आपातकाल की घोषणा : –
🔹 12 जून 1975 को इलाहाबाद उच्च न्यायालय के न्यायाधीश जगमोहन लाल सिन्हा ने इंदिरा गांधी के 1971 के लोकसभा चुनाव को असंवैधानिक घोषित कर दिया ।
🔹 24 जून 1975 को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के फैसले पर स्थगनादेश सुनाते हुए , कहा कि अपील का निर्णय आने तक इंदिरा गांधी सांसद बनी रहेगी परन्तु मंत्रिमंडल की बैठकों में भाग नहीं लेगी ।
🔹 25 जून 1975 को जेपी के नेतृत्व में इंदिरा गांधी के इस्तीफे की मांग को लेकर दिल्ली के रामलीला मैदान में राष्ट्रव्यापी सत्याग्रह की घोषणा की ।
🔹 जेपी ने सेना , पुलिस और सरकारी कर्मचारियों से आग्रह किया कि वे सरकार के अनैतिक और अवैधानिक आदेशों का पालन न करें ।
🔹 25 जून 1975 की मध्यरात्रि में प्रधानमंत्री ने अनुच्छेद 352 ( आंतरिक गडबडी होने पर ) के तहत राष्ट्रपति से आपातकाल लागू करने की सिफारिश की ।
आपातकाल के परिणाम : –
- विपक्षी नेताओं को जेल में डाल दिया गया ।
- प्रेस पर सेंसरशिप लागू कर दी गयी ।
- राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और जमात – ए – इस्लामी पर प्रतिबंध ।
- धरना , प्रदर्शन और हड़ताल पर रोक ।
- नागरिकों के मौलिक अधिकार निष्प्रभावी कर दिये गये ।
- सरकार ने निवारक नजरबंदी कानून के द्वारा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को गिरफ्तार किया गया ।
- इंडियन एक्प्रेस और स्टेट्स मैन अखबारों को जिन समाचारों को छापने से रोका जाता था , वे उनकी खाली जगह में छोड़ देते थे ।
- ‘ सेमिनार ‘ और ‘ मेनस्ट्रीम ‘ जैसी पत्रिकाओं ने प्रकाशन बंद कर दिया था ।
- कन्नड़ लेखक शिवराम कारंत तथा हिन्दी लेखक फणीश्वरनाथ रेणु ने आपातकाल के विरोध में अपनी पदवी सरकार को लौटा दी ।
नोट :- 42 वें संविधान संशोधन ( 1976 ) द्वारा अनेक परिवर्तन किए गये जैसे प्रधानमंत्री , राष्ट्रपति और उपराष्ट्रपति पद के निर्वाचन को अदालत में चुनौती न दे पाना तथा विधायिका के कार्यकाल को 5 साल से बढ़ाकर 6 साल कर देना आदि ।
आपातकाल के पश्चात विपक्ष की भूमिका : –
- विपक्षी नेताओं ने एकजुट होकर जनता पार्टी बनाई ।
- 1977 में स्वतंत्र निष्पक्ष चुनाव हुए तथा इंदिरा गांधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस को जनता ने हार का मुँह दिखाया ।
- आपातकाल के दौरान किए गये अनुचित संवैधानिक संशोधन बदल दिए गए ।
- विपक्ष अब आलोचना करने के लिए स्वतंत्र था ।
आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतन्त्र की कमजोरियां : –
- लोकतांत्रिक संस्थओं का अपंग होना ।
- आपातकाल के प्रावधानों में अस्पष्टता ।
- पुलिस व प्रशासन का दुरूपयोग ।
आपातकाल के दौरान लोकतंत्र की ताकत : –
- नागरिक अधिकारों के प्रति जागरूक होना ।
- लोकतंत्र की पुनः स्थापना ।
- नागरिक संगठनों का अस्तित्व में आना ।
आपातकाल के सबक : –
🔹 आपातकाल के दौरान भारतीय लोकतंत्र की ताकत ओर कमजोरियाँ उजागर हो गई थी , लेकिन जल्द ही कामकाज लोकतंत्र की राह पर लौट आया । इस प्रकार भारत से लोकतंत्र को विदा कर पाना बहुत कठिन है ।
🔹 आपातकाल की समाप्ति के बाद अदालतों ने व्यक्ति के नागरिक अधिकारों की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाई है तथा इन अधिकारों की रक्षा के लिए कई संगठन अस्तित्व में आये है ।
🔹 संविधान के आपातकाल के प्रावधान में ‘ आंतरिक अशान्ति ‘ शब्द के स्थान पर ‘ सशस्त्र विद्रोह ‘ शब्द को जोड़ा गया है । इसके साथ ही आपातकाल की घोषणा की सलाह मंत्रिपरिषद् राष्ट्रपति को लिखित में देगी ।
🔹 आपातकाल में शासक दल ने पुलिस तथा प्रशासन को अपना राजनीतिक औजार बनाकर इस्तेमाल किया था । ये संस्थाएँ स्वतंत्र रूप से कार्य नहीं कर पाई थी ।
भारत की दलीय प्रणाली पर आपातकाल का असर : –
🔹 सत्ताधारी पार्टी को बहुमत मिलने की वजह से , नेतृत्व ने लोकतांत्रिक क्रियान्वयन को भी चुनौती देने की हिम्मत की ।
🔹 कानून व लोकतांत्रिक व्यवस्था को बनाए रखने की वजह से संविधान निर्माताओं ने सरकार को आपातकाल के दौरान अधिक शक्तियाँ प्रदान की थीं ।
🔹 संस्था पर आधारित लोकतंत्र और लोगों के सहयोग पर आधारित लोकतंत्र के बीच तनाव व मतभेद खड़े होने शुरू हो गए थे ।
🔹 यह सब उस दलीय व्यवस्था की अक्षमता के कारण था , जो लोगों की आशाओं पर खरी नहीं उतर पा रही थी ।
🔹 पहली बार विपक्षी पार्टियाँ , नई पार्टी ‘ जनता पार्टी ‘ के नाम से गैरकांग्रेस वोटों को भी न बाँटने के उद्देश्य से साथ आई ।
🔹 1977 चुनावों ने एक दल की सम्प्रभुता समाप्त की और गठबंधन सरकार को जन्म दिया ।
आपातकाल के बाद की राजनीती : –
🔹 जनवारी 1977 में विपक्षी पार्टियों ने मिलकर जनता पार्टी का गठन किया ।
🔹 कांग्रेसी नेता बाबू जगजीवन राम ने “ कांग्रेस फॉर डेमोक्रेसी ‘ दल का गठन किया , जो बाद में जनता पार्टी में शामिल हो गया ।
🔹 जनता पार्टी ने आपातकाल की ज्यादतियों को मुद्दा बनाकर चुनावों को उस पर जनमत संग्रह का रूप दिया ।
1977 के चुनाव : –
🔹 1977 के चुनाव में कांग्रेस को लोकसभा में 154 सीटें तथा जनता पार्टी और उसके सहयोगी दलों को 330 सीटे मिली ।
🔹 आपातकाल का प्रभाव उत्तर भारत में अधिक होने के कारण 1977 के चुनाव में कांग्रेस को उत्तर भारत में ना के बराबर सीटें प्राप्त हुई ।
जनता पार्टी की सरकार : –
🔹 जनता पार्टी की सरकार में मोरारजी देसाई प्रधानमंत्री तथा चरण सिंह व जगजीवनराम दो उपप्रधानमंत्री बने ।
🔹 जनता पार्टी के पास किसी दिशा , नेतृत्व व एक साझे कार्यक्रम के अभाव में यह सरकार जल्दी ही गिर गई ।
🔹 1980 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस ने 353 सीटें हासिल करके विरोधियों को करारी शिकस्त दी ।
शाह आयोग : –
🔹 आपातकाल की जाँच के लिए जनता पार्टी की सरकार द्वारा मई 1977 में सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश जे . सी . शाह की अध्यक्षता में एक जाँच आयोग की नियुक्ति की गई ।
शाह आयोग द्वारा एकत्र किए गए प्रामाणिक तथ्य : –
- आपातकाल की घोषणा का निर्णय केवल प्रधानमंत्री का था ।
- सामाचार पत्रों के कार्यालयों की बिजली बंद करना पूर्णतः अनुचित था ।
- प्रधानमंत्री के निर्देश पर अनेक विपक्षी राजनीतिक नेताओं की गिरफ्तारी गैर – कानूनी थी ।
- मीसा ( MISA ) का दुरुपयोग किया गया था ।
- कुछ लोगों ने अधिकारिक पद पर न होते हुए भी सरकारी काम – काज में हस्तक्षेप किया था ।
1980 में मध्यावधि चुनाव करवाने के कारण : –
🔹 क्योंकि जनता पार्टी मूलत : इंदिरा गाँधी के मनमाने शासन के विरुद्ध विभिन्न पार्टियों का गठबंधन था इसलिए शीघ्र ही जनता पार्टी बिखर गई और मोरारजी देसाई के नेतृत्व वाली सरकार ने 18 माह में ही अपना बहुमत खो दिया । कांग्रेस पार्टी के समर्थन पर दूसरी सरकार चरण सिंह के नेतृत्व में बनी लेकिन बाद में कांग्रेस पार्टी ने समर्थन वापस लेने का फैसला किया । इस वजह से चरण सिंह की सरकार मात्र चार महीने तक सत्ता में रही । इस प्रकार 1980 में लोकसभा के लिए नए सिरे से चुनाव करवाने पड़े ।
नागरिक स्वतंत्रता संगठनों का उदय : –
🔹 नागरिक स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का उदय अक्टूबर , 1976 में हुआ ।
🔹 इन संगठनों ने न केवल आपातकाल बल्कि सामान्य परिस्थितियों में भी लोगों को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क रहने के लिए कहा है ।
🔹 1980 में नागरिक स्वतंत्रता एवं लोकतांत्रिक अधिकारों के लिए लोगों के संघ का नाम बदलकर ‘ नागरिक स्वतंत्रताओं के लिए लोगों का संघ ‘ रख दिया गया ।
🔹 गरीबी सहभागिता , लोकतन्त्रीकरण तथा निष्पक्षता से सम्बन्धित चिन्ताओं के सन्दर्भ में भारतीय नागरिक स्वतंत्रता संगठनों ( CLOS ) ने अनेक क्षेत्रों में संगठित होकर कार्य करना प्रारम्भ कर दिया है ।
‘ लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान ‘ : –
🔹 देश की लोकतान्त्रिक राजनीति में जनता की बढ़ती सहभागिता को लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान के रूप में इंगित किया जाता है । इस सिद्धांत के आधार पर , समाज विज्ञानी भारत के स्वातंत्र्योत्तर इतिहास में तीन लोकतांन्त्रिक अभ्युत्थानों का वर्णन करते हैं ।
🔶 प्रथम लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान :-
🔹 प्रथम लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान को 1950 के दशक से 1970 के दशक तक चिन्हित किया जा सकता है जो केन्द्र व राज्य दोनों की लोकतान्त्रिक राजनीति में भारतीय वयस्क मतदाताओं की बढ़ती सहभागिता पर आधरिता था ।
🔹 पश्चिम के इस मिथक को मिथ्या सिद्ध करते हुए कि एक सफल लोकतन्त्र आधुनिकीकरण , नगरीकरण , शिक्षा तथा मीडिया पहुँच पर आधरित होता है , संसदीय लोकतंत्र के सिद्धान्त पर लोकसभा तथा राज्यों की विधनसभाओं में चुनावों के सफल आयोजन ने भारत के प्रथम लोकतांत्रिक अभ्युत्थान को सार्थक किया ।
🔶 द्वितीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान : –
🔹 1980 के दशक में समाज के निम्न वर्गों यथा अनुसूचित जाति , अनुसूचित जनजाति तथा अन्य पिछड़ा वर्ग की बढ़ती राजनीतिक सहभागिता को द्वितीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान ‘ के रूप में व्याख्यायित किया गया है ।
🔹 इस सहभागिता ने भारतीय राजनीति को इन वर्गों के लिए अधिक अनुग्राही तथा सुगम बना दिया है । यद्यपि इस अभ्युत्थान ने इन वर्गों , विशेषतः दलितों के जीवन स्तर में कोई व्यापक परिवर्तन नहीं किया है , परन्तु संगठनात्मक तथा राजनीतिक मंचों पर इन वर्गों की सहभागिता ने इनके स्वाभिमान को सुदृढ़ तथा देश की लोकतान्त्रिक राजनीति में इन वर्गों के सशक्तिकरण को सुनिश्चित करने का अवसर प्रदान किया है ।
🔶 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान : –
🔹 1990 के दशक के प्रारम्भ से उदारीकरण , निजीकरण तथा वैश्वीकरण के युग ( LPG – Liberalization , Privatization , Globalization ) को एक प्रतिस्पर्धक बाजार समाज के उद्भव के लिए उत्तरदायी माना जाता है , जिसमें अर्थव्यवस्था , समाज और राजनीति के सभी महत्वपूर्ण क्षेत्रों को सम्मिलित किया जाता है । उदारीकरण का यह दशक ‘ तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान के लिए मार्ग प्रशस्त करता है ।
🔹 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान एक प्रतिस्पर्धी चुनाव राजनीति का प्रतिनिधित्व करता है जो ‘ श्रेष्ठतम की उत्तरजीविता ‘ ( Survival of the Fittest ) के सिद्धान्त पर आधरित ना होकर ‘ योग्यतम की उत्तरजीविता ‘ ( Survival of the Ablest ) पर आधरित होता है ।
🔶 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान का भारतीय चुनावी बाजार में परिवर्तन : –
🔹 यह भारतीय चुनावी बाजार में तीन परिवर्तनों को रेखांकित करता है :
- राज्य से बाजार की ओर ,
- सरकार से शासन की ओर तथा
- नियंत्रक राज्य से सुविधप्रदाता राज्य की ओर । इसके अतिरिक्त
🔹 तृतीय लोकतान्त्रिक अभ्युत्थान ने उस युवा वर्ग की सहभागिता को इंगित किया है जो भारतीय समाज का एक महत्वपूर्ण भाग हैं तथा भारत की समकालीन लोकतान्त्रिक राजनीति में अपनी बढ़ती चुनावी प्राथमिकता की दृष्टि से विकास तथा प्रशासन दोनों के लिए वास्तविक परिवर्तन के रूप में उदित हुआ है ।