Class 12 history chapter 8 notes in hindi, किसान जमींदार और राज्य notes

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किसान जमींदार और राज्य Notes: Class 12 history chapter 8 notes in hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 8
Chapter Nameकिसान जमींदार और राज्य
CategoryClass 12 History
MediumHindi

Class 12 history chapter 8 notes in hindi, किसान जमींदार और राज्य notes इस अध्याय मे हम मुगल शासक व्यवस्था और कृषि , जमीदार , ग्रामीण दस्तकार , पंचायत मुखिया इत्यादि के बारे में जानेंगे ।

परिचय : –

🔹 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में भारत की लगभग 85 प्रतिशत जनसंख्या गाँवों में निवास करती थी । इस काल में छोटे-छोटे किसान एवं बड़े भू-स्वामी सभी कृषि कार्य में संलग्न रहते थे।

🔹 इस समय हमारे देश के अधिकांश भाग पर मुगलों का शासन था; जिनकी अर्थ- व्यवस्था कृषि से प्राप्त राजस्व पर आधारित थी।

🔹 मुगल शासन में राजस्व निर्धारित करने वाले, राजस्व वसूली करने वाले एवं लेखा-जोखा रखने वाले अधिकारी ग्रामीण समाज को नियंत्रण में रखने का पूरा प्रयास करते थे। साथ ही वे इस बात का भी ध्यान रखते थे कि खेतों की जुताई समय पर हो एवं राज्य को उपज से अपने हिस्से का कर समय पर मिल जाए।

ग्रामीण भारत में कृषि समाज ( किसान और कृषि उत्पादन ) : –

🔹 16वीं एवं 17वीं शताब्दी में खेतिहर समाज की बुनियादी इकाई गाँव थी; जिनमें किसान निवास करते थे। किसान जमीन की जुताई, बुआई, फसल की कटाई आदि का कार्य करते थे। इसके अतिरिक्त वे उन वस्तुओं के उत्पादन भी हिस्सेदारी रखते थे जो कृषि पर आधारित थीं; जैसे- शक्कर, तेल आदि ।

🔹 मैदानी क्षेत्रों में बसे किसानों की खेती के अतिरिक्त सूखी जमीन के विशाल भागों से पहाड़ियों वाले क्षेत्र तथा जंगलों से घिरा भू-खंड का एक वृहद् हिस्सा भी ग्रामीण भारत की खासियतों में सम्मिलित था।

ग्रामीण समाज ओर कृषि इतिहास को जानने का मुख्य स्रोत : –

🔹 इस काल के ग्रामीण समाज के क्रियाकलापों और कृषि इतिहास की जानकारी प्राप्त करने के लिए हमें मुगल दरबार की निगरानी में लिखित ऐतिहासिक ग्रन्थों एवं दस्तावेजों का सहारा लेना पड़ता है।

🔹 कृषि इतिहास से संबंधित ऐतिहासिक स्रोतों में अकबर के दरबारी इतिहासकार अबुल फजल द्वारा लिखित ग्रन्थ ‘आइन-ए-अकबरी’ प्रमुख है, जिसे संक्षेप में ‘आइन’ कहा जाता है।

जानकारी के अन्य स्त्रोत : –

🔹 आइन-ए-अकबरी के अतिरिक्त कृषि इतिहास के अन्य स्रोतों में ईस्ट इण्डिया कम्पनी एवं गुजरात, राजस्थान, महाराष्ट्र आदि राज्यों से मिलने वाले दस्तावेज प्रमुख हैं। 17वीं – 18वीं शताब्दियों के ये स्रोत भारत में कृषि से संबंधित उपयोगी विवरण प्रदान करते हैं एवं सरकार की आमदनी की विस्तृत जानकारी देते हैं।

ये स्रोत क्यों महत्वपूर्ण हैं?

🔹 ये स्रोत हमें पूर्वी भारत में कृषि संबंधों का उपयोगी विवरण प्रदान करते हैं। ये सभी स्रोत किसानों, जमींदारों और राज्य के बीच संघर्ष के उदाहरण दर्ज करते हैं। लगे हाथ, ये स्रोत यह समझने में हमारी मदद करते हैं कि किसान राज्य को किस नज़रिये से देखते थे और राज्य से उन्हें कैसे न्याय की उम्मीद थी।

आईने-ए-अकबरी : –

  • अकबर के हुक्म पर अबुल फजल द्वारा रचित ।
  • 1598 ई. में पाँच संशोधनों के बाद पूर्ण हुई।
  • अकबरनामा की तीन जिल्दों में से तीसरी आइन-ए-अकबरी थी ।
  • आइन-ए-अकबरी को शाही नियम कानून के सारांश और साम्राज्य के एक राजपत्र की सूरत में संकलित किया गया है।

आइन की विषय वस्तु : –

  • दरबार प्रशासन
  • सूबों की पेचीदा तथा आंकड़ें बद्ध सूचनाएँ
  • सरकार के तमाम विभागों तथा प्रान्तों के बारे में
  • साहित्यिक सांस्कृतिक तथा धार्मिक रिवाज
  • प्रान्तों का भूगोल
  • राजस्व के स्त्रोत
  • सेना का संगठन

आइन पाँच भागों का संकलन : –

🔸 प्रथम भाग में अकबर के पूर्वजों तथा उसके आरंभिक जीवन का वर्णन है।

🔸 दूसरा भाग अकबर काल के घटनाक्रमों से संबंधित है।

🔸 तीसरे भाग अर्थात् आईन-ए-अकबरी में अकबर के शासनकाल से संबंधित आँकड़े तथा शासन-व्यवस्था संबंधी अन्य नियमों का वर्णन है।

🔸 चौथी तथा पाँचवीं किताबों में भारत के लोगों के मजहबी, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाज तथा अन्त में अकबर के शुभ वचन’ लिखे हैं।

आइन-ए-अकबरी में कृषि इतिहास से जुड़ी जानकारी : –

🔹 आइन-ए-अकबरी में कृषि के सुव्यवस्थित प्रबन्धन के लिए राज्य द्वारा बनाए गए नियमों का पूरा लेखा-जोखा प्रस्तुत किया गया है।

🔹 खेतों की जुताई, करों की वसूली, राज्य और जमींदारों के बीच संबंधों का नियमन आदि का पूर्ण विवरण भी आइन-ए-अकबरी में दिया गया है।

🔹 आइन का मुख्य उद्देश्य अकबर के सम्राज्य का एक ऐसा खाका पेश करना था जहाँ एक मज़बूत सत्ताधारी वर्ग सामाजिक मेल-जोल बना कर रखता था। किसानों के बारे में जो कुछ हमें आइन से पता चलता है वह सत्ता के ऊँचे गलियारों का नज़रिया है।

किसानो के बारे में जानकारी : –

🔹 मुग़ल काल के भारतीय फ़ारसी स्रोत किसान के लिए आमतौर पर रैयत ( बहुवचन, रिआया) या मुज़रियान शब्द का इस्तेमाल करते थे। इसके अतिरिक्त किसानों के लिए आसामी शब्द का प्रयोग भी किया जाता था।

किसानो के प्रकार : –

🔹 17वीं शताब्दी के स्रोतों में दो प्रकार के किसानों का उल्लेख मिलता है – खुद काश्त व पाहि- काश्त

  • खुद काश्त : – वे किसान जो उन्हीं गाँवों में रहते थे जिनमें उनकी ज़मीन थीं।
  • पाहि – काश्त : – वे किसान थे जो दूसरे गाँवों से ठेके पर खेती करने आते थे।

🔸 नोट : – लोग अपनी मर्जी से भी पाहि- काश्त बनते थे (मसलन, अगर करों की शर्तें किसी दूसरे गाँव में बेहतर मिलें ) और मजबूरन भी (मसलन, अकाल या भुखमरी के बाद आर्थिक परेशानी से ) ।

किसानों की संपत्ति : –

🔹 उत्तर भारत के एक औसत किसान के पास एक जोड़ी बैल तथा दो हल से अधिक कुछ भी नहीं होता था। अधिकांश किसानों के पास इससे भी कम था।

🔹 गुजरात में जिन किसानों के पास 6 एकड़ तक जमीन थी; वे धनवान माने जाते थे, वहीं दूसरी तरफ बंगाल में एक औसत किसान की जमीन की ऊपरी सीमा 5 एकड़ थी तथा 10 एकड़ जमीन वाले किसान को धनवान माना जाता था।

खेती के बारे में जानकारी : –

🔹 खेती निजी (व्यक्तिगत) मिल्कियत के सिद्धान्त पर आधारित थी । अन्य संपत्ति मालिकों की तरह ही किसानों की जमीन भी खरीदी और बेची जाती थी ।

🔹 ज़मीन की बहुतायत, मजदूरों की मौजूदगी, और किसानों की गतिशीलता की वजह से कृषि का लगातार विस्तार हुआ। चूँकि खेती का प्राथमिक उद्देश्य लोगों का पेट भरना था, इसलिए रोज़मर्रा के खाने की जरूरतें जैसे चावल, गेहूँ, ज्वार इत्यादि फ़सलें सबसे ज़्यादा उगाई जाती थीं।

🔹 जिन इलाकों में प्रति वर्ष 40 इंच या उससे ज़्यादा बारिश होती थी, वहाँ कमोबेश चावल की खेती होती थी। कम और कमतर बारिश वाले इलाकों में क्रमश: गेहूँ व ज्वार – बाजरे की खेती ज़्यादा प्रचलित थी।

सिंचाई की जानकारी : –

🔹 आज की भाँति मुगलकाल में भी मानसून को भारतीय कृषि की रीढ़ माना जाता था, परन्तु जिन फसलों के लिए अधिक मात्रा में पानी की आवश्यकता होती थी उनके लिए सिंचाई के कृत्रिम साधन अपनाए गए। उत्तरी भारत में कई नयी नहरें व नाले का निर्माण हुआ और पुरानी नहरों की मरम्मत कराई गई; जैसे कि शाहजहाँ के शासनकाल के दौरान पंजाब में शाह नहर

कृषि के निरंतर विस्तार के लिए उत्तरदायी कारक : –

  • भूमि की प्रचुरता
  • उपलब्ध श्रम
  • किसानों की गतिशीलता.

कृषि में उपयोग तकनीकों की जानकारी : –

🔹 तत्कालीन समय में किसान कृषि में ऐसी तकनीकों का प्रयोग भी करते थे जो प्रायः पशुबल पर आधारित होती थीं, जैसे- लकड़ी का हल्का हल। इसे एक छोर पर लोहे की नुकीली धार या फाल लगाकर बनाया जाता था। ऐसे हल मिट्टी को बहुत गहरा नहीं खोदते थे जिसके कारण तेज गर्मी के महीनों में भी मिट्टी में नमी बनी रहती थी ।

🔹 बीज बोने के लिए बैलों की जोड़ी से खींचे जाने वाले बरमे का उपयोग होता था लेकिन बीजों को हाथ से छिड़क कर बोने का प्रचलन अधिक था ।

🔹 मिट्टी की गुड़ाई और साथ-साथ निराई के लिए लकड़ी के मूठ वाले लोहे के पतले धार काम में लाए जाते थे ।

फसलें के प्रकार : –

🔹 फसलें मौसम के चक्रों पर आधारित थीं एक खरीफ़ ( पतझड़ में) और दूसरी रबी ( वसंत में)। अधिकांश क्षेत्रों में दो फसलें उगाई जाती थीं, परन्तु जहाँ सिंचाई की पर्याप्त व्यवस्था होती थी वहाँ तीन फसलें भी उगाई जाती थीं। इस कारण पैदावार में बड़े स्तर पर विविधता मिलती थी।

फसलों की विशाल विविधता का उदाहरण : –

🔸 पैदावार में बड़े स्तर पर विविधता का उदहारण : – आइन हमें बताती है कि दोनों मौसम मिलाकर, मुग़ल प्रांत आगरा में 39 किस्म की फ़सलें उगाई जाती थीं जबकि दिल्ली प्रांत में 43 फ़सलों की पैदावार होती थीबंगाल में सिर्फ चावल की 50 किस्में पैदा होती थीं।

राजस्व उत्पन्न करने के लिए नकदी फसलें : –

1. मुग़ल राज्य भी किसानों को ऐसी फ़सलों की खेती करने के लिए बढ़ावा देता था क्योंकि इनसे राज्य को ज़्यादा कर मिलता था। कपास और गन्ने जैसी फ़सलें बेहतरीन जिन्स-ए-कामिल थीं।

2. मध्य भारत और दक्कनी पठार में फैले हुए ज़मीन के बड़े-बड़े टुकड़ों पर कपास उगाई जाती थी, जबकि बंगाल अपनी चीनी के लिए मशहूर था। तिलहन (जैसे सरसों) और दलहन भी नकदी फ़सलों में आती थीं।

🔹 इससे पता चलता है कि एक औसत किसान की ज़मीन पर किस तरह पेट भरने के लिए होने वाले उत्पादन और व्यापार के लिए किए जाने वाले उत्पादन एक दूसरे से जुड़े हुए थे।

भारत उपमहाद्वीप में पहुंची नई फसलें : –

🔹 सत्रहवीं सदी में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से कई नयी फ़सलें भारतीय उपमहाद्वीप पहुँचीं। मसलन, मक्का भारत में अफ्रीका और स्पेन के रास्ते आया और सत्रहवीं सदी तक इसकी गिनती पश्चिम भारत की मुख्य फ़सलों में होने लगी। टमाटर, आलू और मिर्च जैसी सब्ज़ियाँ नयी दुनिया से लाई गईं। इसी तरह अनानास और पपीता जैसे फल वहीं से आए

जिन्स-ए-कामिल : –

🔹 नकदी फसलें को मुगल स्रोतों में जिन्स-ए-कामिल अर्थात् सर्वोत्तम फसलें कहा गया है। गन्ना, कपास, तिलहन (जैसे-सरसों तथा दलहन ) की फसलें भी जिन्स-ए- कामिल कही जाती थीं ।

तम्बाकू का प्रसार : –

🔹 यह पौधा सबसे पहले दक्कन पहुँचा और वहाँ से सत्रहवीं सदी के शुरुआती वर्षों में इसे उत्तर भारत लाया गया। आइन उत्तर भारत की फ़सलों की सूची में तम्बाकू का ज़िक्र नहीं करती है।

🔹 अकबर और उसके अभिजातों ने 1604 ई. में पहली बार तम्बाकू देखा। ऐसा लगता है कि इसी समय तम्बाकू का धूम्रपान (हुक्के या चिलम में) करने की लत ने ज़ोर पकड़ा।

🔹 जहाँगीर इस बुरी आदत के फैलने से इतना चिंतित हुआ कि उसने इस पर पाबंदी लगा दी। यह पाबंदी पूरी तरह से बेअसर साबित हुई क्योंकि हम जानते हैं कि सत्रहवीं सदी के अंत तक, तम्बाकू पूरे भारत में खेती, व्यापार और उपयोग की मुख्य वस्तुओं में से एक था।

ग्रामीण समुदाय : –

🔹 किसान का अपनी जमीन पर व्यक्तिगत स्वामित्व होता था और वे एक सामूहिक ग्रामीण समुदाय के घटक होते थे।  ग्राम समुदाय में तीन घटक होते थे : – किसान, पंचायत, गाँव का मुखिया (मुकद्दम या मंडल) आदि सम्मिलित होते थे।

जाति और ग्रामीण माहौल : –

🔹 तत्कालीन समय में जातिगत भेदभाव के कारण कृषक समुदाय कई समूहों में विभाजित थे । कृषि कार्य में ऐसे लोगों की संख्या बहुतायत से थी जो मजदूरी करते थे अथवा निकृष्ट कहे जाने वाले कार्यों में संलग्न थे। इस तरह वे गरीबी में जीवन बिताने को मजबूर थे।

🔸 जातिगत भेदभाव के उदाहरण : –

🔹 समाज के निम्न वर्गों में जाति, निर्धनता एवं सामाजिक स्थिति के मध्य सीधा संबंध था, जो बीच के समूहों में नहीं था।

  • 17वीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों का उल्लेख किसानों के रूप में किया गया है। पुस्तक के अनुसार जाट भी किसान थे। लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुकाबले नीची थी।
  • मुस्लिम समुदायों में हलालखोरन (मैला ढोने वाले) जैसे नौकरों को गाँव की सीमाओं के बाहर रखा जाता था; इसी तरह, बिहार में मल्लाहज़ादा (शाब्दिक रूप से, नाविकों के बेटे) की तुलना दासों से की जा सकती थी।
  • पशुपालन और बागबानी में बढ़ते मुनाफ़े की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं।
  • पूर्वी इलाकों में, पशुपालक और मछुआरी जातियाँ, जैसे सदगोप व कैवर्त भी किसानों की सी सामाजिक स्थिति पाने लगीं।

पंचायतें और मुखिया : –

🔹 ग्राम पंचायतों की भूमिका तत्कालीन समय में बहुत ही प्रभावशाली थी। गाँव के बुजुर्ग एवं प्रतिष्ठित लोग पंचायत के सदस्य होते थे।

मुखिया के बारे में जानकारी : –

  • पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुकद्दम या मंडल कहते थे।
  • मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी ज़मींदार से लेनी पड़ती थी।
  • मुखिया अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था।
  • ऐसा नहीं होने पर बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे।
  • गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था।

पंचायतें निधि और उसका उपयोग :- : –

  • पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम खजाने से चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था।
  • पंचायत के कोष का प्रयोग प्राकृतिक आपदाओं एवं सामुदायिक कार्यों के लिए किया जाता।
  • साथ- साथ गाँव के दौरे पर आने वाले अधिकारियों की खातिरदारी के लिए भी पंचायत के कोष का प्रयोग किया जाता था।
  • अक्सर इन निधियों को बांध के निर्माण या नहर खोदने में भी खर्च किया जाता था जिसे किसान आमतौर पर अपने दम पर करने में सक्षम नहीं होते थे।

पंचायतें और मुखिया के कार्य : –

  • पंचायतें गाँव की व्यवस्था में पूर्णरूप से दखल रखती थीं।
  • पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे गम्भीर दण्ड देने का अधिकार होता था।
  • पंचायतें यह सुनिश्चित करती थीं कि लोग अपनी जातिगत मर्यादाओं का पालन करें और सीमाओं में रहें।
  • तत्कालीन समय में ग्राम पंचायत के अतिरिक्त प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत होती थी।
  • शक्तिसम्पन्न सामाजिक जाति पंचायतें दीवानी, दावेदारियों के झगड़े, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों आदि पर नियन्त्रण रखती थीं।
  • राजस्थान व महाराष्ट्र में जातिगत पंचायतें बहुत अधिक शक्तिशाली थीं।

समुदाय से निष्कासित करना : –

🔹 समुदाय से बाहर निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था। इसके तहत दंडित व्यक्ति को (दिए हुए समय के लिए) गाँव छोड़ना पड़ता था। इस दौरान वह अपनी जाति और पेशे से हाथ धो बैठता था। ऐसी नीतियों का मकसद जातिगत रिवाजों की अवहेलना रोकना था।

जातिगत पंचायतें : –

🔹 ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी। समाज में ये पंचायतें काफ़ी ताकतवर होती थीं।

🔸 जातिगत पंचायत के कार्य कार्य : –

  • राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती थीं।
  • वे ज़मीन से जुड़े दावेदारियों के झगड़े सुलझाती थीं।
  • यह तय करती थीं कि शादियाँ जातिगत मानदंडों के मुताबिक हो रही हैं या नहीं।
  • और यह भी कि गाँव के आयोजन में किसको किसके ऊपर तरजीह दी जाएगी।
  • कर्मकांडीय वर्चस्व किस क्रम में होगा।
  • फ़ौजदारी न्याय को छोड़ दें तो ज़्यादातर मामलों में राज्य जाति पंचायत के फ़ैसलों को मानता था ।

पंचायत के मुखिया द्वारा ग्रामीण समाज का नियमन ( in short points ) : –

  • बुजुर्ग लोगों का जमावड़ा ।
  • सर्वमान्य निर्णय ।
  • पंचायत का मुखिया ‘मुकद्दम या मण्डल’ कहलाता था ।
  • मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से तथा मंजूरी जमींदारों से लेनी पड़ती थी।
  • गाँव में आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में मुखिया करवाता था ।
  • पंचायत का काम गाँव के आम खजाने से चलता था ।
  • कर अधिकारियों की खातिरदारी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए तथा सामुदायिक कार्यों के लिए खर्चा किया जाता था ।
  • पंचायत का बड़ा काम था कि गाँव के सभी लोग अपनी जाति की हद में रहे ।
  • शादियाँ भी मण्डल की मौजूदगी में होती थी ।
  • पंचायतों को अपराधी पर जुर्माना लगाने तथा समुदाय से निष्कासित करने का अधिकार था।
  • ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी ताकतवर पंचायत होती थी ।

ग्रामीण दस्तकार : –

🔹 अंग्रेजी शासनकाल के आरम्भिक वर्षों में किए गए गाँवों के सर्वेक्षण में उल्लेख किया गया है कि गाँवों में दस्तकारों की बहुलता थी। कहीं-कहीं तो कुल घरों के 25 प्रतिशत घर दस्तकारों के थे।

🔸ग्रामीण दस्तकार के कार्य : – कभी-कभी किसानों और दस्ताकारों के बीच फ़र्क करना मुश्किल होता था क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे। खेतिहर समूह के लोग भी दस्तकारी के कार्यों से जुड़े हुए थे; जैसे खेती के औजार बनाना या मरम्मत करना, रंगरेजी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बर्तनों को पकाना आदि।

🔸ग्रामीण दस्तकार की सेवाओं की अदायगी : – गाँव के लोग कुम्हार, लोहार, बढ़ई, नाई व सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकारों की सेवाओं की अदायगी फसल का एक हिस्सा या गाँव की जमीन का एक टुकड़ा (जो खेती योग्य होने के बाद भी बेकार पड़ा रहता था ) देकर करते थे। महाराष्ट्र में इस तरह की जमीन दस्तकारों की ‘मीरास’ या ‘वतन’ बन गई, जिस पर उनका पुश्तैनी अधिकार होता था ।

जजमानी : –

🔹 18वीं सदी के स्त्रोत बताते हैं कि बंगाल में जमींदार, लुहार, बढ़ई, सुनारों आदि को उनकी सेवा के बदले रोज का भत्ता और खाने के लिए नकदी देते थे। इस व्यवस्था को जजमानी कहते थे।

एक “छोटा गणराज्य ” : –

🔹 19वीं सदी के कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय गाँवों को एक ऐसे छोटे गणराज्य के रूप में देखा ; जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों एवं श्रम का बँटवारा करते थे लेकिन ऐसा नहीं लगता कि गाँव में सामाजिक बराबरी थी। संपत्ति की व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी, साथ ही जाति और जेंडर (सामाजिक लिंग) के नाम पर समाज में गहरी विषमताएँ थीं। कुछ ताकतवर लोग गाँव के मसलों पर फ़ैसले लेते थे और कमज़ोर वर्गों का शोषण करते थे। न्याय करने का अधिकार भी उन्हीं को मिला हुआ था।

🔹 गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार की वजह से गाँवों में भी नकद के रिश्ते फैल चुके थे। मुगलों के केन्द्रीय क्षेत्रों में कर की वसूली एवं व्यापारिक फसलों जैसे कपास, रेशम, व नील आदि पैदा करने वालों का भुगतान भी नकदी में ही होता था ।

गाँव में मुद्रा : –

🔹 सत्रहवीं सदी में फ्रांसीसी यात्री ज्यां बैप्टिस्ट तैवर्नियर को यह बात उल्लेखनीय लगी कि “ भारत में वे गाँव बहुत ही 44 छोटे कहे जाएँगे जिनमें मुद्रा की फेर बदल करने वाले, जिन्हें सराफ़ कहते हैं, न हों। एक बैंकर की तरह सराफ़ हवाला भुगतान करते हैं (और) अपनी मर्ज़ी के मुताबिक पैसे के मुकाबले रुपये की कीमत बढ़ा देते हैं और कौड़ियों के मुकाबले पैसे की।

कृषि समाज में महिलाएँ की भूमिका : –

🔹उत्पादन की प्रक्रिया में मर्द और महिलाएँ खास किस्म की भूमिकाएँ अदा करते हैं। कृषि कार्य में पुरुष और महिलाओं की बराबर की भागीदारी थी। पुरुष खेत जोतने तथा हल चलाने का कार्य करते थे तथा महिलाएँ बुआई, निराई-गुड़ाई, कटाई एवं पकी फसल का दाना निकालने जैसे विभिन्न कार्य करती थीं।

🔹 इसी प्रकार दस्तकारी के कार्य; जैसे- सूत कातना, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी साफ करना व गूंथना तथा कपड़ों पर कढ़ाई का कार्य भी महिलाओं द्वारा सम्पन्न किए जाते थे। किसी वस्तु का जितना अधिक वाणिज्यीकरण होता था उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की माँग उतनी ही अधिक होती थी।

🔹 समाज श्रम आधारित था इसलिए किसान और दस्तकार समाज में (बच्चे पैदा करने के विशेष गुण के कारण) महिलाओं को एक महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था।

महिलाओं की कमी : –

🔹 कुपोषण, बार-बार माँ बनने एवं प्रसव के दौरान मृत्यु हो जाने के कारण समाज में महिलाओं की मृत्यु-दर बहत अधिक थी। इससे किसान और दस्तकारी समाज में सम्भ्रांत समूह के विपरीत ऐसे रिवाज उत्पन्न हुए; जहाँ कई ग्रामीण समुदायों में शादी के लिए दहेज के स्थान पर उलटे ‘दुलहन की कीमत अदा करनी पड़ती थी। तलाकशुदा महिलाएँ व विधवाएँ दोनों ही पुनः कानूनन विवाह कर सकती थीं।

गलत रास्ते पर चलने पर महिलाएं एवं पुरुष को दंडित करना : –

🔹 प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार घर का मुखिया पुरुष होता था जिससे महिलाओं पर घर-परिवार एवं समुदाय के पुरुषों का नियन्त्रण बना रहता था। किसी महिला के गलत रास्ते पर चलने का सन्देह होने पर उसे कड़ा दण्ड दिया जाता था ।

🔹 राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के हिस्सों में मिले दस्तावेजों में मिली कुछ दरख्वास्तों से पता चलता है कि पत्नियाँ अपने पतियों की बेवफाई का विरोध करती थीं या वे घर के मर्दों पर पत्नी व बच्चों की अनदेखी का आरोप लगाती थीं। ये दरख्वास्त महिलाओं ने न्याय तथा मुआवजे की आशा से ग्राम पंचायत को भेजी थीं।

🔹 अधिकांशतः पंचायत को दरख्वास्त भेजने वाली महिलाओं के नाम दस्तावेजों में दर्ज नहीं किए जाते थे। उनका हवाला घर के मद्र / मुखिया की माँ, बहन या पत्नी के रूप में दिया जाता था।

महिलाओं का संपति पर अधिकार : –

🔹 महिलाओं को पुश्तैनी सम्पत्ति का हक (जैसे- भूमिहर भद्रजनों में) मिला हुआ था। हिन्दू व मुसलमान महिलाओं को जमींदारी उत्तराधिकार में मिलती थी। वे इस जमीन को बेचने अथवा गिरवी रखने को स्वतन्त्र थीं। बंगाल में भी महिला जमींदार मिलती थीं।

मुगल काल में कृषि समाज में महिलाओं की भूमिका ( in short points ) : –

  • पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करती थीं। बुआई, निराई, कटाई के साथ-साथ पकी फसल से दाना निकालना ।
  • महिलाओं की जैव वैज्ञानिक क्रियाओं को लेकर लोगों के मन में पूर्वाग्रह ।
  • सूत कातना, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को गूंथने, कपड़ों पर कढ़ाई तथा दस्तकारी जैसे काम महिलाएँ ही करती थीं ।
  • महिलाओं को महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था ।
  • महिलाओं की मृत्युदर बहुत थी ।
  • दरअसल किसान और दस्तकार महिलाएँ जरूरत पड़ने पर न सिर्फ खेतों में काम करती थीं बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाजारों में भी ।
  • परिवार तथा समुदाय द्वारा महिलाओं पर पुरजोर काबू रखा जाता था ।
  • राजस्थान, गुजरात तथा महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के इलाकों में महिलाएँ न्याय तथा मुआवजे की उम्मीद से पंचायत को अर्जियाँ देती थी ।
  • भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं के पुश्तैनी सम्पत्ति का हक मिला । उदाहरण – पंजाब में महिलाएँ पुश्तैनी जमीन की विक्रेता के रूप में।

जंगल और कबीले : –

🔹 भारत के भू-भाग में उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत की गहरी खेती वाले प्रदेशों को छोड़ दें तो ज़मीन के विशाल हिस्से जंगल या झाड़ियों (खरबंदी) से घिरे थे। ऐसे इलाके झारखंड सहित पूरे पूर्वी भारत, मध्य भारत, उत्तरी क्षेत्र (जिसमें भारत-नेपाल के सीमावर्ती इलाके की तराई शामिल हैं), दक्षिणी भारत का पश्चिमी घाट और दक्कन के पठारों आदि जंगलों से घिरे हुए थे। जंगलों का फैलाव लगभग चालीस प्रतिशत क्षेत्र पर था।

जंगलों में रहने वाले लोग : –

🔹 जंगलों में रहने वाले लोगों का जीवनयापन जंगल से प्राप्त उत्पादों, शिकार एवं स्थानान्तरीय कृषि से होता था। जंगलों में रहने वाले लोगों के समुदाय को कबीला कहा जाता था।

18वीं- 17वीं शताब्दी में मुगलकालीन वनवासियों की जीवन शैली : –

  • वनवासी (वनों में रहने वाले) लोगों की जनसंख्या 40 प्रतिशत थी।
  • ये झारखण्ड, पूर्वी भारत, मध्य भारत तथा उत्तरी क्षेत्र दक्षिण भारत का पश्चिमी घाट में रहते थे।
  • इनके लिए जंगली शब्द अर्थात् जिनका गुजारा जंगल के उत्पादों पर होता है, प्रयोग किया जाता था ।
  • जुम ‘खेती करते थे अर्थात् स्थानात्तरीय कृषि।
  • एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते रहना, (काम तथा खाने की तलाश में) ।
  • भीलों द्वारा बसन्त के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठे करना, गर्मियों में मछली पकड़ना, मानसून के महीने में खेती करना, शरद तथा जाड़ों में शिकार करना आदि काम किये जाते थे।
  • राज्य के लिए जंग उलट-फेर वाला तथा बदमाशों को शरण देने वाला इलाका था।

जंगलों में घुसपैठ : –

🔹 जंगल कई कारणों से बहुत महत्त्वपूर्ण थे, जिनमें बाहरी शक्तियाँ कई कारणों से प्रवेश करती थीं । युद्ध हेतु हाथियों की आवश्यकता, जंगल के उत्पादों जैसे – शहद, मोम, लाख आदि की वाणिज्यिक माँग थी ।

🔹 बाहरी प्रभाव का असर जंगल के सामाजिक जीवन पर भी पड़ा। कई कबीलों के सरदार धीरे-धीरे जमींदार बन गए तथा कुछ तो राजा भी बन गए। सोलहवीं सत्रहवीं सदी में कुछ राजाओं ने पड़ोसी कबीलों के साथ युद्ध किया और उन पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।

शिकार अभियान : –

🔹 शिकार अभियान मुगल राज्य के लिए गरीबों व अमीरों सहित समस्त प्रजाजन को न्याय प्रदान करने का एक माध्यम था । दरबारी इतिहासकारों के अनुसार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करता था। इस प्रकार वह अलग-अलग प्रदेशों के लोगों की समस्याओं पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे पाता था ।

जमींदार ओर उनकी शक्तियां : –

🔹 ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत के स्वामी जमींदार होते थे जिन्हें कुछ विशेष सामाजिक एवं आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त होती थीं। ये अपनी जमीन के स्वामी होते थे तथा राज्य के प्रतिनिधि के रूप में जनता से कर वसूलते थे जिनके अपने किले एवं सैनिक टुकड़ियाँ भी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे।

🔹 यदि हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में करें तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे। अबुल फ़ज़्ल इस ओर इशारा करता है कि “ऊँची जाति” के ब्राह्मण राजपूत गठबंधन ने ग्रामीण समाज पर पहले ही अपना ठोस नियंत्रण बना रखा था।

जमींदारी प्राप्ति के तरीके : –

🔹 जमींदारी के विस्तार का एक तरीका युद्ध भी था। जमींदारी हासिल करने के कुछ अन्य तरीके भी थे, जैसे- नयी जमीनों को बसाकर (जंगल बारी) अधिकारों के हस्तांतरण के ज़रिये, राज्य के आदेश से, या फिर खरीद कर । यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके ज़रिये अपेक्षाकृत “निचली जातियों के लोग भी ” जमींदारों के दर्जे में दाखिल हो सकते थे, क्योंकि इस काल में जमींदारी धड़ल्ले से खरीदी और बेची जाती थी ।

ज़मींदारों की मिली-जुली सैनिक शक्ति : –

🔹 आइन के मुताबिक, मुग़ल भारत में ज़मींदारों की मिली-जुली सैनिक शक्ति इस प्रकार थी : 384,558 घुड़सवार; 4,277,057 पैदल; 1863 हाथी; 4260 तोप; और 4,500 नाव ।

ज़मींदारों का समाज में सहयोग : –

  • ज़मींदारों ने खेती लायक ज़मींनों को बसाने में अगुआई की ।
  • खेतिहरों को खेती के साजो-सामान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी मदद की।
  • ज़मींदारी की खरीद-फ़रोख्त से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई।
  • ज़मींदार अपनी मिल्कियत की ज़मीनों की फ़सल भी बेचते थे।
  • ऐसे सबूत हैं जो दिखाते हैं कि ज़मींदार अकसर बाज़ार (हाट) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फ़सलें बेचने आते थे।

🔹 इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि जमींदार एक शोषक वर्ग था लेकिन किसानों के साथ उनके संबंध पारस्परिक सहयोग, पैतृकवाद एवं संरक्षण पर आधारित थे। यही कारण है कि 17वीं शताब्दी में राज्य के विरुद्ध हुए कृषि विद्रोहों में किसानों ने जमींदारों का साथ दिया।

मुगलकालीन भारत में जमींदारों की भूमिका ( in short points ) : –

  • इनकी कमाई तो कृषि से परन्तु उत्पादन में सीधी हिस्सेदारी नहीं ।
  • राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ देने तथा जाति की वजह से जमींदारों की हैसियत ऊँची थी ।
  • जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत जमीन (मिल्कियत थी ।
  • राज्य की ओर से कर वसूलने तथा सैनिक संसाधनों की वजह से ये वर्ग ताकतवर था ।
  • सैनिक टुकड़ियाँ, किले, घुड़सवार, तोपखाना, पैदल सैनिक भी होते थे ।
  • दस्तावेजों के अनुसार जमींदारी को पुख्ता करने की प्रक्रिया धीमी होती थी –
    • नई जमीनों को बसाकर जंगल बरी
    • अधिकारों के हस्तांतरण के जरिए
    • राज्य के आदेश से
    • जमीन खरीद कर
  • उदाहरण राजपूत, जाट, द. प. बंगाल तथा किसान पशुचारक (सदगोप) ने भी – जमींदारियाँ स्थापित की ।
  • जमींदार समय-समय पर किसानों की सहायता भी करते थे। जैसे- उन्हें खेतों में काम देना तथा काम के लिए उधार देना ।
  • कृषि विद्रोहों में जमींदारों ने भी भाग लिया था ।

भू-राजस्व : –

🔹 भू-राजस्व मुगल साम्राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत था जिसकी वसूली के लिए राज्य ने एक सुनियोजित प्रशासनिक तंत्र स्थापित किया। सम्पूर्ण राज्य की वित्तीय व्यवस्था पर दीवान का नियन्त्रण होता था ।

भू-राजस्व प्रणाली : –

🔹 मुगल साम्राज्य में भू-राजस्व के निर्धारण की प्रक्रिया को लागू करने से पूर्व सम्पूर्ण राज्य में फसल और उत्पादन के संबंध में विस्तृत सूचनाएँ एकत्रित की जाती थीं तथा भू-राजस्व की वसूली की व्यवस्था दो चरणों में की जाती थी –

  • कर निर्धारण तथा
  • वास्तविक वसूली ।

🔹जमा निर्धारित रकम थी और हासिल सचमुच वसूली गई रकम।

🔹 मुगल बादशाह अकबर ने भू-राजस्व वसूली के लिए नकद एवं फसल दोनों का विकल्प रखा था।

अमीन : –

🔹 अमीन एक मुलाज़िम था जिसकी ज़िम्मेवारी यह सुनिश्चित करना था कि प्रांतों में राजकीय नियम कानूनों का पालन हो रहा है।

अकबर के शासन में भूमि का वर्गीकरण : –

🔹 अकबर बादशाह ने अपनी गहरी दूरदर्शिता के साथ ज़मींनों का वर्गीकरण किया और हरेक (वर्ग की ज़मीन) के लिए अलग-अलग राजस्व निर्धारित किया।

🔸 पोलज : – वह ज़मीन है जिसमें एक के बाद एक हर फ़सल की सालाना खेती होती है और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता है।

🔸 परौती : – वह ज़मीन है जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह अपनी खोयी ताकत वापस पा सके।

🔸 चचर : – वह ज़मीन है जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है।

🔸 बंजर : – वह ज़मीन है जिस पर पाँच या उससे ज्यादा वर्षों से खेती नहीं की गई हो।

मनसबदारी व्यवस्था : –

🔹 मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पर एक सैनिक – नौकरशाही तंत्र ( मनसबदारी) था जिस पर राज्य के सैनिक व नागरिक मामलों की ज़िम्मेदारी थी। कुछ मनसबदारों को नकदी भुगतान किया जाता था, जब कि उनमें से ज़्यादातर को साम्राज्य के अलग-अलग हिस्सों में राजस्व के आबंटन के ज़रिये भुगतान किया जाता था। समय-समय पर उनका तबादला किया जाता था।

चाँदी का बहाव : –

🔹 मुगल साम्राज्य की राजनैतिक स्थिरता के कारण भारत के स्थानीय एवं समुद्रपारीय व्यापार में अत्यधिक विस्तार हुआ। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं के भुगतान के रूप में शेष विश्व से पर्याप्त मात्रा में चाँदी भारत में आई।

🔹 इस चाँदी का एक बड़ा हिस्सा भारत की तरफ़ खिंच गया। यह भारत के लिए अच्छा था क्योंकि यहाँ चाँदी के प्राकृतिक संसाधन नहीं थे। नतीजतन, सोलहवीं से अठारहवीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा- खास कर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही।

🔹 चांदी से मुद्रा संचार और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ, दूसरी तरफ़ मुग़ल राज्य को नकदी कर उगाहने में आसानी हुई।

अबुल फ़ज़्ल की आइन-ए-अकबरी : –

🔹 मुगल बादशाह अकबर ने इतिहास के विधिवत लेखन की परम्परा की शुरुआत की। इतिहास लेखन के लिए अकबर द्वारा स्थापित परियोजना के अन्तर्गत अबुल फजल ने ‘आइन-ए- अकबरी’ की रचना पाँच संशोधनों के पश्चात् 1598 ई. में पूर्ण की। तीन जिल्दों में रचा गया ‘अकबरनामा’ इस परियोजना का परिणाम था। पहली दो जिल्दों ने ऐतिहासिक दास्तान पेश की। तीसरी जिल्द, आइन-ए-अकबरी, को शाही नियम कानून के सारांश और साम्राज्य के एक राजपत्र की सूरत में संकलित किया गया था।

‘ आइन-ए-अकबरी ‘ मुगल साम्राज्य से संबंधित जानकारी के स्रोत के रूप में : –

🔹 ‘आइन-ए-अकबरी’ मुगल साम्राज्य से संबंधित जानकारी का एक प्रमुख स्रोत है । आइन-ए-अकबरी में मुगल दरबार, प्रशासन, सेना का संगठन, राजस्व के स्रोत, अकबरी साम्राज्य के प्रान्तों की भौगोलिक संरचना, जन सामान्य के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजों आदि के बारे में विस्तृत रूप से विवरण दिया गया है।

आइन का अनुवाद : –

🔹 आइन की अहमियत की वजह से, कई विद्वानों ने इसका अनुवाद किया। हेनरी ब्लॉकमेन ने इसे संपादित किया और कलकत्ता ( आज का कोलकाता) के एशियाटिक सोसाइटी ने अपनी बिब्लियोथिका शृंखला में इसे छापा । इस किताब का तीन खंडों में अंग्रेज़ी अनुवाद भी किया गया। पहले खंड का मानक अंग्रेज़ी अनुवाद ब्लॉकमेन का है (कलकत्ता, 1873), बाकी के दो खंडों के अनुवाद एच. एस. जैरेट ने किए ( कलकत्ता, 1891 और 1894 ) ।

आइन-ए-अकबरी के पांच भाग : –

🔹 आइन पाँच भागों (दफ्तर ) का संकलन है जिसके पहले तीन भाग मुगल प्रशासन का विवरण दिया गया है तथा चौथे व पाँचवें भाग में तत्कालीन प्रजा के धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का वर्णन है।

🔸 पहला भाग, मंज़िल आबादी – आबादी के नाम से पहली किताब शाही घर-परिवार और उसके रख-रखाव से ताल्लुक रखती है।

🔸 दूसरा भाग, सिपह आबादी – सिपह सैनिक व नागरिक प्रशासन और नौकरों की व्यवस्था के बारे में है। इस भाग में शाही अफ़सरों (मनसबदार), विद्वानों, कवियों और कलाकारों की संक्षिप्त जीवनियाँ शामिल हैं।

🔸 तीसरा, मुल्क आबादी – मुल्क, वह भाग है जो साम्राज्य व प्रांतों के वित्तीय पहलुओं तथा राजस्व की दरों के आँकड़ों की विस्तृत जानकारी देने के बाद “ बारह प्रांतों का बयान” देता है।

🔸 चौथी और पाँचवीं किताबें (दफ्तर) भारत के लोगों के मज़हबी, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों से ताल्लुक रखती हैं; इनके आखिर में अकबर के “शुभ वचनों” का एक संग्रह भी है।

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