Class 12 history chapter 6 notes in hindi, भक्ति सूफी परंपरा नोट्स

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Class 12 History Chapter 6 भक्ति सूफी परंपरा Notes In Hindi

TextbookNCERT
ClassClass 12
SubjectHistory
ChapterChapter 6
Chapter Nameभक्ति सूफी परंपरा
CategoryClass 12 History
MediumHindi

Class 12 History Chapter 6 भक्ति सूफी परंपरा Notes In Hindi इस अध्याय मे हम भक्ति आंदोलन और सूफी आंदोलन इनके बारे में जानेंगे ।

आठवीं से अठारहवीं शताब्दी : –

🔹 आठवीं से अठारहवीं शताब्दी तक नवीन साहित्यिक रचनाओं में सन्त कवियों की रचनाएँ प्रमुख हैं जिनमें उन्होंने जनसाधारण की भाषाओं में मौखिक रूप से अपने को अभिव्यक्त किया है। इनके साहित्यिक साक्ष्य अल्प मात्रा में प्राप्त होते हैं।

🔹 आठवीं से अठारहवीं सदी के इस काल की सबसे प्रभावी विशिष्टता यह है कि साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही अनेक तरह के देवी-देवता अधिकाधिक दृष्टिगत होते हैं। इस काल में भगवान विष्णु, भगवान शिव और देवी की आराधना प्रमुख रूप से की जाती थी। इन्हें अनेक रूपों में दर्शाया गया तथा इनकी आराधना की प्रथा न केवल कायम रही बल्कि और अधिक विस्तृत हो गई।

पूजा प्रणाली : –

🔹 इतिहासकारों ने पूजा प्रणाली के समन्वय के संबंध में दो प्रक्रियाओं का वर्णन किया है।

  • पहली प्रक्रिया ब्राह्मणवादी विचारधारा के प्रचार-प्रसार से संबंधित थी; इसका प्रसार पौराणिक ग्रंथों की रचना, संकलन और परिरक्षण द्वारा हुआ। ये ग्रंथ सरल संस्कृत छंदों में थे जो वैदिक विद्या से विहीन स्त्रियों और शूद्रों द्वारा भी ग्राह्य थे।
  • इस काल की दूसरी प्रक्रिया में स्त्रियों, शूद्रों और अन्य सामाजिक वर्गों की आस्थाओं एवं आचरणों को ब्राह्मणों द्वारा स्वीकृति प्रदान कर उन्हें एक नये रूप में प्रस्तुत किया गया।

अनेक धार्मिक विचारधाराएं : –

🔹 समाजशास्त्रियों ने सम्पूर्ण भारतीय उपमहाद्वीप में फैली हुई अनेक धार्मिक विचारधाराओं और पद्धतियों को महान संस्कृत पौराणिक परिपाटी एवं लघु परम्परा के बीच हुए पारस्परिक संवाद का परिणाम बताया है।

🔹 इस प्रक्रिया का सबसे विशिष्ट उदाहरण पुरी, उड़ीसा में मिलता है जहाँ मुख्य देवता को बारहवीं शताब्दी तक आते-आते जगन्नाथ विष्णु के एक स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया। जगन्नाथ का शाब्दिक अर्थ हैसम्पूर्ण विश्व का स्वामी।

“महान” और “लघु” परंपराएँ : –

🔹 20वीं शताब्दी के समाजशास्त्री राबर्ट रेडफील्ड ने एक कृषक समाज के सांस्कृतिक आचरणों का वर्णन करने हेतु ‘महान’ तथा ‘लघु’ जैसे शब्द मुद्रित किए।

  • महान परम्परा : – राबर्ट रेडफील्ड ने देखा कि कृषक समाज के प्रभुत्वशाली वर्ग जैसे- पुरोहित तथा राजा द्वारा पालन किए जाने वाले कर्मकांडों तथा पद्धतियों का अनुसरण करते थे। उन्होंने इन कर्मकांडों को ‘महान परम्परा’ की संज्ञा दी।
  • लघु परम्परा : – इसके अतिरिक्त कृषक समुदाय इन महान परम्पराओं से एकदम अलग अन्य लोकाचारों का भी पालन करता था, जिन्हें उन्होंने ‘लघु परम्परा’ की संज्ञा दी।

तान्त्रिक पूजा पद्धति : –

🔹 भारतीय उपमहाद्वीप के कई भागों में देवी की आराधना तान्त्रिक पूजा पद्धति के रूप में प्रचलित थी, जिसमें स्त्री और पुरुष दोनों ही भाग लेते थे। तान्त्रिक पूजा पद्धति के विचारों ने शैव और बौद्ध दर्शन को भी प्रभावित किया; विशेष रूप से भारतीय उपमहाद्वीप के पूर्वी, उत्तरी तथा दक्षिणी भागों में आगामी सहस्राब्दि में इन सभी विश्वासों और आचारों का वर्गीकरण ‘हिन्दू’ के रूप में किया गया।

भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति : –

🔹 भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति अत्यन्त प्राचीन है। आठवीं से अठारहवीं शताब्दी के काल से भी लगभग एक हजार वर्ष पूर्व इस पद्धति की परम्परा प्रचलित रही है। वैष्णव व शैव सम्प्रदायों में भक्तिपूर्ण उपासना पद्धति की परिपाटी प्रमुख रूप से प्रचलन में थी।

धार्मिक विश्वासों और आचरणों में भेद और संघर्ष : –

🔹 वैदिक देवकुल के देवता; जैसे- अग्नि, इन्द्र तथा सोम पूर्णतः गौण हो गए तथा उनका निरूपण साहित्य और मूर्तिकला दोनों में ही नहीं दिखता। हालाँकि असंगतियों के बाद भी वेदों की प्रामाणिकता बनी रही।

🔹 हिन्दू के रूप में वर्गीकरण के पश्चात् भी कभी-कभी आपस में विवाद की स्थिति उत्पन्न हो जाती थी क्योंकि वैदिक परम्पराओं और तान्त्रिक पद्धति में मूलभूत अन्तर था। तान्त्रिक पद्धति के लोग वैदिक परम्पराओं को स्वीकार नहीं करते थे इसलिए वैदिक परम्परा के लोग उनके मंत्रोच्चारण और यज्ञविहीन आराधना की निन्दा करते थे।

प्रारंभिक भक्ति परंपरा : –

🔹 धीरे-धीरे आराधना के क्रमिक तरीकों के विकास के साथ सन्त कवियों को गुरु के रूप में पूजा जाने लगा जिनके साथ भक्तों का एक पूरा समुदाय रहता था ।

🔹 इतिहासकार भक्ति परम्परा को दो भागों में विभाजित करते : – सगुण (विशेषण सहित) और निर्गुण (विशेषण विहीन )

  • प्रथम वर्ग में शिव, विष्णु तथा उनके अवतार व देवियों की आराधना आती है, जिनकी मूर्त रूप में अवधारणा हुई।
  • निर्गुण भक्ति परंपरा में अमूर्त, निराकार ईश्वर की उपासना की जाती थी ।

प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन : –

🔹 प्रारम्भिक भक्ति आन्दोलन लगभग छठी शताब्दी ई. में अलवार एवं नयनार सन्तों के नेतृत्व में प्रारम्भ हुआ जिनमें अलवारों के आराध्य विष्णु एवं नयनारों के आराध्य शिव थे। इन सन्तों ने अपने-अपने इष्टदेव की स्तुति तमिल भाषा में भजन गाकर की।

🔹अपनी यात्राओं के दौरान अलवार एवं नयनार सन्तों ने कुछ पवित्र स्थलों को अपने इष्टदेव का निवास स्थल घोषित किया। धीरे-धीरे इन स्थानों पर विशाल मन्दिर का निमार्ण किया गया और वे तीर्थ स्थल बन गए। इन मन्दिरों में अनुष्ठानों के समय सन्त कवियों के भजनों को गाया जाता था । साथ ही इन सन्तों की मूर्ति को भी पूजा जाता था।

जाति के प्रति दृष्टिकोण : –

🔹 कुछ इतिहासकारों के अनुसार अलवार और नयनार सन्तों ने जाति प्रथा एवं ब्राह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध आवाज उठायी।

🔹 अलवार तथा नयनार सन्तों की रचनाओं को वेदों के समान महत्त्वपूर्ण बताकर इस परम्परा को सम्मानित किया गया। अलवार सन्तों के एक प्रमुख ग्रन्थ ‘नलयिरादिव्यप्रबंधम्’ का वर्णन तमिल वेद के रूप में किया जाता था। इस तरह इस ग्रंथ का महत्व संस्कृत के चारों वेदों जितना बताया गया जो ब्राह्मणों द्वारा पोषित थे।

भक्ति परंपरा में स्त्रियों का योगदान : –

🔸 मीराबाई : – (सगुण भक्ति शाखा की कवयित्री) कृष्ण भक्ति में लीन मेबाड़ की रानी ( 15वीं तथा 16वीं शताब्दी) पति का राजमहल तथा ऐश्वर्य को त्याग कर वह कृष्ण भक्ति में लीन हो गई।

🔸 अंडाल : – विष्णु की प्रियसी तथा प्रेम भावनाओं को छंदों में व्यक्त करने वाली एक अलवार स्त्री भक्त थीं।

🔸 करइक्कल अम्मिसर : – नयनार स्त्री भक्त (शिव की उपासक ), घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। सामाजिक कर्त्तव्यों का परित्याग किया।

🔹 इन सभी स्त्री भक्तों ने अपनी जीवन पद्धति तथा रचनाओं द्वारा पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी ।

स्त्री भक्त : –

🔹 अलवार व नयनार भक्ति परम्परा की सबसे बड़ी विविधता इसमें स्त्रियों की उपस्थिति थी। ‘अंडाल’ नामक अलवार स्त्री के भक्ति गीत बहुत ही प्रसिद्ध हैं, जिनमें वह स्वयं को विष्णु की प्रेयसी मानकर अपनी प्रेम-भावना को छन्दों में व्यक्त करती थी।

🔹 एक और स्त्री शिवभक्त करइक्काल अम्मइयार ने अपने उद्देश्य प्राप्ति हेतु घोर तपस्या का मार्ग अपनाया। नयनार परंपरा में उसकी रचनाओं को सुरक्षित किया गया। हालाँकि इन स्त्रियों ने अपने सामाजिक कर्तव्यों का परित्याग किया। वह किसी वैकल्पिक व्यवस्था अथवा भिक्षुणी समुदाय की सदस्या नहीं बनीं। इन स्त्रियों की जीवन पद्धति और इनकी रचनाओं ने पितृसत्तात्मक आदर्शों को चुनौती दी।

भक्ति साहित्य का संकलन : –

🔹 दसवीं शताब्दी तक आते-आते बारह अलवारों की रचनाओं का एक संकलन कर लिया गया जो नलयिरादिव्यप्रबंधम् (” चार हज़ार पावन रचनाएँ”) के नाम से जाना जाता है। दसवीं शताब्दी में ही अप्पार संबंदर और सुंदरार की कविताएँ तवरम नामक संकलन में रखी गईं जिसमें कविताओं का संगीत के आधार पर वर्गीकरण हुआ ।

प्रारंभिक भक्ति आन्दोलन ( in short ) : –

🔹 प्रारंभिक भक्ति आन्दोलन (लगभग छठी शताब्दी) अलवारों (विष्णु भक्त) और नयनारों (शिवभक्त) के नेतृत्व में हुआ। इन्होंने जाति प्रथा और ब्राह्मणों की प्रभुता के विरोध में आवाज उठाई। इन्होंने स्त्रियों को महत्वपूर्ण स्थान प्रदान किया। अंडाल एक स्त्री अलवार संत थी तथा अम्मइयार करइक्काल एक नयनार स्त्री संत थी ।

भक्ति आंदोलन का उद्देश्य : –

🔹 भक्ति आंदोलन का प्रमुख उद्देश्य असमानता, ऊँच-नीच, अमीर-गरीब, छोटे-बड़े की भावना को समाप्त करना ।

धर्मों का राज्य के साथ संबंध : –

🔹 तमिल क्षेत्र में प्रथम सहस्राब्दि के उत्तरार्ध में पल्लव एवं पांड्य जैसे राज्यों का उद्भव तथा विकास हुआ। इस क्षेत्र में कई शताब्दियों से मौजूद बौद्ध तथा जैन धर्म को व्यापारी एवं शिल्पी वर्ग का प्रश्रय मिला हुआ था। इन धर्मों को यदा-कदा ही राजकीय संरक्षण तथा अनुदान प्राप्त होता था ।

🔹 तमिल भक्ति रचनाओं की एक मुख्य विषयवस्तु बौद्ध व जैन धर्म के प्रति उनका विरोध है नयनार सन्तों की रचनाओं में विशेष रूप से दिखाई देता है। इतिहासकार इस विरोध का कारण राजकीय अनुदान प्राप्त करने हेतु प्रतिस्पर्धा की भावना को बताते हैं।

चोल शासकों का भक्ति के साथ सम्बंध : –

  • शक्तिशाली चोल (9वीं से 13वीं शताब्दी) शासकों ने ब्राह्मणीय एवं भक्ति परम्परा को समर्थन दिया।
  • उन्होंने विष्णु व शिव के मन्दिरों के निर्माण के लिए भूमि अनुदान दिए।
  • चिदम्बरम, तंजावुर और गंगैकोंडचोलपुरम के विशाल शिव मंदिर चोल सम्राटों की मदद से ही निर्मित हुए। इस काल में शिव की कांस्य मूर्तियों का भी निर्माण हुआ ।
  • चोल सम्राट दैवीय समर्थन पाने का दावा करते थे वे पत्थर तथा धातु से बनी मूर्तियों से सुसज्जित मन्दिरों का निर्माण कराकर अपनी सत्ता का प्रदर्शन करते थे।
  • चोल सम्राटों ने इन मन्दिरों में तमिल भाषा के शैव भजनों के गायन का प्रचलन करवाया तथा इन भजनों को एक ग्रन्थ (तवरम) के रूप में संकलित करवाने की जिम्मेदारी ली।
  • चोल सम्राट परांतक प्रथम द्वारा एक शिव मन्दिर में सन्त कवि अप्पार संबंदर तथा सुंदरार की धातु प्रतिमाएं स्थापित करवाने की जानकारी 945 ई. के एक अभिलेख में मिलती है।

कर्नाटक की वीरशैव परंपरा : –

🔹 बारहवीं शताब्दी में कर्नाटक में एक नवीन आंदोलन का उद्भव हुआ जिसका नेतृत्व बासवन्ना ( 1106 – 68 ) नामक एक ब्राह्मण ने किया। बासवन्ना कलाचुरी राजा के दरबार में मंत्री थे। इनके अनुयायी वीरशैव ( शिव के वीर) व लिंगायत (लिंग धारण करने वाले) कहलाए।

लिंगायत समुदाय : –

🔹 आज भी लिंगायत समुदाय का इस क्षेत्र में महत्त्व है। वे शिव की आराधना लिंग के रूप में करते हैं। इस समुदाय के पुरुष वाम स्कंध पर चाँदी के एक पिटारे में एक लघु लिंग को धारण करते हैं। जिन्हें श्रद्धा की दृष्टि से देखा जाता है उनमें जंगम अर्थात यायावर भिक्षु शामिल हैं।

जाति प्रथा के विशेष संदर्भ में सामाजिक और धार्मिक क्षेत्र में लिंगायत समुदाय का योगदान : –

  • लिंगायतों का विश्वास है कि मृत्योपरांत भक्त शिव में लीन हो जाएँगे तथा इस संसार में पुनः नहीं लौटेंगे।
  • धर्मशास्त्र में बताए गए श्राद्ध संस्कार का वे पालन नहीं करते और अपने मृतकों को विधिपूर्वक दफनाते हैं।
  • लिंगायतों ने जाति प्रथा व छुआछूत का विरोध किया, पुनर्जन्म के सिद्धांत पर भी उन्होंने प्रश्नवाचक चिह्न लगाया।
  • इन सब कारणों से ब्राह्मणीय सामाजिक व्यवस्था में जिन समुदायों को गौण स्थान मिला था वे लिंगायतों के अनुयायी हो गए।
  • धर्मशास्त्रों में जिन आचारों को अस्वीकार किया गया था जैसे वयस्क विवाह और विधवा पुनर्विवाह, लिंगायतों ने उन्हें मान्यता प्रदान की।

उत्तरी भारत में धार्मिक उफान : –

🔹 इतिहासकारों को 14वीं शताब्दी तक अलवार तथा नयनार सन्तों की रचनाओं जैसा कोई ग्रन्थ उत्तरी भारत से प्राप्त नहीं हुआ है। इतिहासकारों का मत है कि उत्तरी भारत में राजपूत राजाओं का प्रभुत्व था। राजपूतों द्वारा शासित राज्यों में ब्राह्मणों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था जिस कारण उनकी प्रभुसत्ता को किसी ने भी सीधे चुनौती नहीं दी।

🔹 इसी समय वे धार्मिक गुरु, जो ब्राह्मणवादी साँचे से बाहर थे, नाथ, जोगी और सिद्ध सम्प्रदायों के रूप में उभरे। अनेक धार्मिक गुरुओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती दी और अपने विचार आम लोगों की भाषाओं में रखे ।

🔹 13वीं शताब्दी में तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की जिससे राजपूत राज्यों एवं उनसे जुड़े ब्राह्मणों का महत्त्व कम हो गया। इन परिवर्तनों का प्रभाव संस्कृति एवं धर्म पर भी पड़ा।

इस्लामी परंपराएँ : –

🔹 प्रथम सहस्राब्दि ईसवी से अरब व्यापारी समुद्री मार्ग से पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आते-जाते रहते थे। इसी समय मध्य एशिया से आकर लोग देश के उत्तरी- पश्चिमी प्रान्तों में बस गए। 7वीं शताब्दी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र उस संसार का हिस्सा बन गए जिसे अकसर इस्लामी विश्व कहा जाता है।

शासकों और शासितों के धार्मिक विश्वास : –

🔹 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम नामक एक अरब सेनापति ने सिन्ध पर विजय प्राप्त की और उसे खलीफा के क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया। लगभग 13वीं शताब्दी में तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी और धीरे-धीरे अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिणी क्षेत्रों तक कर लिया।

🔹 16वीं से 18वीं शताब्दी तक बहुत से क्षेत्रों में शासकों का स्वीकृत धर्म इस्लाम था । मुसलमान शासकों को उलेमाओं द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता था। शासकों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे उलेमा द्वारा बताये गए मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे।

🔹 भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिति जटिल थी, क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा भाग इस्लाम धर्म को नहीं मानता था, जिनमें यहूदी और ईसाई भी थे ।

🔹 वास्तव में शासक शासितों की तरफ़ काफ़ी लचीली नीति अपनाते थे। अनेक शासकों ने हिन्दू, जैन, पारसी, ईसाई तथा यहूदी धर्म संस्थाओं को भूमि अनुदान दिए व करों में छूट प्रदान की तथा उन्होंने अन्य धर्मों के नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव भी प्रकट किया। ऐसे अनुदान, अनेक मुगल बादशाहों जिनमें अकबर और औरंगज़ेब शामिल थे, द्वारा दिए गए।

जिम्मी : –

🔹 जिम्मी एक प्रकार से संरक्षित श्रेणी के लोग थे । जनसंख्या के बहुसंख्यक भाग के लोग इस्लाम धर्म के अनुयायी नहीं थे। इनमें यहूदी और ईसाई भी थे, जिन्हें जिम्मी (संरक्षित श्रेणी) कहा जाता था । इस्लामी शासक इनसे जजिया नामक कर लेकर इन्हें संरक्षण प्रदान करते थे । हिन्दुओं को भी इसी संरक्षित श्रेणी में रखा गया।

उलेमा : –

🔹 उलेमा, यानी आलिम का आशय होता है विद्वान । उलेमा, इस्लाम धर्म के विशेषज्ञ होते थे, इन्हें विशेष दर्जा प्राप्त होता था। यह मौलवी से ऊपर की पदवी है। उलेमाओं का कार्य शासकों को मार्गदर्शन देना होता था कि वे शासन में शरिया का पालन करवाए। काजी, न्यायाधीश आदि पदों पर इस्लाम धर्म के इन विद्वानों को नियुक्त किया जाता था ।

शरिया कानून : –

🔹 शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है। यह कुरान शरीफ़ और हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है पैगम्बर साहब से जुड़ी परंपराएँ जिनके अंतर्गत उनके स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी आते हैं।

🔹 जब अरब क्षेत्र से बाहर इस्लाम का प्रसार हुआ जहाँ के आचार-व्यवहार भिन्न थे तो क़ियास ( सदृशता के आधार पर तर्क) और इजमा (समुदाय की सहमति) को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। इस तरह शरिया, कुरान, हदीस, क्रियास और इजमा उद्भूत हुआ।

लोक प्रचलन में इस्लाम : –

🔹 इस्लाम के आगमन के बाद जो परिवर्तन हुए वे शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं थे, अपितु पूरे उपमहाद्वीप में दूरदराज़ तक और विभिन्न सामाजिक समुदायों – किसान, शिल्पी, योद्धा, व्यापारी के बीच फैल गए। जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया उन्होंने सैद्धांतिक रूप से इसकी पाँच मुख्य ‘बातें’ मानीं।

🔹 प्रायः साम्प्रदायिक (शिया व सुन्नी) कारणों तथा स्थानीय लोकाचारों के प्रभाव के कारणों से धर्मांतरित लोगों के व्यवहारों में भिन्नता देखी जा सकती थी; जैसे- कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए खोजा इस्माइली (शिया) समुदाय के लोगों ने देशी साहित्यिक विद्या का सहारा लिया। विभिन्न स्थानीय भाषाओं में ‘जीनन’ नाम से भक्ति गीतों को गाया जाता था, जो राग में निबद्ध थे ।

🔹 इसके अतिरिक्त मालाबार तट (केरल) के किनारे बसे अरब मुसलमान व्यापारियों ने स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाने के साथ-साथ ‘मातृकुलीयता’ एवं ‘मातगृहता’ जैसे स्थानीय आचारों को भी अपनाया।

इस्लाम धर्म की पाँच बाते : –

🔹 इस्लाम की पाँच प्रमुख बातें हैं, जिन्हें इस धर्म के सिद्धान्त भी कहा जा सकता है: ये हैं-

  • अल्लाह एकमात्र ईश्वर है; पैगम्बर मोहम्मद उनके दूत (शाहद) हैं।
  • दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ी जानी चाहिए।
  • खैरात ( ज़कात) बाँटनी चाहिए।
  • रमजान के महीने में रोज़ा रखना चाहिए।
  • हज के लिए मक्का जाना चाहिए।

समुदायों के नाम : –

🔹 प्रारम्भ में हिन्दू तथा मुसलमान जैसे सम्बोधनों का प्रचलन नहीं था। लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म-स्थान के आधार पर किया जाता था; जैसे-तुर्की मुसलमानों को ‘तुर्क’ (तुरुष्क) तथा तजाकिस्तान से आए लोगों को ‘ताजिक’ एवं फारस से आए लोगों को ‘फारसी’ कहा जाता था।

म्लेच्छ कौन थे ?

🔹 म्लेच्छ शब्द का प्रयोग प्रावासी समुदायों के लिए किया जाता था । यह नाम इस बात की ओर संकेत करता है कि ये वर्ण व्यवस्था के नियमों का पालन नहीं करते थे एवं ऐसी भाषाओं को बोलते थे जिनका उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ था।

सूफी कौन थे ?

🔹 इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोगों का झुकाव रहस्यवाद एवं वैराग्य की ओर बढ़ने लगा जिनको ‘सूफी’ कहा गया।

सूफी मत क्या है ?

🔹 इस्लाम की आरम्भिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोग रहस्वाद एवं वैराग्य की ओर आकर्षित हुए। इन्हें सूफी कहा जाने लगा। सूफी लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं एवं धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की।

🔹 सूफियों ने साधना में लीन होकर उससे प्राप्त अनुभवों के आधार पर कुरान की व्याख्या की, जिनके अनुसार उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को ‘इंसान-ए-कामिल’ बताते हुए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों का पालन करने पर बल दिया।

सूफीमत के प्रमुख सिद्धान्त : –

  • ऐकेश्वरवाद ।
  • आत्मा में विश्वास ।
  • अल्लाह ने जगत की सृष्टि की।
  • सभी जीवों में मानव श्रेष्ठ है।
  • रहस्यवाद एवं वैराग्य ।
  • गुरु अथवा पीर का महत्त्व ।
  • प्रेम साधना पर बल ।
  • परमात्पा (अल्लाह) की प्राप्ति जीवन का परम लक्ष्य ।

सूफीवाद और तसव्वुफ़ : –

🔹 19वीं शताब्दी में मुद्रित अंग्रेजी शब्द सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रन्थों में ‘तसव्वुफ’ शब्द का इस्तेमाल होता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह शब्द ‘सूफ’ (अर्थात् ऊन) से निकला है, जबकि कुछ विद्वानों के मतानुसार यह शब्द ‘सफा’ से निकला है जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जिसके पास धर्म के बारे में जानने के लिए अनुयायियों की भीड़ जमा होती थी।

खानकाह : –

🔹 संस्थागत दृष्टि से सूफी स्वयं को एक संगठित समुदाय खानकाह (फारसी) में स्थापित करते थे, जिसका नियन्त्रण पीर, शेख (अरबी) अथवा मुर्शीद (फारसी) द्वारा किया जाता था। वे अपने अनुयायियों की भर्ती करते थे तथा अपने वारिस की नियुक्ति करते थे ।

सूफी सिलसिला : –

🔹 12वीं शताब्दी में इस्लामी जगत में सूफी सिलसिलों का गठन होना प्रारम्भ हो गया। सिलसिले का शाब्दिक अर्थ है जंजीर, जो शेख व मुरीद के बीच एक निरन्तर रिश्ते का प्रतीक है। इस रिश्ते की अटूट कड़ी पैगम्बर मोहम्मद, शेख तथा मुरीद थे। इस कड़ी के द्वारा पैगम्बर मोहम्मद की आध्यात्मिक शक्तियाँ शेख के माध्यम से मुरीदों को प्राप्त होती थीं।

दरगाह : –

🔹 पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह (फारसी में इसका अर्थ दरबार) उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी। इस तरह पीर की दरगाह पर ज़ियारत के लिए जाने की, खासतौर से उनकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को उर्स (विवाह, मायने पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था।

बा – शरिया : –

🔹 जो मुस्लमान कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाले कानून को मानते हैं उन्हें बा-शरिया कहते हैं। ये पैगम्बर साहब से जुड़ी परम्पराओं, स्मृत शब्द और क्रियाकलाप को मानते हैं ।

बे-शरिया : –

🔹 ये शरिया को नहीं मानते हैं। इनमें सें कुछ रहस्यवादियों ने सूफी सिद्धांतों की व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों को जन्म दिया। ये रहस्यवादी फकीर की जिन्दगी बिताते थे। इन्होंने निर्धनता और ब्रह्मचर्य को सहर्ष अपनाया था। इन्हें कलंदर, मदारी, अलंग, हैदरी नामों से जाना जाता है।

सिलसिलों के नाम : –

🔹 ज़्यादातर सूफ़ी वंश उन्हें स्थापित करने वालों के नाम पर पड़े। उदाहरणतः, कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर पड़ा। कुछ अन्य सिलसिलों का नामकरण उनके जन्मस्थान पर हुआ जैसे चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर से लिया गया।

चिश्ती सिलसिला : –

🔹 भारत आने वाले सूफी समुदायों में चिश्ती सम्प्रदाय 12वीं सदी के अन्त में भारत में सबसे अधिक प्रभावशाली सम्प्रदाय था। चिश्ती सम्प्रदाय ने भारतीय भक्ति- परम्परा को अपनाया और अपने आपको स्थानीय परिवेश के अनुसार परिवर्तित किया ।

चिश्ती खानकाह कैसा होता था?

🔹 खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था। हमें शेख निज़ामुद्दीन औलिया (चौदहवीं शताब्दी) की ख़ानकाह के बारे में पता है जो उस समय के दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे गियासपुर में था।

  • यहाँ कई छोटे-छोटे कमरे और एक बड़ा हाल (जमातख़ाना ) था जहाँ सहवासी और अतिथि रहते, और उपासना करते थे।
  • सहवासियों में शेख का अपना परिवार, सेवक और अनुयायी थे।
  • शेख एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे जहाँ वह मेहमानों से सुबह-शाम मिला करते थे।
  • आँगन एक गलियारे से घिरा होता था और खानकाह को चारों ओर से दीवार घेरे रहती थी।
  • एक बार मंगोल आक्रमण के समय पड़ोसी क्षेत्र के लोगों ने खानकाह में शरण ली।
  • यहाँ एक सामुदायिक रसोई ( लंगर ) फुतूह (बिना माँगी खैर) पर चलती थी।

चिश्ती खानकाह में जीवन : –

🔹 सुबह से देर रात तक सब तबके के लोग-सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि, राहगीर, धनी और निर्धन, हिंदू जोगी और कलंदर यहाँ अनुयायी बनने, इबादत करने, ताबीज़ लेने अथवा विभिन्न मसलों पर शेख की मध्यस्थता के लिए आते थे।

🔹 कुछ अन्य मिलने वालों में अमीर हसन सिजज़ी और अमीर खुसरो जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे। शेख निज़ामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया।

चिश्ती उपासना ( ज़ियारत ) : –

🔹 सूफ़ी संतों की दरगाह पर की गई ज़ियारत सारे इस्लामी संसार में प्रचलित है। इस अवसर पर संत के आध्यात्मिक आशीर्वाद यानी बरकत की कामना की जाती है। पिछले सात सौ सालों से अलग-अलग संप्रदायों, वर्गों और समुदायों के लोग पाँच महान चिश्ती संतों की दरगाह पर अपनी आस्था प्रकट करते रहे हैं। इनमें सबसे अधिक पूजनीय दरगाह ख्वाजा मुइनुद्दीन की है जिन्हें ‘गरीब नवाज़’ कहा जाता है।

ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह : –

🔹 ‘ख्वाजा गरीब नवाज’ के नाम से प्रसिद्ध शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की अजमेर स्थित दरगाह ख्वाजा की दयालुता, सदाचारिता और अनेक आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों की महानता के कारण आज भी बहुत प्रसिद्ध है।

🔹 14वीं शताब्दी में ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह का सर्वप्रथम किताबी वर्णन मिलता है। इस दरगाह पर आने वाला प्रथम सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) था। 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खिलजी ने शेख की मजार पर सर्वप्रथम इमारत का निर्माण करवाया।

अकबर ओर ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह : –

🔹 बादशाह अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का बहुत बड़ा मुरीद था। अकबर ने अपने जीवनकाल में चौदह बार अजमेर की दरगाह की जियारत की। अकबर ने एक विशाल देग (खाना बनाने का पात्र) भी तीर्थयात्रियों के लिए खाना बनाने हेतु दान की। अपनी प्रत्येक यात्रा में वह दरगाह में दान, भेंट आदि दिया करता था। उसने दरगाह के अहाते में एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया।

चिश्ती उपासना ( कव्वाली ) : –

🔹 नाच और संगीत भी जियारत का हिस्सा थे, खासतौर से कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान जिससे परमानंद की भावना को उभारा जा सके। सूफ़ी संत ज़िक्र ( ईश्वर का नाम जाप) या फिर समा (श्रवण करना) यानी आध्यात्मिक संगीत की महफिल के द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे।

चिश्ती सम्प्रदाय की भाषा और संपर्क : –

🔹 चिश्ती सम्प्रदाय के द्वारा लोगों से सम्पर्क करने हेतु क्षेत्र विशेष में प्रचलित स्थानीय भाषा का भी प्रयोग किया गया जिसके कारण उसकी लोकप्रियता विशेष रूप से फैलने लगी। दिल्ली में चिश्तियों की सम्पर्क भाषा हिन्दवी थी। बाबा फरीद की स्थानीय भाषा में रचित कविताओं का संकलन ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में किया गया है।

अमीर खुसरो और कौल : –

🔹 अमीर खुसरो (1253-1325) महान कवि, संगीतज्ञ तथा शेख निज़ामुद्दीन औलिया के अनुयायी थे। उन्होंने कौल (अरबी शब्द जिसका अर्थ है कहावत) का प्रचलन करके चिश्ती समा को एक विशिष्ट आकार दिया। कौल को कव्वाली के शुरू और आखिर में गाया जाता था।

सूफ़ी और राज्य का सम्बंध : –

🔹 चिश्ती सम्प्रदाय की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता संयम और सादगीपूर्ण आचरण था; जिसमें सांसारिक मोह-माया से दूर रहने पर बल दिया गया। यदि कोई शासक उन्हें अनुदान या भेंट देता था तो सूफी संत उसे स्वीकार कर लेते थे।

🔹 चिश्ती धन व सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे, परन्तु वे इन्हें सँभालकर नहीं रखते थे बल्कि उसे खाने, कपड़े, रहने की व्यवस्था, समा की महफिलों आदि पर पूरी तरह खर्च कर देते थे।

🔹 सूफ़ी संतों की धर्मनिष्ठा, विद्वता और लोगों द्वारा उनकी चमत्कारी शक्ति में विश्वास उनकी लोकप्रियता का कारण था। इन वजहों शासक भी उनका समर्थन हासिल करना चाहते थे।

सूफी संतों के राज्य के साथ सम्बंध : –

  • सत्ता से दूर रहने पर बल ।
  • सूफी सन्तों द्वारा विशिष्ट वर्गों द्वारा बिना माँगे दिए गए अनुदान को स्वीकार करना ।
  • सुल्तानों द्वारा खानकारों को करमुक्त भूमि अनुदान में देना ।
  • दान सम्बंधी न्यास की स्थापना ।
  • सूफी सन्तों की लोकप्रियता के कारण शासक भी उनका समर्थन चाहते थे ।
  • शासक अपनी कब्र सूफी सन्तों की दरगाहों तथा खानकों के नजदीक बनाना चाहते थे ।
  • सुल्तानों तथा सूफियों के बीच तनाव के उदाहरण भी मिलते हैं।
  • अपने-अपने आचारों पर बल जैसे झुककर प्रणाम तथा कदम चूमना आदि ।

उत्तरी भारत में संवाद और असहमति : –

🔹 उत्तरी भारत में अनेक संत कवियों ने परम्पराओं से हटकर नवीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप नए भक्ति पदों की रचना की। इनमें संत कबीर, गुरु नानक देव और मीराबाई प्रमुख थी।

दैवीय वस्त्र की बुनाई : कबीर

🔹 उत्तरी भारत के संत कवियों की इस परम्परा में कबीर (लगभग 14वीं – 15वीं शताब्दी) अद्वितीय थे। तीन विशिष्ट परिपाटियों में कबीर की बानी (वाणी) का संकलन किया गया है।

  • प्रथम ‘कबीर बीजक’ कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी एवं उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर संरक्षित हैं।
  • राजस्थान के दादू पंथ से संबंधित द्वितीय परिपाटी ‘कबीर ग्रन्थावली’ के नाम से प्रसिद्ध है।
  • तृतीय आदि ‘ग्रन्थ साहिब’ में कबीर के कई पद संकलित किये गए हैं।

कबीर की रचनाएं : –

🔹 कबीर की रचनाएँ अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती हैं। इनमें कुछ निर्गुण कवियों की खास बोली संत भाषा में हैं। कुछ रचनाएँ जिन्हें उलटबाँसी (उलटी कही उक्तियाँ) के नाम से जाना जाता है, इस प्रकार से लिखी गई कि उनके रोज़मर्रा के अर्थ को उलट दिया गया।

🔹 इन उलटबाँसी रचनाओं का तात्पर्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की मुश्किल दर्शाता है। ” केवल ज फूल्या फूल बिन” और “समंदरि लागि आगि” जैसी अभिव्यंजनाएँ कबीर की रहस्यवादी अनुभूतियों को दर्शाती हैं।

कबीर की शिक्षाओं का संप्रेषण : –

  • कबीर बीजक कबीर ग्रंथावली तथा आदिग्रंथ साहिब में संकलित करके।
  • कबीर के विचार संभवतः अवध (उत्तर प्रदेश) की सूफी और योगी परम्परा के साथ हुए संवाद और विवाद के माध्यम से धनीभूत हुई ।
  • अनुयायी संतों द्वारा गा-गाकर इन रचनाओं का सम्प्रेषण
  • उलटबांसी विधा के द्वारा।
  • बंगाल, गुजरात तथा महाराष्ट्र में मुद्रांकित पद संग्रह ।

कबीर के प्रमुख उपदेश : –

🔹 कबीरदास जी अपने समय के महानतम समाज सुधारक थे। उन्होंने धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक एवं आर्थिक भेदभाव का एक विशिष्ट शैली में विरोध किया। कबीरदास जी के उपदेश निम्नलिखित हैं : –

  • कबीरदास जी ने मूर्तिपूजा तथा बहुदेववाद का पूर्णरूप से विरोध किया।
  • उन्होंने निराकार ब्रह्म की आराधना को उचित बताया।
  • उन्होंने ज़िक्र तथा इश्क के सूफी सिद्धांतों के प्रयोग द्वारा नाम स्मरण पर बल दिया।
  • कबीरदास जी के अनुसार भक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है ।
  • उनके अनुसार परम सत्य अथवा परमात्मा एक है, भले ही विभिन्न सम्प्रदायों के लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारत हो ।
  • उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमानों के धार्मिक आडम्बरों का खण्डन किया ।
  • कबीर जातीय भेदभाव के विरुद्ध थे ।

श्री गुरु नानक देव जी : –

🔹बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म एक हिंदू व्यापारी परिवार में हुआ । उनका जन्मस्थल मुख्यतः इस्लाम धर्मावलंबी पंजाब का ननकाना गाँव था जो रावी नदी के पास था। उन्होंने फारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था किंतु वह अपना अधिक समय सूफ़ी और भक्त संतों के बीच गुज़ारते थे।

🔹 गुरु नानक के भजनों और उपदेशों में निहित संदेशों से ज्ञात होता है कि वे निर्गुण भक्ति के उपासक थे । यश, मूर्ति पूजा, कठोर तप तथा अन्य आनुष्ठानिक कार्यों आदि आडम्बरों का उन्होंने विरोध किया।

🔹 गुरु नानक के लिए परम सत्ता (रब्ब) का कोई साकार रूप नहीं था। उनके अनुसार निरन्तर स्मरण और नाम जपना रब्ब की उपासना का सबसे सरल मार्ग है। गुरु नानक देव के विचारों को ‘शब्द’ कहा जाता है। गुरु नानक देव के अनुयायी एक समुदाय के रूप में संगठित हुए। गुरु नानक ने अपने शिष्य अंगद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।

सिख धर्म : –

🔹 गुरु नानक देव जी के देहान्त के बाद उनके अनुयायियों का यह संगठन ‘सिख धर्म’ के रूप में प्रचलित हुआ।

गुरबानी (वाणी) , गुरु ग्रन्थ साहिब : –

🔹 गुरबानी (वाणी) का संकलन सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव द्वारा गुरु नानक देव, फरीद और कबीरदास जी की वाणियों का ‘आदि ग्रन्थ साहिब’ में समावेश करके किया गया। सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने नवें गुरु तेग बहादुर जी की रचनाओं को भी गुरबानी में सम्मिलित किया और इस ग्रन्थ को गुरु ग्रन्थ साहिब का नाम दिया।

खालसा पंथ की स्थापना और इस पंथ के पाँच प्रतीक : –

🔹 गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नींव डाली और उनके लिए पाँच प्रतीक निर्धारित किए बिना कटे केश, कृपाण, कच्छ, कंघा और लोहे का कड़ा। इस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह जी के नेतृत्व में सिख समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया।

गुरुनानक देव जी की शिक्षाएँ-

  • उनके संदेश भजनों तथा उपदेशों में निहित हैं ।
  • निर्गुण भक्ति का प्रचार तथा ईश्वर सब जगह विद्यमान ।
  • परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकार नहीं ।
  • सभी धर्मों ग्रंथों को नकारा।
  • बाहरी आडम्बरों का विरोध ।
  • नाम सिमरन तथा जाप पर बल ।
  • किसी भी जाति या सम्प्रदाय पर जोर नहीं ।
  • गृहस्थ तथा आध्यात्मिक जीवन की तारतम्यता को बनाते हुए मध्यम मार्ग को अपनाने पर बल ।
  • शबद के माध्यम से ईश्वर का गुणगान करना ।
  • वे किसी भी नवीन धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे ।

मीराबाई : –

🔹 भक्ति-परम्परा की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई (लगभग 15वीं – 16वीं शताब्दी) का जन्म मारवाड़ के मेड़ता जिले में एक राजकुल में हुआ था। मीराबाई बचपन से ही कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहती थी। मीरा ने कृष्ण को ही अपना एकमात्र पति स्वीकार कर लिया था। उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया।

🔹 मीरा को कृष्ण-भक्ति छोड़कर गृहस्थ धर्म अपनाने में कोई रुचि नहीं थी। सुसराल पक्ष की ओर से उन्हें विष देने का प्रयास भी किया गया। मीरा ने राजमहल का ऐश्वर्य छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लिया। संत रविदास ( रैदास) को उनका गुरु माना जाता है। मीरा शताब्दियों से समाज की प्रेरणा स्रोत रही हैं तथा उनके रचित पद आज भी प्रचलित हैं।

भगवती धर्म : –

🔹 भगवद्गीता और भागवत पुराण पर आधारित वैष्णव धर्म के उपदेशों के प्रचारक के रूप में पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में असम में शंकरदेव का उद्भव हुआ। शंकरदेव के उपदेश ‘भगवती धर्म’ के नाम से जाने जाते हैं।


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