जंगल और कबीले : –
🔹 भारत के भू-भाग में उत्तर और उत्तर-पश्चिमी भारत की गहरी खेती वाले प्रदेशों को छोड़ दें तो ज़मीन के विशाल हिस्से जंगल या झाड़ियों (खरबंदी) से घिरे थे। ऐसे इलाके झारखंड सहित पूरे पूर्वी भारत, मध्य भारत, उत्तरी क्षेत्र (जिसमें भारत-नेपाल के सीमावर्ती इलाके की तराई शामिल हैं), दक्षिणी भारत का पश्चिमी घाट और दक्कन के पठारों आदि जंगलों से घिरे हुए थे। जंगलों का फैलाव लगभग चालीस प्रतिशत क्षेत्र पर था।
जंगलों में रहने वाले लोग : –
🔹 जंगलों में रहने वाले लोगों का जीवनयापन जंगल से प्राप्त उत्पादों, शिकार एवं स्थानान्तरीय कृषि से होता था। जंगलों में रहने वाले लोगों के समुदाय को कबीला कहा जाता था।
18वीं- 17वीं शताब्दी में मुगलकालीन वनवासियों की जीवन शैली : –
- वनवासी (वनों में रहने वाले) लोगों की जनसंख्या 40 प्रतिशत थी।
- ये झारखण्ड, पूर्वी भारत, मध्य भारत तथा उत्तरी क्षेत्र दक्षिण भारत का पश्चिमी घाट में रहते थे।
- इनके लिए जंगली शब्द अर्थात् जिनका गुजारा जंगल के उत्पादों पर होता है, प्रयोग किया जाता था ।
- जुम ‘खेती करते थे अर्थात् स्थानात्तरीय कृषि।
- एक जगह से दूसरी जगह पर घूमते रहना, (काम तथा खाने की तलाश में) ।
- भीलों द्वारा बसन्त के मौसम में जंगल के उत्पाद इकट्ठे करना, गर्मियों में मछली पकड़ना, मानसून के महीने में खेती करना, शरद तथा जाड़ों में शिकार करना आदि काम किये जाते थे।
- राज्य के लिए जंग उलट-फेर वाला तथा बदमाशों को शरण देने वाला इलाका था।
जंगलों में घुसपैठ : –
🔹 जंगल कई कारणों से बहुत महत्त्वपूर्ण थे, जिनमें बाहरी शक्तियाँ कई कारणों से प्रवेश करती थीं । युद्ध हेतु हाथियों की आवश्यकता, जंगल के उत्पादों जैसे – शहद, मोम, लाख आदि की वाणिज्यिक माँग थी ।
🔹 बाहरी प्रभाव का असर जंगल के सामाजिक जीवन पर भी पड़ा। कई कबीलों के सरदार धीरे-धीरे जमींदार बन गए तथा कुछ तो राजा भी बन गए। सोलहवीं सत्रहवीं सदी में कुछ राजाओं ने पड़ोसी कबीलों के साथ युद्ध किया और उन पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया।
शिकार अभियान : –
🔹 शिकार अभियान मुगल राज्य के लिए गरीबों व अमीरों सहित समस्त प्रजाजन को न्याय प्रदान करने का एक माध्यम था । दरबारी इतिहासकारों के अनुसार अभियान के नाम पर बादशाह अपने विशाल साम्राज्य के कोने-कोने का दौरा करता था। इस प्रकार वह अलग-अलग प्रदेशों के लोगों की समस्याओं पर व्यक्तिगत रूप से ध्यान दे पाता था ।
जमींदार ओर उनकी शक्तियां : –
🔹 ग्रामीण समाज में ऊँची हैसियत के स्वामी जमींदार होते थे जिन्हें कुछ विशेष सामाजिक एवं आर्थिक सुविधाएँ प्राप्त होती थीं। ये अपनी जमीन के स्वामी होते थे तथा राज्य के प्रतिनिधि के रूप में जनता से कर वसूलते थे जिनके अपने किले एवं सैनिक टुकड़ियाँ भी जिसमें घुड़सवारों, तोपखाने और पैदल सिपाहियों के जत्थे होते थे।
🔹 यदि हम मुगलकालीन गाँवों में सामाजिक संबंधों की कल्पना एक पिरामिड के रूप में करें तो जमींदार इसके संकरे शीर्ष का हिस्सा थे। अबुल फ़ज़्ल इस ओर इशारा करता है कि “ऊँची जाति” के ब्राह्मण राजपूत गठबंधन ने ग्रामीण समाज पर पहले ही अपना ठोस नियंत्रण बना रखा था।
जमींदारी प्राप्ति के तरीके : –
🔹 जमींदारी के विस्तार का एक तरीका युद्ध भी था। जमींदारी हासिल करने के कुछ अन्य तरीके भी थे, जैसे- नयी जमीनों को बसाकर (जंगल बारी) अधिकारों के हस्तांतरण के ज़रिये, राज्य के आदेश से, या फिर खरीद कर । यही वे प्रक्रियाएँ थीं जिनके ज़रिये अपेक्षाकृत “निचली जातियों के लोग भी ” जमींदारों के दर्जे में दाखिल हो सकते थे, क्योंकि इस काल में जमींदारी धड़ल्ले से खरीदी और बेची जाती थी ।
ज़मींदारों की मिली-जुली सैनिक शक्ति : –
🔹 आइन के मुताबिक, मुग़ल भारत में ज़मींदारों की मिली-जुली सैनिक शक्ति इस प्रकार थी : 384,558 घुड़सवार; 4,277,057 पैदल; 1863 हाथी; 4260 तोप; और 4,500 नाव ।
ज़मींदारों का समाज में सहयोग : –
- ज़मींदारों ने खेती लायक ज़मींनों को बसाने में अगुआई की ।
- खेतिहरों को खेती के साजो-सामान व उधार देकर उन्हें वहाँ बसने में भी मदद की।
- ज़मींदारी की खरीद-फ़रोख्त से गाँवों के मौद्रीकरण की प्रक्रिया में तेजी आई।
- ज़मींदार अपनी मिल्कियत की ज़मीनों की फ़सल भी बेचते थे।
- ऐसे सबूत हैं जो दिखाते हैं कि ज़मींदार अकसर बाज़ार (हाट) स्थापित करते थे जहाँ किसान भी अपनी फ़सलें बेचने आते थे।
🔹 इसमें किसी भी प्रकार का सन्देह नहीं है कि जमींदार एक शोषक वर्ग था लेकिन किसानों के साथ उनके संबंध पारस्परिक सहयोग, पैतृकवाद एवं संरक्षण पर आधारित थे। यही कारण है कि 17वीं शताब्दी में राज्य के विरुद्ध हुए कृषि विद्रोहों में किसानों ने जमींदारों का साथ दिया।
मुगलकालीन भारत में जमींदारों की भूमिका ( in short points ) : –
- इनकी कमाई तो कृषि से परन्तु उत्पादन में सीधी हिस्सेदारी नहीं ।
- राज्य को कुछ खास किस्म की सेवाएँ देने तथा जाति की वजह से जमींदारों की हैसियत ऊँची थी ।
- जमींदारों की समृद्धि की वजह थी उनकी विस्तृत जमीन (मिल्कियत थी ।
- राज्य की ओर से कर वसूलने तथा सैनिक संसाधनों की वजह से ये वर्ग ताकतवर था ।
- सैनिक टुकड़ियाँ, किले, घुड़सवार, तोपखाना, पैदल सैनिक भी होते थे ।
- दस्तावेजों के अनुसार जमींदारी को पुख्ता करने की प्रक्रिया धीमी होती थी –
- नई जमीनों को बसाकर जंगल बरी
- अधिकारों के हस्तांतरण के जरिए
- राज्य के आदेश से
- जमीन खरीद कर
- उदाहरण राजपूत, जाट, द. प. बंगाल तथा किसान पशुचारक (सदगोप) ने भी – जमींदारियाँ स्थापित की ।
- जमींदार समय-समय पर किसानों की सहायता भी करते थे। जैसे- उन्हें खेतों में काम देना तथा काम के लिए उधार देना ।
- कृषि विद्रोहों में जमींदारों ने भी भाग लिया था ।
भू-राजस्व : –
🔹 भू-राजस्व मुगल साम्राज्य की आय का एक प्रमुख स्रोत था जिसकी वसूली के लिए राज्य ने एक सुनियोजित प्रशासनिक तंत्र स्थापित किया। सम्पूर्ण राज्य की वित्तीय व्यवस्था पर दीवान का नियन्त्रण होता था ।
भू-राजस्व प्रणाली : –
🔹 मुगल साम्राज्य में भू-राजस्व के निर्धारण की प्रक्रिया को लागू करने से पूर्व सम्पूर्ण राज्य में फसल और उत्पादन के संबंध में विस्तृत सूचनाएँ एकत्रित की जाती थीं तथा भू-राजस्व की वसूली की व्यवस्था दो चरणों में की जाती थी –
- कर निर्धारण तथा
- वास्तविक वसूली ।
🔹जमा निर्धारित रकम थी और हासिल सचमुच वसूली गई रकम।
🔹 मुगल बादशाह अकबर ने भू-राजस्व वसूली के लिए नकद एवं फसल दोनों का विकल्प रखा था।
अमीन : –
🔹 अमीन एक मुलाज़िम था जिसकी ज़िम्मेवारी यह सुनिश्चित करना था कि प्रांतों में राजकीय नियम कानूनों का पालन हो रहा है।
अकबर के शासन में भूमि का वर्गीकरण : –
🔹 अकबर बादशाह ने अपनी गहरी दूरदर्शिता के साथ ज़मींनों का वर्गीकरण किया और हरेक (वर्ग की ज़मीन) के लिए अलग-अलग राजस्व निर्धारित किया।
🔸 पोलज : – वह ज़मीन है जिसमें एक के बाद एक हर फ़सल की सालाना खेती होती है और जिसे कभी खाली नहीं छोड़ा जाता है।
🔸 परौती : – वह ज़मीन है जिस पर कुछ दिनों के लिए खेती रोक दी जाती है ताकि वह अपनी खोयी ताकत वापस पा सके।
🔸 चचर : – वह ज़मीन है जो तीन या चार वर्षों तक खाली रहती है।
🔸 बंजर : – वह ज़मीन है जिस पर पाँच या उससे ज्यादा वर्षों से खेती नहीं की गई हो।
मनसबदारी व्यवस्था : –
🔹 मुग़ल प्रशासनिक व्यवस्था के शीर्ष पर एक सैनिक – नौकरशाही तंत्र ( मनसबदारी) था जिस पर राज्य के सैनिक व नागरिक मामलों की ज़िम्मेदारी थी। कुछ मनसबदारों को नकदी भुगतान किया जाता था, जब कि उनमें से ज़्यादातर को साम्राज्य के अलग-अलग हिस्सों में राजस्व के आबंटन के ज़रिये भुगतान किया जाता था। समय-समय पर उनका तबादला किया जाता था।
चाँदी का बहाव : –
🔹 मुगल साम्राज्य की राजनैतिक स्थिरता के कारण भारत के स्थानीय एवं समुद्रपारीय व्यापार में अत्यधिक विस्तार हुआ। भारत से निर्यात होने वाली वस्तुओं के भुगतान के रूप में शेष विश्व से पर्याप्त मात्रा में चाँदी भारत में आई।
🔹 इस चाँदी का एक बड़ा हिस्सा भारत की तरफ़ खिंच गया। यह भारत के लिए अच्छा था क्योंकि यहाँ चाँदी के प्राकृतिक संसाधन नहीं थे। नतीजतन, सोलहवीं से अठारहवीं सदी के बीच भारत में धातु मुद्रा- खास कर चाँदी के रुपयों की उपलब्धि में अच्छी स्थिरता बनी रही।
🔹 चांदी से मुद्रा संचार और सिक्कों की ढलाई में अभूतपूर्व विस्तार हुआ, दूसरी तरफ़ मुग़ल राज्य को नकदी कर उगाहने में आसानी हुई।
अबुल फ़ज़्ल की आइन-ए-अकबरी : –
🔹 मुगल बादशाह अकबर ने इतिहास के विधिवत लेखन की परम्परा की शुरुआत की। इतिहास लेखन के लिए अकबर द्वारा स्थापित परियोजना के अन्तर्गत अबुल फजल ने ‘आइन-ए- अकबरी’ की रचना पाँच संशोधनों के पश्चात् 1598 ई. में पूर्ण की। तीन जिल्दों में रचा गया ‘अकबरनामा’ इस परियोजना का परिणाम था। पहली दो जिल्दों ने ऐतिहासिक दास्तान पेश की। तीसरी जिल्द, आइन-ए-अकबरी, को शाही नियम कानून के सारांश और साम्राज्य के एक राजपत्र की सूरत में संकलित किया गया था।
‘ आइन-ए-अकबरी ‘ मुगल साम्राज्य से संबंधित जानकारी के स्रोत के रूप में : –
🔹 ‘आइन-ए-अकबरी’ मुगल साम्राज्य से संबंधित जानकारी का एक प्रमुख स्रोत है । आइन-ए-अकबरी में मुगल दरबार, प्रशासन, सेना का संगठन, राजस्व के स्रोत, अकबरी साम्राज्य के प्रान्तों की भौगोलिक संरचना, जन सामान्य के सामाजिक, सांस्कृतिक एवं धार्मिक रीति-रिवाजों आदि के बारे में विस्तृत रूप से विवरण दिया गया है।
आइन का अनुवाद : –
🔹 आइन की अहमियत की वजह से, कई विद्वानों ने इसका अनुवाद किया। हेनरी ब्लॉकमेन ने इसे संपादित किया और कलकत्ता ( आज का कोलकाता) के एशियाटिक सोसाइटी ने अपनी बिब्लियोथिका शृंखला में इसे छापा । इस किताब का तीन खंडों में अंग्रेज़ी अनुवाद भी किया गया। पहले खंड का मानक अंग्रेज़ी अनुवाद ब्लॉकमेन का है (कलकत्ता, 1873), बाकी के दो खंडों के अनुवाद एच. एस. जैरेट ने किए ( कलकत्ता, 1891 और 1894 ) ।
आइन-ए-अकबरी के पांच भाग : –
🔹 आइन पाँच भागों (दफ्तर ) का संकलन है जिसके पहले तीन भाग मुगल प्रशासन का विवरण दिया गया है तथा चौथे व पाँचवें भाग में तत्कालीन प्रजा के धार्मिक, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों का वर्णन है।
🔸 पहला भाग, मंज़िल आबादी – आबादी के नाम से पहली किताब शाही घर-परिवार और उसके रख-रखाव से ताल्लुक रखती है।
🔸 दूसरा भाग, सिपह आबादी – सिपह सैनिक व नागरिक प्रशासन और नौकरों की व्यवस्था के बारे में है। इस भाग में शाही अफ़सरों (मनसबदार), विद्वानों, कवियों और कलाकारों की संक्षिप्त जीवनियाँ शामिल हैं।
🔸 तीसरा, मुल्क आबादी – मुल्क, वह भाग है जो साम्राज्य व प्रांतों के वित्तीय पहलुओं तथा राजस्व की दरों के आँकड़ों की विस्तृत जानकारी देने के बाद “ बारह प्रांतों का बयान” देता है।
🔸 चौथी और पाँचवीं किताबें (दफ्तर) भारत के लोगों के मज़हबी, साहित्यिक और सांस्कृतिक रीति-रिवाजों से ताल्लुक रखती हैं; इनके आखिर में अकबर के “शुभ वचनों” का एक संग्रह भी है।