्धि थोप दी गई। सन्धि की शर्तें थीं कि नवाब अपनी सेना समाप्त कर दे, अपनी रियासत में अंग्रेजी सेना की टुकड़ी को तैनात करे तथा अपने दरबार में विद्यमान ब्रिटिश रेजीडेंट की सलाह पर कार्य करे। अपनी शक्ति के छिन जाने से नवाब अपनी रियासत में कानून व्यवस्था बनाने के लिए अंग्रेजों पर निर्भर रहने लगा। अब विद्रोही मुखियाओं और ताल्लुकदारों पर भी नवाब का कोई नियन्त्रण नहीं था ।

अवध पर अधिग्रहण : –

🔹 1850 के दशक के प्रारम्भ तक देश के प्रमुख भागों पर अंग्रेज विजय प्राप्त कर चुके थे। मराठा भूमि, दोआब, कर्नाटक, बंगाल तथा पंजाब सभी अंग्रेजों के पास थे। लगभग एक शताब्दी पहले बंगाल पर जीत के साथ आरम्भ हुई क्षेत्रीय विस्तार की यह प्रक्रिया 1856 ई. में अवध के अधिग्रहण के साथ पूरी हो गई थी।

अवध पर अधिग्रहण के परीणाम : –

🔹 लॉर्ड डलहौजी द्वारा किए गए अधिग्रहण से सभी रियासतों में गहरा असन्तोष व्याप्त था, परन्तु इतना रोष और कहीं नहीं था जितना अवध में था क्योंकि अवध के नवाब वाजिद अली शाह पर कुप्रशासन का आरोप लगाकर गद्दी से हटा दिया गया था।

🔹 अवध के अधिग्रहण से केवल नवाब को ही नहीं हटाया गया बल्कि नर्तकों, संगीतकारों, कारीगरों, बावर्चियों, कवियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों की रोजी-रोटी भी जाती रही।

🔹 अवध के अधिग्रहण के तुरन्त बाद ताल्लुकदारों की सेनाओं को भंग कर दिया गया तथा उनके किले ध्वस्त कर दिये गए।

अंग्रेजों द्वारा अवध के अधिग्रहण का स्थानीय जनता पर प्रभाव : –

🔹 अंग्रेजों द्वारा अवध के अधिग्रहण के कारण स्थानीय जनता ब्रिटिश शासन के विरुद्ध हो गई क्योंकि नवाब को हटाने से दरबार और उसकी संस्कृति नष्ट हो गई। संगीतकारों, नर्तकों, कवियों, कारीगरों, बावर्चियों, नौकरों, सरकारी कर्मचारियों एवं अनेक लोगों की रोजी-रोटी समाप्त हो गई थी।

सहायक संधि : –

🔹 सहायक संधि लॉर्ड वेलेज्ली द्वारा 1798 में तैयार की गई एक व्यवस्था थी। अंग्रेज़ों के साथ यह संधि करने वालों को कुछ शर्तें माननी पड़ती थीं। मसलन :

  • (क) अंग्रेज़ अपने सहयोगी की बाहरी और आंतरिक चुनौतियों से रक्षा करेंगे;
  • (ख) सहयोगी पक्ष के भूक्षेत्र में एक ब्रिटिश सैनिक टुकड़ी तैनात रहेगी;
  • (ग) सहयोगी पक्ष को इस टुकड़ी के रख-रखाव की व्यवस्था करनी होगी; तथा
  • (घ) सहयोगी पक्ष न तो किसी और शासक के साथ संधि कर सकेगा और न ही अंग्रेज़ों की अनुमति के बिना किसी युद्ध में हिस्सा लेगा ।

सहायक सन्धि द्वारा अवध के नवाब का असहाय होना : –

🔹 सहायक सन्धि के कारण अवध का नवाब – वाजिद अली शाह अपनी सैनिक शक्ति से वंचित हो गया फलस्वरूप वह अपनी रियासत में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए दिन-प्रतिदिन अंग्रेजों पर निर्भर होता जा रहा था। नवाब का विद्रोही मुखियाओं एवं ताल्लुकदारों पर कोई नियंत्रण नहीं था ।

1857 के दौरान ब्रिटिश सरकार द्वारा अवध के ताल्लुकदारों की सत्ता छीनने की प्रकिया : –

  • अंग्रेजों द्वारा सहायक संधि के तहत अवध का अधिग्रहण ।
  • अवध के नवाब वाजिद अली शाह को गद्दी से हटा कलकत्ता निर्वसन ।
  • अंग्रेजों द्वारा नवाब को अपनी जनता में अलोकप्रिय बताकर उन पर राज अच्छी तरह न चलाने का आरोप ।
  • अवध के ताल्लुकदारों की सत्ता पर भी प्रहार ।
  • समूचें देहात में ताल्लुकदारों की जागीरें और किले ।
  • इलाकों की जमीन और सत्ता पर जमींदारों का नियंत्रण ।
  • ताल्लुकदारों के पास अपने हथियारबंद सिपाही ।
  • नवाब की संप्रभुता स्वीकार का और राजस्व चुकाते रहने पर स्वायत्तता का होना ।
  • अंग्रेज ताल्लुकदारों की सत्ता को बर्दाश्त करने के लिए तैयार नहीं ।
  • अधिग्रहरण के फौरन बाद अंग्रेजों द्वारा ताल्लुकदारों की सेनाएँ भंग ।
  • 1856 में एकमुश्त बंदोबस्त के नाम से ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था लागू ।
  • बंदोबस्त के अनुसार ताल्लुकदार सिर्फ बिचौलिया ।
  • जमीन पर उनका मालिकाना नहीं।
  • बल और धोखाधड़ी के जरिए इनका प्रभुत्व ।
  • एकमुश्त बंदोबस्त के तहत ताल्लुकदार जमीनों से बेदखल ।
  • दक्षिण अवध के ताल्लुकदारों को सबसे बुरी मार।
  • अंग्रेजों के आने से पहले का प्रतिशत गाँव ताल्लुकदारों के पास ।
  • एकमुश्त बंदोबस्त के बाद संख्या घटकर 38 प्रतिशत ।
  • ताल्लुकदारों की सत्ता छीनने से एक पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग ।

एकमुश्त बन्दोबस्त : –

🔹 1856 ई. में एकमुश्त बन्दोबस्त के नाम से ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था लागू कर दी गई। यह बन्दोबस्त इस मान्यता पर आधारित था कि ताल्लुकदार बिचौलिए थे जिनके पास जमीन का स्वामित्व नहीं था। उन्होंने धोखा देकर तथा शक्ति के बल पर अपना प्रभुत्व स्थापित किया हुआ था।

🔹 एकमुश्त बन्दोबस्त के तहत ताल्लुकदारों को उनकी जमीनों से बेदखल किया जाने लगा, इस कारण दक्षिण अवध के ताल्लुकदारों को सबसे अधिक क्षति उठानी पड़ी। ताल्लुकदारों की सत्ता छिनने से एक पूरी सामाजिक व्यवस्था भंग हो गई।

अवध एक बड़ी क्रान्ति : –

🔹 अवध जैसे प्रदेशों में, जहाँ 1857 ई. के दौरान प्रतिरोध अत्यधिक लम्बा चला, लड़ाई की जिम्मेदारी वास्तव में ताल्लुकदारों और किसानों के ही हाथों में थी । बहुत से ताल्लुकदार अवध के नवाब के प्रति निष्ठा रखते थे, इसलिए वे अंग्रेजों के साथ मुकाबला करने के लिए लखनऊ जाकर नवाब की पत्नी बेगम हजरत महल के साथ मिल गए।

🔹 किसानों का विद्रोह अब सैनिक बैरकों तक पहुँचने लगा क्योंकि बहुत से सिपाही अवध के गाँवों से ही भर्ती किये गए थे। बहुत से सिपाही कम वेतन और समय पर छुट्टी न मिलने के कारण असन्तुष्ट थे। 1850 के दशक तक कई कारणों ने मिलकर एक बड़ी क्रान्ति का रूप धारण कर लिया।

विद्रोह में सिपाहियों की भूमिका : –

🔹 1857 के जनविद्रोह से पहले के वर्षों में सिपाहियों के अपने अंग्रेज अफसरों के साथ रिश्तों में बहुत बदलाव आ चुका था।

🔹 उत्तर भारत में सिपाहियों तथा ग्रामीण जगत के मध्य गहरे संबंध थे। अवध तथा पूर्वी उत्तर प्रदेश के गाँवों से बड़ी संख्या में बंगाल आर्मी में सिपाही थे जिनमें से अधिकांश ब्राह्मण ‘ऊँची जाति’ के थे। अवध तो ‘बंगाल आर्मी की पौधशाला’ के तौर पर जाना जाता था।

🔹 सिपाहियों तथा ग्रामीण जनता के मध्य संबंधों से जनविद्रोह के स्वरूप पर गहरा प्रभाव पड़ा। जब सिपाहियों के द्वारा अपने अफसरों के आदेश की अवज्ञा की जाती थी और अंग्रेजों के विरुद्ध हथियार उठा लिए जाते थे तब विद्रोहियों के सगे-संबंधी, रिश्तेदार तथा गाँव की आम जनता भी विद्रोह में शामिल हो जाती थी।

विद्रोही क्या चाहते थे ?

🔹 1857 का विद्रोह एक ऐसा विद्रोह था जिसने कंपनी की नींव को हिलाकर रख दिया था । विद्रोह की शुरुआत तो सैनिक विद्रोह के रूप में हुई थी, लेकिन धीरे- धीरे यह राष्ट्रीय विद्रोह बन गया, समाज के सभी वर्ग इसमें शामिल हो गए थे।

🔹 विद्रोही देश को अंग्रेजी शासन से मुक्त कराना चाहते थे। वे जानते थे कि समाज का प्रत्येक वर्ग किसी ना किसी रूप में अंग्रेजों के शोषण का सामना कर रहे थे इसलिए उन्होंने सभी वर्गों में एकता व समन्वय की भावना उत्पन्न करने की कोशिश की चूँकि विद्रोह में अनेक वर्गों तथा सामाजिक समूहों ने भाग लिया था इसलिए उनके स्वार्थ तथा दृष्टिकोण भी भिन्न-भिन्न थे। उनकी चाहत तथा उद्देश्य में भी पर्याप्त भिन्नता थी।

विद्रोहीयो के विद्रोह करने के उद्देश्य को लेकर विभिन्न सामाजिक समूहों की दृष्टि में फर्क : –

🔸 शासक वर्ग : – इस विद्रोह में सैनिकों के आह्वान पर बहादूर शाह जफर, नाना साहेब, लक्ष्मीबाई, कुँवरसिंह आदि शासकों ने नेतृत्व प्रदान किया लेकिन इनके विद्रोह में शामिल होने का उद्देश्य अपनी खोई हुई सत्ता की पुन: प्राप्ति था ।

🔸 जमींदार, ताल्लुकदार : – अंग्रेजी सरकार ने ताल्लुकदारों के भू-भाग तथा संपदाएँ छीन ली तथा जमींदारों की जमीनें नीलाम कर दी थी । इसलिए वे अंग्रेजी राज को समाप्त करके अपनी संपदाओं को पुनः प्राप्त करना चाहते थे ।

🔸 किसान : – विद्रोह में किसानों के जुड़ने का उद्देश्य यह था कि किसान अंग्रेजी सरकार की नीतियों से परेशान थे वे चाहते थे कि उन्हें भूमि से बेदखल ना किया जाए तथा सरकार, जमींदार, जोतदार, भूमि सुधारों की तरफ ध्यान दे बाजार में फसल के उचित मूल्य पर बिकने की सुविधा हो । साहूकारों तथा ऋणदाताओं पर सरकार का नियंत्रण हो तथा प्राकृतिक विपदा के समय उनका लगान माफ़ किया जाए।

🔸 व्यापारी : – अंग्रेजी सरकार ने कीमती उद्योगों को अपने हाथ में रखा था जिससे व्यापारियों को छोटे-मोटे व्यापार करने पड़ रहे थे तथा उन पर भी चुंगी नाका आदि लगा दिए थे, जिससे उन्हें अधिक लाभ नहीं होता था, इसलिए वे विद्रोह में शामिल होकर अंग्रेजों को भगाकर व्यापार पर एकाधिकार करना चाहते थे ।

🔸 पंडित व मौलवी : – पंडित तथा मौलवी भारत में ईसाई धर्म फैलाने के विरुद्ध थे । वे मानते थे कि अंग्रेज भारतीय संस्कृति व सभ्यता को रौंदकर पाश्चात्य सभ्यता का प्रसार कर रहे हैं वे धर्म के बचाव हेतु विद्रोह में शामिल हुए थे ।

एकता की कल्पना : –

🔹 1857 ई. में विद्रोही जाति तथा धर्म का भेद किए बिना समाज के सभी वर्गों का आह्वान कर घोषणाएँ जारी करते थे। बहुत सारी घोषणाएँ मुस्लिम राजकुमारों या नवाबों की तरफ़ से या उनके नाम पर जारी की गई थीं । परंतु उनमें भी हिंदुओं की भावनाओं का ख़याल रखा जाता था। बहादुरशाह के नाम से जारी घोषणा में मुहम्मद व महावीर दोनों के नाम पर जनता से इस लड़ाई में भाग लेने का आह्वान किया गया।

🔹 अंग्रेज शासन ने दिसंबर 1857 में पश्चिमी उत्तर प्रदेश स्थित बरेली के हिंदुओं को मुसलमानों के ख़िलाफ़ भड़काने के लिए 50,000 रुपये खर्च किए। उनकी यह कोशिश नाकामयाब रही।

विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए अपनाए गए तरीके : –

🔹 विद्रोहियों के बीच एकता स्थापित करने के लिए अग्रलिखित तरीके अपनाए गए :

  • भारतीय समाज के सभी वर्गों से जातीय भेद-भाव न करते हुए एकता बनाए रखने की अपील की गई ।
  • मुस्लिम राजाओं द्वारा की गई घोषणा में भी हिंदुओं की भावनाओं का ध्यान रखा गया था।
  • हिंदुओं और मुसलमान दोनों की भावनाओं के लाभ और हानि को ध्यान में रखते हुए विद्रोह आरंभ किया।
  • बहादुर शाह द्वितीय के नेतृत्व में लोगों को मुहम्मद तथा महावीर दोनों के नामों पर विद्रोह में शामिल होने की अपील की। यद्यपि अंग्रेजों ने हिंदुओं और मुसलमानों में दरारें डालने के प्रयत्न किए परंतु उस विद्रोह में हिंदुओं और मुसलमानों में कोई भी धार्मिक अंतर देखने को न मिला।

उत्पीड़न के प्रतीकों के ख़िलाफ़ : –

🔹 जनता के मध्य इस बात को लेकर भी रोष विद्यमान था कि ब्रिटिश भू-राजस्व व्यवस्था ने सभी बड़े भू-स्वामियों को जमीन से बेदखल कर दिया था।

🔹 विदेशी व्यापार ने गरीब दस्तकारों और बुनकरों को भी बर्बाद कर दिया।

🔹 भारतीय जनता ने अंग्रेजों पर आरोप लगाया कि उन्होंने भारतीय संस्कृति को नष्ट-भ्रष्ट कर दिया है।

🔹 कई दफ़ा विद्रोही शहर के संभ्रांत को जान-बूझकर बेइज्जत करते थे। गाँवों में उन्होंने सूदखोरों के बहीखाते जला दिए और उनके घर तोड़-फोड़ डाले । इससे पता चलता है कि विद्रोही तमाम उत्पीड़कों के ख़िलाफ़ थे और परंपरागत सोपानों (ऊँच-नीच) को ख़त्म करना चाहते थे।

वैकल्पिक सत्ता की तलाश : –

🔹 ब्रिटिश शासन ध्वस्त होने के बाद विद्रोहियों ने दिल्ली, लखनऊ तथा कानपुर जैसी जगहों पर एक तरह की सत्ता तथा शासन संरचना की स्थापना करने की कोशिश की जिसका प्राथमिक उद्देश्य युद्ध की आवश्यकताओं की पूर्ति करना था ।

🔹 इन नेताओं ने पुरानी दरबारी संस्कृति का सहारा लिया।

  • विभिन्न पदों पर नियुक्तियाँ की गई।
  • भूराजस्व वसूली और सैनिकों के वेतन के भुगतान का इंतजाम किया गया।
  • लूटपाट बंद करने के लिए हुक्मनामे जारी किए गए।
  • इसके साथ-साथ अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध जारी रखने की योजनाएँ भी बनाई गई।
  • सेना की कमान श्रृंखला तय की गई।

🔹 इन सारे प्रयासों में विद्रोही अठारहवीं सदी के मुग़ल जगत से ही प्रेरणा ले रहे थे यह जगत उन तमाम चीजों का प्रतीक बन गया जो उनसे छिन चुकी थीं।

अंग्रेजों द्वारा दमन : –

🔹 उत्तर भारत को दोबारा जीतने के लिए टुकड़ियों को रवाना करने से पहले अंग्रेज़ों ने उपद्रव शांत करने के लिए फ़ौजियों की आसानी के लिए कई क़ानून पारित कर दिए थे।

🔹 मई व जून 1857 ई. में पारित किए गए कई कानूनों के तहत भारतीयों द्वारा किये जा रहे विद्रोह को कुचलने के लिए उत्तर भारत में मार्शल लॉ लागू किया गया। फौजी अधिकारियों के साथ-साथ अंग्रेजों को भी ऐसे हिन्दुस्तानियों पर मुकदमा चलाने का व दण्ड देने का अधिकार दे दिया गया था, जिन पर विद्रोह में शामिल होने का सन्देह था । विद्रोह के लिए केवल एक ही सजा दी जाती थी- सजा-ए-मौत ।

विद्रोह को कुचलना : –

🔹 इन नए विशेष क़ानूनों और ब्रिटेन से मँगाई गई नयी टुकड़ियों से लैस अंग्रेज़ सरकार ने विद्रोह को कुचलने का काम शुरू कर दिया।

🔹 अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने का काम शुरू करने के बाद जून 1857 में दिल्ली को कब्जे में करने का भरसक प्रयास किया, जो सितम्बर के अंत में जाकर सफल हुआ। अंग्रेजों ने विद्रोह को कुचलने के लिए बड़े पैमाने पर सैन्य ताकत का इस्तेमाल किया।

अंग्रेजों द्वारा विद्रोह को कुचलने के लिए उठाए गए कदम : –

  • अंग्रेजों ने इस विद्रोह को दबाने के लिए ब्रिटेन से बड़ी संख्या में सैन्य सहायता मँगवाई।
  • इस विद्रोह को दबाने के लिए अंग्रेजों ने कई नए कानून जारी किए तथा उत्तर भारत पर मार्शल लॉ लागू कर दिया।
  • मेजर रेनांड ने जनरल नाईल के आदेश पर उन सभी क्षेत्रों में घोर अत्याचार किए जहाँ विद्रोह फैला था।
  • विद्रोह के लिए केवल एक ही सजा दी जाती थी- सजा-ए-मौत ।
  • विद्रोही सैनिकों को पकड़कर हजारों लोगों के सामने उन्हें तोप से उड़ा दिया गया।
  • अंग्रेजों ने ‘फूट डालो राज करो’ की नीति अपनाते हुए हिंदू और मुसलमानों के बीच दरार पैदा करने की कोशिश की।

कला और साहित्य के माध्यम से विद्रोह का विवरण : –

🔹 अंग्रेजों तथा भारतीयों द्वारा सैनिक विद्रोह के चित्र बनाये गये, जो कि एक महत्त्वपूर्ण रिकॉर्ड रहे हैं। इस विद्रोह के कई चित्र, जैसे- पेंसिल से बने रेखांकन, उत्कीर्ण चित्र, पोस्टर, कार्टून तथा बाजार प्रिंट उपलब्ध हैं।

रक्षकों का अभिनंदन : –

🔹 अंग्रेजों के द्वारा बनाये गए चित्रों में अंग्रेजों को बचाने वाले तथा विद्रोह व विद्रोहियों को कुचलने वाले अंग्रेज नायकों का गुणगान किया जाता था। 1859 ई. में टॉमस जोंस बार्कर द्वारा बनाया गया चित्र ‘रिलीफ ऑफ लखनऊ’ (लखनऊ की राहत) इसका एक प्रमुख उदाहरण है।

अंग्रेज़ औरतें तथा ब्रिटेन की प्रतिष्ठा : –

🔹 समाचार-पत्रों में जो खबरें छपी, उनका जनता की कल्पना शक्ति तथा मनोदशा पर गहरा प्रभाव पड़ा। भारत में औरतों एवं बच्चों के साथ हुई हिंसा की कहानियों को ‘पढ़कर ब्रिटेन की जनता सबक सिखाने के लिए प्रतिशोध की माँग करने लगी।

🔹 जोजेफ नोएल पेटन ने सैनिक विद्रोह के दो साल पश्चात् ‘इन मेमोरियम’ नामक चित्र बनाया जिसमें अंग्रेज औरतें तथा बच्चे एक घेरे में एक-दूसरे से लिपटे दिखाई देते हैं जैसे वे घोर संकट में हों। अंग्रेज कलाकारों ने सदमे तथा पीड़ा की अपनी चित्रात्मक अभिव्यक्तियों द्वारा इन भावनाओं को आकार प्रदान किया।

दया के लिए कोई जगह नहीं : –

🔹 गवर्नर जनरल लॉर्ड केनिंग द्वारा विद्रोही सिपाहियों के साथ नरमी का सुझाव दिया गया जिसका मजाक बनाया गया। ब्रिटिश पत्रिका ‘पन्च’ में उसका कार्टून छपा, जिसमें लॉर्ड केनिंग को एक वृद्ध व्यक्ति के रूप में दर्शाया गया, जो एक विद्रोही सिपाही के सिर पर हाथ रखे हुए था।

राष्ट्रवादी दृश्य कल्पना : झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई : –

🔹 20वीं शताब्दी में राष्ट्रवादी आन्दोलन को 1857 ई. के विद्रोह से प्रेरणा मिल रही थी, जिसे भारत के प्रथम स्वतन्त्रता संग्राम के रूप में याद किया गया। इस विद्रोह में सभी वर्गों के लोगों ने साम्राज्यवादी शासन के विरुद्ध मिलकर लड़ाई लड़ी थी।

🔹 चित्रों में झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई को एक ऐसे महत्त्वपूर्ण मर्दाना व्यक्तित्व के रूप में दर्शाया गया जिसमें वह शत्रुओं का पीछा करते हुए ब्रिटिश सिपाहियों को मौत के घाट उतारते हुए आगे बढ़ रही है।

🔹 भारत के विभिन्न भागों में बच्चे कवयित्री सुभद्रा कुमारी चौहान की इन पंक्तियों को पढ़ते हुए बड़े हो रहे थे “खूब लड़ी मर्दानी वो तो झाँसी वाली रानी थी।”


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