Class 12 history chapter 1 notes in hindi, ईंटें मनके तथा अस्थियाँ notes

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12 Class History Chapter 1 ईंटें मनके तथा अस्थियाँ Notes In Hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 1
Chapter Nameईंटें मनके तथा अस्थियाँ
CategoryClass 12 History
MediumHindi

Class 12 History Chapter 1 ईंटें मनके तथा अस्थियाँ Notes in Hindi इस अध्याय मे हम हड़प्पा सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता के बारे में पड़ेगे तथा हड़प्पा बासी लोगो के सामाजिक एवं आर्थिक जीवन पर चर्चा करेंगे ।

  • B. C. ( Before Christ ) – ईसा पूर्व
  • A . D ( Anno Domini) – ईसा मसीह के जन्म वर्ष
  • B. P ( Before Present) – आज से पहले

संस्कृति शब्द का अर्थ : –

🔹 पुरातत्त्वविद संस्कृति शब्द का प्रयोग पुरावस्तुओं के ऐसे समूह के लिए करते हैं जो एक विशिष्ट शैली के होते हैं और सामान्यतया एक साथ , एक विशेष भौगोलिक क्षेत्र तथा काल – खण्ड से संबंधित पाए जाते हैं।

पुरातात्विक सामग्री : –

🔹 समकालीन अर्थात् प्रत्यक्षदर्शी सामग्री ही पुरातात्विक सामग्री कहलाती है।

पुरातत्ववेत्ता अथवा पुराविद् : –

🔹 विभिन्न स्थानों पर उत्खनन कर पुरातात्विक सामग्री की खोज करने वाले विद्वान पुरातत्ववेत्ता अथवा पुराविद् कहलाते हैं।

पुरातत्व का अर्थ : –

🔹 पुरातत्व संस्कृत भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है – पुरानी वस्तुओं का तत्व जानना और उनकी रक्षा करना । पुरातत्व वह विज्ञान है जिसके माध्यम से पृथ्वी के गर्भ में छिपी हुई सामग्रियों की खुदाई कर अतीत के लोगों के भौतिक जीवन का ज्ञान प्राप्त किया जा सकता है।

🔹 वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित होने के कारण पुरातत्व एक अंतिम तथा सर्वाधिक महत्वपूर्ण स्रोत है , इसके अन्तर्गत खुदाई में प्राप्त सिक्के , अभिलेख , खण्डहर व स्मारक आदि की गणना की जाती है । किसी भी जाति की सभ्यता का इतिहास प्राप्त करने का पुरातत्व एक प्रमुख साधन है।

हड़प्पा सभ्यता / सिंधु घाटी सभ्यता : –

🔹 सिन्धुघाटी सभ्यता को हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है। इस सभ्यता का नामकरण, हड़प्पा नामक स्थान के नाम पर किया गया है, जहाँ यह संस्कृति पहली बार खोजी गई थी। हड़प्पा सभ्यता का काल निर्धारण लगभग 2600 और 1900 ईसा पूर्व के बीच किया गया है। इस क्षेत्र में इस सभ्यता से पहले और बाद में भी संस्कृतियाँ अस्तित्व में थीं, जिन्हें क्रमशः आरम्भिक तथा परवर्ती हड़प्पा कहा जाता है। इन संस्कृतियों से हड़प्पा सभ्यता को अलग करने के लिए कभी-कभी इसे विकसित हड़प्पा संस्कृति भी कहा जाता है।

हड़प्पा सभ्यता का नाम : –

🔸 हड़प्पा सभ्यता : – इस सभ्यता का नामकरण हड़प्पा नामक स्थान के नाम पर किया गया है, क्योंकि हड़प्पा नाम के स्थान पर यह संस्कृति सर्वप्रथम खोजी गयी थी।

🔸 सिंधु घाटी सभ्यता (Indus Velley Civilisation) : – हड़प्पा सभ्यता को ‘सिन्धु घाटी सभ्यता’ के नाम से भी जाना जाता है क्योंकि इस सभ्यता के अधिकांश स्थलों का विकास सिन्धु नदी की घाटी में हुआ था।

🔸 कांस्य युग सभ्यता : – हड़प्पा में लोगों ने औजार बनाने के लिए ताँबे एवं टिन धातु को मिलाकर काँस्य धातु का उपयोग किया था। हड़प्पा में काँस्य से बनी हुई कई पुरावस्तुएँ और औजार प्राप्त हुए है जिन्हें शिल्पियों ने बड़ी मेहनत से बनाया है। इस कारण हड़प्पा सभ्यता को काँस्य युग कहा जाता है।

हड़प्पा सभ्यता की खोज : –

🔹 हड़प्पा सभ्यता की खोज 1921-22 में दया राम साहनी , रखालदास बनर्जी और सर जॉन मार्शल के नेतृत्व में हुई।

🔹 सर्वप्रथम 1921 ई. में रायबहादुर दयाराम साहनी ने तत्कालीन भारतीय पुरातत्व विभाग के निदेशक सर जॉन मार्शल के नेतृत्व में हड़प्पा नामक स्थल की खुदाई कर इस सभ्यता की खोज की।

🔹 हड़प्पा के पश्चात् 1922 ई. में राखालदास बनर्जी ने मोहनजोदड़ो नामक स्थल की खोज की।

हड़प्पा सभ्यता का काल : –

🔹 हड़प्पा सभ्यता का काल ( विकसित सभ्यता ) 2600 ईसा पूर्व से 1900 ईसा पूर्व के बीच माना जाता है।

🔹 पुरातत्वविदों द्वारा हड़प्पा सभ्यता का समय 2600 ई० पू० से 1900 ई० पू० के मध्य निर्धारित किया गया है। रेडियो कार्बन-14 (सी-14 ) जैसी नवीनतम विश्लेषण पद्धति द्वारा हड़प्पा सभ्यता का समय 2500 ई०पू० से 1750 ई०पू० माना गया है, जो सर्वाधिक मान्य है।

कार्बन-14 विधि ( Carbon – 14 Method) : –

🔹 तिथि निर्धारण की वैज्ञानिक विधि को कार्बन-14 विधि कहा जाता है। इस विधि की खोज अमेरिका के प्रख्यात रसायनशास्त्री बी. एफ. लिवी द्वारा सन् 1946 ई. में की गई थी। इस विधि के अनुसार किसी भी जीवित वस्तु में कार्बन- 12 एवं कार्बन-14 समान मात्रा में पाया जाता है। मृत्यु अथवा विनाश की अवस्था में C-12 तो स्थिर रहता है, मगर C-14 का निरन्तर क्षय होने लगता है।

🔹 कार्बन का अर्ध-आयु काल 5568 ° 30 वर्ष होता है, अर्थात् इतने वर्षों में उस पदार्थ में C-14 की मात्रा आधी रह जाती है। इस प्रकार वस्तु के काल की गणना की जाती है। जिस पदार्थ में कार्बन – 14 की मात्रा जितनी कम होती है, वह उतना ही प्राचीनतम माना जाता है। पदार्थों में C-14 के क्षय की प्रक्रिया को रेडियोधर्मिता (Radio Activity) कहा जाता है।

हड़प्पा संस्कृति के भाग /चरण : –

🔹 सभ्यता की अवधि मोटे तौर पर तीन हिस्सों में विभाजित है : –

  • प्रारंभिक हड़प्पाई सभ्यता ( 3300 ई.पू. – 2600 ई.पू. तक )
  • परिपक्व हड़प्पाई सभ्यता ( 2600 ई.पू – 1900 ई.पू. तक )
  • उत्तर हड़प्पाई सभ्यता ( 1900 ई.पू. – 1300 ई.पू. तक )

हड़प्पा सभ्यता की जानकारी के प्रमुख स्त्रोत : –

🔹 हड़प्पा सभ्यता की जानकारी के प्रमुख स्त्रोत : – खुदाई में मिली इमारतें , मृद भाण्ड , औजार , आभूषण , मूर्तियाँ , मुहरें इत्यादि हैं।

हड़प्पा सभ्यता का विस्तार क्षेत्र : –

🔹 उत्खनन में हड़प्पा सभ्यता के अवशेष मोहनजोदड़ों, हड़प्पा, कालीबंगा, रोपड़, संघोल, बणावली, राखीगढ़ी, रंगपुर, धौलावीरा, लोथल आदि अनेक स्थानों से प्राप्त हुए हैं।

🔹 इसके आधार पर पुरातत्वविदों ने यह मत व्यक्त किया है कि हड़प्पा सभ्यता का विस्तार अफगानिस्तान, बलूचिस्तान, सिन्ध, पंजाब, हरियाणा, राजस्थान, गुजरात एवं उत्तर भारत में गंगा घाटी तक व्याप्त था।

हड़प्पा सभ्यता की सीमा : –

  • उत्तरी सीमा : – सरायखोला , गुमला घाटी , डाबर कोट।
  • दक्षिणी सीमा : – मालवण ( ताप्ती नदी घाटी ) , भगवत राव ( नर्मदा घाटी )।
  • पूर्वी सीमा : – आलमगीरपुर ( हिण्डन नदी के किनारे )।
  • पश्चिमी सीमा : – सुत्कांगेडोर ( मकरान का समुद्री तट )।

हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख केन्द्र : –

  • जम्मू में अखनूर एवं मांडा ,
  • पंजाब ( भारत ) में रोपड़ , संधोल ,
  • पंजाब ( पाकिस्तान ) में हड़प्पा ,
  • गुजरात में रंगपुर , लोथल , सुरकोतड़ा , मालवड़ रोवड़ी ,
  • राजस्थान में कालीबंगान ,
  • उत्तर प्रदेश में आलमगीरपुर ,
  • हरियाणा में मीतांथल , वनबाली , राखीगढ़ी ,
  • बलूचिस्तान ( पाकिस्तान ) में डाबरकोट , सुत्काकोह , सुत्कांगेडोर ,
  • सिन्ध ( पाकिस्तान ) में मोहनजोदड़ो , कोटदीजी , अलीमुराद , चन्हूदड़ो आदि।

हड़प्पा सभ्यता में निर्वाह के तरीके : –

🔹 हड़प्पा सभ्यता के लोगों के निर्वाह के मुख्य तरीके निम्नलिखित थे : –

  • पेड़ पौधों से प्राप्त उत्पाद,
  • माँस तथा मछली,
  • गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना, बाजरा, चावल, तिल आदि खाद्य पदार्थ।

🔹 हड़प्पा सभ्यता के निवासी कई प्रकार के पेड़-पौधों से प्राप्त उत्पादों तथा जानवरों से प्राप्त माँस आदि का सेवन करते थे। ये लोग मछली का भी सेवन करते थे। हड़प्पा स्थलों से गेहूँ, जौ, दाल, सफेद चना, तिल, बाजरा, चावल आदि अनाज के दानें प्राप्त हुए हैं।

🔹 हड़प्पा निवासी भेड़, बकरी, भैंस तथा सुअर के माँस का सेवन करते थे। इस बात की पुष्टि हड़प्पा स्थलों से मिली इन जानवरों की हड्डियों से होती है। इसके अलावा हिरण, घड़ियाल आदि की हड्डियाँ भी मिली हैं। सम्भवतः हड़प्पा निवासी इन जानवरों के माँस का भी सेवन करते थे।

हड़प्पा सभ्यता में कृषि प्रौद्योगिकी : –

🔹 हड़प्पा – निवासी बैल से परिचित थे। पुरातत्वविदों की मान्यता है कि खेत जोतने के लिए बैलों का प्रयोग होता था। चोलिस्तान के कई स्थलों से तथा बनावली (हरियाणा) से मिट्टी से बने हल के प्रतिरूप मिले हैं। कालीबंगन नामक स्थान पर जुते हुए खेत का साक्ष्य मिला है।

🔹 कुछ पुरातत्वविदों के अनुसार हड़प्पा सभ्यता के लोग लकड़ी के हत्थों में बिठाए गए पत्थर के फलकों तथा धातु के औजारों का प्रयोग करते थे। सिंचाई के लिए नहरों एवं कुओं का प्रयोग करते थे। इस खेत में हल रेखाओं के दो समूह एक-दूसरे को समकोण पर काटते हुए विद्यमान थे जो दर्शाते हैं कि एक साथ दो अलग-अलग फ़सलें उगाई जाती थीं ।

हड़प्पा सभ्यता के विभिन्न स्थलों से कृषि उत्पादन के पर्याप्त अवशेष / साक्ष्य : –

  • गेहूँ जौ, दाल, सफेद चने, तिल इत्यादि के इस्तेमाल का अनुमान है।
  • कुछ स्थानों पर चावल की खेती के अवशेष भी मिले हैं।
  • कृषि के साथ पशुपालन के भी साक्ष्य हैं।
  • शिकार के भी पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं।
  • प्राप्त साक्ष्यों के आधार पर अनुमान है कि जोतने के लिए बैल का प्रयोग होता था।
  • खेत जोतने के लिए धातु अथवा पत्थर के हल का उपयोग होता था ।
  • सिंचाई के लिए नहरों, कुँओं तथा जलाशयों के भी प्रमाण मिले हैं।

मोहनजोदड़ो शब्द का अर्थ : –

🔹 मोहन जोदड़ो सिन्धी भाषा का शब्द है जिसका अर्थ है- ‘मृतकों का टीला’ , ‘मुर्दो का टीला’ , ‘प्रेतो का टीला’ , ‘सिंध का बाग’ , ‘सिंध ना नक्लस्थान’

मोहनजोदड़ो : एक नियोजित शहर : –

🔹 मोहनजोदड़ो हड़प्पा सभ्यता के दो मुख्य शहरों में से एक है। हालाँकि मोहनजोदड़ो सबसे प्रसिद्ध पुरास्थल है, सबसे पहले खोजा गया स्थल हड़प्पा था। मोहनजोदड़ो बस्ती दो भागों में विभाजित है । एक छोटा परन्तु ऊँचाई पर बनाया गया। दूसरा अधिक बड़ा परन्तु नीचे बनाया गया । पुरातत्वविदों ने इन्हें क्रमशः दुर्ग और निचला शहर का नाम दिया है।

दुर्ग शहर : –

  • दुर्ग आकार में छोटा था।
  • इसे ऊंचाई पर बनाया गया था।
  • दुर्ग को चारों तरफ दीवार से घेरा गया था।
  • यह दीवार ही इसे निचले शहर से अलग करती थी।

🔹 दुर्ग की ऊँचाई का कारण यह था कि यहाँ की संरचनाएँ कच्ची ईंटों के चबूतरे पर बनी थीं । दुर्ग को दीवार से घेरा गया था जिसका अर्थ है कि इसे निचले शहर से अलग किया गया था।

🔹 मोहनजोदड़ो में दुर्ग पर अनेक संरचनाएँ थीं जिनमें माल गोदाम तथा विशाल स्नानागार उल्लेखनीय थे माल गोदाम एक ऐसी विशाल संरचना है जिसके ईंटों से बने केवल निचले हिस्से शेष हैं। विशाल स्नानागार आँगन में बना एक आयताकार जलाशय है जो चारों ओर से एक गलियारे से घिरा हुआ है। जलाशय के तल तक जाने के लिए दो सीढ़ियाँ बनी हुई थीं। इसके उत्तर में एक छोटी संरचना थी जिसमें आठ स्नानागार बने हुए थे ।

निचला शहर : –

  • निचला शहर आकार में दुर्ग से बड़ा था।
  • यह सामान्य लोगों के लिए बनाया गया था।
  • यहां की मुख्य विशेषताएं इसकी जल निकासी प्रणाली थी।

🔹 निचला शहर भी दीवार से घेरा गया था। इसके अतिरिक्त कई भवनों को ऊँचे चबूतरों पर बनाया गया था जो नींव का कार्य करते थे।

सड़क व्यवस्था : –

🔹 मोहनजोदड़ो की एक प्रमुख विशेषता उसकी समतल एवं चौड़ी सड़कें थीं। यहाँ की मुख्य सड़क 9.15 मीटर चौड़ी थी जिसे पुराविदों ने राजपथ कहा है। अन्य सड़कों की चौड़ाई 2.75 से 3.66 मीटर तक थी। जाल पद्धति के आधार पर नगर नियोजन होने के कारण सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थीं जिनसे नगर कई खण्डों में विभक्त हो गया था। इस पद्धति को ‘ऑक्सफोर्ड सर्कस’ का नाम दिया गया है। सड़कें मिट्टी की बनी थीं एवं इनकी सफाई की समुचित व्यवस्था थी। गलियाँ भी खुली तथा चौड़ी थीं।

नालों का निर्माण ( जल निकास प्रणाली ) : –

🔹 सड़कों या गलियों को लगभग एक ‘ग्रिड’ पद्धति में बनाया गया था । ऐसा प्रतीत होता है कि पहले नालियों के साथ गलियों को बनाया गया था और फिर उनके अगल-बगल आवासों का निर्माण किया गया था। यदि घरों के गंदे पानी को गलियों की नालियों से जोड़ना था तो प्रत्येक घर की कम से कम एक दीवार का गली से सटा होना आवश्यक था। हर आवास गली में नालियों का निर्माण किया गया था। मुख्य नाले ईंटों से बने थे और उन्हें ईंटों से ढका गया था।

नालियों की विशेषताएं : –

🔹 मुख्य नाले गारे में जमाई गई ईंटों से बने थे और इन्हें ऐसी ईंटों से ढँका गया था जिन्हें सफ़ाई के लिए हटाया जा सके। कुछ स्थानों पर ढँकने के लिए चूना पत्थर की पट्टिका का प्रयोग किया गया था। घरों की नालियाँ पहले एक हौदी या मलकुंड में खाली होती थीं जिसमें ठोस पदार्थ जमा हो जाता था और गंदा पानी गली की नालियों में बह जाता था। बहुत लंबे नालों में कुछ अंतरालों पर सफ़ाई के लिए हौदियाँ बनाई गई थीं।

गृह स्थापत्य : –

🔹 मोहनजोदड़ो का निचला शहर आवासीय भवनों के उदाहरण प्रस्तुत करता है। कई भवन एक आँगन पर केन्द्रित थे जिसके चारों ओर कमरे बने थे। आँगन खाना पकाने, कताई करने जैसी गतिविधियों का केन्द्र था। प्रत्येक मकान में एक स्नानघर होता था। कई मकानों में कुएँ थे मोहनजोदड़ो में 700 कुएँ थे । मकानों में भूमि तल पर बनी दीवारों में खिड़कियाँ नहीं थीं

हड़प्पा सभ्यता में सार्वजनिक भवन : –

🔹 उत्खनन में सावर्जनिक या राज्यकीय भवनों के अवशेष मिले हैं । एक अवशेष मोहनजोदड़ो से मिला है। जो 70 मीटर लम्बा और 24 मीटर चौडा है। यहाँ पर ही 71 मीटर लंबा व इतना ही चौड़ा एक वर्गाकार कक्ष का अवशेष प्राप्त हुआ है। जिसमे 20 सतम्भ है। एक अनुमान के अनुसार इस भवन का उपयोग आपसी विचार विमर्श धार्मिक आयोजन , सामाजिक आयोजन के लिए किया जाता होगा।

हड़प्पा सभ्यता में विशाल स्नानागार : –

🔹 विशाल स्नानागार आँगन में बना एक आयताकार जलाशय है जो चारों ओर से एक गलियारे से घिरा हुआ है। मोहनजोदड़ो का एक प्रमुख सार्वजनिक स्थल है यहाँ के विशाल दुर्ग (54.86 x 33 मीटर) में स्थित विशाल स्नानागार। यह 39 फुट (11.88 मीटर लम्बा, 23 फुट (7.01 मीटर) चौड़ा एवं 8 फुट (2.44 मीटर) गहरा है। इसमें उतरने के लिए उत्तर एवं दक्षिण की ओर सीढ़ियाँ बनी हैं। जलाशय के किनारों पर ईंटों को जमाकर तथा जिप्सम के गारे के प्रयोग से इसे जलबद्ध किया गया था।

🔹 इसके तीनों ओर कक्ष बने हुए थे जिनमें से एक में एक बड़ा कुआँ था। जलाशय से पानी एक बड़े नाले में बह जाता था। इसके उत्तर में एक गली के दूसरी ओर एक अपेक्षाकृत छोटी संरचना थी जिसमें आठ स्नानघर बनाए गए थे। एक गलियारे के दोनों ओर चार-चार स्नानघर बने थे । प्रत्येक स्नानघर से नालियाँ, गलियारे के साथ-साथ बने एक नाले में मिलती थीं।

हड़प्पा सभ्यता की नगर निर्माण योजना : –

  • एक नगरीय सभ्यता ।
  • बस्तियाँ दो भागों में विभाजित – दुर्ग एवं निचला शहर
  • सड़कें ग्रिड पद्धति पर आधारित ।
  • पक्की ईंटों से बनी ढकी हुई नालियाँ ।
  • जल निकासी का उत्तम प्रबंध ।
  • विशेष प्रकार के भवनों का निर्माण जैसे स्नानागार, अन्नागार इत्यादि ।
  • घरों की नालियाँ गली की मुख्य नाली से जुड़ी ।
  • पक्की ईंटों तथा मिट्टी से बने मकान ।
  • दो मंजिला मकानों का निर्माण ।
  • ऊपर की मंजिल पर जाने के लिए सीढ़ियों का प्रयोग ।

मोहनजोदड़ो सभ्यता की प्रमुख विशेषताएँ : –

🔶 एक नियोजित शहरी केन्द्र : – मोहनजोदड़ो एक विस्तृत तथा नियोजित शहर था। यह शहर दो टीलों पर बना था। एक टीला ऊँचा किन्तु छोटा था । पुरातत्वविद् इसे दुर्ग मानते हैं। यह टीला मजबूत किलेबन्दी अथवा दीवारों से घिरा है, निचला टीला अपेक्षाकृत अधिक विस्तृत तथा नीचे बना था। यह विस्तृत क्षेत्र मुख्य नगर माना जाता है।

🔶सुनियोजित निचला शहर : – मोहनजोदड़ो के निचले – भाग में अनेक मकान प्राप्त हुए हैं। ये मकान सुनियोजित प्रकार से निर्मित किए गए थे। मुख्यतः यहाँ के मकान एक मंजिल के होते थे। कुछ मकान दो तथा तीन मंजिलों के भी थे। सुरक्षा की दृष्टि से घरों के दरवाजे सामने सड़क पर न खुलकर पीछे गली में खुलते थे। घरों में सामान्यत: मध्य में एक विस्तृत आँगन हुआ करता था जिसके चारो ओर कमरे होते थे। घरों में ही पीने के पानी के लिए कुएँ होते थे। |

🔶सुदृढ़ जल निकास व्यवस्था : – मोहनजोदड़ो की जल निकास व्यवस्था अत्यन्त सुदृढ़ थी। सड़कों के किनारे पक्की ईंटों से बनी तथा ढँकी हुई नालियाँ होती थी। ये नालियाँ मोहनजोदड़ो नगर को स्वच्छ रखने में अत्यन्त महत्वपूर्ण भूमिका निभाती थी।

🔶 विस्तृत सड़क निर्माण : – मोहनजोदड़ो में सड़कों का विस्तृत जाल बिछा हुआ था। सड़कें एक-दूसरे को समकोण पर काटती थी। सड़कों की चौड़ाई 9 से 33 फुट तक हुआ करती थी। 33 फुट चौड़ी सड़क को विद्वान राजकीय सड़क मानते हैं।

🔶 विशाल एवं सार्वजनिक स्नानागार : – मोहनजोदड़ो में एक विशाल तथा सार्वजनिक स्नानागार भी प्राप्त हुआ है। यह विशाल स्नानागार 39 फुट लम्बा 23 फुट चौड़ा तथा 8 फुट गहरा है। इसके प्रत्यके ओर जल तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ थी। स्नानागार से पानी को बाहर निकालने के लिए समुचित व्यवस्था भी की गई थी। स्नानागार में जल समीप ही बने कुआँ से आता था। स्नानागार के उत्तर तथा दक्षिण में सीढ़ियाँ बनी थी। स्नानागार के ऊपर छोटे-छोटे कमरे बने थे जो कपड़े बदलने के लिए प्रयोग किए जाते थे।

🔶 विशाल अन्नागार : – मोहनजोदड़ो में ही 45.72 मीटर लम्बा एवं 22.86 मीटर चौड़ा एक अन्नागार मिला है। हड़प्पा के दुर्ग में भी 12 धान्य कोठार खोजे गये हैं। ये दो कतारों में छः-छः की संख्या में हैं। ये धान्य कोठार ईंटों के चबूतरों पर हैं एवं प्रत्येक का आकार 15.23 मी. × 6.09 मी. है। इस अन्नागार में आस-पास के स्रोतों से प्राप्त खाद्यान्न भरा जाता था। यह विशाल अन्नागार यह भी दर्शाता है कि मोहनजोदड़ो एक अत्यधिक उपजाऊ भू-क्षेत्र में स्थित था।

🔶 सांस्कृतिक रूप से सम्पन्न शहरी केन्द्र : – मोहन जोदड़ो सांस्कृतिक रूप से भी अत्यन्त महत्वपूर्ण शहरी केन्द्र था। यहाँ से हमें अनेक प्रकार की मृणमूर्तियाँ, मृदभाण्ड सूती कपड़े के अवशेष पशुओं की अस्थियाँ इत्यादि प्राप्त हुई है। आद्य- शिव, पुजारी की मूर्ति तथा मातृदेवी की अनेक प्रतिमाएँ भी हमें मोहनजोदड़ो से ही प्राप्त हुई है।

🔹 उपर्युक्त बिन्दु स्पष्ट करते हैं कि मोहनजोदड़ो अत्यधिक विशिष्ट नगर था। मोहनजोदड़ो की यह विशिष्टता हमें सुनियोजित नगर निर्माण, किलेबन्दी, अद्भुत जल निकासी, विस्तृत सड़कों तथा समृद्ध सांस्कृतिक पुरातात्विक सामग्री के रूप में दिखाई देता है।

सामाजिक भिन्नताओं का अवलोकन : –

🔹 पुरातत्वविद यह जानने के लिए कि क्या किसी संस्कृति विशेष में रहने वाले लोगों के बीच सामाजिक तथा आर्थिक भिन्नताएँ थीं, सामान्यत: कई विधियों का प्रयोग करते हैं। इन्हीं विधियों में से एक शवाधानों का अध्ययन है। सामाजिक भिन्नता को पहचानने की एक अन्य विधि है ऐसी पुरावस्तुओं का अध्ययन जिन्हें पुरातत्वविद मोटे तौर पर, उपयोगी तथा विलास की वस्तुओं में वर्गीकृत करते हैं।

शवाधान : –

🔹 सामान्यतया मृतकों को गर्तों में दफनाया जाता था । मृतकों के साथ मृदभाण्ड, आभूषण, शंख छल्ले, तांबे के दर्पण आदि वस्तुएँ भी दफनाई जाती थीं । शवाधानों में मृतकों को दफनाते समय उनके साथ विभिन्न प्रकार की वस्तुएँ रखी जाती थीं। वे वस्तुएँ बहुमूल्य भी हो सकती हैं और साधारण भी हड़प्पा स्थलों के जिन गर्तों में शवों को दबाया गया था, वहाँ भी यह भिन्नता दिखाई देती है। बहुमूल्य वस्तुएँ मृत्तक की मजबूत आर्थिक स्थिति को व्यक्त करती हैं, जबकि साधारण वस्तुएँ उसकी साधारण आर्थिक स्थिति की प्रतीक हैं।

विलासिता की वस्तुओं की खोज : –

🔹 सामाजिक भिन्नता को पहचानने का एक और तरीका होता है विलासिता की वस्तुएं। मुख्य रूप से दो प्रकार की वस्तुएं होती हैं : –

🔸 रोजमर्रा प्रयोग की जाने वाली वस्तुएं : – पहले वर्ग में उपयोग की वस्तुएँ शामिल हैं। इन्हें पत्थर या मिट्टी आदि साधारण पदार्थों से आसानी से बनाया जा सकता है। इनमें चक्कियाँ, मृदभांड, सुइयाँ, झाँवा आदि शामिल हैं। ये वस्तुएँ प्रायः सभी बस्तियों में पाई गई हैं पुरातत्वविद् उन वस्तुओं को कीमती मानते हैं, जो दुर्लभ हों अथवा महँगी हों या फिर स्थानीय स्तर पर न मिलने वाले पदार्थों से अथवा जटिल तकनीकों से बनी हों। इस दृष्टि से फयॉन्स के छोटे पात्र कीमती माने जाते थे क्योंकि इन्हें बनाना कठिन था।

🔸 दुर्लभ हों अथवा महँगी वस्तुएं : – फयॉन्स (घिसी हुई रेत अथवा बालू तथा रंग और चिपचिपे पदार्थ के मिश्रण को पकाकर बनाया गया पदार्थ) के छोटे पात्र सम्भवतः कीमती माने जाते थे क्योंकि इन्हें बनाना कठिन था । महंगे पदार्थों से बनी दुर्लभ वस्तुएँ सामान्यतः मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसी बड़ी बस्तियों में ही मिलती हैं, छोटी बस्तियों में ये विरले ही मिलती हैं । जिन बस्तियों में ऐसी कीमती वस्तुएँ मिली हैं, वहाँ के समाजों का स्तर अपेक्षाकृत ऊँचा रहा होगा।

शिल्प-उत्पादन के विषय में जानकारी : –

🔹 चन्हूदड़ो नामक बस्ती पूरी तरह से शिल्प – उत्पादन में लगी हुई थी । शिल्प कार्यों में मनके बनाना, शंख की कटाई, धातुकर्म, मुहर निर्माण तथा बाट बनाना सम्मिलित थे ।

मनके : –

🔸 मनकों के निर्माण प्रयुक्त पदार्थ : – कार्नीलियन (सुंदर लाल रंग का ), जैस्पर, स्फटिक, क्वार्ट्ज़ तथा सेलखड़ी जैसे पत्थर; ताँबा, काँसा तथा सोने जैसी धातुएँ; तथा शंख, फ़यॉन्स और पकी मिट्टी, सभी का प्रयोग मनके बनाने में होता था। कुछ मनके दो या उससे अधिक पत्थरों को आपस में जोड़कर बनाए जाते थे और कुछ सोने के टोप वाले पत्थर के होते थे।

🔸 मनकों के आकार : – चक्राकार, बेलनाकार, गोलाकार, ढोलाकार तथा खंडित । कुछ को उत्कीर्णन या चित्रकारी के माध्यम से सजाया गया था और कुछ पर रेखाचित्र उकेरे गए थे।

🔸 मनके बनाने की विधि : – पुरातत्वविदों द्वारा किए गए प्रयोगों ने यह दर्शाया है कि कार्नीलियन का लाल रंग, पीले रंग के कच्चे माल तथा उत्पादन के विभिन्न चरणों में मनकों को आग में पका कर प्राप्त किया जाता था। पत्थर के पिंडों को पहले अपरिष्कृत आकारों में तोड़ा जाता था, और फिर बारीकी से शल्क निकाल कर इन्हें अंतिम रूप दिया जाता था। घिसाई, पॉलिश और इनमें छेद करने के साथ ही यह प्रक्रिया पूरी होती थी ।

शिल्प – उत्पादन के केंद्रों की पहचान : –

🔹 शिल्प – उत्पादन के केंद्रों की पहचान के लिए पुरातत्वविद सामान्यतः निम्नलिखित को ढूँढ़ते हैं: प्रस्तर पिंड, पूरे शंख तथा ताँबा -अयस्क जैसा कच्चा इस माल; औज़ार; अपूर्ण वस्तुएँ; त्याग दिया गया माल तथा कूड़ा-करकट।

माल प्राप्त करने सम्बन्धी नीतियाँ : –

🔹 बैलगाड़ियाँ सामान तथा लोगों के लिए स्थलमार्गों द्वारा परिवहन का एक महत्त्वपूर्ण साधन थीं । सिन्धु नदी तथा इसकी उपनदियों के आस-पास बने नदी – मार्गों और तटीय मार्गों का भी प्रयोग किया जाता था ।

उपमहाद्वीप तथा उसके आगे से आने वाला माल : –

🔹 नागेश्वर तथा बालाकोट से शंख प्राप्त किये जाते थे। नीले रंग का कीमती पत्थर लाजवर्द मणि को शोर्तुघई (सुदूर अफगानिस्तान) से, गुजरात में स्थित भड़ौच से कार्नीलियन, दक्षिणी राजस्थान तथा उत्तरी गुजरात से सेलखड़ी और धातु राजस्थान से मंगाई जाती थी । लोथल इनके स्रोतों के निकट स्थित था । राजस्थान के खेतड़ी आँचल (ताँबे के लिए) तथा दक्षिणी भारत (सोने के लिए) को अभियान भेजे जाते थे ।

  • सोना – अफगानिस्तान, फारस, दक्षिण भारत ( कोलार खान ) ।
  • चाँदी – ईरान, अफगानिस्तान ।
  • ताँबा – बलूचिस्तान, अरब, खेतड़ी ( राजस्थान ) ।
  • लाजवर्द (नील रत्न) – बदख्शां (अफगानिस्तान) ।
  • सीसा – ईरान, अफगानिस्तान ।
  • सेलखड़ी – बलूचिस्तान, राजस्थान ।
  • सुलेमानी पत्थर – सौराष्ट्र, पश्चिमी भारत ।
  • नीलमणि – महाराष्ट्र ।
  • अलाबास्टर – बलूचिस्तान ।
  • शंख, कौड़ियाँ – सौराष्ट्र, दक्षिण भारत ।

सुदूर क्षेत्रों से सम्पर्क : –

🔹 पुरातात्विक खोजों से पता चलता है कि ताँबा सम्भवतः अरब प्रायद्वीप के दक्षिण- पश्चिमी छोर पर स्थित ओमान से भी लाया जाता था । मेसोपोटामिया के लेख से ज्ञात होता है कि कार्नीलियन, लाजवर्द मणि, ताँबा, सोना आदि मेलुहा से प्राप्त किये जाते थे । मेसोपोटामिया के लेख मेलुहा को नाविकों का देश कहते हैं।

मुहरें, लिपि तथा बाट

मुहरें और मुद्रांकन : –

🔹 मुहरों और मुद्रांकनों का प्रयोग लम्बी दूरी के सम्पर्कों को सुविधाजनक बनाने के लिए होता था ।

हड़प्पा लिपि ( एक रहस्यमय लिपि ) : –

  • इसमें लगभग 375 से 400 के बीच चिन्ह थे।
  • इसे दाएं से बाएं लिखा जाता था।
  • इस लिपि को आज तक पढ़ा नहीं जा सका है इसीलिए इसे रहस्यमय लिपि कहा जाता है

🔹 हड़प्पाई मुहरों पर कुछ हुआ है जो सम्भवतः मालिक के नाम और पदवी को लिखा दर्शाता है । अधिकांश अभिलेख संक्षिप्त हैं; सबसे लंबे अभिलेख में लगभग 26 चिह्न हैं। हालाँकि यह लिपि आज तक पढ़ी नहीं जा सकी है। इसमें चिह्नों की संख्या लगभग 375 से 400 के बीच है। ऐसा प्रतीत होता है कि यह लिपि दाईं से बाईं ओर लिखी जाती थी।

🔸 वे वस्तुओं जिन पर लिखावट मिली है : – मुहरें, ताँबे के औज़ार, मर्तबानों के अँवठ, ताँबे तथा मिट्टी की लघुपट्टिकाएँ, आभूषण, अस्थि-छड़ें और यहाँ तक कि एक प्राचीन सूचना पट्ट ।

बाट : –

🔹 विनिमय बाटों की एक सूक्ष्म या परिशुद्ध प्रणाली द्वारा नियन्त्रित थे । ये बाट सामान्यतः चर्ट नामक पत्थर से बनाए जाते थे। ये सामान्यतया घनाकार होते थे । इन बाटों के निचले मानदंड द्विआधारी ( 1, 2, 4, 8, 16, 32 इत्यादि 12,800 तक) थे जबकि ऊपरी मानदंड दशमलव प्रणाली का अनुसरण करते थे। छोटे बाटों का प्रयोग सम्भवतः आभूषणों और मनकों को तौलने के लिए किया जाता था।

प्राचीन सत्ता : –

🔹 हड़प्पाई समाज में जटिल फैसले लेने और उन्हें कार्यान्वित करने के संकेत मिलते हैं। हड़प्पाई पुरावस्तुओं में जैसे – मुहरों, बाटों, ईंटों आदि में एकरूपता थी । बस्तियाँ विशेष स्थानों पर आवश्यकतानुसार स्थापित की गई थीं। इन सभी क्रियाकलापों को कोई राजनीतिक सत्ता संगठित करती थी।

हड़प्पा संस्कृति में शासन ( प्रासाद तथा शासक ) : –

🔹 हड़प्पा संस्कृति में शासन को लेकर तीन अलग-अलग मत हैं

🔸 पहला मत : – कुछ पुरातत्वविद इस मत के हैं कि हड़प्पाई समाज में शासक नहीं थे तथा सभी की सामाजिक स्थिति समान थी।

🔸 दूसरा मत : – दूसरे पुरातत्वविद यह मानते हैं कि यहाँ कोई एक नहीं बल्कि कई शासक थे जैसे मोहनजोदड़ो, हड़प्पा आदि के अपने अलग-अलग राजा होते थे।

🔸 तीसरा मत : – कुछ और यह तर्क देते हैं कि यह एक ही राज्य था जैसा कि पुरावस्तुओं में समानताओं, नियोजित बस्तियों के साक्ष्यों, ईंटों के आकार में निश्चित अनुपात, तथा बस्तियों के कच्चे माल के स्रोतों के समीप संस्थापित होने से स्पष्ट है।

हड़प्पा सभ्यता में सामाजिक जीवन : –

🔹 हड़प्पा सभ्यता में परम्परागत परिवार ही सामाजिक इकाई थी। उनका सामाजिक जीवन सुखी एवं सुविधापूर्ण था। उत्खनन में प्राप्त बहुसंख्यक नारी मूर्तियों की प्राप्ति से संकेत मिलता है कि उनका परिवार मातृ सत्तात्मक था । मातृ सत्तात्मक समाज द्रविड़ और प्राक्-आर्य सभ्यता की विशेषता थी ।

हड़प्पाकालीन समाज की प्रमुख विशेषताएँ : –

  • हड़प्पा सभ्यता के लोग शाकाहारी तथा माँसाहारी दोनों प्रकार का भोजन करते थे ।
  • खुदाई से प्राप्त सुइयों के अवशेष संकेत देते हैं कि ये लोग सिले वस्त्र पहनते थे।
  • केश विन्यास प्रचलित था। स्त्रियाँ जूड़ा बाँधती थीं तथा पुरुष लम्बे-लम्बे बाल तथा दाड़ी-मूँछ रखते थे ।
  • इस सभ्यता के लोग आभूषणों के शौकीन थे। विविध प्रकार के आभूषण — कण्ठहार, कर्णफूल, हँसुली, भुजबंध, कड़ा, अंगूठी, करधनी आदि पहने जाते थे ।
  • शृंगार प्रसाधन के भी हड़प्पावासी शौकीन थे। मोहनजोदड़ो की नारियाँ काजल, पाउडर आदि से परिचित थीं। शीशे, कंघे एवं ताँबे के दर्पण का प्रयोग होता था। चन्हूदड़ो से लिपस्टिक के अस्तित्व का भी संकेत मिलता है।
  • इनके आभूषण बहुमूल्य पत्थरों, हाथी दाँत, हड्डी एवं शंख आदि के बनते थे।
  • मिट्टी एवं धातुओं से निर्मित तरह-तरह के बर्तनों का प्रयोग करते थे। फर्श पर बैठने के लिए चटाइयों के साथ-साथ पलंग व चारपाई से भी परिचित थे।
  • सैंधव निवासी आमोद-प्रमोद के प्रेमी थे, पाँसा इस काल का प्रमुख खेल था ।
  • यहाँ प्राप्त नर्तकी की मूर्ति से संकेत मिलता है कि नृत्य भी मनोरंजन का प्रिय साधन रहा होगा। गाने-बजाने के भी ये शौकीन थे ।

सिंधु घाटी सभ्यता की आर्थिक एवं धार्मिक विशेषताऐ : –

  • आर्थिक संपन्नता तथा धार्मिक विशेषताओं के पर्याप्त साक्ष्य मिले हैं।
  • शवाधानों के अध्ययन से समाज में आर्थिक भिन्नताओं का पता चलता है।
  • महिलाएँ तथा पुरुष आभूषणों का प्रयोग करते थे। आज की तरह उस समय भी स्वर्ण एक कीमती वस्तु थी ।
  • कीमती वस्तुओं, पत्थर, धतु आदि का अंतर्देशीय तथा अंतर्राष्ट्रीय व्यापार होता था ।
  • मुहरों पर अनुष्ठान के दृश्य प्राप्त हुए हैं जो धर्म एवं उपासना के संकेत हैं।
  • आभूषणों से लदी मृण्मूर्तियां मिली हैं जिन्हें मातृदेवी की संज्ञा दी गयी हैं ।
  • कुछ साक्ष्यों से शिव उपासना के संकेत भी मिलते हैं।

हड़प्पा सभ्यता का अंत : –

🔹 लगभग 1800 ई. पूर्व तक चोलिस्तान में अधिकांश विकसित हड़प्पा स्थलों को त्याग दिया गया था। सम्भवतः उत्तरी हड़प्पा के क्षेत्र 1900 ई. पूर्व के बाद भी अस्तित्व में रहे। इसके साथ ही गुजरात, हरियाणा तथा पश्चिमी उत्तर प्रदेश की नयी बस्तियों में जनसंख्या बढ़ने लगी थी ।

🔹 कुछ चुने हुए हड़प्पा स्थलों की भौतिक संस्कृति में परिवर्तन आया था जैसे : –

  • सभ्यता की विशिष्ट पुरावस्तुओं – बाटों, मुहरों तथा विशिष्ट मनकों का समाप्त हो जाना ।
  • लेखन, लंबी दूरी का व्यापार तथा शिल्प विशेषज्ञता भी समाप्त हो गई।
  • सामान्यतः थोड़ी वस्तुओं के निर्माण के लिए थोड़ा ही माल प्रयोग में लाया जाता था।
  • आवास निर्माण की तकनीकों का ह्रास हुआ था।
  • बड़ी सार्वजनिक संरचनाओं का निर्माण अब बंद हो गया।

हड़प्पा सभ्यता के पतन के कारण थे : –

  • जलवायु परिवर्तन
  • वनों की कटाई
  • भीषण बाढ़
  • नदियों का सूख जाना
  • नदियों का मार्ग बदल लेना
  • भूमि का अत्यधिक उपयोग
  • सुदृढ़ एकीकरण के तत्त्व का अन्त होना ।

हड़प्पा सभ्यता की मुख्य देन या उपलब्धियाँ : –

  • नगर निर्माण योजना।
  • शिल्प उत्पादन शैली।
  • सार्वजनिक भवनों का निर्माण।
  • उत्कृष्ट जल निकासी।
  • मुहरों का निर्माण।
  • अंतर्देशीय एवं अंतर्राष्ट्रीय व्यापार।
  • एक नगरीय सभ्यता की संकल्पना।
  • कृषि एवं पशु पालन।
  • आभूषणों का प्रयोग।
  • निपुण नागरिक प्रबंधन।
  • भवन निर्माण कला एवं स्थापत्य कला।

कनिंघम : –

🔹 भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग के प्रथम जनरल अलेक्जेन्डर कनिंघम को ‘भारतीय पुरातत्व का जनक’ कहा जाता है। कनिंघम ने 19वीं शताब्दी के मध्य में पुरातात्विक खनन आरंभ किया। यह लिखित स्रोतों का प्रयोग अधिक पसंद करते थ। कनिंघम की मुख्य रुचि भी आरंभिक ऐतिहासिक (लगभग छठी शताब्दी ईसा पूर्व से चौथी शताब्दी ईसवी) तथा उसके बाद के कालों से संबंधित पुरातत्व में थी।

कनिंघम का भ्रम : –

🔹 हड़प्पाई पुरावस्तुएँ उन्नीसवीं शताब्दी में कभी-कभी मिलती थीं और इनमें से कुछ तो कनिंघम तक पहुँची भी थीं, फिर भी वह समझ नहीं पाए कि ये पुरावस्तुएँ कितनी प्राचीन थीं।

🔹 एक अंग्रेज़ ने कनिंघम को एक हड़प्पाई मुहर दी। उन्होंने मुहर पर ध्यान तो दिया पर उन्होंने उसे एक ऐसे काल-खंड में, दिनांकित करने का असफल प्रयास किया जिससे वे परिचित थे। वे उसके महत्व को समझ ही नहीं पाए कि वह मुहर कितनी प्राचीन थी ।

🔹 कनिंघम ने यह सोचा कि यह मुहर भारतीय इतिहास का प्रारंभ गंगा घाटी में पनपे पहले शहरों से संबंधित है जबकि यह मुहर गंगा घाटी के शहरों से भी पहले की थी ।

🔹 उनकी सुनिश्चित अवधारणा के चलते यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि वह हड़प्पा के महत्त्व को समझने में चूक गए।

एक नवीन प्राचीन सभ्यता : –

🔹 बीसवीं शताब्दी के आरम्भिक दशकों में पुरातत्त्वविदों ने हड़प्पा में मुहरें खोज निकालीं जो निश्चित रूप से आरम्भिक ऐतिहासिक स्तरों से कहीं अधिक प्राचीन स्तरों से सम्बद्ध थीं एवं इनके महत्त्व को समझा जाने लगा । खोजों के आधार पर 1924 में भारतीय पुरातात्त्विक सर्वेक्षण के डायरेक्टर जनरल जॉन मार्शल ने पूरे विश्व के समक्ष सिन्धु घाटी में एक नवीन सभ्यता की खोज की घोषणा की।

नई तकनीकें तथा प्रश्न : –

🔹 हड़प्पा सभ्यता के प्रमुख स्थल अब पाकिस्तान के क्षेत्र में हैं । इसी कारण से भारतीय पुरातत्वविदों ने भारत में पुरास्थलों को चिह्नित करने का प्रयास किया । कच्छ में हुए सर्वेक्षणों से कई हड़प्पा बस्तियाँ प्रकाश में आईं तथा पंजाब और हरियाणा में किए गए अन्वेषणों से हड़प्पा स्थलों की सूची में कई नाम और जुड़ गए हैं। कालीबंगन, लोथल, राखीगढ़ी, धौलावीरा की खोज इन्हीं प्रयासों का हिस्सा है। 1980 के दशक से हड़प्पा और मोहनजोदड़ो में उपमहाद्वीप के तथा विदेशी विशेषज्ञ संयुक्त रूप से कार्य करते रहे हैं।

अतीत को जोड़कर पूरा करने की समस्याएँ : –

🔹 मृदभाण्ड, औजार, आभूषण, घरेलू सामान आदि भौतिक साक्ष्यों से हड़प्पा सभ्यता के बारे में जानकारी प्राप्त हो सकती है ।

खोजों का वर्गीकरण : –

🔹 वर्गीकरण का एक सामान्य सिद्धान्त प्रयुक्त पदार्थों जैसे- पत्थर, मिट्टी, धातु, अस्थि, हाथीदाँत आदि के सम्बन्ध में होता है। दूसरा सिद्धान्त उनकी उपयोगिता के आधार पर होता है। कभी-कभी पुरातत्वविदों को अप्रत्यक्ष साक्ष्यों का सहारा लेना पड़ता है । पुरातत्वविदों को संदर्भ की रूपरेखाओं को विकसित करना पड़ता है।

व्याख्या की समस्याएँ : –

🔹 पुरातात्विक व्याख्या की समस्याएँ सम्भवतः सबसे अधिक धार्मिक प्रथाओं के पुनर्निर्माण के प्रयासों में सामने आती हैं। कुछ वस्तुएँ धार्मिक महत्त्व की होती थीं। इनमें आभूषणों से लदी हुई नारी मृण्मूर्तियाँ शामिल हैं। इन्हें मातृदेवी की संज्ञा दी गई है। कुछ मुहरों पर पेड़-पौधे उत्कीर्ण हैं । ये प्रकृति की पूजा के संकेत देते हैं। कुछ मुहरों पर एक व्यक्ति योगी की मुद्रा में बैठा दिखाया गया है । उसे ‘आद्य शिव’ की संज्ञा दी गई है। पत्थर की शंक्वाकार वस्तुओं को लिंग के रूप में वर्गीकृत किया गया है।


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