उत्तरी भारत में धार्मिक उफान : –
🔹 इतिहासकारों को 14वीं शताब्दी तक अलवार तथा नयनार सन्तों की रचनाओं जैसा कोई ग्रन्थ उत्तरी भारत से प्राप्त नहीं हुआ है। इतिहासकारों का मत है कि उत्तरी भारत में राजपूत राजाओं का प्रभुत्व था। राजपूतों द्वारा शासित राज्यों में ब्राह्मणों को महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त था जिस कारण उनकी प्रभुसत्ता को किसी ने भी सीधे चुनौती नहीं दी।
🔹 इसी समय वे धार्मिक गुरु, जो ब्राह्मणवादी साँचे से बाहर थे, नाथ, जोगी और सिद्ध सम्प्रदायों के रूप में उभरे। अनेक धार्मिक गुरुओं ने वेदों की सत्ता को चुनौती दी और अपने विचार आम लोगों की भाषाओं में रखे ।
🔹 13वीं शताब्दी में तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की स्थापना की जिससे राजपूत राज्यों एवं उनसे जुड़े ब्राह्मणों का महत्त्व कम हो गया। इन परिवर्तनों का प्रभाव संस्कृति एवं धर्म पर भी पड़ा।
इस्लामी परंपराएँ : –
🔹 प्रथम सहस्राब्दि ईसवी से अरब व्यापारी समुद्री मार्ग से पश्चिमी भारत के बंदरगाहों पर आते-जाते रहते थे। इसी समय मध्य एशिया से आकर लोग देश के उत्तरी- पश्चिमी प्रान्तों में बस गए। 7वीं शताब्दी में इस्लाम के उद्भव के बाद ये क्षेत्र उस संसार का हिस्सा बन गए जिसे अकसर इस्लामी विश्व कहा जाता है।
शासकों और शासितों के धार्मिक विश्वास : –
🔹 711 ई. में मुहम्मद बिन कासिम नामक एक अरब सेनापति ने सिन्ध पर विजय प्राप्त की और उसे खलीफा के क्षेत्र में सम्मिलित कर लिया। लगभग 13वीं शताब्दी में तुर्कों ने दिल्ली सल्तनत की नींव रखी और धीरे-धीरे अपने साम्राज्य का विस्तार दक्षिणी क्षेत्रों तक कर लिया।
🔹 16वीं से 18वीं शताब्दी तक बहुत से क्षेत्रों में शासकों का स्वीकृत धर्म इस्लाम था । मुसलमान शासकों को उलेमाओं द्वारा मार्गदर्शन दिया जाता था। शासकों से यह अपेक्षा की जाती थी कि वे उलेमा द्वारा बताये गए मार्गदर्शन का अनुसरण करेंगे।
🔹 भारतीय उपमहाद्वीप में स्थिति जटिल थी, क्योंकि जनसंख्या का एक बड़ा भाग इस्लाम धर्म को नहीं मानता था, जिनमें यहूदी और ईसाई भी थे ।
🔹 वास्तव में शासक शासितों की तरफ़ काफ़ी लचीली नीति अपनाते थे। अनेक शासकों ने हिन्दू, जैन, पारसी, ईसाई तथा यहूदी धर्म संस्थाओं को भूमि अनुदान दिए व करों में छूट प्रदान की तथा उन्होंने अन्य धर्मों के नेताओं के प्रति श्रद्धाभाव भी प्रकट किया। ऐसे अनुदान, अनेक मुगल बादशाहों जिनमें अकबर और औरंगज़ेब शामिल थे, द्वारा दिए गए।
जिम्मी : –
🔹 जिम्मी एक प्रकार से संरक्षित श्रेणी के लोग थे । जनसंख्या के बहुसंख्यक भाग के लोग इस्लाम धर्म के अनुयायी नहीं थे। इनमें यहूदी और ईसाई भी थे, जिन्हें जिम्मी (संरक्षित श्रेणी) कहा जाता था । इस्लामी शासक इनसे जजिया नामक कर लेकर इन्हें संरक्षण प्रदान करते थे । हिन्दुओं को भी इसी संरक्षित श्रेणी में रखा गया।
उलेमा : –
🔹 उलेमा, यानी आलिम का आशय होता है विद्वान । उलेमा, इस्लाम धर्म के विशेषज्ञ होते थे, इन्हें विशेष दर्जा प्राप्त होता था। यह मौलवी से ऊपर की पदवी है। उलेमाओं का कार्य शासकों को मार्गदर्शन देना होता था कि वे शासन में शरिया का पालन करवाए। काजी, न्यायाधीश आदि पदों पर इस्लाम धर्म के इन विद्वानों को नियुक्त किया जाता था ।
शरिया कानून : –
🔹 शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाला कानून है। यह कुरान शरीफ़ और हदीस पर आधारित है। हदीस का अर्थ है पैगम्बर साहब से जुड़ी परंपराएँ जिनके अंतर्गत उनके स्मृत शब्द और क्रियाकलाप भी आते हैं।
🔹 जब अरब क्षेत्र से बाहर इस्लाम का प्रसार हुआ जहाँ के आचार-व्यवहार भिन्न थे तो क़ियास ( सदृशता के आधार पर तर्क) और इजमा (समुदाय की सहमति) को भी कानून का स्रोत माना जाने लगा। इस तरह शरिया, कुरान, हदीस, क्रियास और इजमा उद्भूत हुआ।
लोक प्रचलन में इस्लाम : –
🔹 इस्लाम के आगमन के बाद जो परिवर्तन हुए वे शासक वर्ग तक ही सीमित नहीं थे, अपितु पूरे उपमहाद्वीप में दूरदराज़ तक और विभिन्न सामाजिक समुदायों – किसान, शिल्पी, योद्धा, व्यापारी के बीच फैल गए। जिन्होंने इस्लाम धर्म कबूल किया उन्होंने सैद्धांतिक रूप से इसकी पाँच मुख्य ‘बातें’ मानीं।
🔹 प्रायः साम्प्रदायिक (शिया व सुन्नी) कारणों तथा स्थानीय लोकाचारों के प्रभाव के कारणों से धर्मांतरित लोगों के व्यवहारों में भिन्नता देखी जा सकती थी; जैसे- कुरान के विचारों की अभिव्यक्ति के लिए खोजा इस्माइली (शिया) समुदाय के लोगों ने देशी साहित्यिक विद्या का सहारा लिया। विभिन्न स्थानीय भाषाओं में ‘जीनन’ नाम से भक्ति गीतों को गाया जाता था, जो राग में निबद्ध थे ।
🔹 इसके अतिरिक्त मालाबार तट (केरल) के किनारे बसे अरब मुसलमान व्यापारियों ने स्थानीय मलयालम भाषा को अपनाने के साथ-साथ ‘मातृकुलीयता’ एवं ‘मातगृहता’ जैसे स्थानीय आचारों को भी अपनाया।
इस्लाम धर्म की पाँच बाते : –
🔹 इस्लाम की पाँच प्रमुख बातें हैं, जिन्हें इस धर्म के सिद्धान्त भी कहा जा सकता है: ये हैं-
- अल्लाह एकमात्र ईश्वर है; पैगम्बर मोहम्मद उनके दूत (शाहद) हैं।
- दिन में पाँच बार नमाज़ पढ़ी जानी चाहिए।
- खैरात ( ज़कात) बाँटनी चाहिए।
- रमजान के महीने में रोज़ा रखना चाहिए।
- हज के लिए मक्का जाना चाहिए।
समुदायों के नाम : –
🔹 प्रारम्भ में हिन्दू तथा मुसलमान जैसे सम्बोधनों का प्रचलन नहीं था। लोगों का वर्गीकरण उनके जन्म-स्थान के आधार पर किया जाता था; जैसे-तुर्की मुसलमानों को ‘तुर्क’ (तुरुष्क) तथा तजाकिस्तान से आए लोगों को ‘ताजिक’ एवं फारस से आए लोगों को ‘फारसी’ कहा जाता था।
म्लेच्छ कौन थे ?
🔹 म्लेच्छ शब्द का प्रयोग प्रावासी समुदायों के लिए किया जाता था । यह नाम इस बात की ओर संकेत करता है कि ये वर्ण व्यवस्था के नियमों का पालन नहीं करते थे एवं ऐसी भाषाओं को बोलते थे जिनका उद्भव संस्कृत से नहीं हुआ था।
सूफी कौन थे ?
🔹 इस्लाम की आरंभिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोगों का झुकाव रहस्यवाद एवं वैराग्य की ओर बढ़ने लगा जिनको ‘सूफी’ कहा गया।
सूफी मत क्या है ?
🔹 इस्लाम की आरम्भिक शताब्दियों में कुछ आध्यात्मिक लोग रहस्वाद एवं वैराग्य की ओर आकर्षित हुए। इन्हें सूफी कहा जाने लगा। सूफी लोगों ने रूढ़िवादी परिभाषाओं एवं धर्माचार्यों द्वारा की गई कुरान और सुन्ना (पैगम्बर के व्यवहार) की बौद्धिक व्याख्या की आलोचना की।
🔹 सूफियों ने साधना में लीन होकर उससे प्राप्त अनुभवों के आधार पर कुरान की व्याख्या की, जिनके अनुसार उन्होंने पैगम्बर मोहम्मद को ‘इंसान-ए-कामिल’ बताते हुए ईश्वर की भक्ति और उनके आदेशों का पालन करने पर बल दिया।
सूफीमत के प्रमुख सिद्धान्त : –
- ऐकेश्वरवाद ।
- आत्मा में विश्वास ।
- अल्लाह ने जगत की सृष्टि की।
- सभी जीवों में मानव श्रेष्ठ है।
- रहस्यवाद एवं वैराग्य ।
- गुरु अथवा पीर का महत्त्व ।
- प्रेम साधना पर बल ।
- परमात्पा (अल्लाह) की प्राप्ति जीवन का परम लक्ष्य ।
सूफीवाद और तसव्वुफ़ : –
🔹 19वीं शताब्दी में मुद्रित अंग्रेजी शब्द सूफीवाद के लिए इस्लामी ग्रन्थों में ‘तसव्वुफ’ शब्द का इस्तेमाल होता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार यह शब्द ‘सूफ’ (अर्थात् ऊन) से निकला है, जबकि कुछ विद्वानों के मतानुसार यह शब्द ‘सफा’ से निकला है जो पैगम्बर की मस्जिद के बाहर एक चबूतरा था जिसके पास धर्म के बारे में जानने के लिए अनुयायियों की भीड़ जमा होती थी।
खानकाह : –
🔹 संस्थागत दृष्टि से सूफी स्वयं को एक संगठित समुदाय खानकाह (फारसी) में स्थापित करते थे, जिसका नियन्त्रण पीर, शेख (अरबी) अथवा मुर्शीद (फारसी) द्वारा किया जाता था। वे अपने अनुयायियों की भर्ती करते थे तथा अपने वारिस की नियुक्ति करते थे ।
सूफी सिलसिला : –
🔹 12वीं शताब्दी में इस्लामी जगत में सूफी सिलसिलों का गठन होना प्रारम्भ हो गया। सिलसिले का शाब्दिक अर्थ है जंजीर, जो शेख व मुरीद के बीच एक निरन्तर रिश्ते का प्रतीक है। इस रिश्ते की अटूट कड़ी पैगम्बर मोहम्मद, शेख तथा मुरीद थे। इस कड़ी के द्वारा पैगम्बर मोहम्मद की आध्यात्मिक शक्तियाँ शेख के माध्यम से मुरीदों को प्राप्त होती थीं।
दरगाह : –
🔹 पीर की मृत्यु के बाद उसकी दरगाह (फारसी में इसका अर्थ दरबार) उसके मुरीदों के लिए भक्ति का स्थल बन जाती थी। इस तरह पीर की दरगाह पर ज़ियारत के लिए जाने की, खासतौर से उनकी बरसी के अवसर पर, परिपाटी चल निकली। इस परिपाटी को उर्स (विवाह, मायने पीर की आत्मा का ईश्वर से मिलन) कहा जाता था।
बा – शरिया : –
🔹 जो मुस्लमान कुरान शरीफ और हदीस पर आधारित शरिया मुसलमान समुदाय को निर्देशित करने वाले कानून को मानते हैं उन्हें बा-शरिया कहते हैं। ये पैगम्बर साहब से जुड़ी परम्पराओं, स्मृत शब्द और क्रियाकलाप को मानते हैं ।
बे-शरिया : –
🔹 ये शरिया को नहीं मानते हैं। इनमें सें कुछ रहस्यवादियों ने सूफी सिद्धांतों की व्याख्या के आधार पर नवीन आंदोलनों को जन्म दिया। ये रहस्यवादी फकीर की जिन्दगी बिताते थे। इन्होंने निर्धनता और ब्रह्मचर्य को सहर्ष अपनाया था। इन्हें कलंदर, मदारी, अलंग, हैदरी नामों से जाना जाता है।
सिलसिलों के नाम : –
🔹 ज़्यादातर सूफ़ी वंश उन्हें स्थापित करने वालों के नाम पर पड़े। उदाहरणतः, कादरी सिलसिला शेख अब्दुल कादिर जिलानी के नाम पर पड़ा। कुछ अन्य सिलसिलों का नामकरण उनके जन्मस्थान पर हुआ जैसे चिश्ती नाम मध्य अफगानिस्तान के चिश्ती शहर से लिया गया।
चिश्ती सिलसिला : –
🔹 भारत आने वाले सूफी समुदायों में चिश्ती सम्प्रदाय 12वीं सदी के अन्त में भारत में सबसे अधिक प्रभावशाली सम्प्रदाय था। चिश्ती सम्प्रदाय ने भारतीय भक्ति- परम्परा को अपनाया और अपने आपको स्थानीय परिवेश के अनुसार परिवर्तित किया ।
चिश्ती खानकाह कैसा होता था?
🔹 खानकाह सामाजिक जीवन का केंद्र बिंदु था। हमें शेख निज़ामुद्दीन औलिया (चौदहवीं शताब्दी) की ख़ानकाह के बारे में पता है जो उस समय के दिल्ली शहर की बाहरी सीमा पर यमुना नदी के किनारे गियासपुर में था।
- यहाँ कई छोटे-छोटे कमरे और एक बड़ा हाल (जमातख़ाना ) था जहाँ सहवासी और अतिथि रहते, और उपासना करते थे।
- सहवासियों में शेख का अपना परिवार, सेवक और अनुयायी थे।
- शेख एक छोटे कमरे में छत पर रहते थे जहाँ वह मेहमानों से सुबह-शाम मिला करते थे।
- आँगन एक गलियारे से घिरा होता था और खानकाह को चारों ओर से दीवार घेरे रहती थी।
- एक बार मंगोल आक्रमण के समय पड़ोसी क्षेत्र के लोगों ने खानकाह में शरण ली।
- यहाँ एक सामुदायिक रसोई ( लंगर ) फुतूह (बिना माँगी खैर) पर चलती थी।
चिश्ती खानकाह में जीवन : –
🔹 सुबह से देर रात तक सब तबके के लोग-सिपाही, गुलाम, गायक, व्यापारी, कवि, राहगीर, धनी और निर्धन, हिंदू जोगी और कलंदर यहाँ अनुयायी बनने, इबादत करने, ताबीज़ लेने अथवा विभिन्न मसलों पर शेख की मध्यस्थता के लिए आते थे।
🔹 कुछ अन्य मिलने वालों में अमीर हसन सिजज़ी और अमीर खुसरो जैसे कवि तथा दरबारी इतिहासकार जियाउद्दीन बरनी जैसे लोग शामिल थे। शेख निज़ामुद्दीन ने कई आध्यात्मिक वारिसों का चुनाव किया और उन्हें उपमहाद्वीप के विभिन्न भागों में खानकाह स्थापित करने के लिए नियुक्त किया।