Class 12 history chapter 6 notes in hindi, भक्ति सूफी परंपरा notes

भक्ति सूफी परंपरा Notes: Class 12 history chapter 6 notes in hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 6
Chapter Nameभक्ति सूफी परंपरा
CategoryClass 12 History
MediumHindi

Class 12 history chapter 6 notes in hindi, भक्ति सूफी परंपरा notes इस अध्याय मे हम भक्ति आंदोलन और सूफी आंदोलन इनके बारे में जानेंगे ।

आठवीं से अठारहवीं शताब्दी : –

🔹 आठवीं से अठारहवीं शताब्दी तक नवीन साहित्यिक रचनाओं में सन्त कवियों की रचनाएँ प्रमुख हैं जिनमें उन्होंने जनसाधारण की भाषाओं में मौखिक रूप से अपने को अभिव्यक्त किया है। इनके साहित्यिक साक्ष्य अल्प मात्रा में प्राप्त होते हैं।

🔹 आठवीं से अठारहवीं सदी के इस काल की सबसे प्रभावी विशिष्टता यह है कि साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही अनेक तरह के देवी-देवता अधिकाधिक दृष्टिगत होते हैं। इस काल में भगवान विष्णु, भगवान शिव और देवी की आराधना प्रमुख रूप से की जाती थी। इन्हें अनेक रूपों में दर्शाया गया तथा इनकी आराधना की प्रथा न केवल कायम रही बल्कि और अधिक विस्तृत हो गई।

पूजा प्रणाली : –

  • इतिहासकारों ने पूजा प्रणाली के समन्वय के संबंध में दो प्रक्रियाओं का वर्णन किया है।

🔸 पहली प्रक्रिया ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार से संबंधित थी; इसका प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में थे जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों और शूद्रों द्वारा भी ग्राह्य थे।

🔸 इस काल की दूसरी प्रक्रिया में स्त्रियों, शूद्रों और अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृति प्रदान कर उन्हें एक नये रूप में प्रस्तुत किया गया।

अनेक धार्मिक विचारधाराएं : –

🔹 समाजशास्त्रियों ने सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हुई अनेक धार्मिक विचारधाराओं और पद्धतियों को महान संस्कृत पौराणिक परिपाटी एवं लघु परम्परा के बीच हुए पारस्परिक संवाद का परिणाम बताया है।

🔹 इस प्रक्रिया का सबसे विशिष्ट उदाहरण पुरी, उड़ीसा में मिलता है जहाँ मुख्य देवता को बारहवीं शताब्दी तक आते-आते जगन्नाथ विष्णु के एक स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया। जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ हैसम्पूर्ण विश्व का स्वामी।

“महान” और “लघु” परंपराएँ : –

🔹 20वीं शताब्दी के समाजशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड ने एक कृषक समाज के सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने हेतु ‘महान’ तथा ‘लघु’ जैसे शब्द मुद्रित किए।

🔸 महान परम्परा : – राबर्ट रेडफील्ड ने देखा कि कृषक समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग जैसे- पुरोहित तथा राजा द्वारा पालन किए जाने वाले कर्मकांडों तथा पद्धतियों का अनुसरण करते थे। उन्होंने इन कर्मकांडों को ‘महान परम्परा’ की संज्ञा दी।

🔸 लघु परम्परा : – इसके अतिरिक्त कृषक समुदाय इन महान परम्पराओं से एकदम अलग अन्य लोकाचारों का भी पालन करता था, जिन्हें उन्होंने ‘लघु परम्परा’ की संज्ञा दी।

तान्त्रिक पूजा पद्धति : –

🔹 भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में देवी की आराधना तान्त्रिक पूजा पद्धति के रूप में प्रचलित थी, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही भाग लेते थे। तान्त्रिक पूजा पद्धति के विचारों ने शैव और बौद्ध दर्शन को भी प्रभावित किया; विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी, उत्तरी तथा दक्षिणी भागों में आगामी सहस्राब्दि में इन सभी विश्वासों और आचारों का वर्गीकरण ‘हिन्दू’ के रूप में किया गया।

भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति : –

🔹 भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति अत्यन्त प्राचीन है। आठवीं से अठारहवीं शताब्दी के काल से भी लगभग एक हजार वर्ष पूर्व इस पद्धति की परम्परा प्रचलित रही है। वैष्णव व शैव सम्प्रदायों में भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति की परिपाटी प्रमुख रूप से प्रचलन में थी।

धार्मिक विश्वासों और आचरणों में भेद और संघर्ष : –

🔹 वैदिक देवकुल के देवता; जैसे- अग्नि, इन्द्र तथा सोम पूर्णतः गौण हो गए तथा उनका निरूपण साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही नहीं दिखता। हालाँकि असंगतियों के बाद भी वेदों की प्रामाणिकता बनी रही।

🔹 हिन्दू के रूप में वर्गीकरण के पश्चात् भी कभी-कभी आपस में विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी क्योंकि वैदिक परम्पराओं और तान्त्रिक पद्धति में मूलभूत अन्तर था। तान्त्रिक पद्धति के लोग वैदिक परम्पराओं को स्वीकार नहीं करते थे इसलिए वैदिक परम्परा के लोग उनके मंत्रोच्चारण और यज्ञविहीन आराधना की निन्दा करते थे।

प्रारंभिक भक्ति परंपरा : –

🔹 धीरे-धीरे आराधना के क्रमिक तरीकों के विकास के साथ सन्त कवियों को गुरु के रूप में पूजा जाने लगा जिनके साथ भक्तों का एक पूरा समुदाय रहता था ।

🔹 इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो भागों में विभाजित करते : – सगुण (विशेषण सहित) और निर्गुण (विशेषण विहीन )

  • प्रथम वर्ग में शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व देवियों की आराधना आती है, जिनकी मूर्त रूप में अवधारणा हुई।
  • निर्गुण भक्ति परंपरा में अमूर्त, निराकार ईश्वर की उपासना की जाती थी ।

प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन : –

🔹 प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन लगभग छठी शताब्दी ई. में अलवार एवं नयनार सन्तों के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ जिनमें अलवारों के आराध्य विष्णु एवं नयनारों के आराध्य शिव थे। इन सन्तों ने अपने-अपने इष्टदेव की स्तुति तमिल भाषा में भजन गाकर की।

🔹अपनी यात्राओं के दौरान अलवार एवं नयनार सन्तों ने कुछ पवित्र स्थलों को अपने इष्टदेव का निवास स्थल घोषित किया। धीरे-धीरे इन स्थानों पर विशाल मन्दिर का निमार्ण किया गया और वे तीर्थ स्थल बन गए। इन मन्दिरों में अनुष्ठानों के समय सन्त कवियों के भजनों को गाया जाता था । साथ ही इन सन्तों की मूर्ति को भी पूजा जाता था।

जाति के प्रति दृष्टिकोण : –

🔹 कुछ इतिहासकारों के अनुसार अलवार और नयनार सन्तों ने जाति प्रथा एवं ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध आवाज उठायी।

🔹 अलवार तथा नयनार सन्तों की रचनाओं को वेदों के समान महत्त्वपूर्ण बताकर इस परम्परा को सम्मानित किया गया। अलवार सन्तों के एक प्रमुख ग्रन्थ ‘नलयिरादिव्यप्रबंधम्’ का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस तरह इस ग्रंथ का महत्व संस्कृत के चारों वेदों जितना बताया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे।

भक्ति परंपरा में स्त्रियों का योगदान : –

🔸 मीराबाई : – (सगुण भक्ति शाखा की कवयित्री) कृष्ण भक्ति में लीन मेबाड़ की रानी ( 15वीं तथा 16वीं शताब्दी) पति का राजमहल तथा ऐश्वर्य को त्याग कर वह कृष्ण भक्ति में लीन हो गई।

🔸 अंडाल : – विष्णु की प्रियसी तथा प्रेम भावनाओं को छंदों में व्यक्त करने वाली एक अलवार स्त्री भक्त थीं।

🔸 करइक्कल अम्मिसर : – नयनार स्त्री भक्त (शिव की उपासक ), घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। सामाजिक कर्त्तव्यों का परित्याग किया।

🔹 इन सभी स्त्री भक्तों ने अपनी जीवन पद्धति तथा रचनाओं द्वारा पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी ।

स्त्री भक्त : –

🔹 अलवार व नयनार भक्ति परम्परा की सबसे बड़ी विविधता इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी। ‘अंडाल’ नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत बहुत ही प्रसिद्ध हैं, जिनमें वह स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेम-भावना को छन्दों में व्यक्त करती थी।

🔹 एक और स्त्री शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार ने अपने उद्देश्य प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। नयनार परंपरा में उसकी रचनाओं को सुरक्षित किया गया। हालाँकि इन स्त्रियों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग किया। वह किसी वैकल्पिक व्यवस्था अथवा भिक्षुणी समुदाय की सदस्या नहीं बनीं। इन स्त्रियों की जीवन पद्धति और इनकी रचनाओं ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी।

भक्ति साहित्य का संकलन : –

🔹 दसवीं शताब्दी तक आते-आते बारह अलवारों की रचनाओं का एक संकलन कर लिया गया जो नलयिरादिव्यप्रबंधम् (” चार हज़ार पावन रचनाएँ”) के नाम से जाना जाता है। दसवीं शताब्दी में ही अप्पार संबंदर और सुंदरार की कविताएँ तवरम नामक संकलन में रखी गईं जिसमें कविताओं का संगीत के आधार पर वर्गीकरण हुआ ।

प्रारंभिक भक्ति आन्दोलन ( in short ) : –

🔹 प्रारंभिक भक्ति आन्दोलन (लगभग छठी शताब्दी) अलवारों (विष्णु भक्त) और नयनारों (शिवभक्त) के नेतृत्व में हुआ। इन्होंने जाति प्रथा और ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई। इन्होंने स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। अंडाल एक स्त्री अलवार संत थी तथा अम्मइयार करइक्काल एक नयनार स्त्री संत थी ।

भक्ति आंदोलन का उद्देश्य : –

🔹 भक्ति आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य असमानता, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े की भावना को समाप्त करना ।

धर्मों का राज्य के साथ संबंध : –

🔹 तमिल क्षेत्र में प्रथम सहस्राब्दि के उत्तरार्ध में पल्लव एवं पांड्य जैसे राज्यों का उद्भव तथा विकास हुआ। इस क्षेत्र में कई शताब्दियों से मौजूद बौद्ध तथा जैन धर्म को व्यापारी एवं शिल्पी वर्ग का प्रश्रय मिला हुआ था। इन धर्मों को यदा-कदा ही राजकीय संरक्षण तथा अनुदान प्राप्त होता था ।

🔹 तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्ध व जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है नयनार सन्तों की रचनाओं में विशेष रूप से दिखाई देता है। इतिहासकार इस विरोध का कारण राजकीय अनुदान प्राप्त करने हेतु प्रतिस्पर्धा की भावना को बताते हैं।

चोल शासकों का भक्ति के साथ सम्बंध : –

  • शक्तिशाली चोल (9वीं से 13वीं शताब्दी) शासकों ने ब्राह्मणीय एवं भक्ति परम्परा को समर्थन दिया।
  • उन्होंने विष्णु व शिव के मन्दिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिए।
  • चिदम्बरम, तंजावुर और गंगैकोंडचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल सम्राटों की मदद से ही निर्मित हुए। इस काल में शिव की कांस्य मूर्तियों का भी निर्माण हुआ ।
  • चोल सम्राट दैवीय समर्थन पाने का दावा करते थे वे पत्थर तथा धातु से बनी मूर्तियों से सुसज्जित मन्दिरों का निर्माण कराकर अपनी सत्ता का प्रदर्शन करते थे।
  • चोल सम्राटों ने इन मन्दिरों में तमिल भाषा के शैव भजनों के गायन का प्रचलन करवाया तथा इन भजनों को एक ग्रन्थ (तवरम) के रूप में संकलित करवाने की जिम्मेदारी ली।
  • चोल सम्राट परांतक प्रथम द्वारा एक शिव मन्दिर में सन्त कवि अप्पार संबंदर तथा सुंदरार की धातु प्रतिमाएं स्थापित करवाने की जानकारी 945 ई. के एक अभिलेख में मिलती है।

कर्नाटक की वीरशैव परंपरा : –

🔹 बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नवीन आंदोलन का उद्भव हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना ( 1106 – 68 ) नामक एक ब्राह्मण ने किया। बासवन्ना कलाचुरी राजा के दरबार में मंत्री थे। इनके अनुयायी वीरशैव ( शिव के वीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए।

लिंगायत समुदाय : –

🔹 आज भी लिंगायत समुदाय का इस क्षेत्र में महत्त्व है। वे शिव की आराधना लिंग के रूप में करते हैं। इस समुदाय के पुरुष वाम स्कंध पर चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं। जिन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है उनमें जंगम अर्थात यायावर भिक्षु शामिल हैं।

जाति प्रथा के विशेष संदर्भ में सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में लिंगायत समुदाय का योगदान : –

  • लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्योपरांत भक्त शिव में लीन हो जाएँगे तथा इस संसार में पुनः नहीं लौटेंगे।
  • धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार का वे पालन नहीं करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं।
  • लिंगायतों ने जाति प्रथा व छुआछूत का विरोध किया, पुनर्जन्म के सिद्धांत पर भी उन्होंने प्रश्नवाचक चिह्न लगाया।
  • इन सब कारणों से ब्राह्मणीय सामाजिक व्यवस्था में जिन समुदायों को गौण स्थान मिला था वे लिंगायतों के अनुयायी हो गए।
  • धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था जैसे वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, लिंगायतों ने उन्हें मान्यता प्रदान की।

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