चिश्ती उपासना ( ज़ियारत ) : –
🔹 सूफ़ी संतों की दरगाह पर की गई ज़ियारत सारे इस्लामी संसार में प्रचलित है। इस अवसर पर संत के आध्यात्मिक आशीर्वाद यानी बरकत की कामना की जाती है। पिछले सात सौ सालों से अलग-अलग संप्रदायों, वर्गों और समुदायों के लोग पाँच महान चिश्ती संतों की दरगाह पर अपनी आस्था प्रकट करते रहे हैं। इनमें सबसे अधिक पूजनीय दरगाह ख्वाजा मुइनुद्दीन की है जिन्हें ‘गरीब नवाज़’ कहा जाता है।
ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह : –
🔹 ‘ख्वाजा गरीब नवाज’ के नाम से प्रसिद्ध शेख मुइनुद्दीन चिश्ती की अजमेर स्थित दरगाह ख्वाजा की दयालुता, सदाचारिता और अनेक आध्यात्मिक उत्तराधिकारियों की महानता के कारण आज भी बहुत प्रसिद्ध है।
🔹 14वीं शताब्दी में ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह का सर्वप्रथम किताबी वर्णन मिलता है। इस दरगाह पर आने वाला प्रथम सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक (1324-51) था। 15वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में मालवा के सुल्तान गियासुद्दीन खिलजी ने शेख की मजार पर सर्वप्रथम इमारत का निर्माण करवाया।
अकबर ओर ख्वाजा मुइनुद्दीन की दरगाह : –
🔹 बादशाह अकबर ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती का बहुत बड़ा मुरीद था। अकबर ने अपने जीवनकाल में चौदह बार अजमेर की दरगाह की जियारत की। अकबर ने एक विशाल देग (खाना बनाने का पात्र) भी तीर्थयात्रियों के लिए खाना बनाने हेतु दान की। अपनी प्रत्येक यात्रा में वह दरगाह में दान, भेंट आदि दिया करता था। उसने दरगाह के अहाते में एक मस्जिद का भी निर्माण करवाया।
चिश्ती उपासना ( कव्वाली ) : –
🔹 नाच और संगीत भी जियारत का हिस्सा थे, खासतौर से कव्वालों द्वारा प्रस्तुत रहस्यवादी गुणगान जिससे परमानंद की भावना को उभारा जा सके। सूफ़ी संत ज़िक्र ( ईश्वर का नाम जाप) या फिर समा (श्रवण करना) यानी आध्यात्मिक संगीत की महफिल के द्वारा ईश्वर की उपासना में विश्वास रखते थे।
चिश्ती सम्प्रदाय की भाषा और संपर्क : –
🔹 चिश्ती सम्प्रदाय के द्वारा लोगों से सम्पर्क करने हेतु क्षेत्र विशेष में प्रचलित स्थानीय भाषा का भी प्रयोग किया गया जिसके कारण उसकी लोकप्रियता विशेष रूप से फैलने लगी। दिल्ली में चिश्तियों की सम्पर्क भाषा हिन्दवी थी। बाबा फरीद की स्थानीय भाषा में रचित कविताओं का संकलन ‘गुरु ग्रन्थ साहिब’ में किया गया है।
अमीर खुसरो और कौल : –
🔹 अमीर खुसरो (1253-1325) महान कवि, संगीतज्ञ तथा शेख निज़ामुद्दीन औलिया के अनुयायी थे। उन्होंने कौल (अरबी शब्द जिसका अर्थ है कहावत) का प्रचलन करके चिश्ती समा को एक विशिष्ट आकार दिया। कौल को कव्वाली के शुरू और आखिर में गाया जाता था।
सूफ़ी और राज्य का सम्बंध : –
🔹 चिश्ती सम्प्रदाय की सबसे महत्त्वपूर्ण विशेषता संयम और सादगीपूर्ण आचरण था; जिसमें सांसारिक मोह-माया से दूर रहने पर बल दिया गया। यदि कोई शासक उन्हें अनुदान या भेंट देता था तो सूफी संत उसे स्वीकार कर लेते थे।
🔹 चिश्ती धन व सामान के रूप में दान स्वीकार करते थे, परन्तु वे इन्हें सँभालकर नहीं रखते थे बल्कि उसे खाने, कपड़े, रहने की व्यवस्था, समा की महफिलों आदि पर पूरी तरह खर्च कर देते थे।
🔹 सूफ़ी संतों की धर्मनिष्ठा, विद्वता और लोगों द्वारा उनकी चमत्कारी शक्ति में विश्वास उनकी लोकप्रियता का कारण था। इन वजहों शासक भी उनका समर्थन हासिल करना चाहते थे।
सूफी संतों के राज्य के साथ सम्बंध : –
- सत्ता से दूर रहने पर बल ।
- सूफी सन्तों द्वारा विशिष्ट वर्गों द्वारा बिना माँगे दिए गए अनुदान को स्वीकार करना ।
- सुल्तानों द्वारा खानकारों को करमुक्त भूमि अनुदान में देना ।
- दान सम्बंधी न्यास की स्थापना ।
- सूफी सन्तों की लोकप्रियता के कारण शासक भी उनका समर्थन चाहते थे ।
- शासक अपनी कब्र सूफी सन्तों की दरगाहों तथा खानकों के नजदीक बनाना चाहते थे ।
- सुल्तानों तथा सूफियों के बीच तनाव के उदाहरण भी मिलते हैं।
- अपने-अपने आचारों पर बल जैसे झुककर प्रणाम तथा कदम चूमना आदि ।
उत्तरी भारत में संवाद और असहमति : –
🔹 उत्तरी भारत में अनेक संत कवियों ने परम्पराओं से हटकर नवीन सामाजिक परिस्थितियों के अनुरूप नए भक्ति पदों की रचना की। इनमें संत कबीर, गुरु नानक देव और मीराबाई प्रमुख थी।
दैवीय वस्त्र की बुनाई : कबीर
🔹 उत्तरी भारत के संत कवियों की इस परम्परा में कबीर (लगभग 14वीं – 15वीं शताब्दी) अद्वितीय थे। तीन विशिष्ट परिपाटियों में कबीर की बानी (वाणी) का संकलन किया गया है।
- प्रथम ‘कबीर बीजक’ कबीर पंथियों द्वारा वाराणसी एवं उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर संरक्षित हैं।
- राजस्थान के दादू पंथ से संबंधित द्वितीय परिपाटी ‘कबीर ग्रन्थावली’ के नाम से प्रसिद्ध है।
- तृतीय आदि ‘ग्रन्थ साहिब’ में कबीर के कई पद संकलित किये गए हैं।
कबीर की रचनाएं : –
🔹 कबीर की रचनाएँ अनेक भाषाओं और बोलियों में मिलती हैं। इनमें कुछ निर्गुण कवियों की खास बोली संत भाषा में हैं। कुछ रचनाएँ जिन्हें उलटबाँसी (उलटी कही उक्तियाँ) के नाम से जाना जाता है, इस प्रकार से लिखी गई कि उनके रोज़मर्रा के अर्थ को उलट दिया गया।
🔹 इन उलटबाँसी रचनाओं का तात्पर्य परम सत्य के स्वरूप को समझने की मुश्किल दर्शाता है। ” केवल ज फूल्या फूल बिन” और “समंदरि लागि आगि” जैसी अभिव्यंजनाएँ कबीर की रहस्यवादी अनुभूतियों को दर्शाती हैं।
कबीर की शिक्षाओं का संप्रेषण : –
- कबीर बीजक कबीर ग्रंथावली तथा आदिग्रंथ साहिब में संकलित करके।
- कबीर के विचार संभवतः अवध (उत्तर प्रदेश) की सूफी और योगी परम्परा के साथ हुए संवाद और विवाद के माध्यम से धनीभूत हुई ।
- अनुयायी संतों द्वारा गा-गाकर इन रचनाओं का सम्प्रेषण
- उलटबांसी विधा के द्वारा।
- बंगाल, गुजरात तथा महाराष्ट्र में मुद्रांकित पद संग्रह ।
कबीर के प्रमुख उपदेश : –
🔹 कबीरदास जी अपने समय के महानतम समाज सुधारक थे। उन्होंने धार्मिक पाखण्ड, सामाजिक एवं आर्थिक भेदभाव का एक विशिष्ट शैली में विरोध किया। कबीरदास जी के उपदेश निम्नलिखित हैं : –
- कबीरदास जी ने मूर्तिपूजा तथा बहुदेववाद का पूर्णरूप से विरोध किया।
- उन्होंने निराकार ब्रह्म की आराधना को उचित बताया।
- उन्होंने ज़िक्र तथा इश्क के सूफी सिद्धांतों के प्रयोग द्वारा नाम स्मरण पर बल दिया।
- कबीरदास जी के अनुसार भक्ति के माध्यम से मोक्ष की प्राप्ति सम्भव है ।
- उनके अनुसार परम सत्य अथवा परमात्मा एक है, भले ही विभिन्न सम्प्रदायों के लोग उसे भिन्न-भिन्न नामों से पुकारत हो ।
- उन्होंने हिन्दू तथा मुसलमानों के धार्मिक आडम्बरों का खण्डन किया ।
- कबीर जातीय भेदभाव के विरुद्ध थे ।
श्री गुरु नानक देव जी : –
🔹बाबा गुरु नानक (1469-1539) का जन्म एक हिंदू व्यापारी परिवार में हुआ । उनका जन्मस्थल मुख्यतः इस्लाम धर्मावलंबी पंजाब का ननकाना गाँव था जो रावी नदी के पास था। उन्होंने फारसी पढ़ी और लेखाकार के कार्य का प्रशिक्षण प्राप्त किया। उनका विवाह छोटी आयु में हो गया था किंतु वह अपना अधिक समय सूफ़ी और भक्त संतों के बीच गुज़ारते थे।
🔹 गुरु नानक के भजनों और उपदेशों में निहित संदेशों से ज्ञात होता है कि वे निर्गुण भक्ति के उपासक थे । यश, मूर्ति पूजा, कठोर तप तथा अन्य आनुष्ठानिक कार्यों आदि आडम्बरों का उन्होंने विरोध किया।
🔹 गुरु नानक के लिए परम सत्ता (रब्ब) का कोई साकार रूप नहीं था। उनके अनुसार निरन्तर स्मरण और नाम जपना रब्ब की उपासना का सबसे सरल मार्ग है। गुरु नानक देव के विचारों को ‘शब्द’ कहा जाता है। गुरु नानक देव के अनुयायी एक समुदाय के रूप में संगठित हुए। गुरु नानक ने अपने शिष्य अंगद को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया।
सिख धर्म : –
🔹 गुरु नानक देव जी के देहान्त के बाद उनके अनुयायियों का यह संगठन ‘सिख धर्म’ के रूप में प्रचलित हुआ।
गुरबानी (वाणी) , गुरु ग्रन्थ साहिब : –
🔹 गुरबानी (वाणी) का संकलन सिखों के पाँचवें गुरु अर्जुन देव द्वारा गुरु नानक देव, फरीद और कबीरदास जी की वाणियों का ‘आदि ग्रन्थ साहिब’ में समावेश करके किया गया। सिखों के दसवें गुरु गोविंद सिंह ने नवें गुरु तेग बहादुर जी की रचनाओं को भी गुरबानी में सम्मिलित किया और इस ग्रन्थ को गुरु ग्रन्थ साहिब का नाम दिया।
खालसा पंथ की स्थापना और इस पंथ के पाँच प्रतीक : –
🔹 गुरु गोविन्द सिंह ने खालसा पंथ (पवित्रों की सेना) की नींव डाली और उनके लिए पाँच प्रतीक निर्धारित किए बिना कटे केश, कृपाण, कच्छ, कंघा और लोहे का कड़ा। इस प्रकार गुरु गोविन्द सिंह जी के नेतृत्व में सिख समुदाय एक सामाजिक, धार्मिक और सैन्य बल के रूप में संगठित होकर सामने आया।
गुरुनानक देव जी की शिक्षाएँ-
- उनके संदेश भजनों तथा उपदेशों में निहित हैं ।
- निर्गुण भक्ति का प्रचार तथा ईश्वर सब जगह विद्यमान ।
- परम पूर्ण रब का कोई लिंग या आकार नहीं ।
- सभी धर्मों ग्रंथों को नकारा।
- बाहरी आडम्बरों का विरोध ।
- नाम सिमरन तथा जाप पर बल ।
- किसी भी जाति या सम्प्रदाय पर जोर नहीं ।
- गृहस्थ तथा आध्यात्मिक जीवन की तारतम्यता को बनाते हुए मध्यम मार्ग को अपनाने पर बल ।
- शबद के माध्यम से ईश्वर का गुणगान करना ।
- वे किसी भी नवीन धर्म की स्थापना नहीं करना चाहते थे ।
मीराबाई : –
🔹 भक्ति-परम्परा की सबसे प्रसिद्ध कवयित्री मीराबाई (लगभग 15वीं – 16वीं शताब्दी) का जन्म मारवाड़ के मेड़ता जिले में एक राजकुल में हुआ था। मीराबाई बचपन से ही कृष्ण भक्ति में तल्लीन रहती थी। मीरा ने कृष्ण को ही अपना एकमात्र पति स्वीकार कर लिया था। उनकी इच्छा के विरुद्ध उनका विवाह मेवाड़ के सिसोदिया कुल में कर दिया गया।
🔹 मीरा को कृष्ण-भक्ति छोड़कर गृहस्थ धर्म अपनाने में कोई रुचि नहीं थी। सुसराल पक्ष की ओर से उन्हें विष देने का प्रयास भी किया गया। मीरा ने राजमहल का ऐश्वर्य छोड़कर संन्यास ग्रहण कर लिया। संत रविदास ( रैदास) को उनका गुरु माना जाता है। मीरा शताब्दियों से समाज की प्रेरणा स्रोत रही हैं तथा उनके रचित पद आज भी प्रचलित हैं।
भगवती धर्म : –
🔹 भगवद्गीता और भागवत पुराण पर आधारित वैष्णव धर्म के उपदेशों के प्रचारक के रूप में पाँचवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में असम में शंकरदेव का उद्भव हुआ। शंकरदेव के उपदेश ‘भगवती धर्म’ के नाम से जाने जाते हैं।
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