जाति और ग्रामीण माहौल : –
🔹 तत्कालीन समय में जातिगत भेदभाव के कारण कृषक समुदाय कई समूहों में विभाजित थे । कृषि कार्य में ऐसे लोगों की संख्या बहुतायत से थी जो मजदूरी करते थे अथवा निकृष्ट कहे जाने वाले कार्यों में संलग्न थे। इस तरह वे गरीबी में जीवन बिताने को मजबूर थे।
🔸 जातिगत भेदभाव के उदाहरण : –
🔹 समाज के निम्न वर्गों में जाति, निर्धनता एवं सामाजिक स्थिति के मध्य सीधा संबंध था, जो बीच के समूहों में नहीं था।
- 17वीं शताब्दी में मारवाड़ में लिखी गई एक पुस्तक में राजपूतों का उल्लेख किसानों के रूप में किया गया है। पुस्तक के अनुसार जाट भी किसान थे। लेकिन जाति व्यवस्था में उनकी जगह राजपूतों के मुकाबले नीची थी।
- मुस्लिम समुदायों में हलालखोरन (मैला ढोने वाले) जैसे नौकरों को गाँव की सीमाओं के बाहर रखा जाता था; इसी तरह, बिहार में मल्लाहज़ादा (शाब्दिक रूप से, नाविकों के बेटे) की तुलना दासों से की जा सकती थी।
- पशुपालन और बागबानी में बढ़ते मुनाफ़े की वजह से अहीर, गुज्जर और माली जैसी जातियाँ सामाजिक सीढ़ी में ऊपर उठीं।
- पूर्वी इलाकों में, पशुपालक और मछुआरी जातियाँ, जैसे सदगोप व कैवर्त भी किसानों की सी सामाजिक स्थिति पाने लगीं।
पंचायतें और मुखिया : –
🔹 ग्राम पंचायतों की भूमिका तत्कालीन समय में बहुत ही प्रभावशाली थी। गाँव के बुजुर्ग एवं प्रतिष्ठित लोग पंचायत के सदस्य होते थे।
मुखिया के बारे में जानकारी : –
- पंचायत का सरदार एक मुखिया होता था जिसे मुकद्दम या मंडल कहते थे।
- मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से होता था और इस चुनाव के बाद उन्हें इसकी मंजूरी ज़मींदार से लेनी पड़ती थी।
- मुखिया अपने ओहदे पर तभी तक बना रहता था जब तक गाँव के बुजुर्गों को उस पर भरोसा था।
- ऐसा नहीं होने पर बुजुर्ग उसे बर्खास्त कर सकते थे।
- गाँव के आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में बनवाना मुखिया का मुख्य काम था और इसमें पंचायत का पटवारी उसकी मदद करता था।
पंचायतें निधि और उसका उपयोग :- : –
- पंचायत का खर्चा गाँव के उस आम खजाने से चलता था जिसमें हर व्यक्ति अपना योगदान देता था।
- पंचायत के कोष का प्रयोग प्राकृतिक आपदाओं एवं सामुदायिक कार्यों के लिए किया जाता।
- साथ- साथ गाँव के दौरे पर आने वाले अधिकारियों की खातिरदारी के लिए भी पंचायत के कोष का प्रयोग किया जाता था।
- अक्सर इन निधियों को बांध के निर्माण या नहर खोदने में भी खर्च किया जाता था जिसे किसान आमतौर पर अपने दम पर करने में सक्षम नहीं होते थे।
पंचायतें और मुखिया के कार्य : –
- पंचायतें गाँव की व्यवस्था में पूर्णरूप से दखल रखती थीं।
- पंचायतों को जुर्माना लगाने और समुदाय से निष्कासित करने जैसे गम्भीर दण्ड देने का अधिकार होता था।
- पंचायतें यह सुनिश्चित करती थीं कि लोग अपनी जातिगत मर्यादाओं का पालन करें और सीमाओं में रहें।
- तत्कालीन समय में ग्राम पंचायत के अतिरिक्त प्रत्येक जाति की अपनी पंचायत होती थी।
- शक्तिसम्पन्न सामाजिक जाति पंचायतें दीवानी, दावेदारियों के झगड़े, रीति-रिवाजों, कर्मकाण्डों आदि पर नियन्त्रण रखती थीं।
- राजस्थान व महाराष्ट्र में जातिगत पंचायतें बहुत अधिक शक्तिशाली थीं।
समुदाय से निष्कासित करना : –
🔹 समुदाय से बाहर निकालना एक कड़ा कदम था जो एक सीमित समय के लिए लागू किया जाता था। इसके तहत दंडित व्यक्ति को (दिए हुए समय के लिए) गाँव छोड़ना पड़ता था। इस दौरान वह अपनी जाति और पेशे से हाथ धो बैठता था। ऐसी नीतियों का मकसद जातिगत रिवाजों की अवहेलना रोकना था।
जातिगत पंचायतें : –
🔹 ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी पंचायत होती थी। समाज में ये पंचायतें काफ़ी ताकतवर होती थीं।
🔸 जातिगत पंचायत के कार्य कार्य : –
- राजस्थान में जाति पंचायतें अलग-अलग जातियों के लोगों के बीच दीवानी के झगड़ों का निपटारा करती थीं।
- वे ज़मीन से जुड़े दावेदारियों के झगड़े सुलझाती थीं।
- यह तय करती थीं कि शादियाँ जातिगत मानदंडों के मुताबिक हो रही हैं या नहीं।
- और यह भी कि गाँव के आयोजन में किसको किसके ऊपर तरजीह दी जाएगी।
- कर्मकांडीय वर्चस्व किस क्रम में होगा।
- फ़ौजदारी न्याय को छोड़ दें तो ज़्यादातर मामलों में राज्य जाति पंचायत के फ़ैसलों को मानता था ।
पंचायत के मुखिया द्वारा ग्रामीण समाज का नियमन ( in short points ) : –
- बुजुर्ग लोगों का जमावड़ा ।
- सर्वमान्य निर्णय ।
- पंचायत का मुखिया ‘मुकद्दम या मण्डल’ कहलाता था ।
- मुखिया का चुनाव गाँव के बुजुर्गों की आम सहमति से तथा मंजूरी जमींदारों से लेनी पड़ती थी।
- गाँव में आमदनी व खर्चे का हिसाब-किताब अपनी निगरानी में मुखिया करवाता था ।
- पंचायत का काम गाँव के आम खजाने से चलता था ।
- कर अधिकारियों की खातिरदारी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने के लिए तथा सामुदायिक कार्यों के लिए खर्चा किया जाता था ।
- पंचायत का बड़ा काम था कि गाँव के सभी लोग अपनी जाति की हद में रहे ।
- शादियाँ भी मण्डल की मौजूदगी में होती थी ।
- पंचायतों को अपराधी पर जुर्माना लगाने तथा समुदाय से निष्कासित करने का अधिकार था।
- ग्राम पंचायत के अलावा गाँव में हर जाति की अपनी ताकतवर पंचायत होती थी ।
ग्रामीण दस्तकार : –
🔹 अंग्रेजी शासनकाल के आरम्भिक वर्षों में किए गए गाँवों के सर्वेक्षण में उल्लेख किया गया है कि गाँवों में दस्तकारों की बहुलता थी। कहीं-कहीं तो कुल घरों के 25 प्रतिशत घर दस्तकारों के थे।
🔸ग्रामीण दस्तकार के कार्य : – कभी-कभी किसानों और दस्ताकारों के बीच फ़र्क करना मुश्किल होता था क्योंकि कई ऐसे समूह थे जो दोनों किस्म के काम करते थे। खेतिहर समूह के लोग भी दस्तकारी के कार्यों से जुड़े हुए थे; जैसे खेती के औजार बनाना या मरम्मत करना, रंगरेजी, कपड़े पर छपाई, मिट्टी के बर्तनों को पकाना आदि।
🔸ग्रामीण दस्तकार की सेवाओं की अदायगी : – गाँव के लोग कुम्हार, लोहार, बढ़ई, नाई व सुनार जैसे ग्रामीण दस्तकारों की सेवाओं की अदायगी फसल का एक हिस्सा या गाँव की जमीन का एक टुकड़ा (जो खेती योग्य होने के बाद भी बेकार पड़ा रहता था ) देकर करते थे। महाराष्ट्र में इस तरह की जमीन दस्तकारों की ‘मीरास’ या ‘वतन’ बन गई, जिस पर उनका पुश्तैनी अधिकार होता था ।
जजमानी : –
🔹 18वीं सदी के स्त्रोत बताते हैं कि बंगाल में जमींदार, लुहार, बढ़ई, सुनारों आदि को उनकी सेवा के बदले रोज का भत्ता और खाने के लिए नकदी देते थे। इस व्यवस्था को जजमानी कहते थे।
एक “छोटा गणराज्य ” : –
🔹 19वीं सदी के कुछ अंग्रेज अधिकारियों ने भारतीय गाँवों को एक ऐसे छोटे गणराज्य के रूप में देखा ; जहाँ लोग सामूहिक स्तर पर भाईचारे के साथ संसाधनों एवं श्रम का बँटवारा करते थे लेकिन ऐसा नहीं लगता कि गाँव में सामाजिक बराबरी थी। संपत्ति की व्यक्तिगत मिल्कियत होती थी, साथ ही जाति और जेंडर (सामाजिक लिंग) के नाम पर समाज में गहरी विषमताएँ थीं। कुछ ताकतवर लोग गाँव के मसलों पर फ़ैसले लेते थे और कमज़ोर वर्गों का शोषण करते थे। न्याय करने का अधिकार भी उन्हीं को मिला हुआ था।
🔹 गाँवों और शहरों के बीच होने वाले व्यापार की वजह से गाँवों में भी नकद के रिश्ते फैल चुके थे। मुगलों के केन्द्रीय क्षेत्रों में कर की वसूली एवं व्यापारिक फसलों जैसे कपास, रेशम, व नील आदि पैदा करने वालों का भुगतान भी नकदी में ही होता था ।
गाँव में मुद्रा : –
🔹 सत्रहवीं सदी में फ्रांसीसी यात्री ज्यां बैप्टिस्ट तैवर्नियर को यह बात उल्लेखनीय लगी कि “ भारत में वे गाँव बहुत ही 44 छोटे कहे जाएँगे जिनमें मुद्रा की फेर बदल करने वाले, जिन्हें सराफ़ कहते हैं, न हों। एक बैंकर की तरह सराफ़ हवाला भुगतान करते हैं (और) अपनी मर्ज़ी के मुताबिक पैसे के मुकाबले रुपये की कीमत बढ़ा देते हैं और कौड़ियों के मुकाबले पैसे की।
कृषि समाज में महिलाएँ की भूमिका : –
🔹उत्पादन की प्रक्रिया में मर्द और महिलाएँ खास किस्म की भूमिकाएँ अदा करते हैं। कृषि कार्य में पुरुष और महिलाओं की बराबर की भागीदारी थी। पुरुष खेत जोतने तथा हल चलाने का कार्य करते थे तथा महिलाएँ बुआई, निराई-गुड़ाई, कटाई एवं पकी फसल का दाना निकालने जैसे विभिन्न कार्य करती थीं।
🔹 इसी प्रकार दस्तकारी के कार्य; जैसे- सूत कातना, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी साफ करना व गूंथना तथा कपड़ों पर कढ़ाई का कार्य भी महिलाओं द्वारा सम्पन्न किए जाते थे। किसी वस्तु का जितना अधिक वाणिज्यीकरण होता था उसके उत्पादन के लिए महिलाओं के श्रम की माँग उतनी ही अधिक होती थी।
🔹 समाज श्रम आधारित था इसलिए किसान और दस्तकार समाज में (बच्चे पैदा करने के विशेष गुण के कारण) महिलाओं को एक महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था।
महिलाओं की कमी : –
🔹 कुपोषण, बार-बार माँ बनने एवं प्रसव के दौरान मृत्यु हो जाने के कारण समाज में महिलाओं की मृत्यु-दर बहत अधिक थी। इससे किसान और दस्तकारी समाज में सम्भ्रांत समूह के विपरीत ऐसे रिवाज उत्पन्न हुए; जहाँ कई ग्रामीण समुदायों में शादी के लिए दहेज के स्थान पर उलटे ‘दुलहन की कीमत अदा करनी पड़ती थी। तलाकशुदा महिलाएँ व विधवाएँ दोनों ही पुनः कानूनन विवाह कर सकती थीं।
गलत रास्ते पर चलने पर महिलाएं एवं पुरुष को दंडित करना : –
🔹 प्रचलित रीति-रिवाजों के अनुसार घर का मुखिया पुरुष होता था जिससे महिलाओं पर घर-परिवार एवं समुदाय के पुरुषों का नियन्त्रण बना रहता था। किसी महिला के गलत रास्ते पर चलने का सन्देह होने पर उसे कड़ा दण्ड दिया जाता था ।
🔹 राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के हिस्सों में मिले दस्तावेजों में मिली कुछ दरख्वास्तों से पता चलता है कि पत्नियाँ अपने पतियों की बेवफाई का विरोध करती थीं या वे घर के मर्दों पर पत्नी व बच्चों की अनदेखी का आरोप लगाती थीं। ये दरख्वास्त महिलाओं ने न्याय तथा मुआवजे की आशा से ग्राम पंचायत को भेजी थीं।
🔹 अधिकांशतः पंचायत को दरख्वास्त भेजने वाली महिलाओं के नाम दस्तावेजों में दर्ज नहीं किए जाते थे। उनका हवाला घर के मद्र / मुखिया की माँ, बहन या पत्नी के रूप में दिया जाता था।
महिलाओं का संपति पर अधिकार : –
🔹 महिलाओं को पुश्तैनी सम्पत्ति का हक (जैसे- भूमिहर भद्रजनों में) मिला हुआ था। हिन्दू व मुसलमान महिलाओं को जमींदारी उत्तराधिकार में मिलती थी। वे इस जमीन को बेचने अथवा गिरवी रखने को स्वतन्त्र थीं। बंगाल में भी महिला जमींदार मिलती थीं।
मुगल काल में कृषि समाज में महिलाओं की भूमिका ( in short points ) : –
- पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर खेतों में काम करती थीं। बुआई, निराई, कटाई के साथ-साथ पकी फसल से दाना निकालना ।
- महिलाओं की जैव वैज्ञानिक क्रियाओं को लेकर लोगों के मन में पूर्वाग्रह ।
- सूत कातना, बर्तन बनाने के लिए मिट्टी को गूंथने, कपड़ों पर कढ़ाई तथा दस्तकारी जैसे काम महिलाएँ ही करती थीं ।
- महिलाओं को महत्त्वपूर्ण संसाधन के रूप में देखा जाता था ।
- महिलाओं की मृत्युदर बहुत थी ।
- दरअसल किसान और दस्तकार महिलाएँ जरूरत पड़ने पर न सिर्फ खेतों में काम करती थीं बल्कि नियोक्ताओं के घरों पर भी जाती थीं और बाजारों में भी ।
- परिवार तथा समुदाय द्वारा महिलाओं पर पुरजोर काबू रखा जाता था ।
- राजस्थान, गुजरात तथा महाराष्ट्र आदि पश्चिमी भारत के इलाकों में महिलाएँ न्याय तथा मुआवजे की उम्मीद से पंचायत को अर्जियाँ देती थी ।
- भूमिहर भद्रजनों में महिलाओं के पुश्तैनी सम्पत्ति का हक मिला । उदाहरण – पंजाब में महिलाएँ पुश्तैनी जमीन की विक्रेता के रूप में।